ओ माँ
वंदन को स्वीकारो
पूजन को स्वीकारो
अक्षर-अक्षर शब्द ब्रह्म है
वीणापाणी रूप रम्य है
वाणी में नव रूप उभारो
वन्दन को स्वीकारो।
धवल वसन है, रूप नवल है,
हंस वाहिनी नयन कंवल है
नीर क्षीर विवेक संवारो
वंदन को स्वीकारो।
भाव हृदय में जो संचित हैं
अभिव्यक्ति से वो वंचित हैं
मुखर चेतना शक्ति निखारो
वंदन को स्वीकारो।
लिख पाऊं मैं मनुज व्यथा को
जीवन की अनकही कथा को
छटे तमस अज्ञान अधियारों
वंदन को स्वीकारो।
सुनो कि मंगल-गान उभरता है
हो मूर्तिमान अनुराग कर्म का रूप
दीप की बेला में,
सुनो कि मंगलगान उभरता है!
भीषणतम घोर निराशा में जो घिरे हुए
नित नये विवादों की झंझा से डरे हुए
निस्तेज आलसी हाथ – हाथ पर धरे हुए
है नहीं, चाक के भाग्य-चक्र से फिरने में
कल की रौंदी माटी का रूप सँवरता है,
सुनो कि मंगलगान उभरता है!
अब नहीं निराश बादल से पंख पसारे
श्री का स्वागत घर आँगन चमके तारे
दो कदम बढ़ाओ दूर न लक्ष्य हमारे
समवेत हृदय से घर-घर दीप जलाने में
तम का घटता बाज़ार ज्योति का रूप निखरता है
सुनो कि मंगलगान उभरता है!
मावस कीकाली रात कहाँ? दीवाली है
चौड़े ललाट पर स्वेद, हाथ में तेज कुदाली है
सुख, साधन, समृद्धि की राह निकाली है
नदियों पर बाँधे- बाँध लहर संग इतराने में
तमसो मा ज्योर्तिमय स्वर आज बिखरता है
सुनो कि मंगलगान उभरता है!
समाधान खोज रहे अनगिनत सवाल
व्यर्थ खड़े राहों में
सम्भावित चाहों में
हिलाओ न खड़े-खडे, रेशमी रूमाल
समाधान खोज रहे अनगिनत सवाल।
स्वारथ का भँवर जाल, सबके सब डूबे हैं
बौना हो रहा सत्य, झूठ की बन आयी है
चारवाक दर्शन है, युवावर्ग अलसाया–
घुटन औ निराशा की, मदहोशी छायी है
मौन खड़े रहने से, चित्र यही तो होगा
आँख मूँद लेने से, रूप नहीं बदलेगा
देश खड़ा चौराहे, विघटन का संकट है
चुनौतियों स्वीकारों, समय नहीं ठहरेगा
अराजक हवाओं ने
व्यवस्था को घेरा है
आओ सब मिल काटें, चक्रव्यूही चाल
समाधान खोज रहे, अनगिनत सवाल।
महँगाई का नर्तन, आँगन में द्रुत लय से
धरोहर ग़रीबी की कब तलक संजोओगे
कर्म और निष्ठा, ईमान की जला होली
दिवाली अभावों की, कब तलक मनाओगे
गुडों को आज़ादी, शराफत मरी जाती
ऐसी आज़ादी को, कब तलक बढ़ाओगे
सामाजिक न्याय नहीं, समता से दूरी है
शोषण की त्रासदी, कब तलक उठाओगे?
अमीरी ग़रीबी की
खाईयाँ मिटाने को
जगर-मगर कर डालो, सर्जन की मशाल
समाधान खोज रहे, अनगिनत सवाल।
नयी किरण फूटी, संत्रास के कुहासे से
क्रोधित तरूणाई ने सौगंध अब खायी है
देश नयी करवट ले, हुंकारे लेता है
भ्रष्ट कदाचारी की, शामत अब आयी है।
कृत्रिम अभावों से, जीना दुश्वार हुआ
करने या मरने की, वेला अब आयी है
जन-जन को जीवन में, सुलग उठी चिनगारी
शोला बन जाने की, नौबत अब आयी है।
काले धने वाले इन
रक्तबीज असुरों का
महाशक्ति बन करके, कांटो ये जाल।
समाधान खोज रहे, अनगिनत सवाल
समाधान खोज रहे अनगिनत सवाल
व्यर्थ खड़े राहों में
सम्भावित चाहों में
हिलाओ न खड़े-खडे, रेशमी रूमाल
समाधान खोज रहे अनगिनत सवाल।
स्वारथ का भँवर जाल, सबके सब डूबे हैं
बौना हो रहा सत्य, झूठ की बन आयी है
चारवाक दर्शन है, युवावर्ग अलसाया–
घुटन औ निराशा की, मदहोशी छायी है
मौन खड़े रहने से, चित्र यही तो होगा
आँख मूँद लेने से, रूप नहीं बदलेगा
देश खड़ा चौराहे, विघटन का संकट है
चुनौतियों स्वीकारों, समय नहीं ठहरेगा
अराजक हवाओं ने
व्यवस्था को घेरा है
आओ सब मिल काटें, चक्रव्यूही चाल
समाधान खोज रहे, अनगिनत सवाल।
महँगाई का नर्तन, आँगन में द्रुत लय से
धरोहर ग़रीबी की कब तलक संजोओगे
कर्म और निष्ठा, ईमान की जला होली
दिवाली अभावों की, कब तलक मनाओगे
गुडों को आज़ादी, शराफत मरी जाती
ऐसी आज़ादी को, कब तलक बढ़ाओगे
सामाजिक न्याय नहीं, समता से दूरी है
शोषण की त्रासदी, कब तलक उठाओगे?
अमीरी ग़रीबी की
खाईयाँ मिटाने को
जगर-मगर कर डालो, सर्जन की मशाल
समाधान खोज रहे, अनगिनत सवाल।
नयी किरण फूटी, संत्रास के कुहासे से
क्रोधित तरूणाई ने सौगंध अब खायी है
देश नयी करवट ले, हुंकारे लेता है
भ्रष्ट कदाचारी की, शामत अब आयी है।
कृत्रिम अभावों से, जीना दुश्वार हुआ
करने या मरने की, वेला अब आयी है
जन-जन को जीवन में, सुलग उठी चिनगारी
शोला बन जाने की, नौबत अब आयी है।
काले धने वाले इन
रक्तबीज असुरों का
महाशक्ति बन करके, कांटो ये जाल।
समाधान खोज रहे, अनगिनत सवाल
अर्थशास्त्र की मरूभूमि में
सूख रही कविता की धारा
ठौर-ठौर
आकर्षण रहता
बौराया-सा मन रहता था
प्यार!
सभी कुछ था जीवन में
धन दौलत
का अर्थ नहीं था
आँखों ही आँखों में
गुपचुप
सारी व्यथा कथा कहता था
रूप!
तुम्हारा छाया रहता-
गीत-गज़ल कहता रहता था
धन का शास्त्र
पढ़ा है जब से
कवि!
बे अर्थ हुआ बेचारा
अर्थशास्त्र की
मरूभूमि में
सूख रही कविता की धारा
ढाई आखर की
दुनिया में
गुरु का ज्ञान समाया रहता
हर क्षण कविता
मुखरित होती
हर क्षण ही
बौराया रहता
रुप!
तुहारा जीवन धन था
मस्ती भरा हुआ यौवन था
दिल की दुनियाँ का राही
कदम-कदम रंगीन सपन था
अर्थशास्त्र की
पोथी पढ़कर
प्यार!
शुद्ध व्यापार हो गया
कभी हुआ करता था दिल ये
अब दुकान हुआ बेचारा
अर्थशास्त्र की मरूभूमि में
सूख रही कविता की धारा!
कथित विवेकी जीवन
अब तो सांसों का मज़दूर हो गया
जो कुछ जिया, भुला देना ही
लगता आज ज़रूर हो गया
जीने को जी लेते हैं पर
जीवन सचमुच दूर हो गया
कैसा यह संयोग, देखकर
अनदेखा करना होता है
भौतिक जीवन के प्रवाह में
अनजाने बहना होता है
कृत्रिमता की खोल चढ़ाए
अहम् बोलता रहता हर क्षण
भीतर चाहे घुटन भरी हो
बाहर मुस्काना होता है
दुनियायी व्यापार चलाने को
जीवन मजबूर हो गया
जीने को जी लेते हैं पर
जीवन सचमुच दूर हो गया
कौसे समझें साथ तुहारा
केवल एक भटकता सम था
साँसो से साँसों का संगम
उठती हुई उमर का भ्रम था
सच चाहे जो कुछ हो, पर
तुम कहते हो मान रहा हूँ
निश्चल यौवन के वह दिन सब
महज भुलावे का ही क्रम था।
अब विडम्बनाओं से ही
जीवन सारा भरपूर हो गया
जीने को जी लेते हैं पर
जीवन सचमुच दूर हो गया
दोष किसे दें, भला बताओ
ग़लती अपनी ही सारी थी
घिरे ऊपर चकाचौंध पर
आकर्षण की बीमारी थी
अनचाहे ही वृत्त खींचकर
घेर लिया उसमें अपने को
जीवन एक आस्था समझा
भावुक मन की लाचारी थी
कथित विवेकी जीवन अब तो
साँसो का मज़दूर हो गया
जीने को जी लेते हैं, पर
जीवन सचमुच दूर हो गया!
आ पहुँचा जब द्वार तुम्हारे
आ पहुँचा जब द्वार तुम्हारे
याचक तो बन गया सहज ही
तुम्ही कहो, फिर यों अब अपनी
अभिलाषाएँ और दबाऊँ?
चाहा संयम की चादर से
इच्छाओं को कफन उढ़ा दूँ
यौवन के चंचल उभार पर
गुरूताओं का बोझ चढ़ा दूँ
लेकिन दुनियाँदार नज़र ने
जब बदनाम मुझे कर डाला
फिर यों उठते अरमानों का
घुटन भरा दायरा बनाऊँ?
आ पहुँचा जब द्वार तुम्हारे…
लाख-लाख कोशिश की
तट पर खड़े-खड़े ये उमर गुजारूँ
सीमाओं की कोर बांध लूं
बोझिल होकर नहीं पुकारूं
पर कम्बख़्त लहर ने आकर
मझधारों में नाव डाल दी
क्यों ना? अब लहरों से खेलूं
तूफानों से यों घबराऊँ
आ पहुँचा जब द्वार तुम्हारे …
पावस: प्रारम्भ, प्रवेग और गीत
प्रारम्भ
धरती पर
आँधियारा फैला है
आषाढ़ के
बादल का मेला है
और
सनन सन
चली हवा हहराती
वातायन में
मस्ती बिखराती
मधुमय
पराग गदराती
किसलय से
मेरे
कदली वसनों को
दूर उड़ाती
आँचल फहराती
बावरी बदरिया
तुलसी वाले आँगन में
गहर गहर कर छायी है
बिसरायी
तेरी फिर सुध आयी है
प्रवेग
दूर
कितनी दूर…
बलखाती
कि जैसे किरण-जल में
मीन की पंक्ति उलट जाती
खिंची यह चमचमाती डोर
क्षितिज के पार
जिसका छोर
बना इस चंचला की
श्वेत पंगडडी
चली मैं
दूर, गाँव कीओर
जहाँ पर प्राण मेरे है
दूर बहुत दूर मेरा साथी है
मौसम बरसाती है।
क्यों पागल बदरी रह-रह नीर बहाती है
क्यों हवा बावरी सुधि की धूर उड़ाती है
क्यों भरी ज्वार की क्यारी पर वह मोर
फैलाकर पंख देखता किसका छोर
क्यों गीतों की पनिहारिन
बूँदों की तालों पर
रस भरी गगरिया
ढुलका-ढुलका जाती है
याद तुहारी आती है
मौसम बरसाती है
किस पीड़ा से रोती रजनी कीआँख
आँसू आँचल में लिए सरोजी पाँख
नीला दिखता वसुधा का सुर्ख शरीर
छूटी जाती है आस, न बँधती धीर
अलसायी आँखों की
कोर फड़क जाती है
कौन सँदेशा लाती है
चिन्ता खाये जाती है
याद तुहारी आती है
मौसम बरसाती है
किस बदरी ने चंन्दा को घेरा है
क्या पता किधर प्राणों को डेरा है
हर स्वाँस मर्सिया रो-रो गाती है
बिछुड़े प्रियतम को पास बुलाती है
चढ़ते दिन, ढलती रात
रुलाती है
चेहरा हो जाता लाल
भर आती छाती है
याद तुहारी आती है
मौसम बरसाती है
अहम् के घेरे में
आइये
और लटक जाइये,
कहने को
ये मेरा घर है
निहायत सुनसान
वीरान और बियाबान,
आप चमगादड़ों की तरह आएँ
जिधर चाहें लटक जाएँ,
दिन हो या रात
रहती है अंधेरों की बिसात
एक सीलन भरी तेज गंध
स्वार्थों की,
हवा में…घुटन
बीच-बीच में
कान के पर्दों को फाड़ने वाला
तेज कुहराम
इतना कि कभी
नक्कारों कीआवाज़ भी दब जाए,
कभी सन्नाटा
इतना कि साँस लेने तक कीआवाज़ सुनाई दे,
मकड़ी के जालों, गर्द ओ गुबार के बीच-
रोशनी
कभी डरती, सहमती आई थी
अब… अब तो, अंधेरे ही अंधेरे हैं
सभी के यहाँ
अपने-अपने अहम् के घेरे हैं।
प्रबुद्ध युवा, मैं
साँप निकल जाने पर
लकीर पीटने
और निर्णय लेने में
विलम्ब करने का
अभ्यस्त मैं
क्रांति कीआँच को
जब-जब अपने निकट पाता हूँ
उसके सहगामी होने की बाँग
रूक-रूक कर
आराम से लगाता हूँ
एक निहायत अभावग्रस्त बना
अपनी कुंठाओं में संत्रस्त
महात्वाकांक्षाग्रस्त
थोथे वक्तव्यों की बैसाखी पर टिका
एक प्रबुद्ध वर्गीय
कथित युवा
अपने आक्रोश को सुरक्षित रखता हूँ
क्रांति कीआग में
स्वयं को होम देना
मैं…
सीख नहीं पाया हूँ
पड़ोस की क्रांति का धुआँ
जब-जब मेरी आँखों में भरता है
तिलमिला कर
अपनी सक्रिय भागीदारी का दावा
वक्तव्यों में प्रकट करता हूँ
न्यायोचित अधिकारों के लिये
मरते हुए अपने किसी साथी को
आगे बढ़ कर
साथ देने का, घोर संकोची
मैं …
सिर्फ पलायित भीड़
और अराजक तोडफ़ोड़ की
भर्त्सना कर
आत्मतुष्टि की उच्चसीमा पर
स्वयं सुरक्षित कर लेना
अब, मेरी प्रवृत्तिहो गई है।
दर्पण
सब कहते हैं
तुम सही, बिल्कुल सही प्रतिबिम्ब दिखाते हो
साफ-साफ बताते हो
लगता यों नहीं
जब-जब कोण बदलता हूँ
एक नया प्रतिबिम्ब बनता है
आज फिर तुममें झांका
लगा कोई बूढ़ा झांक रहा है
निसंदेह यह मैं तो नहीं
कहाँ गया वह निश्छल चेहरा
सब कुछ खिंचा-खिंचा सा
समय की धूप में
तपा-तपाया सा
या यही वह रूप है
एक प्रश्न चिह्न बनकर तुम टगें हो
शयनागार से मंदिर तक
मन नहीं मानता
न माने
तुम अपना धर्म निभाते हो
दर्पण हो
हर कोण पर
नया रूप दर्शाते हो
कितने रूप बदलते हो
सच, तुम शाश्वत हो
इसी से
अनचाहे सब को हर्षाते हो।
तीन परिधियाँ
एक
मैं,
अपनी ही परछायीं
की छाँह तले
यायावर
मई… जून…
रेगिस्तानी सूरज का
तप्त तप
पीठ पर सह लेता हूँ
सहिष्णु हूँ।
दो
असफलताई दर्द का
काढ़ा पी
क्षयग्रस्त जि़न्दगी को
स्वस्थ बना
मुस्कराए लेता हूँ
चिकित्सक हूँ।
तीन
आस्था की चेस्टर में
ढकी हुई
सर्दायी रात में
सत्य की दुल्हन को
बार होटल रेस्तराँ
आदि आदि मंदिर में
वादा कल मिलने का
हर बार किए जाता हूँ
धर्मात्मा हूँ।
वरेण्य नहीं हूँ
क्षमा कीजिये!
हूँ न अनब्याहा
चपल चंचल सलोनी
चटपटी-सी लेखनी संग
प्यार के फेरे फिरे हैं।
निस्सीम मौनता से भरे
आकाश के नीचे
उदासी से भरा
जब, मन
विकलता में स्वयं ही
छटपटता है।
हृदय के फूटते-से स्वर
रूधिर धमानियों पर
पूनमी आंतक को हो ज्वार
औ जब बेबस भुजाएँ
पाश में आबद्ध करने को मचल जाएँ
तभी नैकट्य पा,
हर भाव को
मुखरिज किया करती
प्रियतमा जो हमारी है।
और शादी करूँ
ना!
यह नहीं होगा
प्रसिद्धि
मैंने अपनी
सभी आदर्शों युक्त सहजता,
और चरित्र को,
चौराहे की सलीब पर टांग
निर्लज्जता का
आकर्षक गॉगल पहिन लिया है।
और अब,
प्रतीक्षित हूँ, सलीब पर टंगी लाश को सड़ने
के लिये,
उसकी सड़नऔर बदबू
और मेरी प्रसिद्धि
दोनों
सब सहगामिनी हैं।
वर्जित: मेरी चेष्टा
विस्मृति थी,
समर्पित क्षणों में
तुहारे सम्पूर्ण समर्पण की
कभी तो
कामना की
चिरन्तन अस्थिर लहर से
पूर्ण स्थिर
स्थितप्रज्ञता की।
हो दिल जहाँ प्रधान, रहता हूँ मैं वहाँ
इतना भी नहीं जानते, रहता हूँ मैं कहाँ
धड़कन जहाँ बढ़ जाती है, रुकता है कारवाँ।
है ताज़गी गुलाब की, रंगीन गुलसिताँ
बहकी हुई उमंग का, उड़ता हुआ जहाँ।
सैलाब आशिकी का, तिष्णा लबों की चाह
उमड़ी हुई जवानी, कयामत का है समाँ।
साहित्य, संस्कृति व कला, का जहाँ संगम
हर दिल में, जल रही हो जहाँ, प्यार की शमां।
हो जो भी हंसी और जवां, तेवर नये-नये
पूछो, जो पता मेरा तो, बोलेगी हर जुबां।
साकी भी हो, शराब भी, मस्ती का हो हूजूम
मदहोशी का आलम हो जहाँ, रहता हूँ मैं वहाँ।
मतलब की मुलाकात का, मुकाम ये नहीं
हो दिल जहाँ प्रधान, रहता हूँ मैं वहाँ।
कितने ख़ुदगर्ज़ भीड़ के रिश्ते
एक ही इल्तजा है कि उठा लेना
बोझ बन के जहाँ मैं नहीं रहना।
बात जो ग़लत है उसे ग़लत कहना
लाख बंदिशें हों, चुप नहीं रहना।
घात में दोस्त भी, दुश्मनों की तरह
दिल की हर बात अब नहीं कहना।
कितने ख़ुदगर्ज़, भीड़ के रिश्ते
ख़ाक डालो, यहाँ नहीं रहना।
कद्रदां ही न, जब ‘प्रधान’ मिले
एक अल्फाज़ भी, नहीं कहना।
हर शख़्स ज़रूरत की सलीबों पर टँगा है
अल्लाह! मेरे घर में, क्या दौर चला है
हर शख़्स, ज़रूरत की, सलीबों पर टँगा है।
ग़ैरों ने नहीं, चाहने वालों ने ठगा है
अब कौन पराया है और कौन सगा है।
कुचला गया है राह में, कौन, क्या पता
अपनी उधेड़बुन में ही, हर शख़्स लगा है।
टूटे हुए शीशों का शिकवा करे है वो
चुपचाप मारकर के पत्थर, जो भगा है।
इन्साफ की दुहाई किससे करें ‘प्रधान’
मुंसिफ का ही लहू से जब हाथ रँगा है।
मेरे देश को क्या हो गया है
आज मेरे देश को, क्या हो गया है
हर आदमी, दो मुहाँ हो गया है
समस्याएँ, सुरसा का मुँह हो गयी हैं
जीवन अँधेरा कुआँ हो गया है
अहित कर सकूं, तो ही इज़्ज़त करोगे
भला आचरण, तो धुआँ हो गया है
तस्करी, लूट चोरी, व काली कमाई
किया जिसने धन्धा, रहनुमाँ हो गया है
भरी जेब जिसकी, बड़ा आदमी है
ये माहौल ही, बदनुमां हो गया है।
मेरा देश महान
कुर्सी की ख़ातिर होते हैं नेता लहूलुहान
बड़े गर्व से बोलो यारों मेरा देश महान्
संसद और विधानसभा में तर्क न सम्भाषण
खींचो, मारो, स्पीकर और पारित करो विधान
करी तरक्की कितनी हमने आज़ादी के बाद
दूध और पानी दोनों की कीमत एक समान
जूते-जूते खरी बट रही, है चुनाव का खेल
हथ कण्डे और डण्डों पर, ऊँचे तने वितान
सुख सुविधा को छोड़ देशहित में लहू बहाया
व्यर्थ शहादत गयी, देखिये मूरख बने ‘प्रधान’
हम सुनहरे कल की ओर बढ़ रहे हैं
जहाँ मिला चंदी चारा चर रहे हैं
हम सुनहरे कल कीओर बढ़ रहे हैं
आज इस दल में कल उस दल में
दल बदल की राजनीति गढ़ रहे हैं
वंचितों को दे नहीं पाये जो रोटियाँ
चुनावी समर में हाथियों पर चढ़ रहे हैं
भ्रष्ट दुराचारी जेलों में जाने वाले
कुर्सियॉं पकड़ के कैसे अकड़ रहे हैं
संविधान की धज्जियाँ उड़ाने वाले
संसद में पहुँच संविधान गढ़ रहे हैं
वादों का कफन ओढ़ना मजबूरी है
काँच का पर्दा गिरा, यों न मुस्कुराते रहो,
खुद उठाओगे नहीं, तोड़ना मजबूरी है।
भीड़ है, भीड़ का वातावरण है चारों तरफ,
रुक के, दम लूँ मैं कहाँ, दौड़ना मजबूरी है।
है कहाँ आपको फ़ुरसत, जो ज़रा देखें इधर,
अब लिहाज़ों का धरम, छोड़ना मजबूरी है।
बात करते हुए भी, हमसे जो कतराते हैं,
रिश्ता उनसे भी यहाँ, जोड़ना मजबूरी है।
बेतहाशा बढ़ा है दर्द, तन बदन में मेरे,
एक फोड़ा पका है, फोड़ना मजबूरी है।
क्यू में फँसा है
आया था नगर में नया कुछ काम करेगा
दफ़्तर व रोज़गार के ही, क्यू में फँसा है।
चेहरे का रंग स्याह, बेदम हुआ है वो
लगता है नगर की किसी, नागिन ने डॅँसा है।
लकदक से खिंचा आया था, घर छोड़ नगर में
अब मुफ़लिसी ने जिस्म क्या, रूह तक को कसा है।
छूती है आसमान की, ऊँचाईयाँ कीमत
लाशों की तिजारत है, लाभों का नसा है।
रो रो के थक गया है, साहिब ‘प्रधान’ अब
नाकामियों पे, ख़ुद की, बेबात हँसा है।
श्रोता
मैंने कहा
खूब… खूब…
तुमने गरदनें हिलाईं
स्वर के आरोह
अवरोह से
तालियाँ दे डालीं,
पर
श्रोता का धर्म
श्रवण
सिर्फ श्रवण है
यह सिद्ध किया
ग्रहण कुछ किया नहीं।
क्षणिकाएँ / चतुष्पदी
टूटते हर क्षण मगर हँसते हैं हम
जाल बुनकर स्वयं ही फँसते हैं हम
समस्याओं के घरोंदों में घिरे,
समझौते ही समझौतों में जीते हैं हम।
मैं कवि हूँ कविताएँ कहकर जीता हूँ…
अमृत जग को, मैं स्वयं गरल पीता हूँ
विज्ञान, ज्ञान की पूर्ण सम्पदा देकर,
मैं जीव जगत की स्वयं, एक गीता हूँ।
आपसे रूबरू हूँ जा दिल को थामो
ग़ज़ल कह रहा हूँ ज़रा दिल को थामो
धड़कने लगे हैं जवाँ दिल निकलकर
कहीं लग न जाय ज़रा दिल को थामो।
गीत क्या है हृदय की झंकार है
प्रीत क्या है प्राण का आधार है
और यह आधा ही मिट जाय तो
ज़िन्दगी होती यहाँ दुश्वार है।
क्या कहूँ कि तुम्हें मेरा साथ गवारा ही नहीं
मैं कहीं दूर न था, बस तुमने पुकारा ही नहीं
कौन-सा ग़रूर था जिससे तुम मग़रूर रहे
आईना सामने था बस तुमने निहारा ही नहीं।
प्यार बस प्यार है कोई व्यापार नहीं
दिल शिवाला है दुकान कारोबार नहीं
देखा जो तुम्हें प्यार यक ब यक उमड़ आया
प्यार बस प्यार है वासना से सरोकार नहीं।
रिश्ते अपनों से कितने ग़ैरों से
आदमी हैं तो रिश्ते ढेरों से
रिश्ते दिलों के मिटाये नहीं मिटते
यों रिवाजों में रिश्ते हैं बहुतेरे से।
अब प्रेम और प्यार भरे अंग-अंग में
फागुन है सभी लोग हों बस एक रंग में
पिचकारियाँ गीतों की मलने को हो गुलाल
आओ… मनाएँ होली आप के संग में।
रूप का आधार मन की भावना है
प्रश्न सूचक दृष्टियों का सामना है
इस परीशाँ जि़न्दगी को काट दे जो-
स्नेह सम्बल की यही प्रस्तावना है।
कुछ वीर गाथाएँ
भारतीय सीमा के अमर प्रहरी-1962
मेजर शैतान सिंह
जब तक क्षिप्रा में है कल कल, जब तक गंगा का जल निच्छल
तब तक मेजर शैतानसिंह की, अमर वीर गाथा उज्जवल
जिसने दुस्साश्न चाऊ की, सेना पर प्रबल प्रहार किया
जिसने माँ भारत के ख़ातिर, अपने प्राणों को वार दिया
जिसने बर्बर हमलावार की, फौजों को आग लगा रोका
जिसने गोली बारूदों में, कितने अरि प्रणों को झोंका
जिसने मरते-मरते दम तक, अनगिन दुष्टों का किया दमन
जिसने आहुति की ज्वाला में, फौलादी तन कर दिया हवन
जिसने राजस्थानी गौरव फिर, एक बार कर दिया प्रबल
राणा प्रताप की जगी याद, दुश्मन का कांप गया छल बल।
जब तक शिप्रा में कल कल, जब तक गंगा का जल निच्छल
तब तक मेजर शैतानसिंह की, अमर वीर गाथा उज्जवल।
सन बांसठ का था साल, अक्टूबर का ठंडा मौसम
हिमगिरि पर बर्फीली फुहार, सब और बिछी ठंडी जाजम
हिंदी चीनी भाई-भाई का, नारा दे, बढ़ गया चीन
ओ’ शांति समर्थक भारत की, सीमाओं पर चढ़ गया चीन
तब मातृभूमि की रक्षा में, लहराया भारत का यौवन
विस्तारवाद के पंजों से, टकराया भारत का यौवन
दुश्मन की सहने शैतानी, लद्दाख क्षेत्र का था अंचल
शैतानसिंह की थी कमान, मेजर था लपटों-सा चंचल।
जब तक क्षिप्रा में है कल कल, जब तक गंगा का जल निच्छल
तब तक मेजर शैतानसिंह की, अमर वीर गाथा उज्जवल
उस रोज सुबह संदेशा ले, जैसे किरणें उतरी भू पर
वीरों ने आँख मली अपनी, देखी हलचल कुछ दूरी पर
मोर्चा जमा तैनात किया, मेजर ने सबको क्षण भर में
गर्माई ले जम गे हाथ, ट्रिगर पर सबके क्षण भर में
ओ’ पलक मारते ही देखा, दीमक-सी बढ़ती सेनाएँ
सूरज पर बढ़ती जाती है, ज्यों काल ग्रहण की रेखाएँ
मुट्ठी भर सैनिक के बल पर, बोला मेजर मुठ्ठियाँ मसल
चीनी फणधर हत्यारों की डालो साथी ठुड्डियाँ कुचल।
जब तक क्षिप्रा में है कल-कल जब तक गंगा का जल निच्छल
तक तक मेजर शैतान सिंह कीअमर वीर गाथा उज्जवल।
कट कट किट-किट धाँय धाँय, छिड़ गया भयानक युद्ध तभी
बारूदी धुआं उड़ा हिम पर, कटिबद्ध सिपाही क्रुद्ध सभी
थे सधे हुए सब हाथ इधर, फिर वार कहीं खाली जाता
गोली से एक-एक तो क्या, सौ-सौ चीनी गिरता जाता
घायल भाई के सीने पर, धर पैर बढ़े आते चीनी
मरने को आगे को रो में, जबरन ठेले जाते चीनी
बढ़ती दुश्मन की बाढ़ों पर, गोली की मार पड़ी अविरल
गिनती के साथी खेत रहे, शैतान रहा पर आग उबल।
जब तक क्षिप्रा में है कल कल, जब तक गंगा का जल निच्छल
तब तक मेजर शैतान सिंह की, अमर वीर गाथा उज्जवल।
गोलियाँ अचानक खत्म हुई, क्षण भर को साहस खीज गया
पर तुरंत चढ़ा संगीन और कूदा दुश्मन से जूझ गया
जैसे गयन्द के घेरे पर, बेखौफ झपटता शेर-बबर
चीनी खेमे में हुआ शोर, संगीन कौंधने लगी प्रखर
सहसा पीछे से वार हुआ, लडख़ड़ा उठा पूरा शरीर
फिर भी कुन्दे से वार किया, लड़ते-लड़ते गिर गया वीर
शोणित की धारा बह निकली, पर धन्य शौर्य तरेा अविचल
बलिदानी तेरी स्मृति ही, स्वाधीन देश का है सम्बल।
जब तक क्षिप्रा में है कल कल, जब तक गंगा का जल निच्छल
जब तक मेजर शैतानसिंह की, अमर वीर गाथा उज्जवल।
है धन्य जोधपुर वीर प्रसू, नर नाहर-सा शैतान दिया
जिसने पौरुष की दी मिसाल, भारत को गौरव दान दिया
गणगौर नारियाँ गाती हैं ले, साध वीर वर को पा लें
साहस की कथा सुनाती हैं, हर गाँव-गाँव की चौंपालें
भारत ने परमवीर चक्र दे, शैतानसिंह का किया मान
कल तक जिसको ना पहिचाना, उसको सारा जग गया जान
जिस जगह तुम्हारा ख़ून गिरा, खिल उठे वहाँ पर रक्त कमल
निज मातृभूमि हित मिटने की, दे रहे प्रेरणा जो प्रति पल।
जब तक क्षिप्रा में है कल कल, जब तक गंगा का जल निच्छल
तब तक मेजर शैतानसिंह की, अमर वीर गाथा उज्जवल।
जागो! ऐ मेरे नौजवान
सुगबुगाहटें जौहर की, ज्वाला में होतीं
राजस्थानी रजपूत उट्ठो, केशरिया बाना पहिनो
मरूस्थल की भूमि मचल-मचल कर कहती है
दो आज बिदा, अपने वीरों को माँ बहिनों
राणा सांगा के घाव, आज फिर रिसते हैं
हल्दी घाटी के प्रण को, फिर दोहराना है
जो कदम कढ़ायें आज, देश की धरती पर
उसको हर दुस्साहस का, सबक सिखाना है
केशर, कस्तूरी, घोल, कसुम्बा मत छानो
राजस्थानी छाती में खुद, अंगारों की गर्माई है
जागो! ऐ मेरे नौजवान, रणभेरी की ध्वनि आई है
है आज परीक्षा, फिर दक्षिण के बांके वीर मराठों की
जिनकी तीखी तलवारों ने, दुश्मन का दमन कुचल डाला
जिनने दुश्मन की ताकत को, हर बार नाप कर मुट्ठी में
इतिहास मसि से नहीं, उफनते गर्म खून से लिख डाला
जिनके सीने में जोश भरी अकुलाहट है
जिनकी बाहों में उच्च पठारों का बल है
जिनके शस्त्रों में फौलादी टकराहट है
जो आज देश की आज़ादी का सम्बल है
कर लिया बहुत आराम, उट्ठो! चेतना भरो
लुटेरे गिद्धों ने फिर से ललचाई दृष्टि जमाई है
जागो! ऐ मेरे नौजवान, रणभेरी की ध्वनि आई है
क्या भूल गये पंजाब? देश का सिंह द्वार
गुरु गोविन्द, तेग, भगतसिंह की कुर्बानी को
दे रहा चुनौती, रावी का घहराता स्वर
पंजाब देश की, उठती नई जवानी को
भाषा, जाति, धर्म-भेद की, दीवारें मत खड़ी करो
जब भारत पर, संकट-का बादल छाया हो
हो सावधान! गृह कलह नहीं शोभा देता
जब शत्रु हमारी देहरी पर, चढ़ आया हो
बोलो फिर सत-सिरी अकाल, अभियान करो
गगन भेदी बन्दों ने, फिर अपनी हुँकार लगाई है
जागो! ऐ मेरे नौजवान, रणभेरी की ध्वनि आई है।
तय्यार रहे शक्ति सेना, ओ मेरे बंगाल देश
हर रजकण से, सुभाष का स्वर लहराता है
फिर शांतिनिकेतन, क्रांति निकेतन बन जाये
आह्वान देश की, दसों दिशा से आता है
सीधे से गर समझे न, अगर कोई हिंसक
जल थल नभ सेना, थोड़ा इनको सिखलाओ
तीसरा नयन अब महाकाल, तुम भी खोलो
सीमा से आगे बढऩे का, रंग दिखलाओ
जब पराकाष्ठा सहने की, हो जाय, उट्ठो
सभ्यता और संस्कृति पर, शामत आई है
जागो! ऐ मेरे नौजवान, रणभेरी की ध्वनि आई है।
ओ कवि, हाला प्याला के, गीत नहीं गाओ
स्वर बदल-बदल कर, कबिरा को मत दोहराओ
‘मत गुनियाँ के यौवन’ पर मन को मुग्ध करो
‘लोरी’ गाकर मत जाल, स्वप्न को फैलाओ
फिर उत्तर में, नगराज हिमालय बुला रहा
अरि की सेनाएँ, युद्धों को ललकार रही हैं
नापाक कतारें सीमाओं पर, पड़ी पड़ी
हिमगिरी की सांसे डसने को, फुफकार रही हैं
छोड़ो विहाग की ताने, दरबारी गाने
फिर युद्ध भैरवी गाने की, बारी आई है।
जागो! ऐ मेरे नौजवान रणभेरी की ध्वनि आई है।
युगे-युगे उज्जयिनी
युगे-युगे उज्जयिनी, नगरी महाकाल, अविनासी
ध्वजा धर्म की लिये, यहाँ पर, एक हैं भारतवासी
हरिद्वार, नासिक, प्रयाग ‘औ’ हृदयस्थल उज्जयिनी
चार नगर में, कुम्भ पर्व की, बहती है निर्झरनी
भोज, भर्तृहरि, विक्रम की आराध्यदाय उज्जयिनी
क्षिप्रा के तट, प्रतिकल्पा है, मोक्षदाय उज्जयिनी
कल-कल करती, शिप्रा के तट पर, आ पुण्य कमाते
वेद, पुराण और गीता का, ज्ञान यहाँ पर पाते
कोटि-कोटि जन, नगर ग्राम से आते, यहाँ नहाते
उज्जयिनी के कुम्भ पर्व पर, अपना अर्ध्य चढ़ाते
महाकाल का भस्म आराधन, हरसिद्धि का वन्दन
छप्पन भैरव तीर्थ और चौसठ योगिनी का नर्तन
जाग मच्छंदर, गौरख आया, चक्रतीर्थ का गर्जन
नाथ पंथ की गौरव भूमि, उज्जयिनी का वन्दन
अद्भुत संगम ऋषिमुनियों का, यहाँ हुआ अलबेला
अंतराल बारह वर्षों से, लगा कुम्भ का मेला
असुरों से धरती की रक्षा, देव प्रयास यह मेला
सिंहस्थ है, उज्जयिनी में यही कुम्भ का मेला
केरल से कश्मीर, कच्छ से कलकत्ते के वासी
शैव, वैष्णव, निर्वाणी, बैरागी और उदासी
ध्वजा धर्म की लिये, यहाँ पर एक हैं भारतवासी
युगे-युगे उज्जयिनी नगरी महाकाल अविनाशी
जीवन की अभिलाषा, महती जिजीविषा कीआशा
सागर का मन्थन करती है, मानव अमिय पिपासा
सागर तल से, देवासुर ने, मिल अमरत्व तलाशा
अमृत घट से, अमृत का कण, छलका यहाँ ज़रा-सा
अमृत कण की वर्षा का, यह महा महोत्सव मेला
पुण्य सलिला क्षिप्रा में, अवगाहन का यह मेला
हर हर गंगे, जय-जय क्षिप्रा, जन रव का यह मेला
जन जन में सद्भावों के, आह्वाहन का यह मेला
दत्त अखाड़ा, क्षिप्रा के इस पार, क्षेत्र है भारी
पीर, पुरी होते महंत, इस आसन के अधिकारी
त्यागी और तपस्वी, नागाओं का जमघट भारी
भंडारा हो रहा, प्रसाद पा रहे, लाखों नर नारी
धर्मक्षेत्र यह सारा उपवन, कोस-कोस तक फैला
बारह वर्षों बाद भरा फिर, यहीं कुम्भ का मेला
उपवन-उपवन, आश्रम-आश्रम, रंग यहाँ अलबेला
संत समागम, तप आराधन ज्ञान रंग का मेला
मण्डलेश्वर है कोई, कोई महा-महा मण्डलेश्वर
पीठ-पीठ के एकत्रित हैं, सारे पीठाधीश्वर
धर्म-पीठ का सम्मेलन, कर रहे प्रमुख, प्रन्यासी
ध्वजा, धर्म की लिये, यहाँ पर एक हैं भारतवासी
युगे-युगे उज्जयिनी नगरी महाकाल अविनाशी
कनखल, गुरु का ज्ञान, शब्द, कीर्तन, गुरबाणी
टेक रहे हैं मत्था, उज्जयिनी को, सारे ज्ञानी
योगी, हठी, तपस्वी के डेरे आश्रम कल्याणी
दर्शन और धरम को आते, देश-देश के ज्ञानी
स्नान, ध्यान औ’ योग तपस्या प्रात: काल तय्यारी
धर्म ध्यान के अद्भुत दर्शन कितने विस्मयकारी
हिमालय औ’ हरिद्वार के संत महंत औंकारी
प्रवचन करते, धन्य-धन्य, तन्मय होते संसारी
तरह तरह के सम्प्रदाय के संत महंत सन्यासी
प्रवचनकर्ता, तेरा पंथी, वैष्णव और उदासी
ध्वजा धर्म की लिये, यहाँ पर एक हैं भारतवासी
युगे युगे उज्जयिनी, नगरी महाकाल, अविनाशी
उज्जयिनी को, तीन ओर से, क्षिप्रा ने आ घेरा
क्षिप्रा के दोनों तट पर, साधु संतों का डेरा
मंगलनाथ, जहाँ धरती पर, मंगल का है फेरा
वटवृक्षों से घिरा हुआ है, उपवन यहाँ घनेरा
सांदीपनि का आश्रम, गुरुकुल की है महिमा भारी
पढ़ने स्वयम् कृष्ण भी आये, गरिमा इसकीन्यारी
आदि देव महादेव, महाकालेश्वर करे सवारी
सात नगरियों में, भारत की, अवंतिका है न्यारी
आदिकाल से संस्कृतियों कीधारा जहाँ बही हैं
भोज, भर्तृहरि, कालिदास ने कविता यहाँ कही है
आलोकित हो जहाँ प्रकृति ने रूप धरे चौरासी
सौ-सौ बार नमन करते हैं, कविगण नगरनिवासी
युगे युगे उज्जयिनी, नगरी महाकाल, अविनाशी
ध्वजा धर्म की लिये, यहाँ पर एक हैं भारतवासी
पींपीं, पींपीं, टरटर ढम
पींपीं, पींपीं, टरटर ढम
आगे कदम, बढ़ाते हम
अब तक प्यारे गीत सुनाये
अब ललकार सुनाते हम
खबरदार हों, देश के दुश्मन
अब तलवार उठाते हम
पींपीं, पींपीं, टरटर ढम।
आगे कदम बढ़ाते हम।
धोखा देकर वार करें
समझो ऐसे डरपोक नहीं
भाई कह कर गोली दागें
समझो ऐसे मक्कार नहीं
नन्हें-नन्हें हम बालक भी
अभिमन्यु हैं बलशाली हैं
आज़ादी के मतवाले हैं
फुलवारी के सब माली हैं
सब मिलकर कदम बढ़ाते जब
दुश्मन को मार भगाते हम
ख़बरदार हों देश के दुश्मन
अब तलवार उठाते हम
पींपीं, पींपीं, टरटर ढम।
आगे कदम, बढ़ाते हम।
जिसने सीमा लांघी, उसकी
उसकी सारी फौज सुला देंगे
हम भारत के नन्हें मुन्हें
सबके होश भुला देंगे
सारी ऐंचक तान समझा लो
सिर अपना धुन जायेगी
हमसे जो टकराये तो-
सिट्टी-पिट्टी गुम हो जायेगी
अब शेर इरादे जाग गये
सुन लो, हुंकार लगाते हम
ख़बरदार हों देश के दुश्मन
अब तलवार उठाते हम
पींपीं, पींपीं, टरटर ढम।
आगे कदम बढ़ाते हम।
गुरु गोविन्दसिंह के वीर पुत्र
मरने से नहीं डरेंगे हम
आखिर दम तक नापाक इरादे
सबके दफन करेंगे हम
हम अपनी जि़द के पक्के हैं
दुश्मन की गर्दन मोड़ेंगे
पीछे जिसके पड़ जांय-
कयामत तक ना उसको छोड़ेंगे
भूले से इधर नहीं आना
सब मिल किलकार लगाते हम
खबरदार हों, देश के दुश्मन
अब तलवार उठाते हम
पींपीं, पींपीं टरटर ढम।
आगे कदम बढ़ाते हम।
महागुरुओं की सीख
गाँधी जयंती की तैयारी में
मिले मुझे पंडित शुक्लाजी
बोले दोस्त! तुम्हारे ख़ातिर
नया एक उपहार लिया है।
मैंने उत्सुकता से माँगा जब
उपहार नया तो बोले,
दो, रुपये कुछ, जमा किराया
ताँगे का भी नहीं दिया है।
रुपये ले, ताँगे से उतरे
क्रान्तिजयी खाली केफे में
पास बिठाकर इतमिनान से
लगे मुझे फिर यों समझाने
तुमने प्रोफेसर बनकर भी
ख्याति न अर्जित की अभी तक
तुम पर कसते हैं कुछ ताने
घर बाहर के यार सयाने।
तुम्हें सफलता दिलवाने को,
ले आया हूँ, गुरु तीन मै,
जिनकी सीख मानकर गाँधी,
सम्पूर्ण राष्ट्र के पिता हो गये।
सीख मानली तुमने भी तो,
राष्ट्रपिता यदि नहीं कमसकम
लोकप्रिय प्राध्यापक होकर,
कुलपति अवश्य तुम हो जाओगे।
फिर तीन बन्दरों वाली मूरत खोल
शीघ्र टेबिल पर धर कर
बोले:-प्रधानजी! तुम भी सुन लो
गाँधी के गुरुओं की शिक्षा,
भला चाहते हो तो अपना
बदलो सब व्यवहार पुराना,
आदर्श गुरु बनना हो तो फिर
ग्रहण करो इनसे ही दीक्षा।
दोनों हाथों से आँख मींचकर
कहते पहले ये महागुरुजी
सुना… गुरुजी ‘बुरा न देखो’
महापाप है बुरा देखना
यदि कॉलेज की केन्टीन में
छात्र उड़ाते धुआं, सिगार के
कश पर कश, खींचे जाते हों
सिनेघरों का दृस्य समझ कर
जर्देवाला पान चबाते
कक्षाओं में आ जाते हों
और … जुगाली करते … करते
भाषण के ही मध्य ऊँघते
और बगासी भरते
तुम्हें नजर आते हों…
याकि, तुम्हें और तुम्हारे
श्याम पट की रेखाओं पर,
नज़र न रखकर,
अपनी नव सहपाठिन को ही,
लगातार घूरे जाते हों
तो तुम्हें आँख इन पर रखने की
नहीं ज़रूरत, सुना गुरुजी
महापाप है बुरा देखना, ‘बुरा न देखो’
शिष्याएँ यदि कहीं तुम्हारी
चुस्त-चुस्त पोषाक पहिनकर
पुस्तक के झोले के बदले
वेनिटी बैग लेकर आती हों
याकि बिना बाहों वाले कुरते व जीन्स में
कोई विज्ञापन के जैसी अंग-अंग का किये प्रदर्शन
यहाँ वहाँ कुछ इतराती हों।
और … तुम्हारे बाद तुम्हारी ही कक्षा में,
फेशन परेड का दृश्य बनातीं
मुस्काती इत उत निहारतीं
लोलित अंपाग के शर बरसातीं
तुमसे पूछे बिना, एक के बाद एक-एक आती हों,
तो तुम्हें आँख इन पर रखने की
नहीं ज़रूरत, सुना गुरुजी…
बुरा न देखो, बुरा देखना महापाप है
चाहे साल गुजारे ऐसे, नहीं उपस्थित रहे कक्ष में
चाहे पढ़े नहीं दो आखर, पास मगर उनको होना है
चाहे कैसे भी आये यदि, सरल-सरल से प्रश्न पत्र और
उत्तर भले नहीं आये पर, साल नहीं इनको खोना है
ध्यान रहे इनकी कठिनाई, इन्हें डिग्रियाँ लेना केवल
नहीं ज्ञान की इन्हें ज़रूरत, नेता बनना है इनको
कुछ नहीं कहीं नोकर होना है।
इनविजि़लेशन अगर करो तो
आँखें नहीं खुली रखना है
नकल करें यदि खुले आम भी
और नकल के लिये, अधिक सुविधा दो
ये आन्दोलन छेड़ें, खुद के पैसों में आग लगायें,
खिड़की दरवाजे भी तोड़ें
तो तुम्हें आँख इन पर धरने की नहीं ज़रूरत,
गाँधीजी के गुरु कह रहे
‘बुरा न देखो’ बुरा देखना, महापाप है
दोनों हाथों से कान दबाये बता
रहे दूसरे गुरुजी,
बुरा न सुनना
‘ प्रगति पंथ की एक बड़ी बाधा,
कानों को खुले छोड़ना। ‘
संविधान से अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता
जो चाहे सो बोल सकेंगे
और बोलना या चिल्लाना
या चिल्लाकर शोर मचाना,
जन्मसिद्ध अधिकार सभी का।
यदि तुम्हारे शिष्य, कभी क्या,
सदा मौज में घूम-घूम कर …
ताज़ा किसी फ़िल्म कीधुन पर…
ग्रंथालय या कक्षाओं में,
शोर करें या सीटी मारें
या कुछ पशुओं की बोली में-
प्रकट करें अपनी प्रतिभा को,
नवागमन पर बालाओं के
आह! भरें या कुछ सिसकारें…
और राह चलते तुम पर
या कभी तुम्हारी शिष्या पर भी
कैसी ही फब्तियाँ कसें तो,
कान नहीं उस पर देना है,
‘ बुरा न सुनना सीख समझ लो
प्रगति पंथ कीएक बधी बाधा
कानों को खुला छोड़ना। ‘
और अंत में ओंठ दबाये
देखो ये क्या समझाते हैं…
बुरा न कहना, कभी किसी से,
चाहे बुरा सोच लो इनका,
लेकिन बुरा न कहना इनसे
कैसी भी शैतानी दें यदि शिष्य तुम्हारे
उन्हें न डॉटों या फटकारो,
पुस्तक या कि कोर्स की बातें…
या अध्ययन में रत होने की,
पिटि पिटाई नीरस बातें
ऐसा कोई उपदेश न झाड़ो!
सदा प्रशंसा करो शिष्य की
बुरा न मुँह से कभी निकालो।
तीनों बातें समझो इनकी
सुना गुरुजी:
बुरा ना कहो
बुना ना सुनो
बुना ना देखो।