चलो कि हम भी ज़माने के साथ चलते हैं
चलो कि हम भी ज़माने के साथ चलते हैं
नहीं बदलता ज़माना तो हम बदलते हैं
किसी को क़द्र नहीं है हमारी क़द्रों की
चलो कि आय ये क़द्रें सभी बदलते हैं
बुला रही हैं हमें तल्ख़ियाँ हक़ीक़त की
ख़याल-ओ-ख़्वाब की दुनिया से अब निकलते हैं
बुझी से आग कभी पेट की उसूलों से
ये उन से पूछिए जो गर्दिशों में पलते हैं
उन्हें न तोलिये तहज़ीब के तराज़ू में
घरों में उन के न चूल्हे न दीप जलते हैं
ज़रा सी आस भी ताबीर की नहीं जिन को
दिलों में ख़्वाब वो क्या सोच कर मचलते हैं
हमें न रास ज़माने की महफ़िलें आई
चलो की छोड़ के अब इस जहाँ को चलते हैं
मिज़ाज तेरे ग़मों का ‘सदा’ निराला है
कभी ग़ज़ल तो कभी गीत बन के ढलते हैं
तबीअत रफ़्ता रफ़्ता ख़ूगर-ए-ग़म होती जाती है
तबीअत रफ़्ता रफ़्ता ख़ूगर-ए-ग़म होती जाती है
वही रंज-ओ-अलम है पर ख़लिश कम होती जाती है
ख़ुशी का वक़्त है और आँख पुर-नम होती जाती है
खिली है धूप और बारिश भी छम-छम होती जाती है
उजाला इल्म का फैला तो है चारों तरफ़ यारों
बसीरत आदमी की कुछ मगर कम होती जाती है
करें सज़्दा किसी बुत को गवारा था किसे लेकिन
जबीं को क्या करें जो ख़ुद-ब-ख़ुद ख़म होती जाती है
तुझे है फ़िक्र मेरी मुझ से बढ़ कर ऐ मिरे मौला
मुझे दरकार है जो शय फ़राहम होती जाती है
उठी क्या इक निगाह-ए-लुत्फ़ फिर अपनी तरफ़ यारों
कि हर टूटी हुई उम्मीद क़ाएम होती जाती है
बड़ा घाटे का सौदा है ‘सदा’ ये साँस लेना भी
बढ़े हैं उम्र ज्यूँ-ज्यूँ ज़िंदगी कम होती जाती है
दिखाएगी असर दिल की पुकार आहिस्ता आहिस्ता
दिखाएगी असर दिल की पुकार आहिस्ता आहिस्ता
बजेंगे आप के दिल के भी तार आहिस्ता-आहिस्ता
निकलता है शिगाफ़ों से ग़ुबार आहिस्ता आहिस्ता
थमेगी आँख से अश्कों की धार आहिस्ता आहिस्ता
रही मश्क़-ए-सितम जारी अग कुछ दिन जनाब ऐसे
मिलेंगे ख़ाक में सब जाँ-निसार आहिस्ता आहिस्ता
मुक़द्दर उस का मुरझाना ही तो है बाद खिलने के
कली पर या-ख़ुदा आए निखार आहिस्ता आहिस्ता
बना है नाज़िम-ए-गुलशन कोई सय्याद अब शायद
परिंदे हो रहे हैं सब फ़रार आहिस्ता आहिस्ता
मोहब्बत के मरीज़ों का मुदावा है ज़रा मुश्किल
उतरता है ‘सदा’ उन का बुख़ार आहिस्ता आहिस्ता
दिल के कहने पर चल निकला
दिल के कहने पर चल निकला
मैं भी कितना पागल निकला
आँसू निकले काजल निकला
रोने से कब कुछ हल निकला
पोंछ सका बस अपने आँसू
कितना छोटा आँचल निकला
चूर हुआ पर झूठ न बोला
दर्पण मुझ सा अड़ियल निकला
दुश्मन के घर बूँदें बरसीं
मेरी छत से बादल निकला
क़त्ल हुई हर सूरत आख़िर
दिल मेरा इक मक़्तल निकला
बाहर से था ख़ार ‘सदा’ तू
अंदर फूल सा कोमल निकला
न ज़िक्र गुल का कहीं है न माहताब का है
न ज़िक्र गुल का कहीं है न माहताब का है
तमाम शहर में चर्चा तिरे शबाब का है
शराब अपनी जगह चाँदनी है अपनी जगह
मगर जवाब ही क्या हुस्न-ए-बे-नक़ाब का है
हुए हैं ना-गहाँ बिस्मिल शरीक-ए-बज़्म जो सब
क़ुसूर कुछ है तिरा कुछ तिरे नक़ाब का है
न तू ने मय चखी ज़ाहिद न जुर्म-ए-इश्क़ किया
तो सुब्ह ओ शाम तुझे फ़िक्र किस अज़ाब का है
मय-ए-तुहूर का इस वक़्त ले न नाम ऐ शैख़
ये वक़्त-ए-शाम तो अँगूर की शराब का है
‘सदा’ के पास है दुनिया का तजरबा वाइज़
तुम्हारी बात में बस फ़ल्सफ़ा किताब का है
लाख तक़दीर पे रोए कोई रोने वाला
लाख तक़दीर पे रोए कोई रोने वाला
सिर्फ़ रोने से तो कुछ भी नहीं होने वाला
बार-ए-ग़म गुल है कि पत्थर है ये मौक़ूफ़ इस पर
किस सलीक़े से इसे ढोता है ढोने वाला
कोई तदबीर या तावीज़ नहीं काम आती
हादसा होता है हर हाल में होने वाला
तू है शायर तुझे हरग़िज न सुहाए रोना
तेरा हर अश्क है गीतों में पिरोने वाला
खौल उठता है लहू देख के अपना यारो
फ़स्ल को काटे न जब फ़स्ल को बोने वाला
मौत की गोद में जब तक नहीं तू सो जाता
तू ‘सदा’ चैन से हरग़िज नहीं सोने वाला