कई सूरज कई महताब रक्खे
कई सूरज कई महताब रक्खे
तेरी आँखों में अपने ख्वाब रक्खे
हरीफों से भी हमने गुफ्तगू में
अवध के सब अदब-आदाब रक्खे
हमारे वास्ते मौजे-बला ने
कई साहिल तहे-गिर्दाब रक्खे
उभरने की न मोहलत दी किसी को
चरागों ने अँधेरे दाब रक्खे
कुछ तो मिला है आँखों के दरिया खंगाल के
कुछ तो मिला है आँखों के दरिया खंगाल के
लाया हूँ इनसे फिक्र के मोती निकाल के
हमने भी ढूंढ ली है जमीं आसमान पर
रखना है हमको पाँव बहुत देखभाल के
बच्चा दिखा रहा था मुझे जिन्दगी का सच
कागज़ की एक नाव को पानी में डाल के
उम्मीद के दिए में भरा सांस का लहू
जंगल सा एक ख्वाब का आँखों में पाल के
बुझते हुए दीयों को पिलाया है खूने-दिल
मिलते कहाँ हैं लोग हमारी मिसाल के
ग़रीबी जब मिलन की आस में अड़चन लगाती है
गरीबी जब मिलन की आस में अड़चन लगाती है
वो बिरहा में झुलसते जिस्म पर चन्दन लगाती है
महकती है बदन में उसके हिन्दुस्तान की खुशबू
कि वो तालाब की मिट्टी से जब उबटन लगाती है
जवानी देखती है खुद को रुसवाई के दर्पण में
फिर अपने आप पर दुनिया के सब बंधन लगाती है
कुंवारी चूड़ियों की दूर तक आवाज आती है
वो जब चौका लगती है, वो जब बासन लगाती है
उदासी में तेरी यादों की चादर ओढ़कर अक्सर
मेरी तन्हाई अपनी आँख में आंजन लगाती है
कभी तो आईना देखे तेरे दिल में भरी नफरत
हमेशा दूसरों के वास्ते दरपन लगाती है
अम्न की दीवार में दर हो गए
अम्न की दीवार में दर हो गये
जंग-जू जब से कबूतर हो गये
आज फिर पानी गले तक आ गया
हाथ अपने आप ऊपर हो गये
मैं भिकारी हो गया तो क्या हुआ
मांगने वाले तवंगर हो गये
दीद-ए-नमनाक से आंसू गिरे
और चकनाचूर पत्थर हो गये
शौक इन आँखों का है सारा कुसूर
जागते ही ख्वाब बेघर हो गये
दर्दे-दिल जान का आजार है मैं जानता हूँ
दर्दे-दिल जान का आजार है मैं जानता हूँ
और अल्लाह मददगार है मैं जानता हूँ
मंजरे-सुब्ह शफकजार है मैं जानता हूँ
ये तुम्हारा रूखे-अनवार है मैं जानता हूँ
मैं बिना कलमा पढ़े भी तो मुसलमां ठहरा
हाँ मेरे दोश पे जुन्नार है मैं जानता हूँ
एक-इक हर्फ़ महकने लगा फूलों की तरह
ये तेरी गर्मी-ए-गुफ्तार है मैं जानता हूँ
ढूँढते हैं मेरी आँखों में तुझे शहर के लोग
तेरा मिलना भी तो दुश्वार है मैं जानता हूँ
रेहन रक्खे जो मेरी कौम के मुस्तकबिल को
वो मेरी कौम का सरदार है मैं जानता हूँ
ख़ुद अपने दिल को हर एहसास से आरी बनाते हैं
खुद अपने दिल को हर एहसास से आरी बनाते हैं
जब इक कमरे में हम कागज़ की फुलवारी बनाते हैं
गज़ल के वास्ते इपनी जमीं हम किस तरह ढूंढें
जमीनों के सभी नक़्शे तो पटवारी बनाते हैं
तलाशी में उन्हीं के घर निकलती है बड़ी दौलत
जो ठेकेदार हैं और काम सरकारी बनाते हैं
इन्हें क्या फर्क पड़ता है कोई आए कोई जाए
यही वो लोग हैं जो राग-दरबारी बनाते हैं
जरूरत फिर हवस के खोल से बाहर निकल आई
कि अब माली ही खुद गुंचों को बाजारी बनाते हैं.
शहर आदिल है तो मुंसिफ़ की ज़रूरत कैसी
शहर आदिल है तो मुंसिफ की जरूरत कैसी
कोई मुजरिम ही नहीं है तो अदालत कैसी
काम के बोझ से रहते हैं परीशां हर वक्त
आज के दौर के बच्चों में शरारत कैसी
हमको हिर-फिर के तो रहना है इसी धरती पर
हम अगर शहर बदलते हैं तो हिजरत कैसी
मैंने भी जिसके लिए खुद को गंवाया बरसों
वो मुझे ढूँढने आ जाए तो हैरत कैसी
जिसमें मजदूर को दो वक़्त की रोटी न मिले
वो हुकूमत भी अगर है तो हुकूमत कैसी
नख़्ले-उम्मीद में हैरत के समर आ गए हैं
नख्ले-उम्मीद में हैरत के समर आ गए हैं
घर जो हम खाना-बदोशों को नज़र आ गए हैं
भूक ने कर दिए हैं मेरी अना के टुकडे
सिर्फ चंदा नहीं तारे भी नज़र आ गए हैं
तू जो बिछड़ा था तो फिर तेज हुई थी धड़कन
फिर मुझे याद तेरे दीद-ए-तर आ गए हैं
फ़ायदा कुछ तो हुआ है तेरी सोहबत का मुझे
सोच के जिस्म में उम्मीद के पर आ गए हैं
मक्तले -जां का नज़ारा है बहुत ही दिलसोज
देखते-देखते आखों में शरर आ गए हैं
बड़ी तफ़रीक पैदा हो गई है हर घराने में
बड़ी तफरीक पैदा हो गयी है हर घराने में
ज़रा सी देर लगती है यहाँ दीवार उठाने में
ये ऐसा कर्ज है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं खुद घुटनों के बल बैठा हूँ तेरा कद बढाने में
न जाने लोग इस दुनिया में कैसे घर बनाते हैं,
हमारी जिन्दगी तो कट गयी नक्शा बनाने में
बलंदी से उतर कर सब यहाँ तक़रीर करते हैं
किसी को याद रखता है कोई अपने जमाने में
मुहब्बत है तो सूरज की तरह आगोश में ले लो
ज़रा सी देर लगती है उसे धरती पे आने में
मज़हब की किताबों से भी इरशाद हुआ मैं
मज़हब की किताबों से भी इरशाद हुआ मैं
दुनिया तेरी तामीर में बुनियाद हुआ मैं
सय्याद समझता था रिहा न हो सकूंगा
हाथों की नसें काट के आजाद हुआ मैं
हर शख्स हिकारत से मुझे देख रहा है
जैसे किसी मजलूम की फ़रियाद हुआ मैं
मारे गए तमाम लोग फिर से नए फसाद में
जो भी था बानी-ए -फसाद बस वही बेकुसूर था
बढ़ने दिया न वक़्त ने शेरो-अदब की राह में
मंजिले-शायरी से शौक चंद कदम ही दूर था
अजमतों के बोझ से घबरा गए
अजमतों के बोझ से घबरा गए
सर उठाया था कि ठोकर खा गए
ले तो आए हैं उन्हें हम राह पर
हाँ, मगर दांतों पसीने आ गए
भूख इतनी थी कि अपने जिस्म से
मांस खुद नोचा, चबाया, खा गए
कैदखाने से रिहाई यूं मिली
हौसले जंजीर को पिघला गए
बज गया नक्कारा-ए-फ़तहे-अजीम
जंग से हम लौट कर घर आ गए
इक नई उम्मीद के झोंके मेरे
पाँव के छालों को फिर सहला गए
उन बुतों में जान हम ने डाल दी
दश्ते-तन्हाई में जो पथरा गए.
छीन ली जब ख्वाहिशों की ज़िन्दगी
पाँव खुद चादर के अंदर आ गए
ख़ुदा ख़ुद मेरे दिल के अंदर मकीं है
ख़ुदा ख़ुद मेरे दिल के अंदर मकीं है।
मगर मुझको इसकी ख़बर तक नहीं है।।
इसी इक सबब से वो पर्दानषीं है।।
मियां दीद की ताब हम में नहीं है।।
न जाने ये कैसे सफ़र में है दुनिया।
जहां से चली थी वहीं की वहीं है।।
निकल आएंगे कुछ मुहब्बत के पौदे।
के भीगी हुई मेरे दिल की ज़ है।।
हमारा-तुम्हारा मिलन होगा इक दिन।
तुम्हें भी यकीं है हमें भी यकीं है।।
ये माना बहुत ख़ूबसूरत है दुनिया।
मगर मुझको इसकी तलब तो नहीं है।।
वो है लामकां उसकी अज़्मत न पूछो।
हुकूमत तो उसकी कहीं से कहीं है।।
पड़े मेरी मां के क़दम जिस ज़्ामीं पर।
मेरे वास्ते वो तो ख़ुल्दे-बरीं है।।
हमारे लिए है वही मन्नो-सलवा।
मिली जो भी मेहनत से नाने-जवीं है।।
दरे-हबीब की तलब जुनूं में ढल के आ गई
दरे-हबीब की तलब जुनूं में ढल के आ गई।।
मेरी निगाहे-शौक़ की मुराद चैन पा गई।।
हमारे दिल का आबला था फूटना ही एक दिन।
उदासियों का रक़्स देखने बहार आ गई।।
तजल्लियों को देखने की ख़्वाहिशें बलंद थीं।
ज़्ारा सा अक्स देख कर ही रूह थरथरा गई।।
बुझा दिए थे मैंने बेवफ़ाइयों के सब चराग़्ा।
तुम्हारी याद आई तो बुझे दिए जला गई।।
ख़िज़्ाां के मंज़्ारों को देखते रहे चमन में हम।
हवा के बाज़ुओं में जब बहार कसमसा गई।।
क़दम बढ़ा दिए तो मुझको मंजि़्ालों ने ख़ुद छुआ।
अमल की आंच फिर मेंरे वजूद को जला गई।।
अदा-ए-शहरे दिलबरां को दखने का शौक़ था।
वो रूबरू हुआ तो क्यों नज़्ार षिकस्त खा गई।।
सितम की आग ने हमें जला के ख़ाक कर दिया।
चलो तुम्हारी रूह तो बड़ा सुकून पा गई।।
अता-ए रब है ‘शौक़’ को मताए-इख़्तिसार भी।
जभी तो ख़्वाहिशात की परी को नींद आ गई।।