ब-ज़ाहिर जो नज़र आते हो तुम मसरूर ऐसा कैसे करते हो
ब-ज़ाहिर जो नज़र आते हो तुम मसरूर ऐसा कैसे करते हो
बताना तो सही वीरानी-ए-दिल का नज़ारा कैसे करते हो
तुम्हारी इक अदा तो वाक़ई तारीफ़ के क़ाबिल है जान-ए-मन
मैं शश्दर हूँ कि उस को प्यार इतना बे-तहाशा कैसे करते हो
सुना है लोग दरिया बंद कर लेते हैं कूज़े में हुनर है ये
मगर तुम मुंसिफ़ी से ये कहो कतरे का दजला कैसे करते हो
हमारी बात पर वो कान धरता ही नहीं है टाल जाता है
तुम्हें क्या नहीं हासिल कहो अर्ज़-ए-तमन्ना कैसे करते ो
तअज्जुब है तअल्लुक याद रखना और फिर आराम से सोना
अगर उस को भुला पाए नहीं अब तक सवेरा कैसे करते हो
तुम्हारी आह का ये कौन सा अंदाज़ है वाज़ेह नहीं होता
मुअम्मा ये नहीं खुलता की तुम दरिया को सहरा कैसे करते हो
झुका के सर को चलना जिस जगह का क़ाएदा था
झुका के सर को चलना जिस जगह का क़ाएदा था
मेरे सर की बुलंदी से वहाँ महशर बपा था
क़ुसूर-ए-बे-ख़ुदी में जिस को सूली दी गई है
हमारे ही क़बीले का वो तन्हा सर-फिरा था
उसे जिस शब मधुर आवाज़ में गाना था लाज़िम
रिवायत है कि उस शब भी परिंदा चुप रहा था
फ़रिश्ते दम-ब-ख़ुद ख़ाइफ़ सरासीमा फ़ज़ा थी
हुजूम-ए-गुम-रहा था और ख़ुदा का सामना था
मुसाफ़िर जिस के रूकने की तवक़्क़ो थी ज़ियादा
न जाने क्यूँ बहुत जल्दी सफ़र पर चल दिया था
क्या दास्ताँ थी पहले बयाँ ही नहीं हुई
क्या दास्ताँ थी पहले बयाँ ही नहीं हुई
फिर यूँ हुआ की सुब्ह अज़ाँ ही नहीं हुई
दुनिया कि दाश्ता से ज़्यादा न थी मुझे
यूँ सारी उम्र फ़िक्र-ए-ज़ियाँ ही नहीं रही
गुल-हा-ए-लुत्फ़ का उसे अम्बार करना था
कम-बख़्त आरज़ू की जवाँ ही नहीं हुई
ता-सुब्ह मेरी लाश रही बे-कफ़न तो क्या
बानू-ए-शाम नौहा-कुनाँ ही नहीं हुई
क्या सोचते रहते हो तस्वीर बना कर के
क्या सोचते रहते हो तस्वीर बना कर के
क्यूँ उस से नहीं कहते कुछ होंट हिला कर के
घर उस ने बनाया था इक सब्र ओ रज़ा कर के
मिट्टी में मिला डाला एहसान जता कर के
जो जान से प्यारे थे नाम उन ने ही पूछा है
हैरान हुआ मैं तो इस शहर में आ कर के
तहज़ीब-ए-मुसल्ला से वाक़िफ़ ही न था कुछ भी
और बैठ गया देखो सज्जादे पे आ कर के
मुद्दत से पता उस का मालूम नहीं कुछ भी
मशहूर बहुत था जो आशुफ़्ता-नवा कर के
मरहले सख़्त बहुत पेश-ए-नज़र भी आए
मरहले सख़्त बहुत पेश-ए-नज़र भी आए
हम मगर तय ये सफ़र शान से कर भी आए
इस सफ़र में र्क ऐसे भी मिले लोग हमें
जो बुलंदी पे गए और उतर भी आए
सिर्फ़ होने से कहाँ मसअला हल होता है
पस-ए-दीवार कोई है तो नज़र भी आए
दिल अगर है तो न हो दर्द से ख़ाली किसी तौर
आँख अगर है तो किसी बात पे भर भी आए
फिर सूरज ने शहर पे अपने क़हर का यूँ आगाज़ किया
फिर सूरज ने शहर पे अपने क़हर का यूँ आगाज़ किया
जिन जिन के लम्बे दामन थे उन का इफ़्शा राज़ किया
ज़हर-ए-नसीहत तीर-ए-मलामत दरस-ए-हक़ीक़त सब ने दिए
एक वही था जिस ने मेरी हर आदत पे नाज़ किया
नक़्द-ए-तअल्लुक़ ख़ूब कमाया लेकिन ख़र्च अरे तौबा
ये तो बताओ कल की ख़ातिर क्या कुछ पस-अंदाज़ किया
शहर में इस कैफ़ियत का है कौन मुहर्रिक कुछ तो कहो
जिस कैफ़ियत ने तुम को दीवानों में मुमताज़ किया
कू-ए-मलामत के बाशिंदे तुम को सज्दा करते हैं
किस ने इस बस्ती में आख़िर ऐसे सर-अफ़राज किया
दहली में रहना है अगर तो तर्ज़-ए-मीर ज़रूरी है
उस ने भी तो इश्क़ किया फिर याँ रहना आग़ाज़ किया
पहले उड़ान की दावत थी ता-हद्द-ए-इम्कान ‘सिराज’
फिर जाने क्यूँ ख़ुद ही उसे ने क़तआ पर-ए-परवाज़ किया
समंदरों में सराब और ख़ुश्कियों में गिर्दाब देखता है
समंदरों में सराब और ख़ुश्कियों में गिर्दाब देखता है
वो जागते और राह चलते अजब अजब ख़्वाब देखता है
कभी तो रिश्तों को ख़ून के भी फ़रेब ओ वहम ओ गुमान समझा
कभी वो नर्ग़े में दुश्मनों के हुजूम-ए-अहबाब देखता है
शनावारी रास आए ऐसी समंदरों में ही घर बना ले
कभी तलाश-ए-गुहर में अपने तईं वो ग़र्क़ाब देखता है
कभी तक़द्दुस-ए-तवाफ़ का सा करे है तारी वो जिस्म ओ जाँ पर
सरों पे गिरता हुआ लानतों का मीज़ाब देखता है
वीराँ बहुत है ख़्वाब-महल जागते रहो
वीराँ बहुत है ख़्वाब-महल जागते रहो
हम-साए में खड़ी है अजल जागते रहो
जिस पर निसार नर्गिस-ए-शहला की तम्नकत
वो आँख इस घड़ी है सजल जागते रहो
ये लम्हा-ए-उम्मीद भी है वक़्त-ए-ख़ौफ भी
हासिल न होगा इस का बदल जागते रहो
जिन बाज़ुओं पे चारागरी का मदार था
वो तो कभी के हो गए शल जागते रहो
ज़ेहनों में था इरादा-ए-शब-ख़ूँ कल तलक
अब हो रहा है रू-ब-अमल जागते रहो
जिस रात में न हिज्र होने वस्ल ‘अजमली’
उस रात में कहाँ की ग़ज़ल जागते रहो
ये तग़य्युर रू-नुमा हो जाएगा सोचा न था
ये तग़य्युर रू-नुमा हो जाएगा सोचा न था
उस का दिल दर्द-आश्ना हो जाएगा सोचा न था
नितनए रागों की थी जिस साज़-ए-हस्ती से उम्मीद
वो भी बे-सौत-ओ-सदा हो जाएगा सोचा न था
यूँ सरापा इल्तिजा बन कर मिला था पहले रोज़
इतनी जल्दी वो ख़ुदा हो जाएगा सोचा न था
वो तअल्लुक़ जिस को दोनों ही समझते थे मज़ाक़
इस क़दर बा-क़ाएदा हो जाएगा सोचा न था
जिस ‘सिराज’-ए-अज्मली से थीं उम्मीदें बे-शुमार
वो भी नज़र-ए-वाह हो जाएगा सोचा न था