Skip to content

इक सवाल खुदा-ए-बरतर से

हम इस ज़मीन ओ आसमाँ के दरमियाँ
हैरान हैं और सर-गराँ
ऐ ख़ुदा-ए-दो जहाँ !
ऐ हर्फ़-ए-कुन के राज़-दाँ !
ऐ मम्बा-ए-कौन-ओ-मकाँ !
इतना तो बतला दे
कोई ऐसी भी दुनिया है
जहाँ इंसानियत की साफ़ पेशानी पे
इल्म ओ फ़न की पौ फटती हो और
फ़िक्र ओ नज़र के आईनों से
नूर की किरनें उबलती हों
दिलों में ख़ैर ओ बरकत की दुआएँ गूँजती हों
सुब्ह दम आकाश के नीलम तले
जाम-ए-हक़ीक़त पी के जीने की तमन्ना रक़्स करती हो
जहाँ एहसास के कोहरे से
फ़िक्र-ए-नौ के तारे झिलमिलाते हों
जहाँ होंटों पे हर्फ़-आगही की जोत हो
आँखों से हैरत
ज़ेहन से विज्दान के चश्‍मे उबलते हों,
जहाँ रातों के सन्नाटे में
दिल महव-ए-नियाज़-ओ-नाज़ रहता हो
फ़ज़ा-ए-बे-कराँ के सहर का हमराज़ रहता हो
मोहब्बत, इश्‍क़, दिलदारी, वफ़ा उनवान-ए-हस्ती हों
उख़ूवत नर्म-गुफ़्तारी अता-ए-पैमाना-ए-दिल हों

ख़ुदा-ए-लम-यज़ल बतला
कोई ऐसी भी दुनिया है
कहीं ऐसा भी होता है

सियासत की फ़ुसूँ-साज़ी
तिजारत की ज़ियाँ-कारी
हवस की गर्म-बाज़ारी
किसी अय्यार-ए-कुव्वत की जहाँ-दारी
में दम घुटता है
हर लम्हा अज़ाब-ए-जावेदाँ मालूम होता है
‘‘ख़ुदा-वंद! ये तेरे सादा दिल बंदे कहाँ जाएँ ?’’

कब से महव-ए-सफर हो

साजिद! किन युगों की मसाफ़त समेटे हुए
इस बयाबाँ में यूँही भटकती रहोगी
इन बगूलों के हमराह यूँ रक़्स करती रहोगी
कितने सहराओं में तुम ने फोड़े हैं पाँव के छाले
कितनी बेदार रातों से माँगा है तुम ने ख़िराज-ए-तमन्ना
साजिद! कुछ कहो
हिज्र के किन ज़मानों में अश्‍कों की माला पिरोई
किन हिसाबों चुकाया क़र्ज़-ए-जुनूँ
कौन से मरहलों से गुज़र कर बना रूह का पैरहन
किस तरह जाँ से गुज़रे हैं तुफ़ान-ए-ग़म

किस तरह तुंद आँधी की यलग़ार में
तुम ने अपनी रिदा को सँभाला
कैसे यख़-बस्ता तन्हाइयों में
जश्न-ए-रूह ओ दिल ओ जाँ मनाया
शोला-ए-आरज़ू में
कैसे हर्फ़ ओ नवा को तपाया
जागती रात की तीरगी को
किस तरह मताला-ए-नूर-ए-यज़दाँ बनाया
कितने सज्दों से अपनी जबीं को सजाया

साजिद!
दर्द के रास्तों
कब से महव-ए-सफ़र हो
तुम ने इन रेगज़ारों की बंजर ज़मीं में
कितने रफ़्तार ओ गुफ़्तार के गुल खिलाए
इस उक़बूत-कदा की सियाही में
कितने चराग़-ए-तमन्ना जलाए
साजिद !
इस तग-ओ-दौ से तुम ने
क्या कभी चेहरा-ए-ज़िदगी को सँवारा
क्या किसी दिल में कोई सितारा उतारा
क्या ज़माने की रफ़्तार बदली
क्या किसी तपते सहरा के ज़र्रों को कुंदन बनाया
कितने ज़ख़्मों पे इंसाँ के मरहम लगाया
ज़ुल्म की दास्ताँ को कभी हर्फ़-ए-षीरीं बनाया

साजिद!
शाम है ज़िंदगी की
थक के सो जाओ सब हाव-हू-भूल जाओ
कड़ी धूप के कोस दर कोस
अगले ज़मानों के नक़्श-ए-क़दम हैं
रंग मौसम बदलने लगा है
तुम मसीहा नहीं
थक के सो जाओ
रक़्स-ए-जुनूँ भूल जाओ

कलियाँ नीला आसमान जंजीर

औरत के नाम
मिरे एहसास की वादी में कलियाँ मुस्कुराती हैं
मगर मैं चुन नहीं सकती
मैं लम्हों में सफ़र करती हूँ
ताबिंदा उफ़ुक़ के इस किनारे तक
जहाँ आकाश धरती के लबों को चूमता है
साँस लेता है
मिरे हाथों की रेखाओं में
जाने कैसी ज़ंजीरे पड़ीं
रोज़-ए-अव्वल से
मैं ज़ंजीर-ए-आहन तोड़ कर
रोज़-ए-अबद तक जा नहीं सकती
मैं कलियाँ चुन नहीं सकती

मिरे जज़्बों के नख़लिस्ताँ में सब्ज़ा सर उठाता है
हवा धीमे सरों में गुनगुनाती है
फ़ज़ाएँ रक़्स करती हैं
ख़ुदा आवाज़ देता है
मैं सर नेवढ़ा के सुनती हूँ
दयार-ए-रूह में इक अनु-सुना नग़्मा मचलता है
मैं उस नग़्मे को लब तक ला नहीं सकती
मिरे तपते बदन पर
सब्ज़ शाख़ों की फुवारें सूख जाती हैं
मिरी आँखों की झीलों में
मुनव्वर ला-जवर्दी आसमाँ का अक्स होता है
उफ़ुक़ के पार इक खिड़की सी खुलती है
सवाद-ए-वक़्त की सारी तनाबें टूट जाती हैं
मगर यख़-बस्ता दीवारें
मुझे हर सम्त से यूँ घेर लेती हैं
मैं परवाज़-ए-तमन्ना कर नहीं सकती
मिरी आँखों को नीला आसमाँ हसरत से तकता है
कई उम्रें गुज़ार आई
कई दुनियाएँ छान आई
कई सहराओं में नक़्श-ए-क़दम छोड़े
कई दरिया लहू के पार कर आई
कई आतिश-कदों में जज़्ब-ए-दिल कुंदन बन बना आई
मगर जब भी मिरी ज़ंजीर-ए-आहन खड़खड़ाती है

मुझे जब जब भी नीला आसमाँ हसरत से तकता है
मैं अपने आतिश-ए-दिल से जला देती हूँ
उस ज़ंजीर की कड़ियाँ
सितारों तक पहूँचती हूँ
मदार-ए-नूर में महताब की हम-रक़्स होती हूँ

वो पल ये घड़ी

सलमान के नाम
वो पल
जब तुम्हें कोख से जन के
उम्मीद ओ इम्काँ का तारा समझ कर
मैं ने आग़ोश में भर लिया था
वो पल
सुर्ख़ कलियों को जब
अपने सीने की धारा सींचा था
और अपनी ही तिश्‍नगी का मुदावा किया था

एक नन्हे से चेहरे के
नाज़ुक ख़द-ओ-ख़ाल में डूबर कर
जब मिरी रूह परवान चढ़ने लगी थी

वो पल
जब मिरी शब-गुज़ारी की
मेहनत-कशी में
तुम्हारी नुमू की गुहर-बार आसूदगी थी
वो पल
राहत-ए-बज़्म मौजूद ओ इम्काँ
जब मिरी गोद में सो गई थी

वो पल जब मिरी आत्मा
और परमात्मा
इक मधुर रूप में ढल गए थे
मेरे आँगन में
मासूम सी रौशनी थी
वो पल
वक़्त की रह-गुज़र में
बहुत दूर पीछे कहीं रह गया है
ग़ुबार-ए-सफ़र के धुँदलकों में
नज़रों से ओझल हुआ है
और अब
जब कि तुम आए हो
अपने ही घर में मेहमान बन के
तुम्हें दूर जाना है
मसरूफ़ हो
वक़्त थोड़ा है
आगे मिरी ज़िंदगी की डगर पर
साअत-ए-वापसीं मुंतज़िर है
इस घड़ी
गरचे मेरी घड़ी अपनी रफ़्तार से चल रही है
मगर
मेरी आँखों की सूखी नमी
पुराने किवाड़ों की चौखट में
न जाने क्यूँ
जज़्ब होने लगी है
और इस घर के दीवार ओ दर अपनी अपनी जगह चुप खड़े है

तख़्लीक शेर

बहुत दिनों से उदास नज़रों की रहगुज़र थी
पड़ी थीं सोती उफ़ु़क़ की राहें
कि दिल की महफ़िल में
नग़्मा ओ नाला ओ नवा की
अजब सी शोरिश नहीं हुई थी

नज़र उठाई तो दूर धुँदली फ़ज़ाओं में
रौशनी का इक दाएरा सा देखा
लरज़ के ठहरा जो दिल
तख़य्युल ने अपने शहपर फ़ज़ा में खोले
कि जैसे
परवाज़ का सहीफ़ा खुले
तो नीले गगन के असरार जाग उट्ठें
कि जैसे
माह ओ नुजूम की मम्लिकत का रास्ता कोई बता दे
फ़ज़ा से पर्दे कोई उठा दे
कि जैसे
इक बे-कनार सहरा में
मौज-ए-रेग-ए-रवाँ नुक़ूश-ए-नवा बना दे
कि जैसे ताएर-ए-हवा की लहरों पे, जुम्बिश-ए-पर से
दास्तान-ए-वजूद लिख दें
कि जैसे
तारीक शब के दामन में
दस्त-ए-कुदरत, चराग़-ए-दिल यक-ब-यक जला दे

वो इश्‍क़ जो हम को लाहिक़ था

वो इश्‍क़ जो हम का लाहिक़ था
शब-हा-ए-सियह के दामन में
असरार जुनूँ के खोल गया

बहर-ए-मौजूद के मरकज़ से
इक मौज-ए-तलातुम-ख़ेज-उट्ठी
इक दर्द की लहर उठी दिल के रौज़न से
जिस में सिमट गए
दोनों आलम के रंज ओ तरब
और हस्त-ओ-बूद के महवर पर
रंज ओ राहत हम-रक़्स हुए

फ़ुर्कत के तन्हा लम्हों में
आबाद थी इक दुनिया-ए-फ़ुसूँ
रफ़्तार-ए-ग़म की मौज-ए-रवाँ
आवारा बगूले यादों के
बारिश की मद्धम बूँदों के
सरगम की फ़रावाँ मौसीक़ी
अश्‍जार की रक़्साँ शाख़ो से
छनता हुआ फ़ितरत का जादू
दुनिया-ए-नशात-ओ-दर्द की लय
अंदोह ओ अलम का इक आलम
तख़्लीक़ के लर्ज़ा सीने के असरार-ए-निहाँ
नग़्मा-बर-लब ये अर्ज़ ओ समा
नौहा दर्द-ए-दिल बातिन की फ़ज़ा
तख़्लीक़ जहाँ के सर निहाँ
पत्ते पत्ते की रंगत में
हर्फ़ किन का जादू लर्ज़ां
सब इक वहदत में जज़्ब हुए
इक वज्द आगीं एहसास में
रूह ओ जिस्म ओ जाँ मल्बूस हुए
वक़्त और मकाँ के सिर्र-ए-निहाँ मल्बूस हुए

इस इश्‍क़ से ये असरार खुला
हम ज़िंदा हैं और राह-ए-फ़ना में जौलाँ हैं
इक रोज़ ये दिल बुझ जाएगा
बस नूर-ए-ख़ुदा रह जाएगा
वो इश्‍क़ जो हम को लाहिक़ था
असरार-ए-वजूद ओ रम्ज़-ए-अदम सब खोल गया

दौर उफ़्तादगी

नग़्मगी गीत हर्फ़-ओ-नवा
नाला-ए-शौक़ सौत ओ सदा
एक बहरी सियासत के दरबार में
सर-निगूँ पा-ब-ज़ंजीर लाए गए
सारा सीमाब-ए-नक़द-ओ-नज़र
सब तिलिस्मात-ए-हर्फ़-ओ-हुनर
पर्दा-ए-सहर-ओ-असरार से टूट कर
मक़्तल-ए-आरज़ू बन गए
वो तरब-ज़ार-ए-दिल क़स्र-ए-ग़म
रात भर जागती आगही यानी
इक़लीम-ए-जाँ
मशीनों के खंडरात में खो गए
वो जो आहंग-ए-आलम था
ख़्वाबों का मस्कन था और हर्फ़ ओ मआनी की ततहीर था
अपनी बेदारियों की सज़ा काटने के लिए
संग ओ आहन में ढाला गया

सज्दा-ए-हक़
तमन्ना के आफ़ाक़ तक दर्द के क़ाफिले
काबा-ए-नूर तक आबला-पाई के सिलसिले
ज़र-ए-मग़रिब की मीज़ान में तुल गए

हम की इस दश्‍त में आबला-पा थे सदियों से
इस राह के संग-ए-मिल
अपने क़दमों के हमराज़ थे
हम भी इस दौर-ए-उफ़्तादगी में
बस
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते रह गए

मी-यौमिल-हिसाब

मुझे बे-रहम हस्ती के ज़याँ-ख़ाने में क्यूँ भेजा गया
क्यूँ हल्क़ा-ए-ज़ंजीर में रख दी गईं बे-ताबियाँ मेरी
हर इक मंज़र मिरी नज़रों का जूया था
फ़रोज़ाँ शाख़-सारों पर हुजूम-ए-रंग-ओ-बू
उड़ता हुआ अब्र-ए-रवाँ
सीमाब-पा मौजें
सबा का रक़्स बे-परवा
शब-ए-महताब का अफ़्सूँ
मह ओ अंजुम के रक़्साँ दाएरे
रू-ए-शफ़क़
ताबाँ उफ़ुक़
दरियाओं की रफ़्तार
शब के जागते असरार
सहरा का मुनव्वर सीन-ए-उर्यां
तिलिस्म-ए-बे-कराँ के ख़्वाब-गूँ साए
मिरी रातों में मिस्ल-ए-बर्क़ लहराए
सितारों की तजल्ली में था हर्फ़ किन का अफ़्साना
बड़ा फ़य्याज़ था फ़ितरत का शाना
कई सहरा मेरे गाम-ए-तमन्ना के शनासाा थे
वो हर्फ़ ओ सौत की वादी
वो ज़ौक़-ए-शेर का जादा
वो इरफ़ाँ के गुरेज़ाँ आस्तानों पर जबीं साई
वो दानिश की पज़ीराई
वो मआनी की घनेरी छाँव में
ज़ेहन-ए-रसा का कश्‍फ़ वो
असरार के पर्दे के पीछे
दिल की महशर का कश्‍फ़ वो
असरार के पर्दे के पीछे
दिल की महशर-ख़ेज़ आवाज़ें
वो ग़म-हा-ए-निहानी से फ़िरोज़ाँ ज़ौक़-ए-बीनाई
वो दामन का हर इक ख़ार-ए-मुग़ीलाँ से उलझना
तूल ओ अर्ज़ दश्‍त ओ दरिया पार कर जाना
वो हर ज़र्रे में धरती की सदा सुनना
वो हर क़तरे के आईने में
नूर हसन मुतलक़ का लरज़ना
दिल नज़र हर्फ़ ओ हुनर का एक सो जाना
तकल्लुम जुस्तुजू रफ़्तार ओ ग़म का मुद्दआ पाना
कोई ईसा नफ़स देता था नाम-ए-जीस्त नज़राना
लरज़ता इल्तिहाब-ए-आगही से था मिरी नज़रों का पैमाना
गुरेज़ाँ साअतों के कारवाँ को किस ने पकड़ा है
नज़र महव-ए-माल-ए-दोश-ओ-फ़र्दा है
कई दीवार ओ सक़फ़ ओ साएबाँ के मुंजमिद चेहरे
कई ऊँची फ़सलें राह में हाइल
कई बे-फ़ैज़ काविश-हा-ए-तन्हाई
कई बे-महरियाँ पैकार बे-मफ़्हूम पर माइल
कई तीरों ने मेरी ख़ेमा-गाह-ए-शौक को छेदा
कई तरकश हुए इस जिस्म पर ख़ाली हुई जाती है रज़्म-ए-ज़िंदगानी मुज़्महिल घाइल

नशात ओ दर्द की वो खोशा-चीनी छोड़ दी हम ने
इनान-ए-हुस्न-ओ-इम्काँ तोड़ दी हम ने
सुकूत-ए-शाम है
बुझने लगे सारे अयाग़-ए-गर्म-रफ़्तारी
शिकस्ता तार-ए-हस्ती की तरह लर्ज़ां हैं
गर्द ओ पेश के सब तार-ए-नज़र
वो साअत आन पहुँची है
निगाह-ए-वापसीं के मुंतजीर हैं टूटते तारे
मुझे शायद हिमााला की फल़क-पैमाइयाँ आवाज़ देती हैं
मैं अपनी मौत से
इन बर्फ़-ज़ारों की दरख़शिंदा मअय्यत में मिलूँगी
तोडुँगी हल्का-ए-ज़ंजीर-ए-महजूरी

फकीरी में

फ़क़ीरी में भी ख़ुश-वक़्ती के
कुछ सामान फ़रहाम थे

ख़यालों के बगूले
मुज़्तरीब जज़्बों के हँगामें,
तलातुम बहर-ए-हस्ती में
तमव्वुज-ए-रूह के बन में,
अजब अफ़्ताँ ओ ख़िजाँ मरहले पहनाई शब के,
तड़प ग़म-हा-ए-हिज्राँ की
लरज़ती आरज़ू दीदार-ए-जानाँ की

अदम-आबाद के सहरा में एक ज़र्रा
कि मिस्ल-ए-क़तरा-ए-सीमाब लर्ज़ीदा
सदफ़ में ज़ेहन के जूँ
गौहर-ए-कामयाब पोशीदा
दिल-ए-सद-पारा
जू-ए-ग़म
लरज़ती कश्‍ती-ए-एहसास
जहाँ-बीनी का दिल में अज़्म-ए-दुज़्दीदा
फ़क़ीरी में यही असबाब-ए-हस्ती था यही दर्द-ए-तह-जाम-ए-तमन्ना था
यही सामाँ बचा लेते तो अच्छा था
फ़क़ीरी में मगर ये कौन सी उफ़्ताद आई है
कि सामाँ लुट गया राहों में कासा दिल का ख़ाली है

हमारी रूह का नग़्मा है

वो दर्द-ए-आरज़ू
जो लर्ज़ा-बर-अंदाम था पहनाए आलम में
वो हर्फ़-ए-तिश्‍नगी
जो नग़मा-बर-लब था दबिस्तान-ए-शब-ए-ग़म में
वो इक दुनिया-ए-ना-पैदा-करों थी
आसमाँ की वुसअतें जिस में से समाई थीं

बड़े गहरे समुंदर मौजज़न थे कुर्रा-ए-दिल में
जिन्हें एक जुस्तजू-ए-ख़ाम ने ख़ामोश कर डाला
बहुत मुँह ज़ोर मौज़ें थी
जिन्हें ख़ुद हम ने पाबंद-ए-सलासिल कर दिया एक दिन
फ़राज़-ए-कोह से आते हुए बेताब दरिया थे
जिन्हें इक दाएरे में रक़्स करना हम ने सिखलाया
तक़ाज़े होश-मंदी के हमारे राहबर निकले
फ़राज़-ए-आरज़ू से हम
नशेब-ए-आफ़ियत में आन निकले
और मआल-ए-रोज़-ओ-शब के बेश-ओ-कम में गुम हुए
अपनी मता-ए-ख़ुद-निगाही छोड़ आए
इक सुकूत-ए-आहनी हमराह ले आए

मुदावा-ए-आलम कोई नहीं
बज़्म-ए-नशात ओ दर्द-ए-ग़म कोई नहीं
इक हू का आलम है

खड़े हैं साहिल-ए-हस्ती पे हम
जीने के बे-पायाँ बहाने छोड़ आए
इक सुकूत-ए-आहनी हमराह ले आए
हमारी याद के कष्कोल ख़ाली हैं
हमारी रूह का नग़्मा कहाँ हैं ?

 

Leave a Reply

Your email address will not be published.