अगर हमारे ही दिल मे ठिकाना चाहिए था
अगर हमारे ही दिल मे ठिकाना चाहिए था
तो फिर तुझे ज़रा पहले बताना चाहिए था
चलो हमी सही सारी बुराईयों का सबब
मगर तुझे भी ज़रा सा निभाना चाहिए था
अगर नसीब में तारीकियाँ ही लिक्खीं थीं
तो फिर चराग़ हवा में जलाना चाहिए था
मोहब्बतों को छुपाते हो बुज़दिलों की तरह
ये इश्तिहार गली में लगाना चाहिए था
जहाँ उसूल ख़ता में शुमार होते हों
वहाँ वक़ार नहीं सर बचाना चाहिए था
लगा के बैठ गए दिल को रोग चाहत का
ये उम्र वो थी कि खाना कमाना चाहिए था
अल्फ़ाज नर्म हो गए लहजे बदल गए
अल्फ़ाज नर्म हो गए लहजे बदल गए
लगता है ज़ालिमों के इरादे बदल गए
ये फ़ाएदा ज़रूर हुआ एहतिजाज से
जो ढो रहे थे हम को वो काँधे बदल गए
अब ख़ुशबुओं के नाम पते ढूँडते फिरो
महफ़िल में लड़कियों के दुपट्ट बदल गए
ये सरकशी कहाँ है हमारे ख़मीर में
लगता है अस्पताल में बच्चे बदल गए
कुछ लोग है जो झेल रहे हैं मुसीबतें
कुछ लोग हैं जो वक़्त से पहले बदल गए
मुझ को मिरी पसंद का सामे तो मिल गया
लेकिन ग़ज़ल के सारे हवाले बदल गए
झूठ सच्चाई का हिस्सा हो गया
झूठ सच्चाई का हिस्सा हो गया
इक तरह से ये भी अच्छा हो गया
उस ने इक जादू भरी तक़रीर की
क़ौम का नुक़सान पूरा हो गया
शहर में दो-चार कम्बल बाँट कर
वो समझता है मसीहा हो गया
ये तेरी आवाज़ नम क्यूँ हो गई
ग़म-ज़दा मैं था तुझे क्या हो गया
बे-वफाई आ गई चौपाल तक
गाँव लेकिन शहर जैसा हो गया
सच बहुत सजता था मेरी ज़ात पर
आज ये कपड़ा भी छोटा हो गया
खाने को तो ज़हर भी खाया जा सकता है
खाने को तो ज़हर भी खाया जा सकता है
लेकिन उस को फिर समझाया जा सकता है
इस दुनिया में हम जैसे भी रह सकते हैं
इस दलदल पर पाँव जमाया जा सकता है
सब से पहले दिल के ख़ाली-पन को भरना
पैसा सारी उम्र कमाया जा सकता है
मैं ने कैसे कैसे सदमे झेल लिए हैं
इस का मतलब ज़हर पचाया जा सकता है
इतना इत्मिनान है अब भी उन आँखों में
एक बहाना और बनाया जा सकता है
झूठ में शक की कम गुंजाइश हो सकती है
सच को जब चाहो झुठलाया जा सकता है
कोई भी दार से ज़िंदा नहीं उतरता है
कोई भी दार से ज़िंदा नहीं उतरता है
मगर जुनून हमारा नहीं उतरता है
तबाह कर दिया अहबाब को सियासत ने
मगर मकान से झण्डा नहीं उतरता है
मैं अपने दिल के उजड़ने की बात किस से कहूँ
कोई मिज़ाज पे पूरा नहीं उतरता है
कभी क़मीज के आधे बटन लगाते थे
और अब बदन से लबादा नहीं उतरता है
मुसालेहत के बहुत रास्ते हैं दुनिया में
मगर सलीब से ईसा नहीं उतरता है
जुआरियों का मुक़द्दर ख़राब है शायद
जो चाहिए वही पत्ता नहीं उतरता है
रिश्तों के दलदल से कैसे निकलेंगे
रिश्तों के दलदल से कैसे निकलेंगे
हर साज़िश के पीछे अपने निकलेंगे
चाँद सितारे गोद में आ कर बैठ गए
सोचा ये था पहली बस से निकलेंगे
सब उम्मीदों के पीछे मायूसी है
तोड़ो ये बदाम भी कड़वे निकलेंगे
मैं ने रिश्ते ताक़ पे रख कर पूछ लिया
इक छत पर कितने परनाले निकलेंगे
जाने कब ये दौड़ थमेगी साँसों की
जाने कब पैरों से जूते निकलेंगे
हर कोने से तेरी ख़ुशबू आएगी
हर संदूक में तेरे कपड़े निकलेंगे
अपने ख़ून से इतनी तो उम्मीदें है
अपने बच्चे भीड़ से आगे निकलेंगे
सारे भूले बिसरों की याद आती है
सारे भूले बिसरों की याद आती है
एक ग़ज़ल सब ज़ख्म हरे कर जाती है
पा लेने की ख़्वाहिश से मोहतात रहो
महरूमी की बीमारी लग जाती है
ग़म के पीछे मारे मारे फिरना क्या
ये दौलत तो घर बैठे आ जाती है
दिन के सब हंगामे रखना ज़ेहनों में
रात बहुत सन्नाटे ले कर आती है
दामन तो भर जाते हैं अय्यारी से
दस्तर-ख़्वानों से बरकत उठ जाती है
रात गए तक चलती है टीवी पर फ़िल्म
रोज़ नमाज़-ए-फज्र क़ज़ा हो जाती है
सफ़र से लौट जाना चाहता है
सफ़र से लौट जाना चाहता है
परिंदा आशियाना चाहता है
कोई स्कूल की घंटी बजा दे
ये बच्चा मुस्कुराना चाहता है
उसे रिश्ते थमा देती है दुनिया
जो दो पैसे कमाना चाहता है
यहाँ साँसों के लाले पड़ रहे हैं
वो पागल ज़हर खाना चाहता है
जिसे भी डूबना हो डूब जाए
समंदर सूख जाना चाहता है
हमारा हक़ रक्खा है जिस ने
सुना है हज को जाना चाहता है
उल्टे सीधे सपने पाले बैठे हैं
उल्टे सीधे सपने पाले बैठे हैं
सब पानी में काँटा डाले बैठे हैं
इक बीमार वसीयत करने वाला है
रिश्ते नाते जीभ निकाल बैठे हैं
बस्ती का मामूल पे आना मुश्किल है
चौराहे पर वर्दी वाले बैठे हैं
धागे पर लटकी है इज़्ज़त लोगों की
सब अपनी दस्तार सँभाले बैठे हैं
साहब-ज़ादा पिछली रात से ग़ायब है
घर के अंदर रिश्ते वाले बैठे हैं
आज शिकारी की झोली भर जाएगी
आज परिंदे गर्दन डाले बैठे हैं