सुब्ह का अफ़साना कहकर शाम से
सुब्ह का अफ़साना कहकर शाम से
खेलता हूं गर्दिशे-आय्याम[1]से
उनकी याद उनकी तमन्ना, उनका ग़म
कट रही है ज़िन्दगी आराम से
इश्क़ में आएंगी वो भी साअ़तें[2]
काम निकलेगा दिले-नाकाम से
लाख मैं दीवाना-ओ-रूसवा सही
फिर भी इक निस्बत[3] है तेरे नाम से
सुबहे-गुलशन[4] देखिए क्या गुल खिलाए
कुछ हवा बदली हुई है शाम से
हाय मेरा मातमे-तश्नालबी[5]
शीशा[6] मिलकर रो रहा है जाम से
हर नफ़स[7] महसूस होता है ‘शकील’
आ रहे हैं नामा-ओ-पैग़ाम[8] से
ग़मे-आशिक़ी से कह दो
ग़मे-आशिक़ी से कह दो रहे–आम तक न पहुँचे,
मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत मेरे नाम तक न पहुँचे।
मैं नज़र से पी रहा था कि ये दिल ने बददुआ दी
तेरा हाथ ज़िंदगी-भर कभी जाम तक न पहुँचे।
नयी सुबह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है,
ये सहर भी रफ़्ता-रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे।
ये अदा-ए-बेनियाज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारिक,
मगर ऐसी बेरुख़ी क्या कि सलाम तक न पहुँचे।
जो निक़ाबे-रुख उठी दी तो ये क़ैद भी लगा दी,
उठे हर निगाह लेकिन कोई बाम तक न पहुँचे।
कैसे कह दूँ कि मुलाकात नहीं होती है
कैसे कह दूँ कि मुलाकात नहीं होती है
रोज़ मिलते हैं मगर बात नहीं होती है
आप लिल्लाह न देखा करें आईना कभी
दिल का आ जाना बड़ी बात नहीं होती है
छुप के रोता हूँ तेरी याद में दुनिया भर से
कब मेरी आँख से बरसात नहीं होती है
हाल-ए-दिल पूछने वाले तेरी दुनिया में कभी
दिन तो होता है मगर रात नहीं होती है
जब भी मिलते हैं तो कहते हैं कैसे हो “शकील”
इस से आगे तो कोई बात नहीं होती है
शायद आगा़ज़ हुआ फिर किसी अफ़साने का
शायद आग़ाज़ हुआ फिर किसी अफ़साने का
हुक्म आदम को है जन्नत से निकल जाने का
उन से कुछ कह तो रहा हूँ मगर अल्लाह न करे
वो भी मफ़हूम न समझे मेरे अफ़साने का
देखना देखना ये हज़रत-ए-वाइज़ ही न हों
रास्ता पूछ रहा है कोई मैख़ाने का
बेताल्लुक़ तेरे आगे से गुज़र जाता हूँ
ये भी एक हुस्न-ए-तलब है तेरे दीवाने का
हश्र तक गर्मी-ए-हंगामा-ए-हस्ती है “शकील”
सिलसिला ख़त्म न होगा मेरे अफ़साने का
जीने वाले कज़ा से डरते हैं
जीने वाले क़ज़ा से डरते हैं
ज़हर पीकर दवा से डरते हैं
ज़ाहिदों को किसी का ख़ौफ़ नहीं
सिर्फ़ काली घटा से डरते हैं
आह जो कुछ कहे हमें मंज़ूर
नेक बंदे ख़ुदा से डरते हैं
दुश्मनों के सितम का ख़ौफ़ नहीं
दोस्तों की वफ़ा से डरते हैं
अज़्म-ओ-हिम्मत के बावजूद “शकील”
इश्क़ की इब्तदा से डरते हैं
हंगामा-ऐ-ग़म से तंग आकर
हंगामा-ऐ-ग़म से तंग आकर, इज़हार-ऐ-मुहब्बत कर बैठे
मश़हूर थी अपनी ज़िदादिली, दानिश्ता शरारत कर बैठे।
कोशिश तो बहुत की हमने मग़र, पाया न ग़म-ए-हस्ती का मफ़र
वीरानी-ए-दिल जब हद से बड़ी, घबरा के मुहब्बत कर बैठे।
नज़रों से न करते पुरसिश-ए-ग़म, ख़ामोश ही रहना बेहतर था
दीवानों को तुमने छेड़ दिया, वल्लाह कयामत कर बैठे।
हर चीज़ नहीं इक मरकज़ पर, इक रोज़ इधर इक रोज़ उधर
नफरत से न देशो दुश्मन को, शायद ये मुहब्बत कर बैठे।
ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया
ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया
यूँ तो हर शाम उम्मीदों में गुज़र जाती थी
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया
कभी तक़्दीर का मातम कभी दुनिया का गिला
मंज़िल-ए-इश्क़ में हर गाम पे रोना आया
जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का ‘शकील’
मुझ को अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया
मेरे हम-नफ़स, मेरे हम-नवा, मुझे दोस्त बनके दग़ा न दे
मेरे हम-नफ़स, मेरे हम-नवा, मुझे दोस्त बनके दग़ा न दे
मैं हूँ दर्द-ए-इश्क़ से जाँवलब, मुझे ज़िन्दगी की दुआ न दे
मेरे दाग़-ए-दिल से है रौशनी, उसी रौशनी से है ज़िन्दगी
मुझे डर है अये मेरे चारागर, ये चराग़ तू ही बुझा न दे
मुझे छोड़ दे मेरे हाल पर, तेरा क्या भरोसा है चारागर
ये तेरी नवाज़िश-ए-मुख़्तसर, मेरा दर्द और बढ़ा न दे
मेरा अज़्म इतना बलंद है के पराये शोलों का डर नहीं
मुझे ख़ौफ़ आतिश-ए-गुल से है, ये कहीं चमन को जला न दे
वो उठे हैं लेके होम-ओ-सुबू, अरे ओ ‘शकील’ कहाँ है तू
तेरा जाम लेने को बज़्म में कोई और हाथ बढ़ा न दे
ज़िन्दगी का दर्द लेकर इन्क़लाब आया तो क्या
ज़िन्दगी का दर्द लेकर इन्क़लाब आया तो क्या
एक जोशीदा पे ग़ुर्बत में शबाब आया तो क्या
अब तो आँखों पर ग़म-ए-हस्ती के पर्दे पड़ गए
अब कोई हुस्न-ए-मुजस्सिम बेनक़ाब आया तो क्या
ख़ुद चले आते तो शायद बात बन जाती कोई
बाद तर्क-ए-आशिक़ी ख़त का जवाब आया तो क्या
मुद्दतों बिछड़े रहे फिर भी गले तो मिल लिए
हम को शर्म आई तो क्या उनको हिजाब आया तो क्या
एक तजल्ली से मुनव्वर कीजिए क़त्ल-ए-हयात
हर तजल्ली पर दिल-ए-ख़ानाख़राब आया तो क्या
मतला-ए-हस्ती की साज़िश देखते हम भी ‘शकील’
हम को जब नींद आ गई फिर माहताब आया तो क्या
ख़ुश हूँ कि मेरा हुस्न-ए-तलब काम तो आया
ख़ुश हूँ कि मेरा हुस्न-ए-तलब काम तो आया
ख़ाली ही सही मेरी तरफ़ जाम तो आया
काफ़ी है मेरे दिल कि तसल्ली को यही बात
आप आ न सके आप का पैग़ाम तो आया
अपनों ने नज़र फेरी तो दिल ने तो दिया साथ
दुनिया में कोई दोस्त मेरे काम तो आया
वो सुबह का एहसास हो याँ मेरी कशिश हो
डूबा हुआ ख़ुर्शीद सर-ए-बाम तो आया
लोग उन से ये कहते हैं कि कितने हैं “शकील” आप
इस हुस्न के सदक़े में मेरा नाम तो आया
दूर है मंजिल राहें मुश्किल आलम है तनहाई का
दूर है मंजिल राहें मुश्किल आलम है तनहाई का
आज मुझे एहसास हुआ है अपनी शिकस्तापाई का
देख के मुझ को दुनिया वाले कहने लगे हैं दीवाना
आज वहाँ है इश्क़ जहाँ कुछ ख़ौफ़ नहीं रुसवाई का
छोड़ दें रस्म-ए-ख़ुदनिगरी को तोड़ दें अपना ईमाँ
ख़त्म किये देता है ज़ालिम रूप तेरी अंगड़ाई का
मैं ने ज़िया हुस्न को बख़्शी उस का तो कोई ज़िक्र नहीं
लेकिन घर घर में चर्चा है आज तेरी रानाई का
अहल-ए-हवस अब घबराते हैं डूब के बेहर-ए-ग़म में “शकील”
पहले न था बेचारों को अंदाज़ा गहराई का
मेरी ज़िन्दगी है ज़ालिम, तेरे ग़म से आश्कारा
मेरी ज़िन्दगी है ज़ालिम, तेरे ग़म से आश्कारा
तेरा ग़म है दर-हक़ीक़त मुझे ज़िन्दगी से प्यारा
वो अगर बुरा न माने तो जहाँ-ए-रंग-ओ-बू में
मैं सुकून-ए-दिल की ख़ातिर कोई ढूँढ लूँ सहारा
ये फ़ुलक फ़ुलक हवायेँ ये झुकी झुकी घटायेँ
वो नज़र भी क्या नज़र है जो समझ न ले इशारा
मुझे आ गया यक़ीं सा यही है मेरी मंज़िल
सर-ए-रह जब किसी ने मुझे दफ़्फ़’अतन पुकारा
मैं बताऊँ फ़र्क़ नासिह, जो है मुझ में और तुझ में
मेरी ज़िन्दगी तलातुम, तेरी ज़िन्दगी किनारा
मुझे गुफ़्तगू से बढ़कर ग़म-ए-इज़्न-ए-गुफ़्तगू है
वही बात पूछ्ते हैं जो न कह सकूँ दोबारा
कोई अये ‘शकील’ देखे, ये जुनूँ नहीं तो क्या है
के उसी के हो गये हम जो न हो सका हमारा
शिकवा-ए-इज़तराब कौन करे
हंगामा-ए-ग़म से तंग आकर इज़्हार-ए-मुसर्रत कर बैठे
मशहूर थी अपनी ज़िंदादिली दानिस्ता शरारत कर बैठे
कोशिश तो बहोत की हमने मगर पाया न ग़म-ए-हस्ती का मफ़र
वीरानी-ए-दिल जब हद से बड़ी घबरा के मोहब्बत कर बैठे
नज़रों से न करते पुर्सिश-ए-ग़म ख़ामोश ही रहना बहतर था
दीवानो को तुमने छेड़ दिया वल्लाह क़यामत कर् बैठे
हर चीज़ नहीं एक मर्कज़ पर एक रोज़ इधर इक रोज़ उधर
नफ़रत से न देखो दुश्मन को शायद ये मोहब्बत कर बैठे
तुम ने ये क्या सितम किया ज़ब्त से काम ले लिया
ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो राह-ए-आम तक न पहुँचे
मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत मेरे नाम तक न पहुँचे
मैं नज़र से पी रहा था तो ये दिल ने बद-दुआ दी
तेरा हाथ ज़िन्दगी भर कभी जाम तक न पहुँचे
नई सुबह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे
वो नवा-ए-मुज़महिल क्या न हो जिस में दिल की धड़कन
वो सदा-ए-अहले-दिल क्या जो अवाम तक न पहुँचे
उन्हें अपने दिल की ख़बरें मेरे दिल से मिल रही हैं
मैं जो उनसे रूठ जाऊँ तो पयाम तक न पहुँचे
ये अदा-ए-बेनिआज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक
मगर ऐसी बेरुख़ी क्या के सलाम तक न पहुँचे
जो नक़ाब-ए-रुख़ उठा दी तो ये क़ैद भी लगा दी
उठे हर निगाह लेकिन कोई बाम तक न पहुँचे
वही इक ख़मोश नग़्मा है “शकील” जान-ए-हस्ती
जो ज़ुबाँ तक न आये जो क़लाम तक न पहुँचे
ये ऐश-ओ-तरब के मतवाले बेकार की बातें करते हैं
ये ऐश-ओ-तरब के मतवाले बेकार की बातें करते हैं
पायल के ग़मों का इल्म नहीं झंकार की बातें करते हैं
नाहक है हवस के बंदों को नज़्ज़ारा-ए-फ़ितरत का दावा
आँखों में नहीं है बेताबी दीदार की बातें करते हैं
कहते हैं उन्हीं को दुश्मन्-ए-दिल नाम उन्हीं का नासेह भी
वो लोग जो रह कर साहिल पर मझधार की बातें करते हैं
पहुँचे हैं जो अपनी मंज़िल पर उन को तो नहीं कुछ नाज़-ए-सफ़र
चलने का जिन्हें मक़दूर नहीं रफ़्तार की बातें करते हैं
बस इक निगाह-ए-करम है काफ़ी
बस इक निगाह-ए-करम है काफ़ी
अगर उन्हें पेश-ओ-पस नहीं है
ज़ाहे तमन्ना की मेरी फ़ितरत
असीर-ए-हिर्स-ओ-हवस नहीं है
नज़र से सय्याद दूर हो जा यहाँ
तेरा मुझ पे बस नहीं है
चमन को बर्बाद करनेवाले
ये आशियाँ है क़फ़स नहीं है
किसी के जल्वे तड़प्रहे हैं
हुदूद-ए-होश-ओ-ख़िरद के आगे
हुदूद-ए-होश-ओ-ख़िरद के आगे
निगाह के दस्तरस नहीं है
जहाँ की नयरन्गीयों से यक्सर
बदल गई आशियाँ की सूरत
क़फ़स समझती हैं जिन को नज़रें
वो दर-हक़ीक़त क़फ़स नहीं है
कहाँ के नाले कहाँ की आहें
जमी हैं उन की तरफ़ निगाहें
कुछ इस क़दर महव-ए-याद हूँ मैं
कि फ़ुर्सत-ए-यक-नफ़स नहीं है
तसव्वुर-ए-इश्रत-ए-गुज़िश्ता का
हुस्न्-ए-तासीर अल्लाह अल्लाह
वही फ़ज़ायेँ वही हवायेँ
चमन से कुछ कम क़फ़स नहीं है
किसी के बे’एतनाइयों ने
बदल ही डाला निज़ाम-ए-गुलशन
जो बात पहले बहार में थी
वो बात अब के बरस नहीं है
ये बू-ए-सुम्बुल, ये ख़ांदा गुल और
आह! ये दर्द भरी सदायेँ
क़फ़स के अंदर चमन हो शायद
चमन के अंदर क़फ़स नहीं है
न होश-ए-ख़िल्वत न फ़िक्र-ए-महफ़िल
अयाँ हो अब किस पे हालात-ए-दिल
मैं आप ही अपना हम-नफ़स हूँ
मेरा कोई हम-नफ़स नहीं है
करें भी क्या शिकवा-ए-ज़माना
कहें भी क्या दर्द का फ़साना
जहाँ में हैं लाख दुश्मन-ए-जाँ
कोई मसीहा नफ़स नहीं है
सुनी है अहल-ए-जुनूँ ने अक्सर
ख़ामोशी-ए-मर्ग् की सदायेँ
सुना ये था कारवान-ए-हस्ती
रहीन-ए-बांग-ए-जरस नहीं है
चमन की आज़ादियाँ मुअख़ख़र
तसव्वुर-ए-आशियाँ मुक़द्दम
ग़म-ए-असीरी है ना-मुकम्मल
अगर ग़म-ए-ख़ार-ओ-ख़स नहीं है
न कर मुझे शर्म्सार नासेह
मैं दिल से मजबूर हूँ कि जिस का
है यूँ तो कौन-ओ-मकाँ पे क़ाबू
मगर मुहब्बत पे बस नहीं है
कहाँ वो उम्मीद आमद आमद
कहाँ ये ईफ़ाए अहद-ए-फ़र्दा
जब ऐतबार-ए-नज़र न था कुछ
अब ऐतबार-ए-नफ़स नहीं है
वहीं हैं नग़्में वही है नाले
सुन ऐ मुझे भूल जाने वाले
तेरी सम’अत से दूर हूँ मैं
जभी तो नालों में रस नहीं है
“शकील” दुनिया में जिस को देखा
कुछ उस की दुनिया ही और देखी
हज़ार नक़्क़ाद-ए-ज़िन्दगी हैं मगर
कोई नुक्तारस नहीं है
आँख से आँख मिलाता है कोई
आँख से आँख मिलाता है कोई
दिल को खीँचे लिये जाता है कोई
वा-ए-हैरत के भरी महफ़िल में
मुझ को तन्हा नज़र आता है कोई
चाहिये ख़ुद पे यक़ीन-ए-कामिल
हौसला किस का बढ़ाता है कोई
सब करिश्मात-ए-तसव्वुर है “शकील”
वरना आता है न जाता है कोई
रूह को तड़पा रही है उन की याद
रूह को तड़पा रही है उन की याद
दर्द बन कर छा रही है उन की याद
इश्क़ से घबरा रही है उन की याद
रुकते-रुकते आ रही है उन की याद
वो हँसे वो ज़ेर-ए-लब कुछ कह उठे
ख़्वाब से दिखला रही है उन की याद
मैं तो ख़ुद्दारी का क़ाइल हूँ मगर
क्या करूँ फिर आ रही है उन की याद
अब ख़्याल-ए-तर्क-ए-रब्त ज़ब्त ही से है
ख़ुद ब ख़ुद शर्मा रही है उन की याद
ज़मीं पे फ़स्ल-ए-गुल आई फ़लक पर माहताब आया
ज़मीं पे फ़स्ल-ए-गुल आई फ़लक पर माहताब आया
सभी आए मगर कोई न शायान-ए-शबाब आया
मेरा ख़त पढ़ के बोले नामाबर से जा ख़ुदा-हाफ़िज़
जवाब आया मेरी क़िस्मत से लेकिन लाजवाब आया
उजाले गर्मी-ए-रफ़्तार् का ही साथ देते हैं
बसेरा था जहाँ अपना वहीं तक आफ़्ताब आया
“शकील” अपने मज़ाक़-ए-दीद की तकमील क्या होती
इधर नज़रों ने हिम्मत की उधर रुख़ पर नक़ाब आया
तम्हीद-ए-सितम और है तकमील-ए-जफ़ा और
तम्हीद-ए-सितम और है तकमील-ए-जफ़ा और
चखने का मज़ा और है पीने का मज़ा और
तासीर तो तासीर तसव्वुर है गुरेज़ाँ
रातों को ज़रा माँगिये उठ उठ के दुआ और
दोनों ही बिना-ए-कशिश-ओ-जज़्ब हैं लेकिन
नग़्मों की सदा और है नालों की सदा और
टकरा के वहीं टूट गये शीशा-ओ-साग़र
मैख़्वारों के झुर्मुट में जो साक़ी ने कहा और
वो ख़ुद नज़र आते हैं जफ़ाओं पे पशेमाँ
क्या चाहिये और तुम को “शकील” इस के सिवा और
बना बना के तमन्ना मिटाई जाती है
बना बना के तमन्ना मिटाई जाती है
तरह तरह से वफ़ा आज़माई जाती है
जब उन को मेरी मुहब्बत का ऐतबार नहीं
तो झुका झुका के नज़र क्यों मिलाई जाती है
हमारे दिल का पता वो हमें नहीं देते
हमारी चीज़ हमीं से छुपाई जाती है
‘शकील’ दूरी-ए-मंज़िल से ना-उम्मीद न हो
मंजिल अब आ ही जाती है अब आ ही जाती है
उन से उम्मीद-ए-रूनुमाई है
उन से उम्मीद-ए-रूनुमाई है
क्या निगाहों की मौत आई है
दिल ने ग़म से शिकस्त खाई है
उम्र-ए-रफ़्ता तेरी दुहाई है
दिल की बर्बादियों पे नाज़ाँ हूँ
फ़तह पाकर शिकस्त खाई है
मेरे माअबद् नहीं है दैर-ओ-हरम
एहतियातन जबीं झुकाई है
वो हवा दे रहे हैं दामन की
हाये किस वक़्त नींद आई है
खुल गया उन की आरज़ू में ये राज़
ज़ीस्त अपनी नहीं पराई है
दूर हो ग़ुन्चे मेरी नज़र से
तू ने मेरी हँसी चुराई है
गुल फ़सुर्दा चमन् उदास ‘शकील’
यूँ भी अक्सर बहार आई है
कोई आरज़ू नहीं है, कोई मु़द्दा नहीं है
कोई आरज़ू नहीं है, कोई मु़द्दा नहीं है,
तेरा ग़म रहे सलामत, मेरे दिल में क्या नहीं है।
कहां जाम-ए-ग़म की तल्ख़ी, कहाँ ज़िन्दगी का रोना,
मुझे वो दवा मिली है, जो निरी दवा नहीं है।
तू बचाए लाख दामन, मेरा फिर भी है ये दावा,
तेरे दिल में मैं ही मैं हूँ, कोई दूसरा नहीं है।
तुम्हें कह दिया सितमगर, ये कुसूर था ज़बां का,
मुझे तुम मुआफ़ कर दो, मेरा दिल बुरा नहीं है।
मुझे दोस्त कहने वाले, ज़रा दोस्ती निभा ले,
ये मुतालबा[1] है हक़ का, कोई इल्तिजा[2] नहीं है।
ये उदास-उदास चेहरे, ये हसीं-हसीं तबस्सुम,
तेरी अंजुमन में शायद, कोई आईना नहीं है।
मेरी आंख ने तुझे भी, बाख़ुदा ‘शकील’ पाया,
मैं समझ रहा था मुझसा, कोई दूसरा नहीं है।
क्या क़शिश हुस्ने-रोज़गार में है
क्या क़शिश[1] हुस्ने-रोज़गार में[2] है
ग़म भी डूबा हुआ बहार में है
जब से खाए हैं उस नज़र के फ़रेब
मेरा दिल मेरे इख़्तियार में है
दिल की धड़कन ये दे रही है सदा[3]
जा कोई तेरे इन्तिज़ार में है
हो परीशाँ हिजाबे-ग़म से[4] न दिल
कारवां पर्दा-ए-ग़ुबार में[5] है
नाला-ए-नीम शब को[6] को ग़ौर से सुन
एक नग़्मा भी इस पुकार में है
खोल दे बाबे-मयकदा[7] साक़ी
इक फ़रिश्ता भी इन्तिज़ार में है
महवे-गर्दि[8] है कायनात[9] शकील
मेरी तक़दीर किस शुमार[10] में है
आँखों से दूर, सुबह के तारे चले गए
आंखों से दूर सुब्ह के तारे चले गए: नींद आ गई तो ग़म के नज़ारे चले गए:
दिल था किसी की याद में मसरूफ़ और हम: शीशे में ज़िन्दगी को उतारे चले गए:
अल्लाह रे बेखुदी कि हम उनके रू-ब-रू: बे-अख़्तियार उनको पुकारे चले गए:
मुश्किल था कुछ तो इश्क़ की बाज़ी का जीतना: कुछ जीतने के ख़ौफ़ से हारे चले गए:
नाकामी-ए-हयात का करते भी क्या गिला: दो दिन गुज़ारना थे, गुज़ारे चले गए:
जल्वे कहां जो ज़ौके़-तमाशा नहीं ‘शकील’: नज़रें चली गईं तो नज़ारे चले गए
फ़िल्मों के लिए लिखे गीत
इन्साफ़ की डगर पे, बच्चो दिखाओ चल के
इन्साफ़ की डगर पे, बच्चो दिखाओ चल के
यह देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के
दुनिया के रंज सहना और कुछ न मुँह से कहना
सच्चाईयों के बल पे, आगे को बढ़ते रहना
रख दोगे एक दिन तुम, संसार को बदल के
अपने हों या पराए, सब के लिए हो न्याय
देखो क़दम तुम्हारा, हरगिज़ न डगमगाए
रस्ते बड़े कठिन हैं, चलना सँभल-सँभल के
इन्सानियत के सर पे, इज़्ज़त का ताज रखना
तन-मन की भेंट देकर , भारत की लाज रखना
जीवन नया मिलेगा, अंतिम चिता में जल के
बदले बदले मेरे सरकर नज़र आते हैं
बदले बदले मेरे सरकर नज़र आते हैं ।
घर की बरबादी के आसार नज़र आते हैं ।
मेरे मालिक ने मुहब्बत का चलन छोड़ दिया
कर के बरबाद उम्मीदों का चमन छोड़ दिया
फूल भी अब तो ख़ार नज़र आते हैं
घर की बरबादी के ।
डूबे रहते थे मेरे प्यार में जो शाम-ओ-सहर
मेरे चेहरे से नहीं हटती थी कभी जिनकी नज़र
मेरी सूरत से ही बेज़ार नज़र आते हैं
घर की बरबादी के ।