काके गये बसन पलटि आये बसन
काके गये बसन पलटि आये बसन ,
सु मेरी कछु बस न रसन उर लागे हौ ।
भौँहैँ तिरछी हैँ कवि सुँदर सुजान सोहैँ ,
कछु अलसौँहैँ जो हैँ जाके रस पागे हौ ।
परसौँ मैँ पाँयहुँते परसौँ मैँ पाय गहि ,
परसौँ ये पाय मिसि जाके अनुरागे हौ ।
कौन वनिता के हौ जू कौन वनिता के हौ सु ,
कौन वनिता के बनि ताके सँग जागे हौ ।
सुँदर का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।