पद-रत्नाकर / भाग- 1
श्रीराधारानी-चरन बिनवौं बारंबार
श्रीराधारानी-चरन बिनवौं बारंबार।
बिषय-बासना नास करि, करौ प्रेम-संचार॥
तुम्हरी अनुकंपा अमित, अबिरत अकल अपार।
मोपर सदा अहैतुकी बरसत रहत उदार॥
अनुभव करवावौ तुरत, जाते मिटैं बिकार।
रीझैं परमानंदघन मोपै नंदकुमार॥
पर्यौ रहौं नित चरन-तल, अर्यौ प्रेम-दरबार।
प्रेम मिलै, मोय दुहुन के पद-कमलनि सुखसार॥
बंदौं राधा-पद-कमल अमल सकल सुख-धाम
बंदौं राधा-पद-कमल अमल सकल सुख-धाम।
जिन के परसन हित रहत लालाइत नित स्याम॥
जयति स्याम-स्वामिनि परम निरमल रस की खान।
जिन पद बलि-बलि जात नित माधव प्रेम-निधान॥
रसिक स्याम की जो सदा रसमय जीवनमूरि
रसिक स्याम की जो सदा रसमय जीवनमूरि।
ता पद-पंकज की सतत बंदौं पावन धूरि॥
जयति निकुंजबिहारिनी, हरनि स्याम-संताप।
जिन की तन-छाया तुरत हरत मदन-मन-दाप॥
बंदौं राधा-पद-रज पावन
बंदौं राधा-पद-रज पावन।
स्याम-सुसेवित, परम पुन्यमय, त्रिबिध ताप बिनसावन॥
अनुपम परम, अपरिमित महिमा, सुर-मुनि-मन तरसावन।
सर्बाकर्षक रसिक कृष्नघन दुर्लभ सहज मिलावन॥
जिन लक्ष्मी की रूप-माधुरी
जिन लक्ष्मी की रूप-माधुरी, जिनका मधुर शील-सौजन्य।
मधुर स्वभावजनित जिनकी शुचि लीला, प्रीति-माधुरी धन्य॥
जो वैकुण्ठाधीश्वर-वक्ष-विहारिणि नित प्रेमार्णव-मग्र।
जिनकी सेवा-अर्चामें नित रहते सुर-मुनिगण संलग्र॥
राधाकी समता न कर सके उन लक्ष्मीजीके गुण-रूप।
वे राधा निज चरण-कमल-रज परम, मुझे दें दान अनूप॥
जिन श्रीराधा के करैं नित श्रीहरि गुन गान
जिन श्रीराधा के करैं नित श्रीहरि गुन गान।
जिन के रस-लोभी रहैं नित रसमय रसखान॥
प्रेम भरे हिय सौं करैं स्रवन-मनन, नित ध्यान।
सुनत नाम ’राधा’ तुरत भूलै तन कौ भान॥
करैं नित्य दृग-अलि मधुर मुख-पंकज-मधु-पान।
प्रमुदित, पुलकित रहैं लखि अधर मधुर मुसुकान॥
जो आत्मा हरि की परम, जो नित जीवन-प्रान।
बिसरि अपुनपौ रहैं नित जिन के बस भगवान॥
सहज दयामयि राधिका, सो करि कृपा महान।
करत रहैं मो अधम कौं सदा चरन-रज दान॥
स्वामिनी हे बृषभानु-दुलारि
स्वामिनी हे बृषभानु-दुलारि!
कृष्णप्रिया, कृष्णगतप्राणा, कृष्णा, कीर्तिकुमारि॥
नित्य निकुंजेस्वरि, रासेस्वरि, रसमयि, रस-आधार।
परम रसिक रसराजाकर्षिनि, उज्ज्वल-रस की धार॥
हरिप्रिया, अहलादिनि, हरि-लीला-जीवन की मूल।
मोहि बनाय राखु निसि-दिन निज पावन पद की धूल॥
श्रीराधा! अब देहु मोहि तव पद-रज-अनुराग
श्रीराधा! अब देहु मोहि तव पद-रज-अनुराग।
जातें इह-पर-भोग में होय उदय बैराग॥
मोच्छहु की माया मिटै, कटैं सकल भव-रोग।
तुम दोउन के चरन कौ बन्यौ रहै संजोग॥
जो कछु तुम चाहौ, करौ राधा-माधव! दोउ।
तुहरे मन की सहज रुचि चाह जु मेरी होउ॥
सेवा कौ कछु काम जो हो मेरे अनुहार।
छोटौ-मोटौ बकसि मोहि करौ कृपा-बिस्तार॥
पर्यौ रहौं नित चरन-तल, परसौं नित पद-धूल।
पगदासी पौंछत रहौं, अग-जग सगरौ भूल॥
करौ कृपा श्रीराधिका, बिनवौं बारंबार
करौ कृपा श्रीराधिका, बिनवौं बारंबार।
बनी रहै स्मृति मधुर सुचि, मंगलमय सुखसार॥
श्रद्धा नित बढ़ती रहै, बढ़ै नित्य बिस्वास।
अर्पण हौं अवसेष अब जीवन के सब स्वास॥
दयामयि स्वामिनि परम उदार
दयामयि स्वामिनि परम उदार!
पद-किंकरि की किंकरि-किंकरि करौ मोय स्वीकार॥
दूर करौं निकुंज-मग-कंटक-कुस सब सदा बुहार।
स्वच्छ करौं तव पगतरि पावन, धूर-धार सब झार॥
देखौं दूरहि तैं तव प्रियतम संग सुललित बिहार।
नित्य निहारत रहौं, मिलै कछु सेवा की सनकार॥
पद-सेवन कौ बढ़ै चाव नित काल अनंत अपार।
अर्पित रहै सदा सेवा में अंग-अंग अनिवार॥
कबहुँ न जगै दूसरी तृस्ना, कबहुँ न अन्य बिचार।
रहै न कितहूँ कछु ’मेरौपन’, ’अहंकार’ होय छार॥
होयँ तुम्हारे मन के ही, बस, मेरे सब यौहार।
बनौ रहै नित तुहरौ ही सुख मेरौ प्रानाधार॥
राधाजू! मोपै आजु ढरौ
राधाजू! मोपै आजु ढरौ।
निज, निज प्रीतम की पद-रज-रति मोय प्रदान करौ॥
बिषम बिषय-रस की सब आसा-ममता तुरत हरौ।
भुक्ति-मुक्ति की सकल कामना सत्वर नास करौ॥
निज चाकर-चाकर-चाकर की सेवा-दान करौ।
राखौ सदा निकुंज निभृत में झाडूदार बरौ॥
निन्द्य-नीच, पामर परम, इन्द्रिय-सुखके दा
निन्द्य-नीच, पामर परम, इन्द्रिय-सुखके दास।
करते निसि-दिन नरकमय बिषय-समुद्र निवास॥
नरक-कीट ज्यों नरकमें मूढ़ मानता मोद।
भोग-नरकमें पड़े हम त्यों कर रहे विनोद॥
नहीं दिव्य रस कल्पना, नहीं त्याग का भाव।
कुरस, विरस, नित अरस का दुखमय मन में चाव॥
हे राधे रासेश्वरी! रस की पूर्ण निधान।
हे महान महिमामयी! अमित श्याम-सुख-खान॥
पाप-ताप हारिणि, हरणि सत्वर सभी अनर्थ।
परम दिव्य रसदायिनी पचम शुचि पुरुषार्थ॥
यद्यपि हैं सब भाँति हम अति अयोग्य, अघबुद्धि।
सहज कृपामयि! कीजिये पामर जनकी शुद्धि॥
अति उदार! अब दीजिये हमको यह वरदान।
मिले मजरी का हमें दासी-दासी-स्थान॥
हे राधे! हे श्याम-प्रियतमे!
हे राधे! हे श्याम-प्रियतमे! हम हैं अतिशय पामर, दीन ।
भोग-रागमय, काम-कलुषमय मन प्रपच-रत, नित्य मलीन ॥
शुचितम, दिव्य तुम्हारा दुर्लभ यह चिन्मय रसमय दरबार ।
ऋषि-मुनि-जानी-योगीका भी नहीं यहाँ प्रवेश-अधिकार ॥
फिर हम जैसे पामर प्राणी कैसे इसमें करें प्रवेश ।
मनके कुटिल, बनाये सुन्दर ऊपरसे प्रेमीका वेश ॥
पर राधे! यह सुनो हमारी दैन्यभरी अति करुण पुकार ।
पड़े एक कोनेमें जो हम देख सकें रसमय दरबार ॥
अथवा जूती साफ करें, झाड़ू दें-सौंपो यह शुचि काम ।
रजकणके लगते ही होंगे नाश हमारे पाप तमाम ॥
होगा दभ दूर, फिर पाकर कृपा तुम्हारीका कण-लेश ।
जिससे हम भी हो जायेंगे रहने लायक तव पद-देश ॥
जैसे-तैसे हैं, पर स्वामिनि! हैं हम सदा तुम्हारे दास ।
तुम्हीं दया कर दोष हरो, फिर दे दो निज पद-तलमें वास ॥
सहज दयामयि! दीनवत्सला! ऐसा करो स्नेहका दान ।
जीवन-मधुप धन्य हो जिससे कर पद-पङङ्कज-मधुका पान ॥
स्याम-स्वामिनी राधिके! करौ कृपा कौ दान
स्याम-स्वामिनी राधिके! करौ कृपा कौ दान।
सुनत रहैं मुरली मधुर, मधुमय बानी कान॥
पद-पंकज-मकरंद नित पियत रहैं दृग-भृंग।
करत रहैं सेवा परम सतत सकल सुचि अंग॥
रसना नित पाती रहै दुर्लभ भुक्त प्रसाद।
बानी नित लेती रहै नाम-गुननि-रस-स्वाद॥
लगौ रहै मन अनवरत तुम में आठौं जाम।
अन्य स्मृति सब लोप हों सुमिरत छबि अभिराम॥
बढ़त रहै नित पलहिं-पल दिय तुहारौ प्रेम।
सम होवैं सब छंद पुनि, बिसरैं जोगच्छेम॥
भक्ति-मुक्ति की सुधि मिटै, उछलैं प्रेम-तरंग।
राधा-माधव सरस सुधि करै तुरत भव-भंग॥
श्रीराधा! कृष्णप्रिया! सकल सुमंगल-मूल
श्रीराधा! कृष्णप्रिया! सकल सुमंगल-मूल।
सतत नित्य देती रहो पावन निज-पद-धूल॥
मिटें जगतके द्वन्द्व सब, हों विनष्टस्न सब शूल।
इह-पर जीवन रहे नित तव सेवा अनुकूल॥
देवि! तुम्हारी कृपासे करें कृपा श्रीश्याम।
दोनोंके पदकमलमें उपजे भक्ति ललाम॥
महाभाव, रसराज तुम दोनों करुणाधाम।
निज जन कर, देते रहो निर्मल रस अविराम॥
श्रीराधामाधव-युगल महाभाव-रसराज
श्रीराधामाधव-युगल महाभाव-रसराज।
करुना करियो दीन पै रहियो हृदयँ बिराज॥
दीजौ निज पद-कमल की प्रीति पवित्र अनन्य।
प्रभु-सुख-हित सेवा बनै शुचि जीवन हो धन्य॥
कृपा जो राधाजू की चहिए
कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै॥
माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै॥
राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझइयै।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझइयै॥
रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा पइयै।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सुअवसर लहियै॥
राधा-नयन-कटाक्ष-रूप चचल अचलसे नित्य व्यजित
राधा-नयन-कटाक्ष-रूप चचल अचलसे नित्य व्यजित-
रहते, तो भी बहती जिनके तनसे स्वेदधार अविरत॥
राधा-अंग-कान्ति अति सुन्दर नित्य निकेतन करते वास।
तो भी रहते क्षुध नित्य, मन करता नव-विलास-अभिलाष॥
राधा मृदु मुसकान-रूप नित मधुर सुधा-रस करते पान।
तो भी रहते नित अतृप्त, जो रसमय नित्य स्वयं भगवान॥
राधा-रूप-सुधोदधिमें जो करते नित नव ललित विहार।
तो भी कभी नहीं मन भरता, पल-पल बढ़ती ललक अपार॥
ऐसे जो राधागत-जीवन, राधामय, राधा-आसक्त।
उनके चरण-कमलमें रत नित रहे हुआ मम मन अनुरक्त॥
जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन
जय वसुदेव-देवकीनन्दन, जयति यशोदा-नंदनन्दन।
जयति असुर-दल-कंदन, जय-जय प्रेमीजन-मानस-चन्दन॥
बाँकी भौंहें, तिरछी चितवन, नलिन-विलोचन रसवर्षी।
बदन मनोहर मदन-दर्प-हर परमहंस-मुनि-मन-कर्षी॥
अरुण अधर धर मुरलि, मधुर मुसकान मजु मृदु सुधिहारी।
भाल तिलक, घुँघराली अलकैं, अलिकुल-मद-मर्दनकारी॥
गुंजाहार, सुशोभित कौस्तुभ, सुरभित सुमनोंकी माला।
रूप-सुधा-मद पी-पी सब समोहित ब्रजजन-ब्रजबाला॥
जय वसुदेव-देवकीनंदन, जयति यशोदा-नँदनन्दन।
जयति असुर-दल कंदन, जय जय प्रेमीजन मानस-चन्दन॥
जयति राधिका जीवन, राधा-बन्धु, राधिकामय चिद्घन
जयति राधिकाजीवन, राधा-बन्धु, राधिकामय चिद््घन।
जय राधाधन, राधिकाङङ्ग, जय राधाप्राण, राधिका-मन॥
जय राधा-सहचर, जय राधारमण, राधिका-चिा-सुचौर।
जय राधिकासक्त-मानस, जय राधा-मानस-मोहन-मौर॥
जय राधा-मानस-पूरक, जय राधिकेश, राधा-आराध्य।
जय राधाऽराधनतत्पर, जय राधा-साधन, राधा-साध्य॥
जय सब गोपी-गोप-गोपबालक-गोधनके प्राणाधार।
जय गोविन्द गोपिकानन्दन पूर्ण सच्चिदानन्द उदार॥
हे परिपूर्ण ब्रह्मा! हे परमानन्द! सनातन! सर्वाधार
हे परिपूर्ण ब्रह्मा! हे परमानन्द! सनातन! सर्वाधार!
हे पुरुषोत्तम! परमेश्वर! हे अच्युत! उपमारहित उदार॥
विश्वनाथ! हे विश्वभर विभु! हे अज अविनाशी भगवान!
हे परमात्मा! सर्वात्मा हे! पावन स्वयं जान-विज्ञान॥
हे वसुदेव-देवकी-सुत! हे कृष्ण! यशोदा-नँदके लाल!
हे यदुपति! व्रजपति! हे गोपति! गोवर्धनधर! हे गोपाल!
मेरे एकमात्र आश्रय तुम, तुम ही एकमात्र सुखसार।
तुम्हीं एक सर्वस्व, तुम्हीं, बस, हो मेरे जीवन साकार॥
कितने बड़े, उच्च तुम कितने, कितने दुर्लभ, दिव्य, महान।
गले लगाया मुझ नगण्यको, सब भगवाा भूल सुजान॥
सत्-चित्-घन परिपूर्णतम, परम प्रेम-आनन्द
सत्-चित्-घन परिपूर्णतम, परम प्रेम-आनन्द।
विश्वेश्वर वसुदेवसुत, नँदनंदन गोविन्द॥
जयति यशोदातनय हरि, देवकि-सुवन ललाम।
राधा-उर-सरसिज-तपन, मधुरत अलि अभिराम॥
वाणी हो गुण-गान-रत, कर्ण श्रवण-गुण-लीन।
मन सुरूप-चिन्तन-निरत, तन सेवा-आधीन॥
पूर्ण समर्पित रहें नित, तन-मन-बुद्धि अनन्य।
सहज सफलता प्राप्तकर, हो मम जीवन धन्य॥
माधव! नित मोहि दीजियै निज चरननि कौ ध्यान
माधव! नित मोहि दीजियै निज चरननि कौ ध्यान।
सकल ताप हर मधुर सुचि, आत्यंतिक सुख-खान॥
सब तजि सुचि रुचि सौं सदा भजन करौं बसु जाम।
रहौं निरंतर मौन गहि, जपौं मधुरतम नाम॥
मन-इंद्रिय अनुभव करैं नित्य तुहारौ स्पर्श।
मिटैं जगत के मान-मद-ममता-हर्ष-अमर्ष॥
रति-मति-गति सब एक तुम, बनैं अनंत-अनन्य।
तुम में भाव भरे हृदय जुरि हो जीवन धन्य॥
माधव! मुझको भी तुम अपनी सखी बना लो
माधव! मुझको भी तुम अपनी सखी बना लो, रख लो संग।
खूब रिझाऊँगी मैं तुमको, रचकर नये-नये नित ढंग॥
नाचूँगी, गाऊँगी, मैं फिर खूब मचाऊँगी हुड़दंग।
खूब हँसाऊँगी हँस-हँस मैं, दिखा-दिखा नित तूतन रंग॥
धातु-चित्र पुष्पों-पत्रोंसे खूब सजाऊँगी सब अंग-
मधुर तुम्हारे, देख-देख रह जायेगी ये सारी दंग॥
सेवा सदा करूँगी मन की, भर मनमें उत्साह-उमंग।
आनँदके मधु झटके से सब होंगी कष्टस्न-कल्पना भंग॥
तुम्हें पिलाऊँगी मीठा रस, स्वयं रहँगी सदा असंग।
तुमसे किसी वस्तु लेनेका, आयेगा न कदापि प्रसंग॥
प्यार तुम्हारा भरे हृदय में, उठती रहें अनन्त तरंग।
इसके सिवा माँगकर कुछ भी, कभी करूँगी तुम्हें न तंग॥
रसस्वरूप श्रीकृष्ण परात्पर, महाभावरूपा राधा
रसस्वरूप श्रीकृष्ण परात्पर, महाभावरूपा राधा।
प्रेम विशुद्ध दान दो, कर करुणा अति, हर सारी बाधा॥
सच्चा त्याग उदय हो, जीवन श्रीचरणोंमें अर्पित हो।
भोग जगत्की मिटे वासना, सब कुछ सहज समर्पित हो॥
लग जाये श्रीयुगलरूपमें मेरी अब ममता सारी।
हो अनन्य आसक्ति, प्रीति शुचि, मिटे मोह-भ्रम-तम भारी॥
सोभित सिर सिखिपिच्छ, जो उज्ज्वल रस आधार
सोभित सिर सिखिपिच्छ, जो उज्ज्वल रस आधार।
बंदौं तिन के पद-कमल जुग सुचि भुवनाधार॥
महाभावरूपा परम बिमल प्रेम की खान।
बंदौं राधा-पद-कमल प्रियतम-सेव्य महान॥
राधा-माधव-पद-कमल बंदौं बारंबार
राधा-माधव-पद-कमल बंदौं बारंबार।
मिल्यौ अहैतुक कृपा तें यह अवसर सुभ-सार॥
दीन-हीन अति, मलिन-मति, बिषयनि कौ नित दास।
करौं बिनय केहि मुख, अधम मैं, भर मन उल्लास॥
दीनबंधु तुम सहज दोउ, कारन-रहित कृपाल।
आरतिहर अपुनौ बिरुद लखि मोय करौ निहाल॥
हरौ सकल बाधा कठिन, करौ आपुने जोग।
पद-रज-सेवा कौ मिलै, मोय सुखद संजोग॥
प्रेम-भिखारी पर्यौ मैं आय तिहारे द्वार।
करौ दान निज-प्रेम सुचि, बरद जुगल-सरकार॥
श्रीराधामाधव-जुगल हरन सकल दुखभार।
सब मिलि बोलौ प्रेम तें तिन की जै-जैकार॥
महाभाव-रसराज स्वयं श्रीराधा-माधव युगल-स्वरूप
महाभाव-रसराज स्वयं श्रीराधा-माधव युगल-स्वरूप।
परम उपास्यदेव शुचि प्रेमीजनके नित्य नवीन अनूप॥
मदन अनन्त मनोहर, जानी-योगी-जन-मन-मोहन रूप।
सदा बसें मेरे मन-मन्दिर लोक-महेश्वर, सुरपति भूप॥
राधा-माधव-जुगल के प्रनमौं पद-जलजात
राधा-माधव-जुगल के प्रनमौं पद-जलजात।
बसे रहैं मो मन सदा, रहै हरष उमगात॥
हरौ कुमति सबही तुरत, करौ सुमति कौ दान।
जातें नित लागौ रहै तुव पद-कमलनि ध्यान॥
राधा-माधव! करौ मोहि निज किंकर स्वीकार।
सब तजि नित सेवा करौं, जानि सार कौ सार॥
राधा-माधव! जानि मोहि निज जन अति मति-हीन।
सहज कृपा तैं करौ नित निज सेवा में लीन॥
राधा-माधव! भरौ तुम मेरे जीवन माँझ।
या सुख तैं ड्डूल्यौ फिरौं, भूलि भोर अरु साँझ॥
तन-मन-मति सब में सदा लखौं तिहारौ रूप।
मगन भयौ सेवौं सदा पद-रज परम अनूप॥
राधा-माधव-चरन रति-रस के पारावार।
बूड्यौ, नहिं निकसौं कबहुँ पुनि बाहिर संसार॥
हमारे जीवन लाडिलि-लाल
हमारे जीवन लाडिलि-लाल।
रास-बिहारिनि रास-बिहारी, लतिका-हेम तमाल॥
महाभाव-रसमयी राधिका, स्याम रसिक रसराज।
अनुपम अतुल रूप-गुन-माधुरि अँग-अँग रही बिराज॥
दोउ दोउन हित चातक, घन प्रिय, दोउ मधुकर, जलजात।
प्रेमी प्रेमास्पद दोउ, परसत दोउ दोउन बर गात॥
मेरे परम सेव्य सुचि सरबस दोउ श्रीस्यामा-स्याम।
सेवत रहूँ सदा दोउन के चरन-कमल अभिराम॥
बंदौं मधुर लाडिलि-लाल
बंदौं मधुर लाडिलि-लाल।
रूप-रसके दिय अनुपम उदधि अमित बिसाल॥
स्याम घन तन, मुरलि कर बर, अधर मृदु मुसकान।
सिर मुकुट-सिखिपिच्छ सोहत, सुभग दृग रसखान॥
नित्य अतुल अचिंत्य गुन, सौंदर्य-निधि अभिराम।
रूप राधा मदनमोहन-हृदय-हरन ललाम॥
चंद्रिका सिर सोह-मोहन नयन, मुख मृदु हास।
कर रची मेंहदी, सजे तन दिव्य भूषन-बास॥
तरु-लता-पल्लव-सुमन-सिखि जुत अरन्य सुठाम।
स्याम-राधा मुदित ठाढ़े कदँब-तल सुखधाम॥
श्रीराधामाधव! कर हमपर सहज कृपावर्षां भगवान
श्रीराधामाधव! कर हमपर सहज कृपावर्षां भगवान-
ठुकरा सकें सभी भोगोंको जिससे, दें यह शुभ वरदान॥
सहज त्याग दें लोक और परलोकोंके हम सारे भोग।
लुभा सकें न दिव्य लोकोंके भोग, मोक्षका शुचि संयोग॥
बने रहें हम रज-निकुजकी क्षुद्र मजरीं सेवारूप।
सखी दासियोंकी दासी अतिशय नगण्य, अति दीन अनूप॥
पड़ती रहे सदा हमपर उन सखि-मजरियोंकी पद-धूल।
करती रहे कृतार्थ, बनाती रहे हमें सेवा-अनुकूल॥