वन्दना
वन्दना
माँ! मुझे तुम लोक मंगल साधना का दान दो,
शब्द को संबल बनाकर नील नभ सा मान दो।
नित करूं पूजन तुम्हारा
प्राण में यह भावना दो,
तिमिर दंशित मन गगन को
ज्योति की संभावना दो,
भक्ति श्रद्धा के सुमन ले द्वार है मेरा नमन,
लेखनी को व्यास दे निज नेह का सम्मान दो।
भाव मंडित गीत हों, नव
शिल्प का पारस परस कर,
अर्थबल से युक्त हो हर
शब्द अपने को सरस कर,
कल्पनाओं से भरी नव मंजु मुख लय तान दे,
हो भरे जिसमें करूण स्वर वह मुझे नवगान दो।
रच सकूं वे गीत जिनमें ,
हो व्यथा सारे भुवन की ,
गोमुखी हो बह चले ,
मंदाकिनी अंतःकरण की,
वेदना संवेदना अभिव्यक्ति का संकल्प दे,
हो उजाले की किरण जिस ज्ञान में , वह ज्ञान दो।
कुटी चली परदेस कमाने
कुटी चली परदेस कमाने
कुटी चली परदेस कमाने
घर के बैल बिकाने ।
चमक-दमक में भूल गई है,
अपने ताने बाने ।
राड-बल्ब के आगे फीके
दीपक के उजियारे ।
काट रहे हैं फ़ुटपाथों पर
अपने दिन बेचारे ।
कोलतार सड़कों पर चिड़िया
ढूँढ रही है दाने ।।
एक-एक रोटी के बदले
सौ-सौ धक्के खाए,
किन्तु सुबह के भूले पंछी
लौट नहीं घर आए।
काली तुलसी नागफनी के
बैठी है पैताने ।।
गोदामों के लिए बहाया
अपना ख़ून-पसीना ।
तन पर चमड़ी बची न बाक़ी
ऐसा भी क्या जीना ।
छाँव बरगदी राजनगर में
आई गाँव बसाने ।।
मिलें दुआयें ज्यों फकीर की
मिलें दुआयें ज्यों फकीर की
रिमझिम -रिमझिम
बरसा पानी
तपन घुली ठहरे समीर की
बिन मांगे जल मिला सभी को
मिलें दुआयें ज्यों फकीर की
तृप्ति मिली तरूओं को इतनी
पात-पात दृग सजल हो गये
कह न सके आनन्द हृदय का
तन से मन से बिमल हो गये
लहराये पुरवा के झोंके,
शीतलता ले नदी तीर की
खेत खेत में झूमी फसलें
ओढ़े सिर पर धानी चूनर
बगुलें -बगुलीं उड़ी हवा में
इन्द्रधनुष को छूने ऊपर
परती खेतों की हरियाली
चरती हैं गायें अहीर की
ताल तलैया बढ़ आपस में
लगे मधुर आलिंगन करने
नारे नदी चले हो आतुर
सागर के घर जाकर मिलने
सोंधी गंध मिली माटी की
महक उठी कुटिया कबीर की।
तोड़े नयी जमीन
आओं हम सब मिल आपस में
एक करें यह काम,
अंधियारे के माथे पर लिख दें
सूरज का नाम
तोड़ें नयी ज़मीन न ऊसर
बंजर एक बचे,
प्रगति वधू अपने हाथों में
मेंहदी रोज़ रचे,
कर्मयज्ञ के हवन कुंड़ में
आहुति दे अविराम ।
तोड़ें दंभ इन्द्र का मिलकर
सबकी प्यास हरें ,
द्वेष, घृणा, कुंठा, पीड़ा, का
दिन-दिन ह्रास करें ,
धरती, अम्बर, पर्वत, घाटी
सबको कर अभिराम ।
जोड़े सकल समाज हृदय में
सबके प्रेम जगे,
पथरीली चट्टानों पर भी
कोमल दूब उगे,
दुख, चिन्ता, भय जीत समय पर
अपनी कसें लगाम ।
अंधियारे के माथे पर लिख दें
सूरज का नाम ।
काली पट्टी दिखती/
हर उंगली भोली चिड़िया के
पंख कतरती है,
राजा की आँखों पर काली
पट्टी दिखती है ।
अंधी नगरी, चौपट राजा,
शासन सिक्के का,
हर बाज़ी पर कब्ज़ा दिखता
ज़ालिम इक्के का,
राजनीति की चिमनी गाढ़ा
धुआँ उगलती है ।
मारकीन का फटा अंगरखा
धोती गाढ़े की,
आसमान के नीचे कटतीं
रातें जाड़े की,
थाने के अन्दर अबला की
इज़्ज़त लुटती है ।
इनकी मरा आँख का पानी
तो वो अंधे हैं,
खाल पराई से घर भरना
सबके धंधे हैं
अख़बारों में रोज़ लूट की
ख़बर निकलती है ।
राजा की आँखों पर काली
पट्टी दिखती है ।
गदहे गावें गान/
उल्लू बैठे पढ़ें फारसी
गदहे गावें गान,
क्या होगा फिर तेरा मेरे
प्यारे हिन्दुस्तान ?
चिड़ियाघर की पहरेदारी
बाज़ों ने पाई,
भेड़ों की निगरानी
बाघों के हिस्से आई,
घायल श्वेत कबूतर, चीलें,
भरती फिरें उड़ान ।
ताल किनारे बसी हुई है
बगुलों की बस्ती,
बीन-बीन खा रहे मछलियाँ
काट रहे मस्ती,
हंसों को उपदेश दे रहे
कौवे चढ़े मचान ।
शाख-शाख पर लगे हुए हैं
बर्रो के छत्ते,
हिलना डुलना भूल गए हैं,
पीपल के पत्ते,
बतधर श्रंगालों ने पाया
कुर्सी का सम्मान ।
क्या होगा फिर तेरा मेरे
प्यारे हिन्दुस्तान ?
राजा अंधा है
इस बस्ती का आलम यारों
बड़ा निराला है,
साँपों के भी पड़ी गले में
स्वागत माला है ।
तेल चमेली का लगता है
यहाँ छछूंदर के,
काली बिल्ली नोच रही है
पंख कबूतर के,
दीपक पी जाता ख़ुद ही
अपना उजियाला है ।
जैसा मियाँ काठ का वैसी
सन की दाढ़ी है,
चोर सिपाही की आपस में
यारी गाढ़ी है,
मंदिर का हर एक पुजारी
पीता हाला है ।
अपना उल्लू सीधा करना
सबका धंधा है,
किससे हाल कहें नगरी का
राजा अंधा है,
पढ़े लिखों के मुँह सुविधा का
लटका ताला है ।
इस बस्ती का आलम यारों
बड़ा निराला है ।
सबसे बडा विधान
सबसे बडा विधान
जिसकी लाठी भैंस उसी की
सबसे बड़ा विधान
कहने को तो गाँव सभा का
है ‘पुतरैहा’ ताल,
पर पंचों ने मिलकर डाला
उसमें मछली जाल,
‘होरी’ की बरिया के सूखे
बिन पानी सब धान।
राशन कार्ड बँटे घर घर पर
बटा न शक्कर,तेल,
बड़े बड़उवा खेल रहे हैं
खुला ब्लैक का खेल,
पक्के घर वालों ने पाया
राहत का अनुदान।
ककड़ीचोर बन्द थाने में
दफा लगीं दस बीस,
मूँछों वाले घूम रहे हैं
कतल किये पच्चीस,
ऊसर,बंजर, चरागाह पर
कब्जा किये प्रधान
जिसकी लाठी भैंस उसी की
सबसे बड़ा विधान
बिकते जनपद थाने
बिकते जनपद थाने
नकली दवा , प्रदूषित पानी
सेहत के अफसाने
ढूंढ रहे शैवाल वनों में
हम मोती के दाने
लोभी कुर्सी , भृष्ट व्यवस्था
राजनीति दलबदलू
ठेका, टेण्डर और कमीशन
सिक्के के दो पहलू,
बंदर बाँट, आँकड़े फर्जी
बिकते जनपद थाने
सुविधा शुल्क, बढ़ी मँहगाई
रामराज्य के सपने
निभा रहे दोमुँही भूमिका
जो कल तक थे अपने
आसमान छूने की बातें
खाली पडे़ खजाने
अफसरशाही, नेतागीरी
एक खाट दो पाये
खोटे सिक्कों की नगरी में
सोना मुँह लटकाये
लाठी, डण्डे, बम, बन्दूकें
लोकतन्त्र के माने
ढूंढ रहे शैवाल वनों में
हम मोती के दाने
साँपों की बस्ती
आँखों पर काले चश्मे हैं
बातों मे मस्ती
बदल रही हर रोज़ मुखौटा
साँपों की बस्ती
मीठा-मीठा ज़हर पिलाकर
कच्चे सपनों को
बाँट रही दुख-दर्द ग़रीबी
अपने अपनों को
मूँगफली बादाम हो गई
सुरा हुई सस्ती ।
धन-कुबेर को अपने घर में
बैठी बन्द किए
मूक दिशाएँ देख रही हैं
अपने होठ सिए
कार विदेशी, ऊँची कोठी
जता रही हस्ती ।
कुर्सी-कुर्सी पर बैठाकर
शतरंजी प्यादे
उल्टी सीधी चाल दिखाकर
बाँट रही वादे
लाखों के वारे-न्यारे हैं
दिखावटी सख़्ती ।
बदल रही हर रोज़ मुखौटा
साँपों की बस्ती
आश्वासन का लम्बा घूँट
आश्वासन का लम्बा घूँट
बैठो अभी
अभी बस साहब आने वाले हैं ।
तब तक लिखवा लो तुम अपनी
मन-माफ़िक अर्ज़ी
लिखवाना कुछ सच का किस्सा
कुछ क़िस्सा फर्ज़ी
आश्वासन का
लम्बा घूँट पिलाने वाले हैं ।
बैठो अभी
अभी बस साहब आने वाले हैं ।
मेरी चिन्ता मत करना बस
चाय-पान काफ़ी
चाहोगे तो करवा दूँगा
सौ दो सौ माफ़ी
और दाँत
खाने के और दिखाने वाले हैं ।
बैठो अभी
अभी बस साहब आने वाले हैं ।
एक बार में काम न हो तो
कोई बात नहीं
आना लौट यहीं मत जाना
चलकर और कहीं
जैसे नमक
दाल में वैसा खाने वाले हैं ।
बैठो अभी
अभी बस साहब आने वाले हैं ।
तो फिर बदला क्या?
तो फिर बदला क्या?
राजा बदला,
मंत्री बदले,
बदली राज सभा
ढंग न बदला
राजकाज का
तो फिर बदला क्या?
निर्वाचन की गहमागहमी
जब तब होती है,
खर्च बढे तो कर्ज शीश पर
जनता ढोती है।
दल बदले
निष्ठाऐं बदलीं
नारे बदल गये
नीति रही
जैसी की तैसी
तो फिर बदला क्या?
कर्ज कमीशन घटा न तिल भर
सुविधा शुल्क बढ़ा
युवराजों ने विधि विधान को
निज अनुरूप गड़ा
कागज बदला
स्याही बदली
बदल गयी भाषा
अर्थ रहा
जैसे का तैसा
तो फिर बदला क्या?
बंद मुठ्ठियों में जिन हाथों
थी जाडे की धूप
नाच रही उनके ही आंगन
बदले अपना रूप
मोहरे बदले
चालें बदलीं
बदल गयी बाजी
दॉव लगी
द्रोपदी न बदली
तो फिर बदला क्या?
राज बांच रहा
राजा बांच रहा,
अख़बारों में प्रगति राज्य की
राजा बांच रहा
चढ़ा शनीचर प्रजा शीश पर
नंगा नाच रहा
नहर गांव तक पर पानी का
मीलों पता नहीं,
सिल्ट सफायी का धन पहुंचा
जाकर और कहीं
खुद की हुयी शिकायत खुद ही
दोषी जांच रहा
खेत धना का पर मुखिया ने
गेहूं बोया है
अनगिन बार धना थाने जा
रोया धोया है,
मिला न कब्जा बड़े बड़ों को
सब कुछ छाज रहा
न्यायालय के दरवाजों की
ऊंची ड्योढ़ी है
जिसके हांथों में चाबुक है
उसकी कौड़ी है,
कांजी के घर धन कुबेर का
डंका बाज रहा
अपराधों का ग्राफ घटा यह
झूठ सरासर है
दर्ज न अनगिन हुये मामले
इतना अन्तर है
जिसकी जैसी मर्जी वो खुद
वैसा टांच रहा
पंख कटे पंछी निकले हैं
पंख कटे पंछी निकले हैं
पंख कटे पंछी निकले हैं
भरने आज उडानें
कागज के यानों पर चढकर
नील गगन को पाने
बैसाखी पर टिकी हुयी हैं
जिनकी खुद औकातें
बाँट रहे दोनों हाथों से
भर भर कर सौगातें
राह दिखाने घर से निकले
अंधे बने सयाने
मुट्ठी ताने घूम रहे वो
गाँव गली चौबारे
जिनके घर की बनी हुयी हैं
शीशे की दीवारें
हाथ कटे कारीगर निकले
ऊँचे भवन बनाने
जिनके घर में नहीं अन्न का
बचा एक भी दाना
दुनिया भर को भोजन देने
का ले रहे बयाना
टूटी पतवारों से निकले
नौका पार लगाने
पंख कटे पंछी निकले हैं
भरने आज उडानें
टट्टू भाडे़ का
मोटी खाल, सलाख़ें छोटी
डर फिर काहे का
कुर्सी चढ़ा दहाड़ें भरता
टट्टू भाड़े का
गधा पचीसी सुना रहा है
ऊँची तानों में
गूँगों का दरबार लगाए
घर दालानों में
चौखट पर स्वर रहा सुनाई
फटे नगाड़े का
कलाबाजियाँ खाने में वह
पक्का माहिर है
घास देखकर पूँछ हिलाने
में जग जाहिर है
मौसम चाहे गरमी का हो
या फिर जाड़े का
मीठे बोल अधर पर अंदर
तीखा ज़हर भरे
देख-देख कर लँगड़ी चालें
सारा शहर डरे
उल्टा-सीधा पढ़ा रहा है
पाठ पहाड़े का
मोटी खाल, सलाख़ें छोटी
डर फिर काहे का
सुबहों पर धुँध भरे
सुबहों पर धुंध भरे
मौसम का राज है
लगता है वक़्त आज
हमसे नाराज़ है
सुविधा में डूबे हैं
किरनों के काफ़िले
धूप और धरती के
बीच बढ़े फ़ासले
नदिया भी बूँद बूँद
जल को मोहताज है
बरगद की शाखों पर
चीलों का वास है
दिशा-दिशा स्याह हुई
अंधा आकाश है
पनघट की ईट-ईंट
हुई दगाबाज है
चन्दन ने पहन लिए
जाने कब बघनखे
गिद्ध-भोज में शामिल
मलमल के अँगरखे
पैने नाखूनों के शीश
रखा ताज है
सुबहों पर धुंध भरे
मौसम का राज है
मुर्गा हुआ हलाल
मुर्गा हुआ हलाल
आँखों में चिंता के काँटे
कब तक बोयें हम
तीन कनौजी तेरह चूल्हे
बाप पूत में बैर
जिनको दूध पिलाया वो ही
काट रहें हैं पैर
आखिर ऐसे ठंडे रिश्ते
कब तक ढोयें हम
बोटी बोटी नुची देह की
बची न तन पर खाल
स्वाद दूसरों को देने में
मुर्गा हुआ हलाल
ऐसी बेदर्दी पर कब तक
नैन भिगोयें हम
मुँह पर खुशहाली की बातें
बांसों उछले दाम
नोन तेल लकड़ी गरीब का
जीना किये हराम
आसमान के नीचे आखिर
कब तक सोयें हम।