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इच्छा है या उम्मीद है या फ़क़त मानना 

अगर फ़र्श पर भी फूल खिल जाता
अगर हवा धूल नहीं उड़ाती
सूरज में चांद घुला होता
सिगरेट नुकसान नहीं पहुँचाती
और मनुष्य सहज मरता बीमारी से नहीं

…अगर ऐसा होता, काश!
कि
हौले से दिल निकाल कर मेज़ पर रख देते
और कहते लीजिए आज से ये आपका हुआ
मेरे पास और भी हैं रखे हुए हैं

…काश ऐसा होता
शोर बंद हो जाता
और नलों से पानी के साथ संगीत भी बहता रहता
उसे हम पीकर झूमते रहते
और नशा सिर्फ़ प्यार का होता

एक किताब होती और उसी में निकल आती कोई और किताब
कोई दरवाज़ा ऐसा होता जहाँ से आप दिल्ली में घुसते
और निकलते लाहौर में
एक सड़क होती और वहीं ले जाती जहाँ आपका मन है
एक घर होता उसमें सब रहते
जिन्होंने सहसा मिलना बंद कर दिया
वे वहीं रहते और आप उनसे मिलते रहते

कई भाषाओं में बोलना होता
और अनुवाद बोलने में ही घटित हो जाता
मैं जर्मन भाषा जानता
और उनसे मिल पाता जिनसे नहीं मिलना हो पाया
मैं सिल्विया श्वेरमान से कहता आज से आपका अनुवादक मैं

ऐसा होता कि कोई मेरी कविता उठाता और कहता-
अरे ये जर्मन भाषा है
किसी को वो स्पानी लगती किसी को फ्रेंच
मैं हिंदी में लिखता और दुनिया की सारी भाषाओं में लिखता
काश ऐसा होता..

अगर कोई पक्की दोस्ती करता
और उसके लिए उसे जान देने जैसे मुहावरों की ज़रूरत नहीं पड़ती
कोई आपको समझ जाता
आप किसी को समझ लेते
और चुप रहते काश कोई शादी करता
लेकिन प्रेम करना बंद नहीं करता
काश! प्रेम एक पेड़ हो जाता
और दुनिया का इकलौता तीर्थ वही होता

काश! अंतरिक्ष में हम सपरिवार जाते
दोस्तों के साथ भी जाते
और वहाँ एक बीयर ढाबा होता या चाय की दूकान
कई धरतियाँ होतीं
और हम उनमें टहल आते

अगर ऐसा होता कि
अप्रैल-मई-जून-जुलाई-अगस्त के बाद
फिर से आ जाता जनवरी-फ़रवरी और मार्च
बल्कि क्या ही अगर ऐसा होता कि
10 अप्रैल के बाद लौटने लगती तारीखें
और फिर आता नौ अप्रैल, आठ अप्रैल, सात अप्रैल

और इन तारीखों से गुज़रकर मैं एक सुंदर दोस्त के पास होता
जिसमें महान बनने की गुंजायश थी
बात थी पेंटिंग थी संगीत था और उधड़ती हुई शाम थी

काश! वो शाम लौट आती
या जाती रहती तारीखें पीछे की तरफ़
आगे और आगे जहाँ अपने घर पर ही होता
या यहीं होता या अपने जन्म के दिन लौट जाता
या उससे भी पहले के किसी जन्म में अगर ऐसा होता
कि फ़ेदरिको फ़ेलिनी की फ़िल्म चलती रहती चलती रहती
और मैं शालिनी कंचन के साथ बैठा रहता बैठा रहता
एट एंड हाफ की स्मृति को देखता हुआ
एक चौकीदार न टोकता अगर
अरे भाई जाओ यहाँ से
सिनेमा है ज़िंदगी नहीं
आह यही कहता हूँ अगर ऐसा होता कि सिनेमा ज़िंदगी से बढ़कर हो जाता

अरे आप तो यह कहना चाहते हैं
कोई समझ जाता
काश कोई मामले को तूल न देता
कश्मीर जहाँ है वहीं रहता हिमालय के पास
अगर ऐसा होता कि
फ़लिस्तीन एक देश होता
अमेरिका इतना बड़ा न होता
सेना किसी काम न आती

और सब किसान होते
और दुनिया के सारे बच्चों को मिलता
तोलस्तोय जैसा टीचर

अगर ऐसा होता
कि मैं तुम होता
और तुम मैं होती या मैं होता ही नहीं
तुम ही तुम होतीं…

और कुछ नहीं तो कम से कम
काश! ये होता कि
इतना ही समझ जाता
कि मुलाक़ातों का पटाक्षेप हो चुका
कोई इच्छा नहीं अगर मैं यही समझ लेता
तो बड़ी मेहरबानी होती

भावात्मक समझदारी से एक तस्वीर को देखने की कोशिश

खड़ी हो तुम
एक थकान में
एक स्वप्न में
एक आकांक्षा में
एक विचार में
एक तस्वीर है उसमें
खड़ी हो तुम

इतने सारे लोग हैं वहाँ
और वह क्या है जो तुम अलग हो
इस तस्वीर में
दूर से दिखती हुई जैसे किसी फ़ैसले के लिए तत्पर

क्या है उन आँखों में
चालाकी करुणा चाहत सवाल
क्या है
जो सदियाँ बीत गई हैं
और समझ नहीं आता मुझे

तुम एक किसान जैसी दिखती हो
एक भटकती हुई रूह
तुम्हारी आँखो में ये कैसी तलाश है

तुम तस्वीर से निकल कर
ऐसे आई हो जैसे संगीत से उसकी गूँज
जैसे एक आलाप है फैलता हुआ
और वो तुम्हारी देह में तड़पता है
सारी तानें वहीं से आ रही हैं

यह कौन सी भाषा है
कौन सा दर्द
और यह दर्द है या एक छुटकारा
उठता आसमान को उठता और ऊपर उठता…

तुम एक शरीर हो
या रंग
वह काला है और गाढ़ा बैंगनी या पता नहीं कुछ नीला जैसा
हवा हो
या एक हँसी

या सिर्फ़ वे आँखें हैं
और कुछ नहीं हैं
कोई रंग नहीं
कोई हवा
कोई आवाज़
कोई हलचल नहीं कुछ नहीं है
बस तुम हो

इतना हुजूम
इतना कोलाहल
इतने दृश्य
फिर तुम्हीं क्यों हो इस पर एक पर्दे की तरह उठती और गिरती हो मेरी चेतना में

मेरी साँस में एक लकीर खिंच गई है टेढ़ी-मेढ़ी
जाती हुई यहाँ से वहाँ और कई आकार बनाती हुई
चुभोती हुई निस्बतन मुझे ही बार-बार
कराह टुकड़े-टुकड़े हो रही है

और क्या देखता हूँ
वहाँ खिलखिला कर हँस रही हो तुम।

यात्राएँ 

यात्राएँ कहाँ-कहाँ नहीं ले जातीं
वे इतनी बीहड़ और इतनी स्वप्निल होती हैं
कि उम्र के अल्हड़ छोर पर चली जाती हैं
और थिरकती रहती हैं वहाँ

एक बूढ़ी महिला लौटी है एक प्राचीन शहर से
अपनी बेटी के साथ
और थकान और धूप के निशान उनके शरीर पर अंकित हो गए हैं
चलते चले जाने की भावना
उनके चेहरों पर दमक ले आई है ख़ुशी

माँ-बेटी एक दावत दे रही हैं
मेहमानों को खाना परोसने में व्यस्त हैं
और दोनों का सौंदर्य
देखते ही बनता है

इसी सौंदर्य की तलाश में कहाँ-कहाँ भटकते हैं लोग
जबकि ये खाने की मेज़ पर नुमायाँ है
जैसे ये आकाश है और एक चांद है और एक और चांद है
प्रेम का…

यात्राएँ अपने साथ दुख भी ले जाती हैं
और अवसाद
थकान में डुबोने के लिए
एक अवसाद एक रंग बन जाता है ख़ुशी का
दुख बन जाता है आल्हाद आत्मा का
माँ-बेटी लौटती हैं
चढ़ते चले गए थे एक ऊँचाई पर वे बताती हैं
घाटियों में और बियाबान में और शहर में
क्या याद आया होगा वहाँ
माँ को याद आया होगा कोई क्षण अपने प्रेम का
बेटी एक कसक में भीगी होगी
माँ कहती होगी अरे इतना पसीना
बेटी नहीं कहेगी यह प्यार है माँ
जितना पोंछूंगी उतना भिगोएगा मुझे…

यात्राएँ असल में
भटकना है अंतत: अपने ही भीतर
तलाश है किसी निशान की
क्या होंगे भला वे न होंगे जो प्रेम के निशान

नया पाठ

संदेश कहता है बस बहुत हुआ
यही है मेरा जवाब

संकेत कहता है लो आगे की मुझसे सुनो
पंक्तियों के बीच न जाओ
न देखो अतिरिक्त

संकेत कहता है
देख लो मैं हूँ तो वहीं
संदेश कहता है
नहीं नहीं नहीं
इसमें हां की तरह नाचता रहता है संकेत
इतना ज़िद्दी और धुन का पक्का होता है वो

अर्थ में उसकी जगह हमेशा है
संदेश को कहाँ पता चलती है
संकेत की शैतानियाँ
और मायनों में उसके निशान
वह देर-सबेर चला तो जाता है
ठिकाने पर

बाज़ दफ़ा वहाँ पहले से मौजूद रहता है संकेत…
मसलन उत्तेजना में हाँफ़ता संदेश कहता है किसी से कान में
मैं सारे संकेतों को मिटा दूंगा एक दिन
मुझे सब पता है

क्या मतलब आपका
आखिर चाहते क्या हैं आप
धीरे से उठता है एक आदमी
सिगरेट की राख को किसी संकेत की तरह गिराकर
और लौटने लगता है
भारी मन के साथ।

मनुष्य बनो हमारी तरह

तुम अगर हँसते हो
तो इसे अभिमान समझ लेंगे
तुम रोओगे
तो आत्मदया होगी

कहोगे कि तुम कपटी और चालाक नहीं
ये हुई अपनी तारीफ़
तुम कुछ नहीं कहोगे
कुछ भी नहीं
तो तुम डरपोक कहलाओगे
या तुमसे डर लगेगा
तुम बात करोगे
तो वो बतंगड़ होगी

ग़र्ज़ ये कि
तुम निकल जाओ यहाँ से
हमें यहाँ सीधे-सादे लोग चाहिए
मनुष्य होने का ये मतलब ये नहीं
दिमाग खपाएँ हर बात पर
और दिल तो हरग़िज़ नहीं

जूते

प्राण नहीं उनमें
मगर

आहत
तो होते ही हैं

पहन ले
कोई
अभिमानी अगर

सामर्थ्य

एक छलांग
पर जा पहुँचता
घर

एक फलांग ही
होता काश

पत्थर

वह एक रंग है
जिसमें पड़े हैं सारे के सारे रंग
उसके भीतर गुज़रती रहती है नदी
सारी इच्छाएँ सारी वासनाएँ सारी उम्मीदें और यातनाएँ
उसके किनारों पर पछाड़े खाती रहती हैं
जमी रहती हैं बरसों से काई की तरह

आवाज़ है
जो चिपक गई है सदा-सदा के लिए उसके ठोसपन में
वक़्त उसी में भीग कर कड़ा हुआ है
दिन और साल और उम्र उसकी दरारों में पड़े हैं
बेसुध…

उसी में सारा हिसाब बंद है इतिहास का
क्रूरताओं का भी
उसी में एक कोने में दुबका बैठा है सुख
उस की त्वचा के अंधेरे नम कोनों में ठिठुरता हुआ
दुख उसकी छाती पर एक रंग की तरह लोटता रहता है
अवसाद एक पानी है और उसका रंग मिल गया है वहाँ

यह रात है
पड़ा हुआ उसके तल में है
एक पत्थर

एक आदमी दावत से लौटकर क्या सोचता है

स्थिर हो जाऊँ
अपनी निर्विकारता में लेट जाऊँ जाकर
बहुत हुआ नाच
मज़ाक
दावतें
बस करो भाई

आखिर मुझे ख़ुश दिखते हुए
कितने घंटे हो गए
पता है आपको
कितनी देर से हँसते हुए खिंचवा ली मैंने फोटुएँ…

जब खा चुके लोग
नाच अपनी विद्रूपता में हो गया पूरा
और शोर
और लालच
और झपट
उठो इस नकलीपन से
हँसी की ओट से निकलो बाहर
बुलाता है सन्नाटा
अकेलापन कहता है कहाँ थे इतनी देर
चश्मा उतारो मुँह धो लो कमीज़ बदलो
और भूलो
कि वह तुम थे

इसे क्षमा कर दें आप लोग कि
आपने ग़लत आदमी के साथ पी शराब
खाया खाना
की बात
नाच में वह कोई दूसरा होगा
वह यहाँ है
झेंपता हुआ इतना सोचते हुए किसी के बारे में
देता हुआ सलाहें ख़ामाख़्वाह चिट्ठियों में
खीझता हुआ कविता में

मेहरबानी होगी इतना ही समझ लें आप लोग
उलझन में लौटना चाहता रहा
जहाँ कोई शब्द नहीं होते
बस एक उद्दाम लालसा
एक प्यास के पास लेटने की
अवसाद की एक खींच
एक आलिंगन का फँसाव

वासना को खुरचता हुआ देर तक देर तक
और एक ही बात बार-बार
बार-बार
इस किस्से से निकलना है
और लौटना है एक महान ऊब में

वह सोचता है
हाँ यहीं ठीक हूँ मैं अपने कमरे में
मीर को पढ़ता हुआ
अमीर ख़ान को सुनता हुआ
अपनी बेवकूफ़ियों पर कसमसाता हुआ
रोने की हूक को सुनता हुआ ध्यान से
जैसे आती हो कहीं और से।

तुमसे डरने के कारण 

तुम एक चालाक शै हो
लेकिन हसीन हो
तुम मासूम हो
पर हमेशा ज़ाहिर होता रहता है
तुम्हारा छल

एक परिंदा
तुम्हारे पास आता है उड़ता हुआ
तुम कहती हो ओह ये
इनसे मुझे नफ़रत है

एक परिंदा तुम्हारें बालों में
घोंसला बना रहा होता है उस वक़्त मज़े से
तुम तय कर देती हो सब कुछ
प्यार भरोसा विचार तुम्हारे आस पास मंडराते रहते हैं
पूरी दयनीयता से
कमबख़्त मानो उनका कोई वजूद ही न हो

ओंठों के कोनों पर थिरकती रहती है तुम्हारी जीभ
जैसे वो कोई कला है
जबकि वो सा़ज़िश की शुरूआत है

कहाँ पता चलता है
तुम कोई जादूगरनी हो या चुड़ैल
बच्चों की कहानियों में तुम इतनी ज़्यादा हो
और लोगों की ज़िंदगियों में

तुम रात बन जाती हो और सहसा सुबह भी तुम हो जाती हो
जब कोई धूप चाहता है
तुम एक कड़ी बदली की तरह छायी रहती हो

आशंका और संभावना पर भी
तुम्हारा बराबर का ज़ोर है
और इनसे निकलकर कोई थका मांदा पहुँच जाता है उम्मीद तक
तुम होती हो वहाँ कहती हुई आओ स्वागत है पथिक…

तुम्हारी रौनक से पहले कोई तुम्हारे दाँत देख पाता
तुम्हारी आवाज़ से पहले तुम्हारा व्यक्तित्व
तुम्हारी आपबीतियों से पहले
तुम्हारा खेल
काश पहले ही कोई देख लेता तुम्हारा वह मैदान
ओ मृत्य!

बात इतनी सी

फ़िक्र तुम्हें सिर्फ़ अपनी है
गुस्सा तुम्हें इसलिए आता है कि कोई तुम्हें नहीं समझता
तुम्हारी खीझ में है विचलन और अहम

तुम चाहते हो तुम्हारी चुप्पी को हम महान मान लें
और हमेशा तुम्ही सही हो ये हो नहीं सकता
तुम फ़िक्र करते लोगों की…
गुस्सा तुम्हारा व्यर्थ का न होता
खीझते न तुम निपटते गलतियों से
बोलते खुलकर साफ़-साफ़
सुन लेते दूसरों को…

तो शायद टूटती ये दीवार
तो शायद तुमसे डर न लगता
तो शायद तुम कुछ समझ पाते
तो शायद तुम्हारे लिए बेहतर होता…
इतनी सी बात को समझने के लिए
क्या घुटनों तक बढ़ाओगे दाढ़ी

आत्मालोचन

मैं ज़रा अपने ही बारे में सोचना चाहता हूँ कुछ दिन
मुझे अपनी तस्वीर की फ़िक्र है
मेरे पैसे ख़त्म हो गए…
मेरे कपड़े धुले नहीं है
मेरे पास नहीं है कोट
एक भव्य सा लैपटॉप

मेरी चिंता वाज़िब हैं
मेरे बारे में क्या कहना है आपका और सबका
मैं जानता तो सब हूँ
लेकिन टटोलता रहता हूँ
लोगों के मन की बात

अब ये मेरी आदत बन गई है
मुझे अपनी हँसी भी टेढ़ी लग रही है
दूसरों की टोह लेते क्या कोई देखता होगा मुझे

यूँ तो मैं सामान्य सहज रहना जानता हूँ
लेकिन अगर कुछ उलट गया किसी दिन मेरे अन्दर
मेरी आत्मा के खर्राटों से…

भाई मुझे टेंशन होने लगा है
ईश्वर हूँ तो क्या।

सड़क पर काम 

उसके इर्द-गिर्द कुछ नहीं है
हवा वहाँ गोल-गोल घूम कर
मुड़ जाती है
घास नहीं जमती हवा

घिसटते हुए लौट आते हैं क़दम
उछल कर पार कर जाए
इतनी हिम्मत उम्मीद भी नहीं करती

दबे पाँव वापस आता है इरादा
और वक़्त भी बेबस ठहरा…

आगे रास्ता बंद है
प्रेम का

चालाकी

हर गुज़रने वाले की निगाह उस पर पड़ती
तो दुनिया में सभी चालाक हो जाते
वो बस एक किनारे बैठी रहती है
जो देख ले वो उसे ले जाए
फिर वो वहीं लौट आती है
इस तरह अपने लोग तैयार करती रहती है…

चालाकी करने वाले लोग अक्सर बहुत सहज दिखते हैं
ये उसका गुण है सबसे बुनियादी
कि वो अपना काम ठीक से करती है
उसके पास कुछ गंभीर वाक्य है
मसलन मैं तो जी बहुत सीधा-सादा हूँ

बार-बार बुलवाती है किसी से चालाकी
और मजाल है कि ज़ाहिर हो जाए
वे जो गुस्से में रहते हैं
वे जो गुस्से में नहीं दिखते वे जो किसी को देखते रहते हैं हमेशा
वे जो सिर झुकाए चलते रहते हैं
वे जो मतलब निकालते हैं हर बात का
वे जो बोलते रहते हैं लगातार
वे जो चुप रहते हैं
वे जो प्रसन्न हैं और बेतक़ल्लुफ़
वे जो उदास हैं और बोर
सावधान चालाक लोग हो सकते हैं

चालाकी में कला है
ताड़ लेती है कि सामने वाले के पास क्या है
बाज़ दफा़ वो इतनी शातिरी से दिल तक निकाल ले जाती है
कि शक भी न हो किसी को
झाड़ियों में फेंक देती है उसे या हवा में उछाल देती है
इतनी निर्मम होती है चालाकी
लेकिन ये पता कहाँ चलता है…

चालाक व्यक्ति किसी के सम्मान में कोई कमी नहीं करता
चालाकी से ही संभव करता है अपमान
किसी का नामो-निशान कैसे मिटाना है
ये चालाकी से ही सीखा जा सकता है…

जो लोग चालाक नहीं है
वे एक स्वप्न में रहते हैं
उन्हें सच्चाई जान पड़ती है
हर किसी की बात पर
जब कोई हँसता है उनकी बात की दाद में

वे ख़ुश हो जाते हैं बच्चों की तरह
इस ख़ुशी पर अचानक पत्थर गिराकर भी जा सकती है चालाकी।

खंडहर में लौटी एक चिड़िया

खंडहर में लौटी एक चिड़िया
और उसने कहा ये मेरा घर है
किताबें खेत और बर्तन
पानी में लौट गए
वहीं डूबी याद

किसी को लौटना पड़ा
कि जाना ही है देर सबेर
अचानक लौट आई हवा
कि बाहर तूफ़ान है
इच्छा ने कहा
भूल गई लौटना है
बताओ कहां जाऊँ मैं
वो दूर कोने में कौन खड़ा है
और उसका बदन भीगा हुआ है
प्रेम
अब लौटो तुम भी जहाँ से आए हो
रुको तोलिये से बाल और शरीर पोंछ लो

मैं भी लौटूंगा
अपनी उदासी में।

विश्व कप 1998

ब्राजील हार गया
सपने के आगे हार गया वह
पेले का ब्राजील
ऊँचाई तक दौड़ते-दौड़ते थक गया
लोकप्रियता का हिमशिखऱ पिघल गया
उम्मीद और इच्छा की चट्टान सख़्त और भारी थी
सट्टे के बीहड़ विस्तार में
गेंद कब आकर घुस गई गोलपोस्ट में
बिजली की तरह लपलपाती
अनुमान नहीं लगा पाया टफ़ारेल गोलची
विश्व का सबसे बुज़ुर्ग गोलची
अनुमान के भँवर में समा गया
जैसी पूरी टीम समा गई महानता के भँवर में

क्या महानता में इतना ख़तरा है
तभी कहा था फ़ेलीनी ने
स्मारक पर कबूतर बीट कर देते हैं
वह चिरपरिचित खेल दुनिया का प्रिय
लापरवाह से दिखने वाले और
अचानक धावा बोल देने वाले शेर
वह सांबा नृत्य
संगीत में संघर्ष की गाथा सुनाते
मैदान में कविता रचते
एक दूसरे के साथ आगे रचते
एक दूसरे के साथ आगे बढ़ते
फुटबॉल के सबसे मौलिक खिलाड़ी

वह रोनाल्डो वह कार्लोस
कितना मुश्किल होता है नाम को ढोना
कितनी तकलीफ़ दर्द को मिटाने वाले इंजेक्शन से
भी ज़्यादा दर्दनाक
रोनाल्डो बीमार था
उसने उल्टियाँ की थी खेल से पहले
आख़िर वह इंजेक्शन किसे खड़ा करता है
एक खिलाड़ी को या एक मशहूर नाम को
उस दिन अपना खेल दे दिया फ्रांस को
और ख़ुद से ही टकराता रहा ब्राज़ील।

वरूणावत 

यह एक पहाड़ का नाम है
जिसके नीचे भागीरथी बहती है
उत्तरकाशी बसती है

उत्तरकाशी फिर आ गयी है कविता में
दहशत दुविधा दुख से भरी हुई
कातर होकर देखती कविता के पहाड़ को
उससे फूटी खतरनाक दरारों को
उससे गिरते पत्थरों और पेड़ों को
मस्जिद मुहल्ले और इंदिरानगर के मलबे को
गंगोत्री राजमार्ग को

वरूणावत कविता में आएगा इस तरह
किसने सोचा था
धूल उड़ाता टूटता ग़रज़ता गोद को गर्द से भरता
उत्तरकाशी नहीं बचेगी
गई वह लोग दिल पर पत्थर रख कर कहते हैं

वरूणावत इतना ज़िद्दी और ढीठ औऱ निर्दयी पहाड़ है
कि हर चीख के बदले एक पत्थर लुढका देता है
ये पत्थर
उम्मीदों सपनों और संघर्षों को छोड़ देते
लालच के अलावा उन पर भी गिर रहे हैं

पहला और दूसरा व्यक्ति

पहले व्यक्ति के बाद आती है
उसकी बारी
पहला व्यक्ति हमेशा पहले आता है
उसके फौरन बाद नहीं आता दूसरा व्यक्ति
वह आता है बहुत दूर से

जो पहली चीज़ आती है
पहले व्यक्ति के पास जाती है
कोई ज़रूरी नहीं हर दूसरी चीज़
दूसरे व्यक्ति को मिल जाए
पहले व्यक्ति के संतुष्ट होने तक
दूसरा रूकता है
या लौट जाता है

पहला व्यक्ति लपकता हुआ
दूसरे के घर जाता है
नमस्कार करता है
दूसरा व्यक्ति मुश्किल में पड़ जाता है
इस तरह यह समाज चलता है।

लखन लीला

कोई मंच नहीं पोशाक न संवाद विलाप न मिलाप दुनिया के बेहद अदना कोने में है लखन लीला वहाँ अंधेरा है कॉलोनी में जिस जगह रहते हैं लखन और लीला मज़दूर दंपत्ति को हटाने की योजना बना रही है सोसायटी और उनके पाँच बच्चे भी हैं जिनमें बड़ी लड़की है…और उसकी चहक कॉलोनी में नोट की जाने लगी है उसका घूमना भी…लखन मज़दूरी करता है लीला घरों में काम करती है और पूरी कॉलोनी में उसका सिक्का चलता है ऐसे कि किसी न किसी को कोई काम पड़ ही जाता है उससे कॉलोनी के गणमान्य नहीं चाहते लखन लीला यहाँ रहे या वे यह चाहते हैं कि लीला आती रहे कहीं और से कॉलोनी को गंदा न करे जबकि लीला का काम ही बर्तन और फर्श और कपड़ो को साफ करने का उन्हें चमकाने का है सबकी लखन से भी यही दरकार है काम करे घरों की टूट-फूट ठीक करे सलाम करे वह ठेकेदार के साथ काम पर जाता है शाम को लौटता है नौकरी-पेशा की तरह कॉलोनी वाले इसे उसका ठसका मानते हैं उससे ख़फ़ा हैं जबकि वो बिल्कुल थका चूर-चूर आता है लगभग घिसटते हुए पूरी कॉलोनी का रास्ता पार कर सबसे नीचे खाली ज़मीन पर अपने झोंपड़े में जाता है अपने किसी लड़के को धूल मिट्टी में लोटता देखकर उसे खींचता हुआ लीला भी किसी घर से लौट रही होती है शाम के धुंधलके में लखन के पीछे-पीछे जाती दिखाई देती है उसकी लीला उसने पीले रंग का कुर्ता पहना है और उसे देखकर खीझ दिखाने वाले गौर से उसे देखते हुए जाते हैं झेंपते हैं नमस्ते साबजी कहती हुई जाती है जब लीला और लखन के पास पहुँचना चाहती है जल्द से जल्द।
कॉलोनी की इस सड़क पर सबसे ज़्यादा आवाजाही करने वाले लोग हैं लखन और लीला। और सड़क पर धूल जैसे यहाँ-वहाँ सबसे ज़्यादा बैठ रहे हैं उनके

विद्वान

जो आदमी पढ़ा-लिखा पंडित होता है
वो कैसा होता है
उसे कैसा होना चाहिए
अपनी दाढ़ी अपने चश्मे अपनी अस्तव्यस्तता से इतर
जानकारी को लालायित दंभी शोर मचाता हुआ
भाषण पर उतारू होता है आमतौर पर वो
जिसने पढ़ देख लिया बहुत कुछ

उसके दावे में अक्सर टंकार है
वो पांव पटकता है हाथ झटकता है
और पसीने से तरबतर हो जाता है उसका शरीर
उसकी आँखों तक से उमड़ने लगता है क्रोध या वो सब
जो वो फ़ौरन कह देना जानता है सामने वाले को चौंकाने के लिए
ऐसे भी होते हैं कुछ व्याकुल विद्वान
बोलते चले जाते हैं अस्तित्व के किनारों तक
किसी को साथ लेकर
और अकेले लौटते हैं तेज़ी से
हाँफ़ते रक्तचाप के साथ

खीझ कर कोई नासमझ कहता है
बंद करो ये धूल झाड़ना बच्चों बूढ़ो स्त्रियों और युवाओ और सब लोगों के बीच
पर ये भी ऐसी निर्लज्ज आदत है
कि बढ़ता ही जाता है प्रदूषण
फैलता ही जाता है दुष्चक्र विद्वता का।

उदासी 

हरा है पेड़
ख़ूब टहनियाँ पत्ते
हवा में झूमते
खेलते

आसमान में बादल
चिड़ियाँ कई रंग की आती बैठने
एक सुरीला गीत गूँजता रहता
छाँव में पेड़ की मंडराता कुत्ता
जाती चींटियों की कतार पेड़ पर चढ़ने
ख़ुशी की चाहत को भिगोए रखती अपनी अनिवार्यता से

उदासी

घटना

सहसा आपके आगे आ जाती है
वो मद्धम रहती है
और उसमें एक वीरानी है एक कोमल अहसास
उसमें उठने की आकांक्षा नहीं
वो धीमी गति से आपके दिल में उतरती रहती है
उतरती रहती है
जैसे कोई बिल्ली हो दबे पाँव
और शिकार होगा दिल

मैं कहूंगा आवाज़ में निष्कपटता है
और घिर जाऊंगा

‘लव इन द टाइम ऑफ कॉलेरा’ की याद में

जिसे कहते हैं कामना
बस अब किसी वक़्त किसी भी वक़्त
पूरी नहीं होती

इस तरह बहुत दूर तक वक़्त टंगा है
इंतज़ार के बहुत लंबे तार में
फड़फड़ाता रहता है
एक बहुत बड़ा सवाल
कब तक आख़िर कब तक
की पुकार
झन्न-झन्न बजती हुई
वजूद के कान में

गर्दन झुकाए बुदबुदाता जाता वह
हमेशा हमेशा।

शिनाख़्त

पानी में उसकी परछाई नहीं दिखती
आवाज़ में वो झलकता नहीं
यहाँ तक कि कपड़ों में भी नहीं हैं उसके निशान
संगीत में उसे पहचान पाना मुश्किल है
पेंटिंग में उसका कोई रंग नहीं
कविता में लिखकर नहीं आता
फिर भी वो रहता तो है ही

आँख में वो कहीं ठिठका हुआ है
भाषा में कहीं बैठा है छिप कर
विचार में उसका कोहराम है
तब भी एक पत्ता तक नहीं हिलता
कहीं कुछ नहीं टूटता

हवा बहती रहती है
फूल प्रकट होता है
एक स्त्री चलती जाती है चलती जाती है
उसके साथ चला जा रहा है
छूकर निकल जाएगा
या उसी के साथ रहेगा दुख।

24 बच्चे बाल सुधार गृह से भागे

सुधरना नहीं था हरग़िज़
ये तय था वे नहीं मानेंगे वहाँ का कानून
और विरोध करेंगे
खाना न खाकर या ज़ोरदार पिटाई खाकर
चुप ही रहेंगे रातों को जगेंगे मुकम्मल योजना के लिए
और एक दिन जब दिन में सुधार गृह की सफाई का समय होगा
वे एक-एक कर हो जाएंगे गिनती से बाहर
ब्रह्मांड के इस अदना कोने के अत्यंत अदना नक्षत्र
जिन्हें ठीक से टूटना तक नहीं आता जो सीख रहे थे चमक के बारे में
खिंचते चले जाएंगे किसी काले अनिश्चित अंजाम की तरफ़
प्रकाश से तेज़ न होगी अगर उनकी भागने की रफ़्तार
वे 24 बच्चे

भागे वे रोशनी से भी तेज़ जो
निकलेंगे बाहर निकल जाएंगे
यथार्थ की काली छायाओं से छिटककर भले ही चोट खाकर
एक शिशु ब्रह्मांड की तरफ़
उसकी सर्जना में खपाएंगे खुद को
बाल सुधार गृह से भागे 24 लड़के
नये यथार्थ से सुधार गृहों को हटाएंगे
अब पकड़ में नहीं आएंगे
वे 24 ढंग से अपना मुस्तकबिल बनाएंगे

अपने लिए अन्धेरा चुनेंगे या उजाला
कैसे कहें दीवारें नहीं चुनेंगे आइंदा
घर जायेंगे या भटकेंगे
सुधार गृह से छुटकारे में कितने सवाल हैं राहें गड्डमड्ड ख़तरे
कुछ न सोचकर फिर भी बच्चे निकल आएंगे बाहर
जैसे सूरज के खिंचाव से छुड़ाते ख़ुद को कहीं भी फिंकवा दिए जाने को तत्पर बेशक
लेकिन किसी तपती क़िलेबंदी में कभी न लौटने की ठान ये बच्चे।

भागीरथी नदी घाटी सभ्यता

दुनिया के नक्शे पर
नील नदी बहती है
सिंधु नदी बहती है
मिस्र और हड़प्पा भी बह रहे हैं उनके साथ
जैसे भिलंगना और भागीरथी के साथ बह रहा है टिहरी
लोगों को यहाँ-वहाँ विदा कर
मोहनजोदड़ो या बेबीलोन की तरह
अभी डूबता प्रकट होगा खुदाई से कभी
टिहरी नगर
बिखरा हुआ हबड़-तबड़ का खंडहर
दुनिया के किसी भी हिस्से से देखा जा सकता है डूबा हुआ टिहरी
बस अड्डे को जाने वाली सड़क अब पानी में उससे मिलती थी
मकानों के पत्थर और पलस्तर पानी के नीचे नई संरचना बनाने पहुँच गए थे
जिन्हें आने वाले वक़्तों में पहचाना जाना था
नदी के पत्थरों से बने मकानों के चारों कोने ही खड़े थे जर्जर
मानो उन्हें और ऊँचा बनना था
याद के ढाँचे को संभाले हुए बेशक
लाइटहाउस की तरह दिखते
रोशनी दिखाने की कोशिश करते डूबते जहाज़ को
जिसके एक छोर से रिसता दूसरे पर पानी चढ़ता था
अलग-अलग खानों वाली मालू के पत्ते की थाली हो गया था टिहरी
या बियाबान में पड़ी टेढ़ी-मेढ़ी तश्तरी
पानी उलीचना जिससे नामुमकिन था
कितना मुश्किल है ये भी कि न याद आए टिहरी
अपनी नदियों जितनी लंबी गहरी और प्रचंड तड़प का शहर
इसी वेग की बदौलत प्रजामंडल ने रोक दिया ज़ालिम राज काफ़िला
राजशाही के टापू पर प्रजा की सरकार रही कुछ समय
रियासत के अहम के खिलाफ़ यह अपनी तरह का पहला जनआवेग था
नवजात आज़ाद मुल्क का जनतांत्रिक ‘रजवाड़ा’
यह टिहरी कितनी लड़ाइय़ों से निकला
आज़ादी की फिर आज़ादी की और फिर आज़ादी की
आखिरकार पानी में जाकर इसे हमारी याद में ही आज़ाद होना था
इक्कीसवीं सदी ईसा पश्चात की तारीख 2 अगस्त और सन् 2004 को
भागीरथी नदी घाटी की सभ्यता की डूब में झिलमिलाता हड़प्पा
हो गया टिहरी जो
अपने ही किसी बहुत पुराने घर के बहुत पुराने कोठार की तरह
बहते बहते आ गया यहाँ तक और उसमें कितने खेत कितनी दालें कितने गीत और कितनी आवाज़ें भरी थीं यह अंदाज़ा लगाना कठिन था
सारी चीज़ें एक बड़े सन्नाटे में बदल गई डूब के अहसास की ओट में
जा छिपी कोई दुल्हन अपनी जादुई कारीगरी वाली नथ पहने
उन नथों को बनाने वाले सुनार भटकते हुए न जाने कहाँ गए
अपने उन साथियों का पता भी न था उनके पास जो सिंगोरी की पत्तों वाली मिठाई
बनाने वाले उस्ताद थे
बाज़ार ऐसे उखड़ा देखते ही देखते जैसे पेड़ पर बने मकान को उखाड़ा लोगों ने
विस्थापन के कानूनी सबूत थे वे बहुत पुरानी लकड़ी के फट्टे
पहले पेड़ से अब टिहरी से विस्थापित
वही गड़ा रहा सभ्यता की छाती पर आखिरी निशान की तरह
बिना घड़ी का टिहरी का घंटाघर
एक व्यर्थ खोखली मीनार
अपनी चिनाई की तरह झड़ती
बांध के पानी पर
रियासत के खोखलेपन का अंतिम अवशेष
साम्राज्य के प्रतीकों की किरचियाँ पानी में एक-एक कर चली गईं
पानी से एक-एक कर बाहर आ गए हारमोनियम गले में डाले गुणानंद पथिक
ज़ंजीरों को तोड़ते श्रीदेव सुमन
अपने सीने में घुसा कारतूस निकालते हुए आते नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी
उनके पीछे-पीछे आती सभी संघर्षो की याद
टिहरी अब नक्शे की लकीरों के अंदर लौट गया है
उसकी जगह धुंध बची है
याद को लपेटे हुए कभी न ख़त्म होने वाले गीलेपन से भीगी हुई।

चुप्पी के बारे में

महाविस्फोट
की आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं था
तभी से समझो मैं हूँ
शायद मुझे तोड़ने के लिए ही टकराए थे धूल और गैस के पिंड
खेल के शुरू में
चुप बना रहा
आंइश्टाइन के वॉयलिन जैसा
जिसकी धुनों में फ़लसफ़े की गहरी ख़ामोशी है

जैसे शोर चलता जाता है अपने शब्दों के साथ
एक झटके में लांघ लेता है कई पहाड़
मैं किसी रेखा की तरह खिसकता रहता हूँ पहाड़ी टीले और
ढलानों पर फिसलता
श्रव्य के नीचे बहता पानी हूँ
आवाज़ मुझ पर से होकर गुज़र जाती है
मैं धड़धड़ाहट के नीचे हिलता हुआ पुल हूँ बस हिलता हुआ ही
वे कहते हैं चुप का ज़ोर नहीं
दरअसल मैं एक बच्चे की बनाई सीनरी हूं
सूरज नदी घास और मकान और सड़क
चुप के पहाड़ के आसपास डेरा जमा लेते हैं
इतनी ख़ामोश तो तितली भी नहीं रहती

चुप होना भी अपने में घुप्प होना है
जैसे बहुत रोशनी बहुत अंधेरा
बहुत तक़लीफ़ बहुत रात बहुत बेचैनी
दर्द में रहता हूं चुप्पी बन कर
जो आवाज़ें निकलती हैं वे
किंचित ख़ुशी किंचित उत्साह कुछ साहस की
चुप की ईंटे हैं
कोई इमारत नहीं बनती कोई दीवार या क़िला
बस ईंटे जैसी हैं वैसी ही रखीं हैं
चुप के संसार में पसरी हुई मगन

एक अटकन झगड़े में आ जाती है
कि चुप नहीं रहा जाता
कोई कुछ बोल पड़ता है
फिर प्रेम होता है या और क्लेश
धीरे-धीरे जो नफ़रत की सुलग है
वो चिंगारी क्या ख़ाक बनेगी
चुप की राख़ में दब जाती है
तब नहीं ठीक रहता मेरा चुप होना
मेरी राख़ में दबूंगा मैं ही

चुप की जगह कहाँ है
साँस के रास्ते में वो एक आड़ी तिरछी गली है
पलकों पर फड़फड़ाहट
अक्षरों शब्दों कौमा और विराम का फ़ासला
वो डॉक्टर मुर्के के ऑडियो टेप का बजता हुआ मौन है
पृथ्वी की धुरी का हिलता हुआ कोण
या दुनिया को काटती इक्वेटर की लाइन
ब्रह्मांड में झूलता वो शायद एक विशाल अंधकार है जिसके कोनो खुंजो में शब्द पड़े हैं
जो रोशनी वहाँ आती है वो शब्दों से धूल हटाती है
और उन्हें चुप में ढलने की हिदायत देती रहती है
मै शब्दों का एक अदृश्य प्रदेश हूँ
यहाँ मेरा शासन है शब्दों पर
मैं हरग़िज़ नहीं टूटूंगा वे कितना भी हिलें-डुलें

कभी मैं कितना बुरा और कभी
कितना भला चुप हूँ
अपने अंदर तो मैं और भी कई तरह का हूँ
बोलना कई ढंग का होगा लेकिन चुप से ज़्यादा क्या होंगे वे
और आलोचनाएँ
वे भी मेरे बारे में कितनी हैं
कहानी और कविता में भी एक हद तक उचित हूँ
फ़िल्मों में और नाटकों में और संगीत में मेरा ज़्यादा टिकना ठीक नहीं
चैप्लिन की ख़ामोशी क्या कर ग़ुज़री याद करो
और वो लिस्त ज़ार के शोर के विरोध में चुप हुआ तो हुआ
मेरे लिए सज़ायाफ्ता अक्सर
तबाह हो जाते हैं मेरे पैरोकार
चुपचाप निकल जाओ कहकर उन्हें डरा देते हैं लोग
तब मैं अपने बोरे से विरोध की कुछ किरचियाँ गिरा देता हूँ
इतना चुप भी मैं नहीं कि चुपचाप खदेड़ दिया जाऊँ
मैं मैकार्थी कमीशन के सामने खड़ा हुआ बर्टोल्ट ब्रेश्ट हूँ
बीटोफेन के बहरेपन का हाहाकार जो उसके संगीत में है बाज़दफा वो मैं ही हूँ

ख़ैर चुप का इस तरह बोलना सभी को खटकेगा
लेकिन मैं बाहर आता ही रहता हूँ
एक तो मुझमें भी सूराख़ हो सकने की गुंजायश है
बिना हवा बिना पानी
इतना अत्यधिक हो जाए मेरी काया ये भी ठीक नहीं।

एक बच्ची को चिट्ठी 

हमारे चेहरे धूल और पसीने से भर जाते हैं
बुख़ार से तपा रहता है शरीर
उदासी बर्फ़ की तरह भीतर जमी रहती है
और तुम्हारी याद आती है तान्या

पूरी ईमानदारी से
हम अपने काम पर निकलते हैं
बहुत कम हँसते हैं
दूर खड़े रहते हैं
और बार बार चश्मा उतारकर साफ़ करते हैं
पर ये कुंठा नहीं है तान्या
न किसी तरह का भय
युवा उम्र में ये कोई ठंडापन भी नहीं है

बड़े शहर में हम लड़खड़ाते हैं
लेकिन अपने पर हमें दया नहीं आती
कि आख़िर आए ही क्यों
मनुष्य की प्राचीन चाल से
हम शहर में घूमते हैं
तुम हमारे कानों में गूँजती हो
रात के चौकीदार की सीटी की तरह
अमीर खुसरो के गीतों की तरह

हम थे बहुत छोटे
दादा-दादी जब गए
पहचानते हैं तस्वीरों से हम उन्हें
अलग-अलग ढंग से हम उनकी कल्पना करते हैं
वे हमारे बीच आ जाते हैं
तुम्हारी तस्वीर देखकर उन्हें याद करते हैं तान्या
ये कितना अजीब है जिन्हें कभी
देखा नहीं उनकी याद आती है
क्या ये चमत्कार है
सब यादें कोनों-कोनों से आकर
एक पुंज में समा जाती हैं
और वहाँ हम तुम्हें देखते हैं तान्या

हम सोचते थे
ये शहर हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता
बहुत कोशिशें हुईं तान्या
फुटपाथ पर नियम से चलते थे
हमें सड़क के बीचोंबीच घसीट लाता था कोई
सत्ता की सवारी निकलती थी
हमें धकिया कर बदबू और मैल में फेंक दिया जाता था
पर हमने इसे नियति नहीं माना
ये साफ़-साफ़ धोखा था
हम इसे नियति कह देते
तो तुम्हें भूल जाते तान्या
हमारे पूर्वजों ने जो आग जलाई थी
वह अब भी हमारे भीतर ज़िंदा है
इस शहर में हमारा अमूर्त सा व्यवहार
कइयों को हैरत और खीझ में डाल देता है

तान्या चिट्ठियाँ आती हैं उनमें
पैसे न बचा पाने का चीत्कार है
बौखलाहट है कुशलक्षेम की जगह
उम्मीदें पैसों पर टिकी हैं
तुम देखोगी कि बड़ी चीख़-पुकार है यहाँ
लोग कहीं नहीं पहुँचते
आपस में घातक धक्का-मुक्की मची है
तुम हँसोगी कि एक दूसरे पर गिरते-पड़ते लोग
आख़िर कैसे-कैसे गोल-गोल घूम रहे हैं
ये कितनी रंगीन और सुंदर गेंद है
शायद तुम इससे खेलना चाहो

तुम्हारी याद आती है तान्या
फ़रेब दुनिया को सिकोड़ने पर तुला है
आप चीज़ों को देख लें
और कहने की ज़ुर्रत कर लें
ये अंतत: एकालाप साबित होता है
और कोई भी चीज़ खुलकर सामने नहीं आती
हमारे पास कोई रहस्य नहीं है तान्या
जीवन का रहस्य खोजने में
लोगों ने कितना समय गँवाया है
कितनी दूर गए हैं लोग
जबकि तुम्हारी हँसी आदिकाल से
हमारे पास है

तुम हमारे काँच जैसे शरीरों का
मज़बूत पानी हो
धूल-पसीने बुखार और आँसुओं से भर गए
चेहरे पर
जो पानी हम गिराते हैं
वह भी तुम हो तान्या

जोशीमठ के पहाड़

इतने सीधे खड़े रहते हैं
कि अब गिरे कि तब
गिरते नहीं बर्फ़ गिरती है उन पर
अंधेरे मे ये बर्फ़ नहीं दिखती
पहाड़ अपने से ऊँचे लगते हैं
डराते हैं अपने पास बुलाते हैं

दिन में ऐसे दिखते हैं
कोई सफ़ेद दाढ़ी वाला बाबा
ध्यान में अचल बैठा है
कभी एक हाथी दिखता है
खड़ा हुआ रास्ता भूला हो जैसे
जोशीमठ में आकर अटक गया है
बर्फ़ के कपड़े पहने
सुंदरी दिखती है पहाड़ों की नोकों पर
सुध-बुध खोकर चित्त लेटी हुई
कहीं गिर गई अगर

लोग कहते हैं
दुनिया का अंत इस तरह होगा कि
नीति और माणा के पहाड़ चिपक जाएंगे
अलकनंदा गुम हो जाएगी बर्फ़ उड़ जाएगी
हड़बड़ा कर उठेगी सुंदरी
साधु का ध्यान टूट जाएगा
हाथी सहसा चल देगा अपने रास्ते

दीपावली

अब मैं तुम्हें नहीं छोडूंगी
काट लूंगी तुम्हारी उंगलियाँ
खा जाऊंगी तुम्हें
समझे तुम
अपने सिर से मेरा सिर न टकराओ
ये बताओ कब आओगे
कहाँ हो तुम
और ये हँस क्यों रहे हो बेकार में
तुमने एक उपहार भेजा अच्छा लगा
तुमने एक पोशाक भेजी अच्छी लगी
लेकिन तुम इतनी दूर क्यों हो
इतने पास हो और फ़ौरन क्यों नहीं चले आते
ये कम्प्यूटर तुम्हारा ही तो है
जहाज़ के टायर नहीं होते
और वे चलते हैं ज़मीन पर
मेरी गुड़िया का आज जन्मदिन है
गणेश को सारे लड्डू न खिलाओ माँ
मुझे भी खाना है
और अब बाबा से तो मैं नहीं करूंगी बात
बस यह कहकर हटती है
बेटी
पिता से इंटरनेट टेलीफ़ोनी करती हुई
एक अचरज और उलार में निहारती हुई
इतने क़रीब उस दुष्ट मनुष्य को
और जो है इतना दूर
मैं गई फुलझड़ी जलाने
मैं गई अनार फोड़ने
बाबा इनकी रंगतों में मेरा अफ़सोस देखना
मैं किससे कहूँ मन की बात
तुम्हें मैं छोड़ूंगी नहीं आना तुम।

ख़ामोशी के शून्य में

एक व्यक्ति कितना निर्लिप्त हो सकता है
किस हद तक हो सकता है दूर
किस हद तक निस्संग
किस हद तक उदासीन।

मुझे देखिए
मैं प्रेम को ठुकरा चुकी हूँ
सिर्फ़ इसलिए कि मुझे उससे कोई मतलब नहीं
वह किसी काम का नहीं
वह कुछ नहीं दे सकता

एक आश्वासन से ज़्यादा चाहिए था मुझे
एक चुंबन होता तो मैं कहती
हाँ, कुछ और दो
वह भी नहीं है वहाँ

क्या वाकई कोई और आग नहीं होती प्रेम के आसपास
फिर मुझे क्यों घसीटा जा रहा है प्रेम की कहानी में।

मुझे नहीं पता कि
शरीर चाहिए था
या व्यक्ति या फ़लसफ़ा
या मदद
या किसी की महानता
मुझे नहीं पता
अंतरंग होने के लिए और क्या करना होता है

सिवाय कि आप बैठे रहें बैठे रहें देर तक
और फोटुएँ दिखाएँ और पहाड़ और गाने
और दुनिया के बारे में कितनी देर बातें करें
मुझे नहीं पता

स्वार्थ मेरा चाहत मेरी
कोई इस तरह नहीं मिटा सकता
कोई मुझसे दूर रहकर मुझसे प्रेम नहीं कर सकता

मेरी आत्मा मेरा जंगल है
मुझे लकड़हारे नहीं चाहिए
मुझे शिकारी नहीं चाहिए
परिंदे और जानवर नहीं चाहिए
मुझे अपने जंगल में टहलने दो
मत पुकारो बार बार

भटकते हुए इस जंगल में आ पहुँचे राहगीर !
लौट जाओ अपने यथार्थ में
मेरी बेरुख़ी के रास्ते से।

हाल

यूँ ही नहीं चलती थी हवा
बारिश भी ऐसे नहीं गिरती थी
धूप भी नहीं छुड़ा देती थी सब कुछ
मन ज़्यादा प्रकाश बर्दाश्त नहीं करता था बस
चिंतन नहीं रहता था भीगा हुआ हमेशा
शख़्सियत इस क़दर न गीली होती थी न सूखी हुई

पर इन पेड़ों से गुज़रते इस मौसम ने
मुझे बेतरतीब कर दिया
किसी से नहीं मिलता
निकलता हूँ कहीं जाने के लिए नहीं
एक नकार और एक धिक्कार
मेरे सीने में धँसा है
बाण

प्रेम तो उसे हरगिज़ न समझिए
निजात दिला दो ओ मौसम
उसी नीले समंदर में डूबने दो
अवसाद दर्ज़ होने दो इसी दलदल में
पत्तों की हवा की बादल की
और आँसुओं की यह दलदल

दया नहीं
मुक्ति चाहिए
संतोष चाहिए
समय में हवा की फड़फड़ है
और उसमें मृत्यु का जो अहसास है
मुझे यही साहस चाहिए ।

अनुपस्थिति 

फ़क़त पत्ते हैं काँपते हुए
धूप और ठंड की मिली-जुली छुअन में
हवा अपना सूनापन गिरा रही है
और एक भयावह ख़ामोशी
फैली है चारों तरफ़

चिड़िया न जाने कहाँ छिप गईं
मक्खियाँ भी पड़ी होंगी अपनी हर तरफ़ चुप्पी के साए में
पंख समेटकर

सड़क यानी बिल्कुल खाली है
जो आ-जा रहे हैं वे भी जैसे अपनी-अपनी जगहों पर खड़े हैं
पदचाप तो छोड़ ही दीजिए
एक तिनका भी उड़ने से इंकार किए बैठा है

दीवार पर
और इधर
इस कमरे का हाल तो देखो
जैकेट गिरी है सोफ़े पर
मफ़लर कुर्सी पर पड़ा है
मेज़ पर कप-किताबें और कुछ सामान-सिक्के
जैसे ये अलस ही उनकी पहचान है
या इन पर कोई जादू गुज़र गया कोई

वह एक किताब उठाता है
जिसमें न जाने क्यों सहसा इतना वज़न है
एक पन्ना खोलता है जैसे कोई लोहे का गेट
समा गया भारीपन हर जगह

ओह किसे छुऊँ किसे उठाऊँ कहाँ रखूँ क़दम
वह सोचता है
कमरे में मँडराता हुआ

तमाम चीज़ें
उसके पास पड़ी हुई हैं अपने वजूद के इन्कार में
मुझे भी जड़ कर दो
मुझे भी न दो सोचने
मुझे भी न आने दो याद
मुझे भी ले जाओ अपनी निर्जीविता में
ओ चीज़ो !
ओ प्राणियो !

फड़फड़ाना मेरे मन किसी की स्मृति में
गिर जाना किताब के सारे अक्षर वहाँ
धूप वहीं अपनी चमक के टुकड़े करना
ठंड वहीं झर
जहाँ आत्मा छिप गई जाकर।

फिलहाल

अमेरिका और मित्र देश जागें
ईरान और शत्रु देश जागें
मनमोहन सिंह और पी० चिदम्बरम जागें
मैं गुजरात में सो रहा हूँ

और देहरादून के अस्पताल में
उड़ीसा के जंगल में
कर्नाटक की बाढ़ में
और जर्मनी के बॉन शहर में
सँयुक्त राष्ट्र का दफ़्तर जागे
जागते रहें दुनिया के सारे ख़ुफिया कैमरे रात दिन

लादेन जागे तो जागे
सऊदी अरब का कोई शेख़ जागेगा ही
अधिकार हैं हम और चिंताएँ वंचितों की
हम सोएंगें कुछ देर

इस्राएल जगा है
ग़ज़ा के बच्चे सो रहे हैं
विमानों और बमों के शोर में
सफेद फोस्फोरस के धुएँ में
अख़बार जगे हैं
टी०वी० जगा है उत्तेजना और शोर के लिए
क्रिकेट को तो जागना ही है

मैं तो सोऊंगा अब
मेरा हेमोग्लोबिन बढ़ा है और गुस्सा
मुझे सोने दो

और जागने दो
सारकोज़ी को
मोदी को
आडवाणी को और जसवंत सिंह को
तालिबान को
और हाफ़िज़ सईद को जागने दो

मक़बूल फ़िदा हुसैन को सोने दो अपने घर में
लोहा ढालने वाले सलीम भाई को
पूजा से थके मांदे एक आदमी को
एज रिलेटड मैक्युलर डिजनेरेशन की विपत्ति पर आँखे झपकाते हुए सोने दो
पिता की ग़ैर मौजूदगी को न जगाओ बेटी की नींद में
माँ को सोने दो अपने लगाए फूलों और पौधों के साथ

और कृपया
लिथड़ी हुई झंझटों में और इन्तज़ार में मेरी मोहब्बत
न जगाए कोई

अब इस थकान को सोने दो
सोने दो कुछ देर रघुबीर सहाय को और मुक्तिबोध को और निराला को
कविता को दुनिया के गीतों को

नए सिरे से जगाएंगें हम
देवताओं को उनके पहाड़ी मांगल में
अभी सोने दो।

संरचना 

रूसी लेखक मिख़ाइल बुल्गाकोफ़ के उपन्यास ‘मास्टर और मर्गारिता’ की याद में एक और कविता

पानी से भी ख़ामोश
और घास से भी छोटा
होता है प्रेम

सच्चा अगर हो तो
हवा से भी ऊँचा
और आग से भी तेज़
होता है वो

एक आकाश
मनुष्य के भीतर
उसके न रहने पर भी रहता है हमेशा
सच्चा अगर होता है प्रेम।

विदा

वह जा रही होती है
किसी और के पास
ठीक यही वक़्त होता है
हाँ यही
जब मैं कविता की तरफ़ रवाना होता हूँ

कि जिस समय
मैं विचार से टकराता हूँ
वह एक दीवार होती है
चिड़िया तक नहीं हिलती मुंडेर से
चींटी भी नहीं गिरती

काँपता हुआ हटता हूँ मैं
काँपता हुआ बेहिसाब ।

अस्तित्त्व

रूसी लेखक मिख़ाइल बुल्गाकफ़ के उपन्यास ‘मास्टर और मर्गारिता’ की याद में एक कविता

तहख़ाना
हाँ, तहख़ाना ही था वो
जहाँ वह रहने लगा था
न जाने कब से

एक दिन वह निकल गया बाहर
किसी से मिलने
और पूछने
कि मेरे फूलों का क्या हुआ
कि मेरी चिट्ठियों का क्या हुआ
क्या हुआ मुझे
जो सोचने लगा कि क्या हो गया तुम्हें आखिर

बात क्यों नहीं करती मिलती क्यों नहीं
जैसे बिजली कौंधती है
जैसे अचानक खुला हुआ चाकू लहराता है
जैसे कोई उछल कर आ गया सामने आपके
अचानक

आया वह ऐसे ही हैरान करता हुआ
उन दोनों के पास
वे नादान
झगड़ते रहे बहस करते रहे
वह कहती यह अजीब है
वह कहता ये अज़ाब है
फिर भी उसकी छाया में चलते रहे कुछ देर

यह भी जैसे कितना लम्बा वक़्त था
इसीलिए झट से बन जाती होंगी कहानियाँ
कि साब ! देखो यह है सदियों का प्रेम
और वह तो मैं ही जानता हूँ
या वे ही जानते हैं
नहीं था कोई प्रेम-व्रेम
महज़ चौंकाना और दुखी करना था एक दूसरे को।

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