इनायत है तिरी बस एक एहसान और इतना कर
इनायत है तिरी बस एक एहसान और इतना कर
मिरे इस दर्द की मीआद में भी कुछ इज़ाफ़ा कर
गुमाँ से भी ज़ियादा चाहिए सरसब्ज़ किश्त-ए-जाँ
फ़क़त पिछले पहर क्या हर पहर ऐ आँख बरसा कर
तो फिर इकराम क्या शय है जो तन्हाई में तन्हा हूँ
कोई महफ़िल अता कर क़ाएदे की उस में तन्हा कर
नफ़्स की आमद-ओ-शुद रुक न जाए पेशतर इस से
ज़मीं को और नीचा आसमाँ को और ऊँचा कर
बहुत मुमकिन है मेरी बातें बे-म’अनी लगें तुझ को
इन्हें मज्ज़ूब की बड़ जान और चुप-चाप सोचा कर
इस सोच में ही मरहला-ए-शब गुज़र गया
इस सोच में ही मरहला-ए-शब गुज़र गया
दर वा किया तो किस लिए साया बिखर गया
ता-देर अपने साथ रहा मैं ज़माने बाद
बेनाम सा सुकूत था जब रात घर गया
रखता था हुक्म मौत का जो राह-ए-वस्ल में
वो लम्हा-ए-फ़िराक़ मिरे डर से मर गया
सब रौनक़ें ब-ज़िद थीं जहाँ घर बनाने को
वो क़र्या-ए-वजूद ख़लाओं से भर गया
मैं बाँध ही रहा था ग़ज़ल में उसे अभी
वो ज़ीना-ए-ख़याल से नीचे उतर गया
ख़ला सा ठहरा हुआ है ये चार-सू कैसा
ख़ला सा ठहरा हुआ है ये चार-सू कैसा
उजाड़ हो गया इक शहर-ए-रंग-ओ-बू कैसा
तमाम हल्क़ा-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल हैराँ है
सवाद-ए-चश्म में आया ये माह-रू कैसा
कभी जो फ़ुर्सत-ए-यक-लम्हा भी मिले तो देख
कि दश्त-ए-याद में बिखरा पड़ा है तू कैसा
अगरचे शोरा ही शोरा सब इलाक़ा-ए-दिल
तुझे रक्खा है मगर सब्ज़ ओ पुर-नुमू कैसा
सारा-ए-दिल में कई दिन से शाम होते ही
धुआँ सा फैलने लगता है कू-ब-कू कैसा
ज़रा जो सोचें तो ये मसअला भी हल हो जाए
कि होना चाहिए अब रंग-ए-आरज़ू कैसा
ग़ुबार-ए-दर्द में राह-ए-नजात ऐसा ही
ग़ुबार-ए-दर्द में राह-ए-नजात ऐसा ही
रहा है कोई मिरे साथ साथ ऐसा ही
तो भूल पाने में दुश्वारियाँ बहुत होंगी
किया है प्यार हद-ए-मुम्किनात ऐसा ही
बरस गुज़र गए उस से जुदा हुए लेकिन
अजीब बैन है मौज-ए-फ़ुरात ऐसा ही
उसे भी ओस में डूबा हुआ लगा था बदन
मुझे भी कुछ हुआ महसूस रात ऐसा ही
मैं जिस से ख़ौफ़-ज़दा था शुरू से आख़िर
तमाशा कर गई ये काएनात ऐसा ही
कोई भी रंग मयस्सर न आ सका तो फिर
क़ुबूल कर लिया रंग-ए-हयात ऐसा ही
जो इस बरस नहीं अगले बरस में दे दे तू
जो इस बरस नहीं अगले बरस में दे दे तू
ये काएनात मिरी दस्त-रस में दे दे तू
सुकून चाहता हूँ मैं स़ुकून चाहता हूँ
खुली फ़ज़ा में नहीं तो क़फ़स में दे दे तू
ये क्या कि हर्फ़-ए-दुआ पे भी बर्फ़ जमने लगी
कोई सुलगता शरारा नफ़स में दे दे तू
मैं दोनों काम में मश्शक़ हूँ मगर मुझ को
ज़रा तमीज़ तो इश्क़ ओ हवस में दे दे तू
उस एक शख़्स के साथ एक उम्र रह लूँ मैं
अगर ये साबित ओ सय्यार बस में दे दे तू
तो क्या तड़प न थी अब के मिरे पुकारे में
तो क्या तड़प न थी अब के मिरे पुकारे में
वगर्ना वो तो चला आता था इशारे में
वो बात उस को बताना बहुत ज़रूरी थी
वो बात किस लिए कहता मैं इस्तिआरे में
मुदाम हिज्र-कदे में वो याद रौशन है
कहाँ है ऐ दिल-ए-नाकाम तू ख़सारे में
मिरे अलावा सभी लोग अब ये मानते हैं
ग़लत नहीं थी मिरी राय उस के बारे में
फ़क़ीर है प करामत किसी ने देखी नहीं
गुज़र-बसर ही किया करता है गुज़ारे में
नदी थी कश्तियाँ थीं चाँदनी थी झरना था
नदी थी कश्तियाँ थीं चाँदनी थी झरना था
गुज़र गया जो ज़माना कहाँ गुज़रना था
मुझी को रोना पड़ा रतजगे का जश्न जो था
शब-ए-फ़िराक़ वो तारा नहीं उतरना था
मिरे जलाल को करना था ख़म सर-ए-तस्लीम
तिरे जमाल का शीराज़ा भी बिखरना था
तिरे जुनून ने इक नाम दे दिया वर्ना
मुझे तो यूँ भी ये सहरा उबूर करना था
इक ऐसा ज़ख़्म कि जिस पर ख़िज़ाँ का साया न था
इक ऐसा पल कि जो हर हाल में ठहरना था
नसीब-ए-चश्म में लिक्खा है गर पानी नहीं होना
नसीब-ए-चश्म में लिक्खा है गर पानी नहीं होना
तो क्या ये तय है अब रंज-ए-पशेमानी नहीं होना
सकूँ से जा लगेगी दिल की कश्ती अपने साहिल से
कि इस बरसात में दरिया को तूफ़ानी नहीं होना
सभी कुछ तय-शुदा मा’मूली जैसा होने वाला है
किसी भी वाक़िए को वज्ह-ए-हैरानी नहीं होना
जुनूँ में मुमकिना हद तक रहेगा होश भी शामिल
मिरी जाँ बे-ज़रूरत कार-ए-नादानी नहीं होना
हमीं उन ख़ुश-नसीबों में से हैं, जिन के नसीबों में
ख़ुदा ने साफ़ लिक्खा है परेशानी नहीं होना
फ़ज़ा होती ग़ुबार-आलूदा सूरज डूबता होता
फ़ज़ा होती ग़ुबार-आलूदा सूरज डूबता होता
ये नज़्ज़ारा भी दिलकश था अगर मैं थक गया होता
नदामत साअतें आईं तो ये एहसास भी जागा
कि अपनी ज़ात के अन्दर भी थोड़ा सा ख़ला होता
गुज़िश्ता रोज़ ओ शब से आज भी इक रब्त सा कुछ है
वगर्ना शहर भर में मारा-मारा फिर रहा होता
अजब सी नर्म आँखें गन्दुमी आवाज़ खुश्बूएँ
ये जिस का अक्स हैं उस शख़्स का कुछ तो पता होता
मसाइल जैसे अब दरपेश हैं शायद नहीं होते
अगर कार-ए-जुनूँ मैं ने सलीक़े से किया होता
बदल जाएगा सब कुछ ये तमाशा भी नहीं होगा
बदल जाएगा सब कुछ ये तमाशा भी नहीं होगा
नज़र आएगा वो मंज़र जो सोचा भी नहीं होगा
हर इक लम्हा किसी शय की कमी महसूस भी होगी
कहीं भी दूर तक कोई ख़ला सा भी नहीं होगा
वो आँखें भी नहीं होगीं कहें जो अनकही बातें
हवा में सब्ज़ आँचल का वो लहरा भी नहीं होगा
सिमट जाएगी दुनिया साअत-ए-इमरोज़ में इक दिन
शुमार-ए-ज़ीस्त में दीरोज़ ओ फ़र्दा भी नहीं होगा
मगर क़द रोज़ ओ शब का देख कर हैरान सब होंगे
मदार अपना ज़मीं ने गरचे बदला भी नहीं होगा
अजब वीरानियाँ आबाद होंगी क़र्या-दर-क़र्या
शजर शाखों पे चिड़ियों का बसेरा भी नहीं होगा
ब-नाम-ए-इश्क़ इक एहसान सा अभी तक है
ब-नाम-ए-इश्क़ इक एहसान सा अभी तक है
वो सादा लौह हमें चाहता अभी तक है
फ़क़त ज़मान ओ मकाँ में ज़रा सा फ़रक़ आया
जो एक मसअला-ए-दर्द था अभी तक है
शुरू-ए-इश्क़ में हासिल हुआ जो देर के बाद
वो एक सिफ्ऱ तह हाशिया अभी तक है
हुलूल कर चुकी ख़ुद में हज़ार नक़्श ओ रंग
ये काएनात जो ख़ाका-नुमा अभी तक है
तवील सिलसिला-ए-मस्लहत है चार तरफ़
यक़ीन कर ले मिरी जाँ ख़ुदा अभी तक है
ब-राह-ए-रास्त नहीं फिर भी राब्ता सा है
ब-राह-ए-रास्त नहीं फिर भी राब्ता सा है
वो जैसे याद-ए-मज़ाफ़ात में छुपा सा है
कभी तलाश किया तो वहीं मिला है वो
नफ़स की आमद-ओ-शुद में जहाँ ख़ला सा है
ये तारे किस लिए आँखें बिछाए बैठे हैं
हमें तो जागते रहने का आरिज़ा सा है
ये काएनात अगर वैसी हो तो क्या होगा
हमारे ज़ेहन में ख़ाका जो इक बना सा है
ज़मीं मदार पे रक़्साँ है सुब्ह ओ शाम मुदाम
कुरे के चार तरफ़ इक मुहासरा सा है
बस सलीक़े से ज़रा बर्बाद होना है तुम्हें
बस सलीक़े से ज़रा बर्बाद होना है तुम्हें
इस ख़राबे में अगर आबाद होना है तुम्हें
आश्ना तहज़ीब-ए-ख़ामोशी से होना शर्त है
दोस्तो गर वाक़ई फ़रियाद होना है तुम्हें
वस्ल की साअत तुम्हारे क़ुर्ब से मुझ पर खुला
इक न इक दिन हिज्र की मीआद होना है तुम्हें
इश्क़ करते वक़्त मेरे ज़ेहन में हरगिज़ न था
शाएरी में इस तरह ईजाद होना है तुम्हें
मैं ख़ुदा के फ़ैसले से ख़ुश हूँ ये भी लुत्फ़ है
मेरी ना-तामीर की बुनियाद होना है तुम्हें
मता-ए-पास-ए-वफ़ा खो नहीं सकूँगा मैं
मता-ए-पास-ए-वफ़ा खो नहीं सकूँगा मैं
किसी का तेरे सिवा हो नहीं सकूँगा मैं
सदा रहेगा तर-ओ-ताज़ा शाख़-ए-दिल पर तू
फ़ुज़ूल रंज कि कुछ बो नहीं सकूँगा मैं
तू आँखें मूँद ले तो नीन्द आए मुझ को भी
तू जानता है कि यूँ सो नहीं सकूँगा मैं
मुझे विरासत-ए-ग़म से भी आक़ कर डाला
ये कैसा लुत्फ़ कि अब रो नहीं सकूँगा मैं
बहुत हसीं है जहाँ, ज़िन्दगी भी ख़ूब मगर
मज़ीद बार-ए-नफ़स ढो नहीं सकूँगा मैं
मिरे सुख़न पे इक एहसान अब के साल तो कर
मिरे सुख़न पे इक एहसान अब के साल तो कर
तू मुझ को दर्द की दौलत से माला-माल तो कर
दिल-ए-अज़ीज़ को तेरे सुपुर्द कर दिया है
तू दिल लगा के ज़रा उस की देख भाल तो कर
कई दिनों से मैं इक बात कहना चाहता हूँ
तू लब हिला तो सही हाँ कोई सवाल तो कर
मैं अजनबी की तरह तेरे पास से गुज़रा
ये क्या तअल्लुक़-ए-ख़ातिर है कुछ ख़याल तो कर
मैं चाह कर भी तिरे साथ रह नहीं पाऊँ
तू मेरे ग़म मिरी मजबूरी पर मलाल तो कर
मुझे तस्लीम बे-चून-ओ-चुरा तू हक़-ब-जानिब था
मुझे तस्लीम बे-चून-ओ-चुरा तू हक़-ब-जानिब था
मिरे अन्फ़ास पर लेकिन अजब पिन्दार ग़ालिब था
वगर्ना जो हुआ उस से सिवाए रँज क्या हासिल
मगर हाँ मस्लहत की रौ से देखें तो मुनासिब था
मैं तेरे ब’अद जिस से भी मिला तीखा रखा लहजा
कि इस बे-लौस चाहत के एवज़ इतना तो वाजिब था
मैं कुछ पूछूँ भी तो अक्सर जवाबन कुछ नहीं कहता
गुज़िश्ता एक अर्से से जो बस मुझ से मुख़ातिब था
मैं उम्र-ए-रफ़्ता की बाज़ी से इतना ही समझता हूँ
शिकस्त ओ फ़तह दो हर्फ़-ए-इज़ाफ़ी खेल जालिब था
मैं नहीं रोता हूँ अब ये आँख रोती है मुझे
मैं नहीं रोता हूँ अब ये आँख रोती है मुझे
रोती है और सर से पाँव तक भिगोती है मुझे
बद-दुआ है जाने किस की याद की जो हर घड़ी
हर गुज़िश्ता लम्हे से वहशत सी होती है मुझे
मुमकिना हद तक मैं अपनी दस्तरस में हूँ मगर
पिछले कुछ दिन से कोई शय मुझ में खोती है मुझे
मुतमइन था दिन के बिखराव से मैं लेकिन ये रात
दाना-दाना फिर अजब ढब से पिरोती है मुझे
मैं बहुत मश्शाक़ इक तैराक था लेकिन वो आँख
देख अब म’अ-कश्ती-ए-जाँ के डुबोती है मुझे
रगों में रात से ये ख़ून सा रवाँ है क्या
रगों में रात से ये ख़ून सा रवाँ है क्या
वो दर्द-ए-इश्क़ हक़ीक़त में जावेदाँ है क्या
परिंद किस लिए करते हैं आशियाँ से कूच
उन्हें भी हाजत-ए-यक-गोशा-ए-अमाँ है क्या
ये हम जो छूते हैं हर रोज़ चाँद तारों को
हमारे पाँव तले कोई आसमाँ है क्या
हवा में खेल रहा है जो अब्र की सूरत
किसी मकान से उड़ता हुआ धुआँ है क्या
रह-ए-वफ़ा में रहे ये निशान-ए-ख़ातिर बस
रह-ए-वफ़ा में रहे ये निशान-ए-ख़ातिर बस
बग़ैर नाम हो मज़कूर हर मुसाफ़िर बस
हज़ार वादी-ए-तारीक से गुज़रता हुआ
ये इश्क़ चाहता है हो तिरा मुआसिर बस
तवील मरहला-ए-जुस्तुजू भी था दरपेश
सो इत्तिफ़ाक़ नहीं था हुआ वो ज़ाहिर बस
फिर इस के ब’अद सभी हो गया इधर का उधर
वो एक लम्हा-ए-मौजूद में था हाज़िर बस
ये इक जज़ीरा-ए-बे-राह भी नहीं रहना
तो क्या क़रीब है वो मज्मा-उल-जज़ाइर बस
वो एक लम्हा-ए-रफ़्ता भी क्या बुला लाया
वो एक लम्हा-ए-रफ़्ता भी क्या बुला लाया
तवील क़िस्सा है बतलाऊँ क्या कि क्या लाया
जहाँ कहीं भी गया साथ था ग़ुबार-ए-हयात
कहाँ से ख़ाक-ए-परेशाँ ये मैं उठा लाया
मिरे नसीब में था इश्क़-ए-जावेदाँ लिक्खा
वगरना क्यूँ मैं तिरी याद को बचा लाया
कहीं भी कुछ भी ब-तरतीब था न वाज़ेह था
बस एक ख़ाका-ए-मुबहम सा था बना लाया
समुंदर तिश्नगी वहशत रसाई चश्मा-ए-लब तक
समुंदर तिश्नगी वहशत रसाई चश्मा-ए-लब तक
ये सारा खेल इन आँखों से देखा तेरे करतब तक
तमाशा-गाह-ए-दुनिया में तमाशाई रहे हम भी
सहर की आरज़ू हम ने भी की थी जल्वा-ए-शब तक
न जाने वक़्त का क्या फै़सला है देर कितनी है
घड़ी की सूइयाँ भी हो चुकी हैं मुज़्महिल अब तक
कभी फ़ुर्सत मिली तो आसमाँ से हम ये पूछेंगे
रहेगा तू हमारे सर पे यूँ ही मेहरबाँ कब तक
ख़ुदा जाने कहाँ तक कामयाबी हाथ आई है
कि अपनी बात तो पहुँचा चुका अपने मुख़ातब तक
सुन रखा था तजरबा लेकिन ये पहला था मिरा
सुन रखा था तजरबा लेकिन ये पहला था मिरा
जब किसी के नाम पर बे-वज्ह दिल धड़का मिरा
इक उचटती सी नज़र उस पर गई और यूँ लगा
खो गया जैसे कहीं हर्फ़-ए-तमन्ना सा मिरा
इश्क़ में मैं भी बहुत मोहतात था सब झूट है
और ये साबित कर गया कल रात का रोना मिरा
एक हर्फ़-ए-हक़ की ता-नोक-ए-ज़बाँ आमद मगर
मस्लहत ख़ामोशी और आमन्ना-सद्दक़ना मिरा
अपने मेहवर पर ज़मीं आए तो लम्हा भर सही
देर से ख़ाली पड़ा है ख़ाका-ए-दुनिया मिरा
हम अपने इश्क़ की बाबत कुछ एहतिमाल में हैं
हम अपने इश्क़ की बाबत कुछ एहतिमाल में हैं
कि तेरी ख़ूबियाँ इक और ख़ुश-ख़िसाल में हैं
तमीज़-ए-हिज्र-ओ-विसाल इस मक़ाम पर भी है
हिसाब-ए-राह-ए-मोहब्बत में गरचे हाल में हैं
कोई भी पास नहीं तो तिरा ख़याल न ग़म
ब-क़ौल-ए-पीर-ए-जहाँ-दीदा हम विसाल में हैं
बहुत ज़रूरी नहीं है कि तू सबब ठहरे
ये बात अपनी जगह हम किसी मलाल में हैं
गुज़िश्ता साल रहा जिन पे तंग अर्सा-ए-वक़्त
वो सारे ख़्वाब ब-ताबीर अब के साल में हैं
हमारे ज़ेहन में ये बात भी नहीं आई
हमारे ज़ेहन में ये बात भी नहीं आई
कि तेरी याद हमें रात भी नहीं आई
बिछड़ते वक़्त जो गरजे वो कैसे बादल थे
ये कैसा हिज्र कि बरसात भी नहीं आई
तुझे न पा सके हम इस का इक सबब ये है
पलट के गर्दिश-ए-हालात भी नहीं आई
हुआ यूँ हाथ से बाज़ी निकल गई इक रोज़
हमारे हिस्से में फिर मात भी नहीं आई
उलझ के रह गए क्या हम भी कार-ए-दुनिया में
कि नौबत-ए-सफ़र-ए-ज़ात भी नहीं आई
हुक्मराँ जब से हुईं बस्ती पे अफ़्वाहें वहाँ
हुक्मराँ जब से हुईं बस्ती पे अफ़्वाहें वहाँ
दिन ढले ही बैन करती हैं अजब रातें वहाँ
इक ग़ुरूब-ए-बे-निशाँ की सम्त रस्ते पर हूँ मैं
ख़ौफ़ ये दरपेश होंगी कैसी दुनियाएँ वहाँ
बार-हा देखी है उन कूचों ने शब-मस्ती मिरी
आज भी इक घर के बाम-ओ-दर शनासा हैं वहाँ
क्या तुझे मिस्मारी-ए-दिल की ख़बर कोई न थी
किस लिए भेजीं न तू ने फिर अबाबीलें वहाँ
एक दफ़अ तू यहाँ आ कर मुझे हैरान कर
क्या ज़रूरी है कि तुझ से मिलने आऊँ मैं वहाँ