सतरंगे पोस्टर
चिपका दिए हैं हमने
दुनिया के बाज़ार में
कि
हम आज़ाद हैं ।

हम चीख़ रहे हैं
चौराहों पर
हम आज़ाद हैं
हम आज़ाद हैं
क्योंकि हमने भूख से मरते
कर्ज़ के नीचे तड़पते
देशी हड़प नीति के वातावरण में
एक-एक श्वास को तरसते
अपने भाई को देखा है ।

अतः वस्त्रहीन स्वतन्त्रता को
धुली कमीज़ पहनाकर
हम प्रसन्न हैं ।
पर हम
नहीं देख पाए
कॉलर के नीचे जमा मैल
जो शनैः शनैः
खा रहा है कॉलर को
और जब अधिकांश खा जाएगा
भद्दी दिखेगी हमारी स्वतन्त्रता
और तब हम दौड़ पड़ेंगे
दर्ज़ी के पास
जो नई लगाने के बहाने
काट कर फेंक देगा पूरी
और मुकर जाएगा नई लगाने से
क्योंकि वह देख चुका है
पिछली नई का इतिहास
तड़प चुका है
उमसभरी स्वार्थ की दोपहरी में
भटक चुका है
झूठे वादों के रेगिस्तान में

अतः मात्र
इतिहास के पृष्ठ की लकीर
और पत्थर की प्रतिमा
की क़ीमत में
अब कोई गोद सूनी नहीं होगी

स्वतन्त्रता
कितनी प्यारी चीज़ है
मलाई की कटोरी की तरह
पर उसे घूर रही हैं
बगल में बैठी दुश्मन बिल्लियाँ
जिन्हें सिर्फ़
बन्दूकें नहीं मार सकतीं

घर में एक
मज़बूत प्यार का फन्दा भी चाहिए
जिसके अभाव में
हमारी आँखों के सामने
लुढ़क जाएगी मलाई की कटोरी
फाड़ देगी दुनिया
सारे रंगीन पोस्टर
और हम
सिर्फ़ सिर धुनेंगे
हमें पड़ेंगे पाग़लपन के दौरे
और आज ही की तरह
उस दिन भी हम चिल्लाएँगे
हम आज़ाद हैं
हम आज़ाद हैं
हम आज़ाद हैं

(शरद बिल्लौरे की यह कविता ’रीजनल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, भोपाल की वार्षिक पत्रिका ’प्रज्ञा’ में सन् 1974 में प्रकाशित हुई थी।
इस पत्रिका के सम्पादक थे लीलाधर मण्डलोई। कविता कोश को यह दुर्लभ कविता कवि शरद कोकास के सौजन्य से प्राप्त हुई)

पहाड़

आगे देखता हूँ,
पीछे देखता हूँ।

दाएँ देखता हूँ,
बांएँ देखता हूँ।

ऊपर देखता हूँ,
नीचे देखता हूँ।

तुम ही तुम हो,

पहाड़,
तुम ही तुम हो।

विलक्षण कवि शरद बिलौरे

(राजेश जोशी) 

शरद बिलौरे:
जन्म १९ अक्तूबर १९५५ रहटगाँव, ज़िला होशंगाबाद में। वहीं सरकारी स्कूल में
प्रारम्भिक शिक्षा। भोपाल के क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय से स्नातक। १९७५-७६
में भोपाल विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम०ए०। तपेदिक के कारण कुछ
समय भोपाल के टी०बी० अस्पताल में भरती रहे। कई निजी और स्वायत्तशासी
संस्थाओं में अध्यापक और क्लर्क के रूप में कार्य किया। १९७९ में अध्यापक के
पद पर अरूणांचल प्रदेश में नियुक्ति। गाँव लौटते हुए ‘लू’लगने के कारण ३ मई
१९८० को कटनी अस्पताल में मृत्यु।

शरद बिल्लौरे आठवें दशक के उत्तरार्ध का सबसे अधिक संभावनाओं से भरा कवि था।
हर जगह उसमें लोगों से अपनापा बना लेने का विलक्षण गुण था। उसकी कविता की
आत्मीयता वस्तुतः उसके व्यक्तित्व का ही कविता में रूपान्तरण है। गाँव के अपने
निजी अनुभवों को कविता में रूपान्तरित करते हुए १९७४-७५ के आसपास उसने
कविता लिखना शुरू किया था। उसकी प्रारम्भिक कविताओं में भी एक सहज और
स्वयंस्फूर्त वर्ग-चेतना थी, जिसका विकास आगे चलकर एक प्रतिबद्ध कविता में हुआ।

उसकी कविता गहरे और सघन लयात्मक संवेदन की कविता है। जीवन की भटकन और
कठिन संघर्षों को रचनात्मक कौशल और व्यस्क होती स्पष्ट वैचारिक दृष्टि के साथ कविता
और कविता की विविधता में बदलती कविता। लोक-विश्वासों और लोक-मुहावरों को नए
सन्दर्भ में व्याख्यायित करती। तीव्र आवेग और खिलंदड़ेपन के साथ ही गहरी आत्मीयता
और सामाजिक विसंगतियों से उपजे विक्षोभ और करुणा की कविता।

उसकी कविता अभी प्रक्रिया में थी, अपनी पहचान और अपने मुहावरे को अर्जित करने की
प्रक्रिया में, लेकिन एक महत्त्वपूर्ण कविता की पूरी सम्भावनाएँ उसमें मौज़ूद थीं।

उसकी सौ से अधिक कविताओं में से चुनी हुई चवालिस कविताएँ इस संग्रह में ली गई हैं।
इसके अतिरिक्त एक नाटक “अमरू का कुर्ता” भी उसने लिखा था जिसे अन्तिम स्वरूप देने
का अवसर उसे नहीं मिला।
–राजेश जोशी

भाषा

पृथ्वी के अंदर के सार में से
फूट कर निकलती हुई
एक भाषा है बीज के अँकुराने की।

तिनके बटोर-बटोर कर
टहनियों के बीच
घोंसला बुने जाने की भी एक भाषा है।

तुम्हारे पास और भी बहुत-सी भाषाएँ हैं,
अण्डे सेने की
आकाश में उड़ जाने की
खेत से चोंच भर लाने की।

तुम्हारे पास
कोख में कविता को गरमाने की भाषा भी है
तुम बीज की भाषा बोलीं
मैं उग आया
तुमने घोंसले की भाषा में कुछ कहा
और मैं वृक्ष हो गया।
तुम अण्डे सेने की भाषा में गुनगुनाती रहीं
और मैं आकार ग्रहण करता रहा।

तुम्हारे आकाश में उड़ते ही
मैं खेत हो गया।
तुमने चोंच भरी होने का गीत गाया
और मैं नन्हीं चोंच खोले
घोंसले में चिंचियाने लगा।
तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा कि मैं
तुम्हारी कोख में गरमाती
कविता में भाषा बोल रहा हूँ।

तब एक कविता लिखी गई होगी 

तब
रात्रि के देवता ने करवट ली होगी
और आसमान में
एक साथ हिनहिनाए होंगे
चाँदी के घोड़े

तब
एक बैल शरीर झटक कर खड़ा हो गया होगा
और एक ने
सिर्फ़ हवा को सूँघ कर ही
गरदन नीची कर दी होगी
तब एक चूल्हा धुंधुआया होगा
और एक लकड़ी
मुँह बिदकाए बिना गुटक गई होगी
लोहे का कसैला स्वाद

तब
एक बीज ज़मीन के भीतर तक गया होगा
और एक सपना अँकुराया होगा
नींद से एकदम बाहर

तब एक आदमी ने आकाश की तरफ़ देखा होगा
और एक औरत
धरती में छुपा आई होगी
अपने बालों का मैल

तब
एक कविता लिखी गई होगी
एक कौआ उड़ा होगा
और एक गाय की पीली दाढ़ में
भर गया होगा
नरम घास का रस।

धरती 

दो बरस की नीलू
आसमान तकती है
पापा से कहती है
पापा मुझे आसमान चाहिए।

पापा ने कभी आसमान जैसी चीज़
अपने बाप से नहीं माँगी
एक बार तारे ज़रूर मांगे थे।

पापा डरे हुए हैं सोचते हैं
मैं धरती पर खेल कर बड़ा हुआ
क्या नीलू आसमान ताककर बड़ी होगी
और यह
कि मैंने अपने बाप से और
नीलू ने मुझसे
धरती क्यों नहीं माँगी

क्या सचमुच धरती
बच्चों के खेलने की चीज़ नहीं !

मनु का आसमान 

कितना निर्मल है
मनु का दो बरस का आसमान
और कितने बड़े-बड़े अक्षरों में
लिखा है मेरा नाम
मनु के दो बरस के आसमान में
कि जब मैं पढ़ रहा होता हूँ
आसमान की सम्पूर्णता में
सिर्फ़ मेरा ही नाम होता है

जब नीलू पढ़ती है
नीलू का नाम
भाभी पढ़ती है
भाभी का नाम
कितना जादुई है मनु का आसमान

कल हम मनु के आसमान के लिए
वर्णमालाओं के बादल लाएंगे
गिनतियों के सितारे
और दुख-सुख के चांद-सूरज
कल कितना रंगीन होगा मनु का आसमान
मैं, नीलू, भाभी
सब होंगे उस आसमान में रंगीन
गड्ड-मड्ड
कि पहचान ही नहीं पाएंगे ख़ुद को
एक-दूसरे को
कल मनु भूल जाएगी
उसके दो बरस के आसमान पर लिखी
भाषा की पहचान

मुझे चाहिए
मनु का निर्मल आसमान
ताकि मैं उसे अपनी उम्र की खिड़की पर टांग कर
उस पर लिखा
अपना नाम पढ़ता रहूँ।
ऎसा करते हुए
मेरा समय
हमेशा मुझ से हार जाता है।

ये पहाड़ वसीयत हैं

ये पहाड़ वसीयत हैं
हम आदिवासियों के नाम
हज़ार बार
हमारे पुरखों ने लिखी है
हमारी सम्पन्नता की आदिम गंध हैं ये पहाड़।
आकाश और धरती के बीच हुए समझौते पर
हरी स्याही से किए हुए हस्ताक्षर हैं
बुरे दिनों में धरती के काम आ सकें
बूढ़े समय की ऎसी दौलत हैं ये पहाड़।
ये पहाड़ उस शाश्वत गीत की लाइनें हैं
जिसे रात काटने के लिए नदियाँ लगातार गाती हैं।
हरे ऊन का स्वेटर
जिसे पहन कर हमारे बच्चे
कड़कती ठण्ड में भी
आख़िरकार बड़े होते ही हैं।
एक ऎसा बूढ़ा जिसके पास अनगिनत किस्से हैं।
संसार के काले खेत में
धान का एक पौधा।
एक चिड़िया
अपने प्रसव काल में।
एक पूरे मौसम की बरसात हैं ये पहाड़।
एक देवदूत
जो धरती के गर्भ से निकला है।
दुनिया भर के पत्थर-हृदय लोगों के लिए
हज़ार भाषाओं में लिखी प्यार की इबारत है।
पहाड़ हमारा पिता है
अपने बच्चों को बेहद प्यार करता हुआ।

तुम्हें पता है
बादल इसकी गोद में अपना रोना रोते हैं।
परियाँ आती हैं स्वर्ग से त्रस्त
और यहाँ आकर उन्हें राहत मिलती है।

हम घुमावदार सड़कों से
उनका शृंगार करेंगे
और उनके गर्भ से
किंवदन्तियों की तरह खनिज फूट निकलेगा

पत्थर 

छेनी और हथौड़े के संघर्ष
सारे वातावरण में
डायनामाइट के धमाकों के बीच
बहुत भीतर तक टूट-टूट कर
पत्थर
कितने ज़्यादा ऊब गए हैं
हमेशा-हमेशा दीवार होते रहने से
पता नहीं कब से पत्थर
दीवार होना नहीं चाहते।

ठेकेदार की तरह पान खा कर
बिना बात ग़ाली देना चाहते हैं।
बड़े साहब की मेम की तरह
चश्मा लगाकर छागल से पानी पीना चाहते हैं।
पहाड़ पर बहुत ऊपर तक चढ़कर
साहब की जीप की सीध में
नीचे तक लुढ़क जाना चाहते हैं।
कुल मिलाकर पत्थर
पहाड़ छोड़ देना चाहते हैं।

कहाँ जाएंगे
पत्थर पहाड़ छोड़कर कहाँ जा सकते हैं
इतने सारे पत्थर नर्मदा में डूब कर
शंकर भगवान भी नहीं हो सकते
सिर्फ़ छींट का लहंगा पहने
पीटः पर पत्थर बांधे
पीढ़ी दर पीढ़ी
तम्बाकू का पीक थूकते हुए
पत्थर
पत्थर ही तो फूट सकते हैं
या फिर दीवार होते रहने से ऊब सकते हैं।

हम जहाँ जा रहे हैं
वे पहाड तो बर्फ़ के हैं।

पेड़

आज जब मैं
अपने टूटने के क्षणों में
पेड़ की टूटती डालियों को महसूस करता हूँ
तो बातें
ज़्यादा साफ़ और तर्कसंगत लगने लगती हैं।
पेड़ जो धरती और आकाश से
बराबर-बराबर अनुपात में जुड़ा है
अपनी पत्तियों में आकाश समेटे
जड़ तक पहुँचते-पहुँचते
धरती हो जाता है।
हवा, धूप और धूल का
एक जैसा स्वागत करता
चींटियों और चिड़ियों के रिश्ते में बंधा
अपने अस्तित्व के लिए
धरती में उबलते लावे के नज़दीक
खड़ा पेड़।
तुम कभी इतिहास के भीतर जाओ
और
किसी आदमी के पेड़ होने की कथा पढ़ो
तो समझना
वह मेरे वंश की उत्पत्ति का युग था।

तय तो यही हुआ था (कविता) 

सबसे पहले बायाँ हाथ कटा
फिर दोनों पैर लहूलुहान होते हुए
टुकड़ों में कटते चले गए
खून दर्द के धक्के खा-खा कर
नशों से बाहर निकल आया था

तय तो यही हुआ था कि मैं
कबूतर की तौल के बराबर
अपने शरीर का मांस काट कर
बाज को सौंप दूँ
और वह कबूतर को छोड़ दे

सचमुच बड़ा असहनीय दर्द था
शरीर का एक बड़ा हिस्सा तराजू पर था
और कबूतर वाला पलड़ा फिर नीचे था
हार कर मैं
समूचा ही तराजू पर चढ़ गया

आसमान से फूल नहीं बरसे
कबूतर ने कोई दूसरा रूप नहीं लिया
और मैंने देखा
बाज की दाढ़ में
आदमी का खून लग चुका है।

बच्चा और टिड्डा

बच्चे
टिड्डा पकड़ते हैं दबे पाँव
दौड़ते, थकते, हाँफते
टिड्डे की पूँछ में धागा बांध उड़ाते हैं।
बच्चे
आसमान में उड़ जाते हैं
थके-थके से सारी रात
सोते रहते हैं
माँ की चिन्ताओं
और बाप के गुस्से से बेख़बर।

उड़ते-उड़ते टिड्डा
परियों के देश में पहुँचता है।
परियाँ बच्चों का पता पूछती हैं
रात भर टिड्डा और परियाँ
बच्चों को ढूँढ़ते हैं।

माँ-बाप के डर से
नींद में भी ठिठक जाते हैं।

सुबह टिड्डा
बच्चों को इशारे करता है
उन्हें दौड़ना और
दबे पाँव आक्रमण करना सिखाता है।

रात टिड्डा
बच्चों को मीठी नींद सुलाने के लिए
आसमान से परियों को लाता है
टिड्डा पकड़ने के आरोप में बच्चे
पिता के हाथों रोज़ पिटते हैं।
खिड़की पर बैठा टिड्डा
देखता रहता है
दबे पाँव।

तहख़ाने में 

तहख़ाने में
जितने भी भीतर जा सकता था गया
बाप-दादों के ज़माने की
बहुत-सी चीज़ें वहाँ दफ़न थीं
पिताजी किसी आदमक़द आइने का ज़िक्र करते थे
और माँ लोहे की पेटी में बंद पूजा की पोथियों का
बिना ज़्यादा मेहनत किए
दोनों चीज़ें मिली थीं लेकिन
आइने में सिर्फ़ इतना पारा शेष था
कि बहुत करीब जाकर मुँह देखा जा सके
और पोथियाँ पढ़ने लायक कम
पूजा करने लायक ज़्यादा बची थीं।
कुछ भी लाया नहीं हूँ साथ सोच रहा हूँ
वहाँ बेकार पड़ी बाँस की सीढ़ी ही ले आता
तो कम से कम छोटा भाई
उसके सहारे बिना खपरैल फोड़े छत पर अटकी
अपनी गेंद तो निकाल ही सकता था।

छोटे की ज़िम्मेदारी

छोटे ने
पर्याप्त मात्रा में
घास-फूस इकट्ठा कर लिया है
और ललचाई नज़रों से
मेरी ओर देख रहा है
एक अंगार के लिए।
छोटा
एक अंगार का मुहताज़।
अपने बड़े होने का मुहताज़ छोटा,
थोड़ी ही देर में झुंझलाकर
गुस्से में मुझे न जाने क्या-क्या कहता हुआ
खलिहान से बाहर निकल जाएगा
तब कितना मुश्किल होगा
छोटे को
अंगार का इतिहास समझाना
कि लाल होने के लिए
किन-किन अवस्थाओं से होकर
गुज़रना पड़ा है अंगार को
या बीज़, अंकुर, पत्ते या तने वाली
तासीर नहीं होती अंगार की
अंगार से हथेलियाँ जल जाती हैं
हथेलियाँ ही नहीं
खेत-खलिहान, घर-गाँव, सब-कुछ
भस्म हो जाते हैं।

पर छोटे को
अंगार के इतिहास में कोई दिलचस्पी नहीं
उसे मतलब है घास-फूस के जल जाने से
आख़िरकार
बरसात होने और नई घास उगने से पहले
खलिहान की सफ़ाई बहुत ज़रूरी होती है
जिसकी पूरी ज़िम्मेदारी
छोटे पर है।

साइकिल

ठीक अपने मालिक की तरह
उसकी उम्र की गिनती भी
पैदा होने के दिन से नहीं
काम पर आने के दिन से होती है।

बूढ़े के साथ बूढ़ी
और
जवान के साथ जवान
साइकिल की नींद में हैं
तीन चीज़
सड़क
पैर
हवा।
सड़क की नींद में जूते
पैर की नींद में घास
हवा की नींद में पत्तियाँ
साइकिल किसी की नींद में नहीं।
जैसी कि
हमारे घर में अकेली साइकिल
और साइकिल के घर में
हम-सब।
अम्मा, बुआ और भाई-बहन
कुल मिलाकर नौ
एक साथ सबको ख़ुश नहीं कर पाती।

सिर्फ़ घण्टी बजने जितनी मोहलत मांगने
महराबदार रास्तों में
बार-बार भटकी
इतनी-इतनी चढ़ाइयाँ
कि सड़क ढली
हवा रुकी
पैर थके
साइकिल नहीं थकी।

जब तक वह घर में है
बापू की यादगार है।