पारा कसमसाता है
साँस ही मुश्किल
नियत आन्दोलनों
आबद्ध
पारा कसमसाता है
धुन्ध के आग़ोश में
जकड़ा
ठिठुरता गीत
अग्नि ले
मुस्कराता है
हर हवा का तर्क अपना
और उसकी पुष्टि में
जेबित
सहस्रों हाथ
एक सहमा
चिड़ा नन्हा
खोजता
चोरी गए
जो क़लम औ’ दावात
मुक्ति क्रम में
पाँव कीलित
मृत्युभोगी चीख़ लेकर
पंख रह-रह
फड़फड़ाता है ।
धूप की ग़ज़ल
शुरू हुई
दिन की हलचल
गए सभी
लोहे में ढल
देह दृष्टि
लिपट गई
ताज़े अख़बारों से
शब्द झुण्ड
निकल पड़े
खुलते बाज़ारों से
गुनता मन
धूप की ग़ज़ल
एक उम्र और घटी
तयशुदा सवालों की
बाँझ हुई सीपियाँ
टीसते उजालों की
चौराहा : माथे पर बल !
ज़हरीला पूरा परिवेश हो गया
लाएँ क्या गीतों में ढूँढ़कर नया ?
ज़हरीला पूरा परिवेश हो गया !
चिकने-चुपड़े से कुछ शब्दों में
अँकुराए तिरस्कार बीज
सार्वभौम सत्य का बखान करें
जिन्हें नहीं झूठ की तमीज़
धुएँ की हवाओं में, कौन, कब जिया !
कहने को सतरंगी चादर है
पर, भीतर बहु पानीहीन
आसमान छू लेने को तत्पर
बिन देखे पाँव की ज़मीन
प्रतिभा के हक़ में क्या सिर्फ़ मर्सिया ?!!
सूरजमुखी सहते रहे
स्याह पंजों की जकड़ का
दर्द
सूरजमुखी सहते रहे
उस पड़ोसी ताल की
लहर तक से बे-कहे
पत्तियाँ आकाश
हवा यों बिथुरी
दो ध्रुवों को नाप आई
गन्ध में, उपराग में
कौंधती बिजुरी
सख़्त धरी में
बचा कुछ भुरभुरापन
प्राणों से गहे
सूरजमुखी सहते रहे
स्याह पंजों की जकड़ का
दर्द