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शैलेन्द्र सिंह दूहन की रचनाएँ

आ अधरों पे तू ही तू है 

हर मौसम की तू खुशबू है।
आ अधरों पे तू ही तू है।
तुझ बिन निश-दिन गहन तमी है
सब कुछ पाकर बहुत कमी है,
शीतल पुरवा छेड़े मुझ को
रूठा चुम्बन बे काबू है।
आ अधरों पे तू ही तू है।
साँसों की शहनाई सूनी
यादों की गर्माई सूनी,
टूटे सपने बिन ब्याहे सब
बहका-बहका हर आँसू है।
आ अधरों पे तू ही तू है।
सावन –फागुन आग लगाए
बैरन कोयल गीत सुनाए,
आहें भर-भर सिसके यौवन
कैसा पतझड़ ये लागू है।
आ अधरों पे तू ही तू है।
चिड़ने और चिड़ाने आजा
मुझ को और सताने आजा ,
प्रेम सुधा बरसाने वाले
नस-नस में तेरा जादू है।
आ अधरों पे तू ही तू है।
नज़र नजारा घूँघट तुम हो
भँवर किनारा केवट तुम हो,
हर भाषा के भाव नवल तुम
क्या हिंदी है? क्या उर्दू है?
आ अधरों पे तू ही तू है।

आँसू बो कर गीत उगाना ओ! मेरी दीवानी कविते 

आँसू बो कर गीत उगाना ओ! मेरी दीवानी कविते,
मूक-दबों की हूक सुनाना ओ! मेरी दीवानी कविते।

री! पाटे कुर्ते ढोंग बने हैं भाषण की थेकड़ियों से,
वे शीश महल के ठंडे कमरे हँसते हैं झोंपड़ियों पे,
है पेट भरा तो नींद चढ़ी सब हिम्मत वाली लहरों को
सच कहते तुम मत हकलाना ओ! मेरी दीवानी कविते।
आँसू बो कर गीत उगाना ओ! मेरी दीवानी कविते।

है सम्बन्धों की दहलीजों पर लाश टँगी आदर्शों की,
झूठ-मूठ की चमक-दमक से आँख मिची गत वर्षों की।
अब दोपहरी भी गहन तमी का ओढ़ कफन है चीख रही।
तेज हवा में दीप जलाना ओ! मेरी दीवानी कविते।
आँसू बो कर गीत उगाना ओ! मेरी दीवानी कविते।

है कर्तव्यों की फिकर नहीं पर लत सब को अधिकारों की,
बोखल बौराई कलियाँ भी अब चीज हुई बाजारों की।
मेल कराती मधुशाला जब अधरों को छू ठिठुक गयी
ऐसे में क्या पीना-पाना ओ! मेरी दीवानी कविते?
आँसू बो कर गीत उगाना ओ! मेरी दीवानी कविते।

सब दीवारें मीठे सपनों की दिन-दिन भुर-भुर टूट रही।
ड्योढी की झूठी बदनामी कर गलियाँ घर को लूट रही,
चूलहे-चौके औसारे सब कैद हुए इक कमरे में
दालानों का हाल बताना ओ! मेरी दीवानी कविते।
आँसू बो कर गीत उगाना ओ! मेरी दीवानी कविते।

उन अहसासों की सरगम के सब सुर गुम-सुम से लगते हैं,
उस पूनम वाले चंदा को भी टूटे तारे ठगते हैं।
निज धर्म भूल कर दूध सुबह का भेट चढ़ा अँधियारों की
तुम सूरज का सिर सहलाना ओ! मेरी दीवानी कविते।
आँसू बो कर गीत उगाना ओ! मेरी दीवानी कविते।

उन बिन लम्बी रातों का क्या?

उन बिन लम्बी रातों का क्या?
सावन की बरसातों का क्या?
रूठ बहारें रोती हैं अब
कोयल धीरज खोती हैं अब
आज पपीहे गीत सुना मत
उन बिन इन जजबातों का क्या?
सावन की बरसातों का क्या?
गमक बदरवे डाँट रहे हैं
नर्म बिछोने काट रहे हैं,
यादों की सिलवट में लिपटी
है मीठी सौगातों का क्या?
सावन की बरसातों का क्या?
सरर-सरर पुरवाई डोले
टरर-टरर टर दादुर बोले,
रिम झिम झरती मस्त सुबह के
उन बिन सब हालातों का क्या?
सावन की बरसातों का क्या?
खिलते अब अरमान नही वे
अधरों पर मुस्कान नहीं वे,
सब कुछ लगता रूखा-रूखा
उन बिन रूखी बातों का क्या?
सावन की बरसातों का क्या?

किस पंछी का कितना दाना पता किसे है

किस पंछी का कितना दाना पता किसे है?
जाने कब हो उस तट जाना पता किसे है?

जी साँसों के ताने-बानों की ताबीरें,
फूले हैं हम गलत-सही की ढो तासीरें।
थिरक-थिरक दुख-सुख की लौ पे तक शम्मा को
किस पल बहक उठे परवाना पता किसे है?
किस पंछी का कितना दाना पता किसे है?

मीठे सपनों के आँगन में ला-ला लोंदे,
लीपा-पोती कर चमकाते रोज घरौंदे।
छिन-छिन कण-कण फिसल रही मुट्ठी से माटी
कब हो खाली हाथ हिलाना पता किसे है?
किस पंछी का कितना दाना पता किसे है?

हैं बीज उगे पौध बनीं फसलें लहलाई,
फल फूलों से लद ऋतुओं को टेर सुनाई।
खेल समय के काट लिया सब को विधना ने
खलिहानों का ठोड-ठिकाना पता किसे है?
किस पंछी का कितना दाना पता किसे है?
मन के पृष्ठों पे अशकों की स्याही देकर,
वंचित की पीड़ित की हंस गवाही देकर।
तोड़ चला सब कच्चे धागे इस जगती के
रे! साँसों की गाँठ लगाना पता किसे है?
किस पंछी का कितना दाना पता किसे है?

किस पंछी का कितना दाना पता किसे है? 

किस पंछी का कितना दाना पता किसे है?
जाने कब हो उस तट जाना पता किसे है?

जी साँसों के ताने-बानों की ताबीरें,
फूले हैं हम गलत-सही की ढो तासीरें।
थिरक-थिरक दुख-सुख की लौ पे तक शम्मा को
किस पल बहक उठे परवाना पता किसे है?
किस पंछी का कितना दाना पता किसे है?

मीठे सपनों के आँगन में ला-ला लोंदे,
लीपा-पोती कर चमकाते रोज घरौंदे।
छिन-छिन कण-कण फिसल रही मुट्ठी से माटी
कब हो खाली हाथ हिलाना पता किसे है?
किस पंछी का कितना दाना पता किसे है?

हैं बीज उगे पौध बनीं फसलें लहलाई,
फल फूलों से लद ऋतुओं को टेर सुनाई।
खेल समय के काट लिया सब को विधना ने
खलिहानों का ठोड-ठिकाना पता किसे है?
किस पंछी का कितना दाना पता किसे है?
मन के पृष्ठों पे अशकों की स्याही देकर,
वंचित की पीड़ित की हंस गवाही देकर।
तोड़ चला सब कच्चे धागे इस जगती के
रे! साँसों की गाँठ लगाना पता किसे है?
किस पंछी का कितना दाना पता किसे है?

किस्मत-किस्मत रोता है क्यों कदम बढ़ाले

छोड़ किनारे मजधारों से हाथ मिलाले,
किस्मत-किस्मत रोता है क्यों कदम बढ़ाले

ये पर्वत वन नदियाँ सारे तेरे ही हैं,
ये बादल ये चाँद सितारे तेरे ही हैं।
त्याग निराशा की कातरता धूल व्यथा की
अवसादों के पागलपन को दूर हटाले।
किस्मत-किस्मत रोता है क्यों कदम बढ़ाले?

हैं सपनों की सरगम के सब गान अधूरे,
शेष सृजन के कितने ही अरमान अधूरे।
टेर उमंगों की पावन उत्ताल तरंगें
उल्लासों की पुलकन को तू कंठ लगाले।
किस्मत-किस्मत रोता है क्यों कदम बढ़ाले?

जीते जी ही मुर्दों की ज्यों है जीना क्या?
सदियों से लम्बा खालीपन रे! पीना क्या?
तज तू जागू ही सोने की बासी धुन को
उजयारों के होठों पे नव गीत सजाले।
किस्मत-किस्मत रोता है क्यों कदम बढ़ाले?

काली रातें कब जुगनू को टोक सकी हैं?
कब चट्टानें बहते दरिया रोक सकी हैं?
डूबे वैभव के कंधे चढ़ बात बना मत
ठोस धरा पे फोड़ फफोले पीर मिटाले।
किस्मत-किस्मत रोता है क्यों कदम बढ़ाले?

गिर उठने की हिम्मत चलना सिखला देगी,
पथ की ठोकर तुझ को मंजिल बतला देगी।
तम की धारा समय सुधा को निगल रही है
श्रमजल के हर मोती से तू दीप जलाले।
किस्मत-किस्मत रोता है क्यों कदम बढ़ाले?

कुचले बेबस फूल लिखूँ मैं

रिसते छाले शूल लिखूँ मैं,
कुचले बेबस फूल लिखूँ मैं।
मूक दबों की चीख लिखूँ मैं
पेट भरों की भीख लिखूँ मैं,
झूठे भाषण नारों में बह
जनता करती भूल लिखूँ मैं।
कुचले बेबस फूल लिखूँ मैं।
जुगनू बनते ढाल लिखूँ मैं
चंदा की हड़ताल लिखूँ मैं,
रिश्वत की मदिरा पी चढ़ता
सूरज टूलम-टूल लिखूँ मैं।
कुचले बेबस फूल लिखूँ मैं।
सदियों लम्बी रात लिखूँ मैं
अपनों के आघात लिखूँ मैं,
भूखों की है सेज बनी वो
फुटपाथों की धूल लिखूँ मैं।
कुचले बेबस फूल लिखूँ मैं।
आदर्शों की मार लिखूँ मैं
विधवा का सिंगार लिखूँ मैं,
सब कुछ कहता मौन तने का
दीमक लागी मूल लिखूँ मैं।
कुचले बेबस फूल लिखूँ मैं।
साँसे बनती बोझ लिखूँ मैं
आँसू लिपटा ओज लिखूँ मैं,
चूते छप्पर उड़ती टाँटी
सावन ऊल-जलूल लिखूँ मैं।
कुचले बेबस फूल लिखूँ मैं।

कैसे लिखदूँ सिंगार प्रिये?

सुन भूखों का चीत्कार प्रिये!
कैसे लिखदूँ सिंगार प्रिये?
हर मौसम की साध जली है
चोटी को बुनियाद खली है,
डूबी है कच्ची कलियों की
सूखे में पतवार प्रिये!
कैसे लिखदूँ सिंगार प्रिये?
सच कहना भी भूल लगे अब
रिश्वत पा कर फूल खिले सब,
लूट रहे गुलशन को माली।
धरने पे हैं खार प्रिये!
कैसे लिखदूँ सिंगार प्रिये?
बिखरे हैं नातों के बन्धन
इक कमरे में सौ-सौ आँगन,
भावों के किरचों से टपकें
टप-टप आँसू लाचार प्रिये!
कैसे लिखदूँ सिंगार प्रिये?
दीवाली के दीप बुझे हैं
होली के भी रंग चुभे हैं,
ईद मनी दहशत में फिर से
ले हाथों में अंगार प्रिये!
कैसे लिखदूँ सिंगार प्रिये?
बापू के बन्दर दे ताली
इक दूजे को बकते गाली,
अवसर पा पल में दल बदलें
हैं कूदन में होशियार प्रिये!
कैसे लिखदूँ सिंगार प्रिये?
शैशव की कुनमुन गुमसुम है
बचपन से ही बचपन गुम है,
घायल हैं अब माँ-बाबा के
लोरी ममता पुचकार प्रिये!
कैसे लिखदूँ सिंगार प्रिये?
भूल सभी मजदूरों को मैं
दीन दुखी मजबूरों को मैं,
पी तेरी आँखों से मदिरा
क्योंकर करलूँ अभिसार प्रिये?
कैसे लिखदूँ सिंगार प्रिये?

कुचलों का स्वर श्रमजल की शहनाई हूँ मैं

बेबस ढुलके अश्कों का हम राही हूँ मैं,
कुचलों का स्वर श्रमजल की शहनाई हूँ मैं।

भूखे पेटों की चीखें सुन मोन रहूँ क्यों?
बौधिक बूचड़खानों की मैं धोंस सहूँ क्यों?
सूरज को ठंडा कह धब्बे गिनने वालों!
टूटे सपनों की पीड़ा बिन ब्याही हूँ मैं।
कुचलों का स्वर श्रमजल की शहनाई हूँ मैं।

विधवाओं की लाज लुटा सिंगार लिए हूँ,
बिन लालों की माँओं का पुचकार लिए हूँ।
मुझ को क्या कोठी से ठंडे कमरों से जी?
कोठों पे मजबूरी की उकलाई हूँ मैं।
कुचलों का स्वर श्रमजल की शहनाई हूँ मैं।

मैने मूर्छित तान सुनी है अवसादों की,
भारी मन से भीड़ तकी है अपराधों की।
बूढ़ी सदियों के कलरव की गूँगी धुन सुन
हर मौसम की टेर सनी पुरवाई हूँ मैं।
कुचलों का स्वर श्रमजल की शहनाई हूँ मैं।

जिन ने दोपहरी के किरचे कंठ लगाए,
जिन के स्वेद कणों ने हैं इतिहास बनाए।
उन की चुप्पी का क्रंदन है कविता मेरी
अपनी ही आँखों से टपकी स्याही हूँ मैं।
कुचलों का स्वर श्रमजल की शहनाई हूँ मैं।

अभिसारों की पुलकन किसको खार लगे है?
मधुमासों के बन्धन किसको भार लगे है?
पर जब तक आँगन घर गलियाँ जहरीली हैं
हँस-हँस कर विष पीती मीराबाई हूँ मैं।
कुचलों का स्वर श्रमजल की शहनाई हूँ मैं।

क्या बात कहें हम मेले की?

क्या बात कहें हम मेले की?
इस झंझट और झमेले की।
जात-धर्म की आग कहीं है?
खून सना अनुराग कहीं है?
सहम गये सब परवत गुमसुम
औकात बढ़ी अब ढेले की।
क्या बात कहें हम मेले की?
सज़दों की बुनयाद मिटी है
मानस की मर्याद घटी है,
मंदिर-मस्जिद नंगे हो कर
हैं भीड़ बढ़ाएं रेले की।
क्या बात कहें हम मेले की?
चौपालों की चौखट भड़की
दालानों की अस्मत तिड़की,
दूध-दही के झारों की भी
अब शान नहीं दो धेले की।
क्या बात कहें हम मेले की?
कैसी अद्भुत फसल फली है?
अहसासों की परत जली है,
बूढ़ी सदियाँ गाली खाएं
रे! आज समय को झेले की।
क्या बात कहें हम मेले की?
बलिदानों के ढेर बिके हैं
शबरी के सब बेर बिके हैं,
द्रोण गुरू फिर सिर खुजियाएं
सुन डाँट-डपट निज चेले की।
क्या बात कहें हम मेले की?

ज़िंदा मक्खी खाऊँ कैसे? 

खुद को यों भरमाऊँ कैसे?
ज़िंदा मक्खी खाऊँ कैसे?
शब्द बिना मर्याद हुए हैं
भावों पर आघात हुए हैं,
संवादों पे पहरे हैं पर
अपनी जीभ दबाऊँ कैसे?
ज़िंदा मक्खी खाऊँ कैसे?
गूँगी है पायल की छन छन
सहमे-सहमे काजल कंगन,
कुमकुम कजरे के रोदन की
बेबस चीख भुलाऊँ कैसे?
ज़िंदा मक्खी खाऊँ कैसे?
झोपड़ियों में भूख पड़ी को
दरबारों की खूब चढ़ी को,
कुछ झूठे नारों के बल पे
अच्छे दिन बतलाऊँ कैसे?
ज़िंदा मक्खी खाऊँ कैसे?
मंदिर मस्जिद बदल रहे हैं
मानवता को निगल रहे हैं,
गंगा के मैले पानी को
निर्मल नीर बताऊँ कैसे?
ज़िंदा मक्खी खाऊँ कैसे?
खुद ही अपनी लीक मिटाकर
ऊम्मीदों के दीप बुझा कर,
डमका कर ये तेरी डुग्गी
तेरे सुर में गाऊँ कैसे?
ज़िंदा मक्खी खाऊँ कैसे?

टूटे सपने में

भाई को भाई भाए हैं लेकिन इक टूटे सपने में,
खुशियों के बादल छाए हैं लेकिन इक टूटे सपने में।
अपने पन की भूख बढ़ी है लेकिन इक टूटे सपने में,
सम्बन्धों की प्यास जगी है लेकिन इक टूटे सपने में।
मा-बाबा आदर पाए हैं अपने घर को लौटाए हैं
बेटे हाथ पकड़ लाए हैं लेकिन इक टूटे सपने में।
खुशियों के बादल छाए हैं लेकिन इक टूटे सपने में।
हर भूखे का पेट भरा है लेकिन इक टूटे सपने में,
कृषकों का हर खेत हरा है लेकिन इक टूटे सपने में।
सारे शोषक शरमाए हैं मन ही मन वे घबराए हैं
मजदूरों ने हक पाए हैं लेकिन इक टूटे सपने में।
खुशियों के बादल छाए हैं लेकिन इक टूटे सपने में।
बिन रिश्वत रोजी पाई है लेकिन इक टूटे सपने में,
कुर्सी बोली सच्चाई है लेकिन इक टूटे सपने में।
वंचित बन्धन तोड़ आए हैं अंधियारों से टकराए हैं
लाखों सूरज उपजाए हैं लेकिन इक टूटे सपने में।
खुशियों के बादल छाए हैं लेकिन इक टूटे सपने में।
दिवस-निशा बीमार नहीं अब लेकिन इक टूटे सपने में,
श्रमजल भी लाचार नहीं अब लेकिन इक टूटे सपने में।
मिल-जुल कर सब हर्षाए हैं चमक-दमक के गढ़ ढाए हैं
कच्चे आंगन चहचाए हैं लेकिन इक टूटे सपने में।
खुशियों के बादल छाए हैं लेकिन इक टूटे सपने में।
भेद भाव की टूटी डाली लेकिन इक टूटे सपने में,
साथ मनीं हैं ईद-दिवाली लेकिन इक टूटे सपने में।
मन्दिर-मस्जिद थर्राए हैं लोगों ने ये ठुकराए हैं
नेह सने सुर झनकाए हैं लेकिन इक टूटे सपने में।
खुशियों के बादल छाए हैं लेकिन इक टूटे सपने में।

दो बूँद टपक उन अहसासों की करुण कहानी कहती हैं

दो बूँद टपक उन अहसासों की करुण कहानी कहती हैं,
संगम के बंधन की यादें मौन पिए दुख सहतीं हैं।
कैसे भूलें आपस की वे आहों में लिपटी बातें?
पल से छोटी लगती थीं जो सरदी की लम्बी रातें।
अधरों के तट को छू-छू कर मधुशाला तू बहक नहीं
टूटे सपनों के आँगन में पुरवा-पछवा बहतीं हैं।
दो बूँद टपक उन अहसासों की करुण कहानी कहती हैं।
हाथ पकड़ कर नज़र झुका वो भीतर-भीतर सकुचाना
बिना कहे ही सब कुछ कह कर दोनों का जी भर आना।
उन मीठे अभिसारों की हर तुरपाई अब उखड़ गयी
चाहें गहरी अंधियारी बन गुमसुम-गुमसुम रहतीँ हैं।
दो बूँद टपक उन अहसासों की करुण कहानी कहती हैं।
महक रहा था कल जो गुलशन आज़ वही अंगार हुआ
पीड़ा का आलिंगन ही अब जीने का आधार हुआ।
इक-इक कर हैं खुशियों के सब ताने-बाने चटक गये
पागल दिल की उम्मीदें भी छिन-छिन जाती ढहतीँ हैं
दो बूँद टपक उन अहसासों की करुण कहानी कहती हैं।

पत्ता पत्ता सन्यासी है 

पत्ता पत्ता सन्यासी है,
मजबूरी में उपवासी है।
बेबस है शाखों की लचकन
सहमा-सहमा सारा जीवन,
बूढ़े बरगद की गर्दन में
आदर्शों की अब फाँसी है।
पत्ता-पत्ता सन्यासी है।
लम्हे सदियाँ निगल रहे हैं
गिरगिट की ज्यों बदल रहे हैं,
सपनों के किरचों पे लटकी
आशा राहों की दासी है।
पत्ता-पत्ता सन्यासी है
जड़ बिन जड़ सम्बन्ध हुए हैं
झूठे सब अनुबंध हुए हैं,
भावों की तुर्पाई उखड़ी
केशव का निधिवन बासी है।
पत्ता-पत्ता सन्यासी है,
भूखा बचपन छोह करे है
पेट पकड़ कर द्रोह करे है,
सूरज के हैं कंधे टूटे
रोटी रिश्वत की प्यासी है।
पत्ता-पत्ता सन्यासी है।
मन के सब उद्गार बिके हैं
गुलशन के आधार बिके हैं,
सब कुछ सस्ता कुर्सी महँगी
क्या काबा है? क्या काशी है?
पत्ता-पत्ता सन्यासी है।

पल-पल लुटता चमन बचालो

पल-पल लुटता चमन बचालो,
जागो वीरों खड्ग संभालो,।
खग की अब फिर पंख कटी है,
रोई फिर से पंचवटी है
घर घर में है सीता बेबस
हे रघुवर फिर धनुष उठालो
पल-पल लुटता चमन बचालो।
गंगा-जमुनी लहरें रोतीं
ग़जलों की हैं बहरें रोतीं,
कविता फिरती भूखी नंगी
कवियों अपना धर्म निभालो
पल-पल लुटता चमन बचालो।
तहज़ीबों के सागर सिकुड़े
न्याय दया के पर्वत उखड़े,
पग-पग पे हैं शूल बिछे तुम
तेज हवा में दीप जलालो
पल-पल लुटता चमन बचालो।
भूखा बचपन रोता है अब
अपना ही शव ढोता है अब,
कानों वाले बहरे जागें
ऐसा कोई शंख बजालो
पल-पल लुटता चमन बचालो।
कृषकों का कोलाहल सुनकर
मजदूरों के आँसू चुनकर,
उथल-पुथल मच जाए फिर से
ऐसी कोई रीत चलालो
पल-पल लुटता चमन बचालो।

बचपन तो बचपन होता है

लिपटे माटी खेल खिलाए
लरजे डाली झूल झुलाए
पुरवा-पछवा की सर-सर में
लोरी का दर्शन होता है।
बचपन तो बचपन होता है।
अक्कड़-बक्कड़ खेल-खिलोने
झूठे-मूठे सेज बिछोने,
गुड़ियों के शादी गोनों पे
गारे का उबटन होता है।
बचपन तो बचपन होता है।
चिड़िया उड़ पे चट्टा-पट्टी
कच्ची-पक्की होना कट्टी
खो-खो कंचे गुल्ली-डंडा
मस्ती का उपवन होता है।
बचपन तो बचपन होता है।
हँसते-हँसते आँसू भर कर
हाऊ वाले डर से डर कर,
माँ-बाबा की छाती से चिप
निर्भय नटखट तन होता है।
बचपन तो बचपन होता है।
ऊँ-ऊँ कर के बात मनाना
कागज़ के वो यान उड़ाना,
पत्तों की फिरकी फिरकाता
निश्चल जीवन धन होता है।
बचपन तो बचपन होता है।
खेतों में जा भर किलकारी
घोड़ा बनना बारी-बारी,
बासी खिचड़ी छीन-झपट खा
सचमुच पुलकित मन होता है।
बचपन तो बचपन होता है।

भगत सिंह 

भगत सिंह की कुरबानी पर आल्हा गाने निकला हूँ,
आज़ादी के दर्पण की मैं धूल हटाने निकला हूँ।

शत-शत कोटिक नमन लेखनी भगत सिंह की करनी को,
ऐसा बालक जनने वाली वीर प्रसूता जननी को।

जब जनता को साँसों का ही बन्धन भारी लगता था,
भँवरों को भी कलियों का अभिनन्दन भारी लगता था।

उगते पौधों का जीवन भी जब माली को भार लगा,
खिलते कुसमों का दर्शन भी जब माली को खार लगा।

जब सपनों के परकोटे भी बेबस हो कर डहते थे,
छोटे-छोटे बच्चे भी जब तन पर कोड़े सहते थे।

जब सूरज ने घुटने टेके बुझे पतंगों के आगे,
जब सोने की चिड़िया रोई भूखे-नंगों के आगे।

जब पायल की छन-छन भी थी चीख-चीख बेहाल हुई,
ये भारत भू जब गोरों के हाथों थी कंगाल हुई।

जब चरखे की भाषा भी थी नहीं सुहाई शासन को,
जब भारत माँ के आँचल से बदबू आई शासन को।

जब हिंसा की थी गोरों ने सारी सीमा पार करी,
तभी हमारे वीरों ने थी हाथों में तलवार धरी।

उन तलवारों की झनकारों का अजय रोष था भगत सिंह,
कुचली जनता की ललकारों का विजय घोष था भगत सिंह।

दशम् गुरू के बाजों का भी स्वाभिमान था भगत सिंह,
इंकलाब की बोली का भी अमर गान था भगत सिंह।

भारतीयों की पीड़ा से वो उपजा था बन चिंगारी,
घोर अंधेरी रजनी में वो आया था बन उजयारी।

उस सिंहों के वंशज को निज धर्म निभाना आता था,
साहस बो कर धरती से बंदूक उगाना आता था।

भगत सिंह को आज़ादी का मोल चुकाना आता था,
एक धमाके से गोरों का तख्त हिलाना आता था।

उस जज्बे के अम्बर को मैं शीष झुकाने निकला हूँ,
भगत सिंह की कुरबानी पर आल्हा गाने निकला हूँ।

जब डायर की अत्याचारी चाह देश में गूँजी थी,
जलियाँ वाले बाग की वो आह देश में गूँजी थी।

जब चरखे की तकली तक भी चुप्पी साधे बैठी थी,
जैसे-तैसे आँखों पर वो पट्टी बाँधे बैठी थी।

जब गोरों ने निर्दोषों को बर्बरता से मारा था,
हिंसा आगे जब बापू का असहयोग भी हारा था।

साइमन द्रोही नारों के जब भाव देश में उफने थे,
लाला जी के खून सने जब घाव देश में उफने थे।

इंकलाब की भाषा में तब गोरों का मुँह मोड़ दिया,
असैम्बली में भगत सिंह ने सरेआम बम फोड़ दिया,

कानों वाले बहरों ने जब अपनी आँखें मीची थीं,
तभी लहू से भगत सिंह ने पावक रेखा खींची थी।

साहस का ये एक धमाका बलिदानी उद्बोधन था,
दिन-दिन पिसती जनता का ये गोरों को सम्बोधन था।

भारत माँ के रंग बसंती चोले का ये गर्जन था,
यही धमाका इंकलाब के टोले का भी तर्जन था।

जलते उपलों के बीजों का सचमुच ही ये परचम था,
यही धमाका गंगा-जमुनी तहज़ीबों का संगम था।

कुरबानी की बल वेदी पर फूलों की था ये ढेरी,
वीरों का था विजय तिलक ये आज़ादी की रणभेरी।

मानस की चोपाई था ये ज्वार गीत था गीता का,
मर्यादा का तिनका था ये रावण के घर सीता का।

बलिदानों का पथ भगत सिंह कहीं त्याग कर गये नहीं,
सरेआम बम फोड़ा पर वे कहीं भाग कर गये नहीं।

वे वीरदत्त बाबू भी तो भगत सिंह के संगी थे,
वहीं सभा में इंकलाब गा डटे रहे वे जंगी थे।

उन वीरों को गोरों ने फिर डरते-डरते पकड़ लिया,
देश धर्म के दीपों को था हथकड़ियों में जकड़ लिया।

हिम्मत के उन शिखरों पर मैं फूल चढ़ाने निकला हूँ।
भगत सिंह की कुरबानी पर आल्हा गाने निकला हूँ।

गोरों ने की बर्बरता पर झुके नहीं वे मस्ताने,
डाल दिये फिर हवालात में आज़ादी के दीवाने।

लाहौरी षड़यंत्र का था केस चलाया गोरों ने,
धोखा देने का वीरों को जाल बिछाया गोरों ने।

निष्ठुरता की वही पुरानी रीत निभाई गोरों ने,
भगत सिंह को फासी की थी सजा सुनाई गोरों ने।

राजगुरू सुखदेव वीर भी इंकलाब की थाती थे,
फाँसी की थी सजा मिली वे आज़ादी की बाती थे।

झूठ- मूठ की बात बना कर गोरों ने की मनमानी,
वीरदत्त बाबू को भी भेज दिया काले पानी।

फाँसी की सुन भगत सिंह ने कर तल मल बाहें खोली,
हर्षित हो कर इंकलाब की बोल रहे थे वे बोली,

थर-थर-थर-थर काँपे गोरे इंकलाब की बोली से,
दुबके चूहे पूँछ दबा कर शेरों वाली टोली से।

थी वीरों की फाँसी से वे धधकी जनता की आँखें,
टप-टप-टप-टप टपके आँसू झपकी जनता की आँखें।

था डिम-डिम-डिम डमरू बोला तांडव करते शंकर का,
डगमग-डगमग धीरज डोला केशव वाले चक्र का।

भगत सिंह से एक बार थी जननी माँ मिलने आई,
छाले लोरी की थपकी के जननी थी सिलने आई।

देख लाल का मुखड़ा थी माँ नहीं रोक पाई खुद को,
हिचकी भर-भर आँसू टपके नहीँ टोक पाई खुद को।

बोली माता बेटा रे क्या सच-मुच ही तू जाए गा?
माँ की ममता ख़ातिर भी क्या कभी नहीं तू आएगा?

तेरे जैसा लाल बता मैं और कहाँ से लाऊँगी?
जिन हाथों में झूला उन से कैसे कफन उढाऊँगी?

माँ के बेबस प्रश्नों के मैं घाव गिनाने निकला हूँ।
भगत सिंह की कुरबानी पर आल्हा गाने निकला हूँ।

भगत सिंह तब बोले है क्यों फूट-फूट कर रोई माँ?
आज़ादी के बीजों की हैं मैने फसलें बोई माँ।

नहीं मिटे हैं नहीं मिटेंगे इंकलाब लाने वाले,
एक गया तो लाखों होंगे आफताब लाने वाले।

हिम्मत के उन दीपों कों माँ अपनी ढाल समझ लेना,
भारत माँ के हर बेटे को अपना लाल समझ लेना।

मेरी फाँसी से जननी माँ बिलकुल भी मत घबराना,
माँ मेरी है कसम तुझे तू शव लेने भी मत आना।

धीरज वाले बाँध कहीँ माँ तड़-तड़-तड़-तड़ टूट पड़ें?
तेरी इन दो आँखों से ही सातों सागर फूट पड़ें।

जो फाँसी मंगल पाँडे के संकल्पों की भाषा थी,
अशफ़ाकउल्ला की आँखों में आज़ादी की आशा थी।

वो ही फाँसी तेरा बेटा हँसते-हँसते चूमे माँ,
आज़ादी का परवाना बन इंकलाब गा झूमे माँ।

बेटे की माँ लाश देख कर बिलकुल भी तुम मत रोना,
लल्ला-लल्ला लोरी का शव कंधों पे भी मत ढोना।

बलिदानों की बुनियादों पे जब आज़ादी आएगी,
जब खादी ही आज़ादी को गिरवी रख मुस्काएगी।

मजदूरों की चीखोंं को भी शोर कहे गा शासन जब,
लाल किले का सच्चाई से दूर रहेगा भाषण जब।

इस बलिदानी भू पे तब मैं एक बार फिर आऊँगा,
माँ काले अंग्रेजों से मैं अपना देश बचाऊँगा।

ज्यों दिन बीते दुगना-तिगना जोश बढ़ा मतवालों में,
हँसते-हँसते फाँसी चूमी भारत माँ के लालों ने।

आज़ादी की बल वेदी पर वे प्राणों को होम चले,
इंकलाब के आह्वान का अतुलित पीकर सोम चले।

भगत सिंह! गुलशन से अब फिर माली की गद्दारी है,
भारत माँ की छाती पे बेटों ने ठोकर मारी है।

फिर से आजा वीर तुझे मैं आज बुलाने निकला हूँ,
भगत सिंह की कुर्बानी पर आल्हा गाने निकला हूँ,

मैं भी कुर्सी पा सकता हूँ

मैं भी कुर्सी पा सकता हूँ,
जनता को भरमा सकता हूँ।
झूठे-सच्चे वादे कर के
गंगा-यमुना घर में भर के,
मंदिर-मस्जिद के झगड़ों पे
जन-जन को भड़का सकता हूँ।
मैं भी कुर्सी पा सकता हूँ।
भूखों की बस्ती जलवा के
लाशों से ही जय बुलवा के,
अपनी सारी मनमानी को
अच्छे दिन बतला सकता हूँ।
मैं भी कुर्सी पा सकता हूँ।
बापू वाला चरखा लेकर
बापू को ही गाली देकर,
चमचे माइक माला हो तो
दुखियों को समझा सकता हूँ।
मैं भी कुर्सी पा सकता हूँ।
कुत्तों की ज्यों पूँछ हिला कर
भाषण में ही शोर मचा कर,
ढोंगी बाबाओं के चिमटे
संसद में खड़का सकता हूँ।
मैं भी कुर्सी पा सकता हूँ।
अरबों के घोटाले क्या हैं?
सड़कें पर्वत नाले क्या हैं?
पेट भरों का ताऊ हूँ मैं
सारे जग को खा सकता हूँ।
मैं भी कुर्सी पा सकता हूँ।
बन्दर से ज्यादा उछलूँगा
पल में लाखों दल बदलूँगा,
गलती से भी जेल गया तो
सरकारेँ बनवा सकता हूँ।
मैं भी कुर्सी पा सकता हूँ।

रे! खुद ही दीप बुझाना क्या?

रे! खुद ही दीप बुझाना क्या?
तूफानों से घबराना क्या?
अपने पैरों आप चले बिन
अपने हाथों आप पले बिन,
औरों की दी रोटी का भी
है खाने में खाना क्या?
रे! खुद ही दीप बुझाना क्या?
टूटे सपनों से भरमा कर
साँसों का ही बोझ उठा कर,
सूखी नदिया के इक तट से
है दूजे तट पे जाना क्या?
रे! खुद ही दीप बुझाना क्या?
अपनी नज़रों में ही गिर कर
आपे को ही कह कर दिनकर,
औरों की खींची लीकों पे
है धाने में धाना क्या?
रे! खुद ही दीप बुझाना क्या?
संघर्षमयी संगीत भुला
सब साहस वाले गीत भुला,
यों ही ठाले बैठे-बैठे
है मंजिल का भी पाना क्या?
रे! खुद ही दीप बुझाना क्या?

लोहे के दस्तानों को क्यों अपनी पीड़ा कहती है? 

लोहे के दस्तानों को क्यों अपनी पीड़ा कहती है?
बस रहने दे मज़बूरी क्यों अश्कों के मिस बहती है?

ये अपनी परछाई का सिर सहलाने की धुन कैसी?
आहद-अनहद नाद नहीं पर चुप्पी की गुन-गुन कैसी?
श्रमजल की हर करवट का इतिहास बताने वाली सुन
हालातों की भटकी खुशबू तेरे भीतर रहती है।
बस रहने दे मज़बूरी क्यों अश्कों के मिस बहती है?

रोज मशीनों संग मशीनें बनने की गा कौन सुने?
पेट पकड़ चोटी तक मल में सनने की गा कौन सुने?
बीमार सुबह के कन्धों पे है लाश लदी उजयारों की
मावस वाली रात नहीं अब दिन में भी री! डहती है।
बस रहने दे मज़बूरी क्यों अश्कों के मिस बहती है?

ठंडे चूल्हों की आँखों का पानी सूका बह-बह कर,
बदन हमारा कोड़े उन के खाल उपड़ती सह-सह कर।
साँसों के सब ताने-बाने घूँट धुँएं को चटक रहे
पुरखों की वो टूटी खटिया बोझ हमारा सहती है।
बस रहने दे मज़बूरी क्यों अश्कों के मिस बहती है?

शोषित अब अंगार बने हैं

तोड़ पुरानी जंजीरों को
छोड सभी पिछली पीरों को,
द्रोही स्वर में शंख बजा ये
ज्वारों का सिंगार बने हैं
शोषित अब अंगार बने हैं।
गढ़-मठ सारे टूट गये हैं
दुखते फोड़े फूट गये हैं,
ठंड़े चूल्हों की गरमी से
लपटों के उपहार बने हैं
शोषित अब अंगार बने हैं।
बासी रोटी गमक रही है
शोले बन के भबक रही है,
बेबस अपने आँसू पी कर
साहस की पतवार बने हैं
शोषित अब अंगार बने हैं।

सारे बंधन तोड़ सकूँ मैं 

खुद ही खुद का अन्वेषक बन
आप अनल का उद्घोषक बन।
मूक दबों की पीड़ा से अब
तूफानों को मोड़ सकूँ मैं
सारे बंधन तोड़ सकूँ मैं।
रिसते छाले ढाल बना कर
चीखों को भूचाल बना कर,
मजदूरों के स्वेद कणों से
धार समय की मोड़ सकूँ मैं
सारे बन्धन तोड़ सकूँ मैं।
उद्गारों में चिंगारी भर
पौरुष वाली उजियारी भर,
फुटपाथों के भूखों खातिर
शीशे के घर फोड़ सकूँ मैं
सारे बंधन तोड़ सकूँ मैं।

हद पार हुई हद पार हुई /

हद पार हुई हद पार हुई,
हैं साँसें तन पर भार हुई।

सपनों की चादर सिकुड़ गयी
भावों की बस्ती उजड़ गयी,
बिन हल-चल बिखरी हर माला
सब खिलती कलियाँ खार हुई।
हद पार हुई हद पार हुई।

अहसासों का आलिंगन कर
रूठा सावन अभिनंदन कर,
झींगुर दादुर वाली बोली
सच-मुच पैनी धार हुई।
हद पार हुई हद पार हुई।

ओढ सिसकियाँ यादें चुप हैं
मधुर मिलन की साधें चुप हैं,
झुलस गया वो पहला चुम्बन
सब आहें बीमार हुई।
हद पार हुई हद पार हुई।

चुभती उन रातों की सिलवट
बौखल-बौराई हर करवट,
रही नहीं वो ओस सुबह की
दोपहरी अँधियार हुई।
हद पार हुई हद पार हुई।

अभिसारों की कुन-मुन पूछे
शहनाई की हर धुन पूछे,
क्यों नेह निभाते बन्धन बिखरे?
ऐसी क्या तकरार हुई?
हद पार हुई हद पार हुई,

हा! मिथकों की लाश लिए हम झगड़ रहे हैं 

घोड़ों आगे घास लिए हम झगड़ रहे हैं,
हा! मिथकों की लाश लिए हम झगड़ रहे हैं।

दोपहरी के कन्धे पिचके तम लटका है,
भूखों ने अब भोज नहीं भाषण गटका है।
गैया बकरे मजहब वाले झन्डों पे ठा
हाथों में गो मास लिए हम झगड़ रहे हैं।
हा! मिथकों की लाश लिए हम झगड़ रहे हैं।

पाट तमूरे गीतों के सिर बोझ बने हैं,
तानपुरे के तार चटक धुन निगल रहे हैं।
ऐसे में भी कंठ फटों की दाल गला कर
भाड़े के उल्लास लिए हम झगड़ रहे हैं।
हा! मिथकों की लाश लिए हम झगड़ रहे हैं।

चौराहों पे निज भक्तों को नंगा करके,
श्रद्धा के अन्धेपन से जी दंगा करके।
अपने आलिंगन में ले खिलती कलियों को
बाबा बन मधुमास लिए हम झगड़ रहे हैं।
हा! मिथकों की लाश लिए हम झगड़ रहे हैं।

खेत नहीं वो मेंड़ नहीं वो गाँव नहीं है,
फसल नहीं वो पेड़ नहीं वो छाँव नहीं है।
जा नगरों में खा घर आँगन औसारों को
कमरों में आकाश लिए हम झगड़ रहे हैं।
हा! मिथकों की लाश लिए हम झगड़ रहे हैं।

गूँगा दर्पन देख रहे हम आँख मूँद के,
सागर पीकर भी प्यासे हैं बूँद-बूँद के।
अपनी-अपनी बोर-बड़ाई नाहक ही कर
बिलकुल झूठा इतिहास लिए हम झगड़ रहे हैं।
हा! मिथकों की लाश लिए हम झगड़ रहे हैं।

टीवी ने अखबारों ने अब चाल चली है,
चौसर के पासों ने भी रंगत बदली है।
हाँडी में दो पेट बना कर चालाकी से
दूध जले की चास लिए हम झगड़ रहे हैं।
हा! मिथकों की लाश लिए हम झगड़ रहे हैं।

बिन सिर पैरों के भावों की अजब अकड़ है,
सम्वादों के देवालय में चिर पतझड़ है।
ग्रहण लगा शब्दों को हैं सब अर्थ बिके पर
भाषा की बकवास लिए हम झगड़ रहे हैं।
हा! मिथकों की लाश लिए हम झगड़ रहे हैं।

हालातों के हर ढाँचे में ढलना भी है ज़िन्दगी /

बाधा भी है मंजिल भी है चलना भी है ज़िंदगी,
हालातों के हर ढाँचे में ढलना भी है ज़िंदगी।

ये सूनी सेजों की हिचकी यादों का आलिंगन है
ये केशव से बिछुड़ी राधा अभिसारों का निधिवन है,,
गागर भी है सागर भी है अमर गीत ये लहरों का
अँधियारों से लड़ना भी है टलना भी है ज़िंदगी
हालातों के हर ढाँचे में ढलना भी है ज़िंदगी।

विश्वासों की सौरभ है ये टूटी-बिखरी आशा भी
तूफानों से लड़ने वाले तिनके की परिभाषा भी,
आदर्शों की भूलभुलैया ठाले पन की पीड़ा ये
खुद ही अपना चाट पसीना फलना भी है ज़िन्दगी
हालातों के हर ढाँचे में ढलना भी है ज़िंदगी।

चिंता की उकलाई है ये भावों का है भोलापन
टूटे सपनों की माला ये हर इच्छा की है धड़कन।
घूँघट भीतर नीर भरी ये आँखों की है नीरवता
बाँट उजाले बाती की ज्यों जलना भी है ज़िन्दगी।
हालातों के हर ढाँचे में ढलना भी है ज़िंदगी।

दीपशिखा से लिपट शलभ की मिटने वाली रीत यही
नेह निभाते टूटे दिल की हारी होड़ पुनीत यही,
है चातक की करुण टेर ये बादल की लाचारी भी
संग हवा के चलना भी है पलना भी है ज़िन्दगी।
हालातों के हर ढाँचे में ढलना भी है ज़िंदगी।

है पेट भरों का कहना क्या?

सब से आगे दौड़ लगा यों
खुद को पीछे छोड़ थका यों,
सारा सागर पी कर के है
गंदे नालों ज्यों बहना क्या?
है पेट भरों का कहना क्या?
अरमानों की लाश उठा कर
भाड़े के आँसू टपका कर,
सारा गुलशन पा कर के भी
पाते हैं ये चैना क्या?
है पेट भरों का कहना क्या?
भूखों से ही भिक्षा लेकर
कर्तव्यों की शिक्षा दे कर,
भीख मिली कुर्सी के मद में
उन्मादी हो कर रहना क्या?
है पेट भरों का कहना क्या?

इन्सान

                        इन्सान
मैं हिन्दू हूँ मगर हिन्दुत्व ने मुझे लीला नहीं है।
मैं देख सकता हूँधर्मों केरक्त सने जबड़े।
वे जबड़े जिन की पूजा लहू से हुई,
नारों से हुई,
ऊंचे-ऊचे झंडों से हुई,
स्वार्थ में बहे आँसुओं की राख से हुई।

मैं हिन्दू हूँ मगर हिन्दुत्व ने मुझे लीला नहीं है।
मैं सुन सकता हूं मंदिर-मस्जिद के दोगले यथार्थ की अंधी धारणाओं पर टंगी,
भोले-भाले लोगों की चीखें।
वे चीखें जिन्हें सुन दिशाओं का दिल दहल गया था,
वे चीखें जिन्हें सुन पंछियों की काकली में गुँजती सुबह,
अपने होने पर रो रही थी,
वे चीखें जिन्हें सुन ईश्वर के अस्तित्व पर फोड़े निकल आए थे,
वे चीखें जिन्हें सुन ज़िन्दगी की महक से भरी आवाज़ की आत्मा मर गयी थी।

मैं हिन्दू हूँ मगर हिन्दुत्व ने मुझे लीला नहीं है।
मैं महसूस कर सकता हूँ मलेच और काफिर जैसे खोकले शब्दों के फूले पेट।
वे पेट जो मेरे भारत को टुकड़ों में तोड़ हजम कर गये,
वे पेट जो जैनब और बूटा सिंह के प्रेम को पचा नहीं पाए,
वे पेट जो मिथकों के ज़हर से फूल युद्ध हग-हग थके नहीं,
वे पेट जो गोली, बम, हिंसा, दहशत, डर, अफवाह सब थे पर पेट नहीं थे।

सच पूछो तो झूठा हूँ मैं, बिल्कुल झूठा।
तुम्हारे धार्मिक ग्रन्थों से भी झूठा,
सूर्य की स्थिरता से भी झूठा,
सत्य के होने से भी झूठा।
क्योंकि…
मैं कुछ भी होने से पहले इंसान हूँ।

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