समझ मन अवसर बित्यो जाय
समझ मन अवसर बित्यो जाय |
मानव तन सो अवसर फिर-फिर, मिलसी कहाँ बताय ||
हरी गुण गाले प्रभु को पाले, अपने मन को तू समझाले |
जनम जनम का नाता प्रभु से, रह्यो किया बिसराय ||
उर अनुराग प्यार ईश्वर से, प्रेम लगाकर फिर कद करसे |
पता नहीं क्या होगा क्षण में, क्षण-क्षण राम रिझाय ||
रीझ जायेंगे हैं वो दाता, वह ही तो है भाग्य विधाता |
राम कृष्ण मन संत अचल का, रैन दिवस गुण गाय ||
यो अवसर चूके मत बंदा, चूक्याँ मिटे न भव भय फंदा |
कहे शिवदीन हृदय में गंगा, चलो गंग में न्हाय ||
लंगोटी लगाने से जटा के बढ़ाने से
लंगोटी लगाने से, जटा के बढ़ाने से,
स्थान बड़ा पाने से बन बैठे भूप है |
विद्वान् बनने से, मन में यू तनने से,
नाहीं उद्धार होत छाया कहीं धूप है |
निज में ना ज्ञान होत बने बने फिरते भोत,
आत्म दिव्य ज्योति कहाँ, जोत वो अनूप है |
कहता शिवदीन राम बाने को नमस्कार,
साधू संत राम रूप एक ही स्वरूप है |
केते बदमाश गुंडे
केते बदमाश गुंडे लंगोटी लगाय घूमे,
मदवा ज्यूँ झूमे कूर पेट भरे आपका |
स्वांग बना साधू का बादू बट मार केते,
सेते हैं भूत-प्रेत लज़ा नाम बाप का |
कर्म के कंगाल लोग साधना न जाने जोग,
ईधर के न उधर के है भांडा प्रलाप का |
कहता शिवदीन सत्य ऐसे का यकीन कहाँ,
बात-बात बातमें दिखावे डर श्राप का |
आत्म विश्वास (२)
तीर्थ से तिरे हैं केते व्रत से तिरे हैं,
तप से तिरे हैं संत आत्मा महान से |
केते तिरे हैं योग यज्ञ के प्रताप प्रभु,
केते तिरे हैं मानव उर ज्ञान से |
केते तिरे हैं दया दान धर्म कर-कर के,
केते तिरे हैं सत्य राम नाम ध्यान से |
एते करमों में मोसों कोई कर्म बन्यो नाय,
शिवदीन तो तरेगा साधू आपकी जबान से |
आत्म विश्वास (१)
कांहूँ के भरोसो हीरा लाल मणि मोतियाँ को,
कांहूँ के भरोसो बल जोर है जवानी को |
कांहूँ के भरोसो भाई मित्र सगा पुत्रन को,
कांहूँ के भरोसो धाम वाम सुख दानी को |
कांहूँ के भरोसो जप तप व्रत नेम हूँ को,
कांहूँ के भरोसो जोग सुरता सायानी को |
कांहूँ के भरोसो जंत्र तंत्र -मंत्र विद्या हूँ को,
शिवदीन के भरोसो एक संत गुरु ज्ञानी को |
मान-मान मान सजन,बात मेरी मान रे
मान-मान मान सजन,बात मेरी मान रे !
शिवदीन शरण संत की, करो ना गुमान रे ||
वक्त आगया कुराज, राखि रहे संत लाज |
बिगरे ना काज कोई, करो कछु ज्ञान रे ||
चूक-चूक चूक भई, समय गई सो गई |
समय है,रही को राखि, रहे आन बान रे ||
छन-छन, छनक रही,उमर ये बीत गई |
बाकी दिन बहार देख, सुखी होय प्राण रे ||
संत कहे चेत-चेत,अबभी कर हरी से हेत |
मन तो है ढलेत, शीघ्र कर तू पिछान रे ||
मन की क्या परतीत
मन की क्या परतीत रीत है मन की न्यारी |
मन मातंग बलवान समझ थोरी में सारी ||
अंकुश ज्ञान समान और अंकुश ना यारो |
छिन में मन उड़जाय सज्जनों बात विचारो ||
संत शरण शरणागति मन की छूटे दौर |
शिवदीन भरोसो संत पर नहीं मंत्र कोई और ||
राम गुण गायरे ||
काट फंद हे गोविन्द !
काट फंद हे गोविन्द ! शरण जानि तारो |
भव समुद्र है अगाध, मोहि को उबारो ||
विनय करी गज गयंद, कृपा करी कृष्णचन्द्र |
द्रोपदा की लाज रखी, आसरो तिहारो ||
दर्शन दे दुःख हरो, दया राह कृपा करो |
अनाथन के नाथ राम, अरजी चित्त धारो ||
जनम मरण ते छुटाय, हे गोविन्द देकर सहाय |
निरबल के राम श्याम, तू है प्राण प्यारो ||
अचल संत संत राम, जय-जय हे सुख धाम |
शिवदीन दीन अर्ज़ करे, कोटि विघ्न टारो ||
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केते झाड़ फूंक भुतवा पुजयाबे को
केते झाड़ फूंक भुतवा पुजयाबे को,
इधर उधर ताक- ताक बात बहु बनाते हैं |
जटा लटा धारी केते ताक़ते पराई नारी,
जुवारी बेकार लोग उनके पास जाते हैं |
सत संगत से दूर असंगत में चूर-चूर,
लगे माल हाथ कहीं यें ही वह चाहते हैं |
कहता शिवदीन मुख कारो घर गोपाल हूँ के,
कपटी असंत दुष्ट मोजां उड़ाते हैं |
झूंठ की जमात जुरी पाप अधिकारी जहाँ
झूंठ की जमात जुरी पाप अधिकारी जहाँ,
महन्त है पाखंड चन्द टोली घुरावे हैं
कपट की विभूति लोगन को बांटि-बांटि,
अकड़-अकड़ बैठे चतुर सभा में कहावें हैं
क्रोधिन की कमाना को सफल करत व्यभिचारी,
असंगत उटपटांग काम अपना बनावे है
कहता शिवदीन कलिकाल में प्रपंच फैल्यो,
ऐसे जो असंत महन्त मोजां उड़ावें हैं
सच है ! संदेह का काम नहीं है
सच है, संदेह का काम नहीं है |
ये असंतजन, संत रूप में, क्या ये शठ बदनाम नहीं है ||
ठगते रहते नदी ज्यो बहते, ये क्यों थकी हैं कहते-कहते |
माया पूंजी जोड़ जोड़ कर, देखे सुबह शाम नहीं हैं ||
सिद्ध बने फिरते है सारे, देखो तो इनके मुख कारे ।
इनको पता चलेगा कैसे, क्यौकि इनमें राम नहीं है ॥
टीवी देखे फोन लगाकर, कारें घूमें बीगुल बजाकर |
कहे शिवदीन भरत खंड भारत, क्या ये पीते जाम नहीं हैं ||
चेली बाबाओं के सौदे, बेटा एक नहीं, यें दो दे |
हाय ! असाधुन की यह टोली, प्रगट कोई भी वाम नहीं हैं ||
तृष्णा सब रोगों का मूल
तृष्णा सब रोगों का मूल |
तृष्णा भय भव दुःख उपजावे, चुभे कलेजे शूल ||
जो सुख चावे तृष्णा त्यागे, अपने आप दर्द दुःख भागे |
शिवदीन चढ़ावे गुरु चरनन की, शिर पर पावन धूल ||
तृष्णा डायन सब जग खाया, ना कोई बचा समझले भाया |
काया माया साथ नहीं दे, पंथ अंत प्रतिकूल ||
लोभ मोह क्रोधादि नाग रे, काम आदि से दूर भाग रे |
जाग सके तो जीव जाग रे, राम नाम मत भूल ||
परमानन्द सदा सुख दायक, संत सयाने सत्य सहायक |
सत संगत सब रोग नसावे, बिछे सुमारग फूल ||
बंधन से गर छुटनू चाहे /
शांत सुभाव करो मनवा, न जरो अविवेक के फंद में आकर |
ज्ञान विचार दया उर धारके, राम चितार तू चित्त लगाकर |
धीरज आसन दृढ जमाय के या विधि से मन को समझाकर |
बंधन से गर छुटनू चाहत, तू अजपा उर सत्य जपाकर ||
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नित्त ही चित्त प्रसन्न रखो यह साधन साधू से सिख तू जाकर |
फेर भी भूल परे तुमको धृक है धृक है तन मानव पाकर |
क्रोध व तृष्णा को दूर करो कहूँ संत समागम संगत जाकर |
बंधन से गर छुटनू चाहत, तू अजपा उर सत्य जपाकर ||
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परलोक बनावन से हटके मद क्रोध भर् यो तृष्णा उर आकर |
क्रोधको जीतके तृष्णा न राखत ज्ञानी वही गति ज्ञानकी पाकर |
जो मनको न दृढावत राम, कहो किन काम के ग्रन्थ पढ़ाकर |
बंधन से गर छुटनू चाहत, तू अजपा उर सत्य जपाकर ||
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अजपा वही जो जपे दिन रैन यह होता है स्वांस के साथ सुनाकर |
ध्यान से युक्त व सत्य परायण उच्च विचार हृदय में धराकर |
भोजन अल्प एकांत निवास तू थोरी ही नींद ले जाग उठाकर |
बंधन से गर छुटनू चाहत, तू अजपा उर सत्य जपाकर ||
हे दयालु ! ले शरण में
हे दयालू ! ले शरण में, मोहे क्यो बिसार् यो ।
जुठे बेर सबरी के, पाय काज सार् यो ।। हे दयालू …
द्रोपदी की रखि लाज, कोरव दल गयो भाज।
पांडवों की कर सहाय, अरजुन को उबार् यो ।।हे…
रक्षक हो भक्तन का, किया संग संतन का ।
तारन हेतु मुझको, तुम संत रूप धार् यो ।। हे…
नरसी का भरा भात, विप्रन के श्रीकृष्ण नाथ ।
दुष्टन को गर्व गार, रावण को मार् यो ।।हे दयालू ..
शिवदीन हाथ जोडे, दुनियां से मुखः मोडे ।
ध्रुव को ध्रुव लोक अमर, भक्त जानि तार् यो ।।
हरि मेरा बेड़ा पार करो
हरि मेरा बेड़ा पार करो |
दया राह शिवदीन दीन की विनती चित्त धरो ||
नाना दुःख सहे बहुतेरे, काम क्रोध लोभादि घेरे |
कहाँ शान्ति है इस दुनियां में, भ्रम भव दुःख हरो ||
भटक्यो जनम-जनम धर योनी, आशा तृष्णा छांडे कोनी |
जनम मरण का चक्कर अद्भुत, जनमों और मरो ||
अबकी बेर पार कर नैया , राम सियावर कृष्ण कन्हैया |
और उपाय कछु ना सूझत , यांते शरण परो ||
नरतन सफल बने बनि जाये,प्रेमभक्ति मन सहज ही पावे |
पारस परसि कुधातु लोहा , सुवरण होय खरो ||
शिवाष्टक
शिवाष्टक
पारबती सी सती शिव के, सुत सत्य गणेश धुरन्धर ज्ञानी|
कैलाश सा धाम आनंद सदा, शिव सीस जटान में गंग समानी ||
सब देवन में महादेव बड़े, सुर पूजत हैं जग के सब प्राणी |
मन कामना पूरण शीघ्र करो, मेरी अर्ज़ सुनो शिवशंकर दानी ||१||
शिव सुख करो अघ दुःख हरो, प्रभु आस भरो बरदायक ज्ञानी |
चारों ही ओर प्रकाश सदा शिव, शंभू दयामय साधू अमानी ||
तव द्वार से प्रेम अपार मिले, सब सार मिले यह सत्य कहानी |
मन कामना पूरण शीघ्र करो, मेरी अर्ज़ सुनो शिवशंकर दानी ||२||
तीनों ही ताप त्रिशूल हरे, शिव बाजत है डमरू अगवानी |
भूत पिशाच दोउ कर जोरत, नृत्य करे गुनज्ञान बखानी ||
शमशान में ध्यान विभूति चढ़े, शिव तात कथा नहीं कहू से छानी |
मन कामना पूरण शीघ्र करो, मेरी अर्ज़ सुनो शिवशंकर दानी ||३||
मृग छाल बागम्बर साजत है, शिव भाल पे चंद अमी बरसानी |
अनंत अखंड समाधि लगावत, भक्तन के हित बात ये ठानी ||
लहर तरंग में भंग के रंग में, आठों ही याम रहें शिव ध्यानी |
मन कामना पूरण शीघ्र करो, मेरी अर्ज़ सुनो शिवशंकर दानी ||४||
रावन शीश उतार धरे, शिव होय प्रसन्न दिये वर ज्ञानी |
शिव शंभू कृपा से दसानन को, वह स्वर्ण की लंका मिली रजधानी ||
सुन्दरी वाम मिले सुत सुभट, भाई विभीषण अमृत वाणी |
मन कामना पूरण शीघ्र करो, मेरी अर्ज़ सुनो शिव शंकर दानी ||५||
भक्तन के सरताज त्रिलोचन, योगी सदा शिव टेक निभानी |
संतन के हित में चित में, बल बुद्धि जगावत सुरत सायानी ||
दाता प्रताप महा महिमा, जग जानत है यह बात न छानी |
मन कामना पूरण शीघ्र करो, मेरी अर्ज़ सुनो शिव शंकर दानी ||६||
भोले कल्याण करो सबका, धन धान सुता सुत दे सुर ज्ञानी |
शिव शरण परे की रखे लजिया, भंडार भरे गुण वेद बखानी ||
सारद शेष दिनेश मुनीन्द्र, सभी गुण गावत ये गुण ज्ञानी |
मन कामना पूरण शीघ्र करो, मेरी अर्ज़ सुनो शिव शंकर दानी ||७||
राम ही राम रटे शिव शंकर, ध्यान धरे निशि वासर ध्यानी |
लीला अनंत न अंत मिले, शिव संग रहे जगदंब भवानी ||
कर जोरत है शिवदीन निरंतर, शीश झुकावत सज्जन प्राणी |
मन कामना पूरण शीघ्र करो, मेरी अर्ज़ सुनो शिव शंकर दानी ||८||
दोहा
शिव अष्टक पढि प्रेम से, पाठ करे जो कोय |
शिवदीन प्रेम भक्ति मिले, हरी का दर्शन होय ||