नदी-सा बहता हुआ दिन
कहाँ ढूँढ़ें–
नदी-सा
बहता हुआ दिन ।
वह गगन भर धूप
सेनुर और सोना,
धार का दरपन
भँवर का फूल होना,
हाँ,
किनारों से
कथा कहता हुआ दिन !
सूर्य का हर रोज़
नंगे पाँव चलना
घाटियों में हवा का
कपड़े बदलना,
ओस
कुहरा, घाम
सब सहता हुआ दिन !
कौन देगा
मोरपंख से लिखे छन
रेतियों पर
सीप-शंखों से लिखे छन,
आज
कच्ची भीत-सा
ढहता हुआ दिन !
सूने घर में
सूने घर में
कोने-कोने
मकड़ी बुनती जाल
अम्मा बिन
आँगन सूना है
बाबा बिन दालान
चिट्ठी आई है
बहिना की
साँसत में है जान,
नित-नित
नए तगादे भेजे
बहिना की ससुराल ।
भइया तो
परदेश विराजे
कौन करे अब चेत
साहू के खाते में
बंधक है
बीघा भर खेत,
शायद
कुर्की ज़ब्ती भी
हो जाए अगले साल ।
ओर छोर
छप्पर का टपके
उनके काली रात
शायद अबकी
झेल न पाए
भादों की बरसात
पुरखों की
यह एक निशानी
किसे सुनाए हाल ।
फिर भी
एक दिया जलता है
जब साँझी के नाम
लगता
कोई पथ जोहे
खिड़की के पल्ले थाम,
बड़ी-बड़ी दो आँखें
पूछें
फिर-फिर वही सवाल ।
सूने घर में
कोने-कोने
मकड़ी बुनती जाल ।
अक्षरा से
अरी अक्षरा
तू है बढ़ी उम्र का
गीत सुनहरा
मेरे उजले केश
किंतु, इनसे उजली
तेरी किलकारी
तेरे आगे
फीकी लगती
चाँद-सितारों की उजियारी
कौन थाह पाएगा
बिटिया
यह अनुराग
बड़ा है गहरा
तू हँसती है
झिलमिल करती
आबदार मोती की लड़ियाँ
तेरी लार-लपेटी बोली
छूट रहीं
सौ-सौ फुलझड़ियाँ
ये दिन हैं
खिलने-खुलने के
इन पर कहाँ
किसी का पहरा
होंठों पर
उग-उग आते हैं
दूध-बिलोये अनगिन आखर
कितने-कितने
अर्थ कौंधते
गागर में आ जाता सागर
मैं जीवन का
वर्ण आखिरी
तू मेरा
अनमोल ककहरा ।
चेतावनी
ख़बरदार
‘राजा नंगा है‘…
मत कहना
राजा नंगा है तो है
इससे तुमको क्या
सच को सच कहने पर
होगी घोर समस्या
सभी सयाने चुप हैं
तुम भी चुप रहना
राजा दिन को रात कहे तो
रात कहो तुम
राजा को जो भाये
वैसी बात करो तुम
जैसे राखे राजा
वैसे ही रहना
राजा जो बोले
समझो कानून वही है
राजा उल्टी चाल चले
तो वही सही है
इस उल्टी गंगा में
तुम उल्टा बहना
राजा की तुम अगर
खिलाफ़त कभी करोगे
चौराहे पर सरेआम
बेमौत मरोगे
अब तक सहते आये हो
अब भी सहना ।
इस मौसम में
इस मौसम में
कुछ ज़्यादा ही तनातनी है।
सच है स्याह
सफ़ेद झूठ
यह आखिर क्या है?
धर्मयुद्ध है
या जेहाद है
या फिर क्या है?
इतिहासों के
काले पन्ने खुलते जाते
नादिरशाहों
चंग़ेजों की चली बनी है!
रह-रह
बदल रहा है मौसम
दुर्घटना में
लोग हस्तिनापुर में
हों या
हों पटना में
पानीपत की आँखों में
अब भी दहशत है
और आज भी
नालन्दा में आग़जनी है।
घड़ियालों की
बन आई है
समय नदी में
नये-नये
हो रहे तमाशे
नई सदी में
लहजे बदले
इंद्रप्रस्थ में संवादों के
रंगमंच पर
फ़नकारों में ग़ज़ब ठनी है।
धूप के लिए
अब बहुत
छलने लगी है छाँव
चलो, चलकर धूप के हो लें!
थम नहीं पाते
कहीं भी पाँव
मानसूनी इन हवाओं के
हो रहे
पन्ने सभी बदरंग
जिल्द में लिपटी कथाओं के
एक रस वे बोल
औरों के
और कितनी बार हम बोलें
दाबकर पंजे
ढलानों से
उतरता आ रहा सुनसान
फ़ायदा क्या
पत्रियों की चरमराहट पर
लगाकर कान
मुट्ठियों में
फड़फड़ाते दिन
गीत-गंधी पर कहां तोलें!