राजस्थानी कविता संग्रह
बाथां में भूगोल
रेत रै समंदर रौ पांणी
खाथौ चाल रे
खाथौ चाल रे कमतरिया
देखलै सींव
पाछौ धिरयौ है
रंभावतौ रेवड़
उठतै रेतड़ सूं
कंवळाइजै उजास
संुवी सिंझ्या
सुहाग्ण नीं चढै कुवै
भरियाई व्हैला
घड़िया टीपाटीप
बैठगी व्हैला
हांडी कठौती मांड
चाल….कमज्या रा धणी चाल
खाथौ-खाथौ चाल
ऊभगी व्हैला
थरकण थांम मघली
अंवळाई में
दीसै कठैई छिंयां….. तौ
हाका पाड़ती भाजै सामै पगां
टेरां माथै टेर
भरताई व्हैला
तेजौ हरियौ सूवटी
जाणै उगेरी आरती
देख बा देख
सरणाटे री छोटी
झाड़ती उतरै
भीतां माथै रात
राखैला आळा – आरां
भर दैली थाळी हथाळी
देवैली कवा
जड़ दैली सगळा दूधाळा दांत
खाथौ चाल
दीवै रा देवता
होतांई चुड़लै रै हाथां जोत
सैचन्न होसी
चूलौ- आंगणौ
चाल……………
आखै घर री
उडीकां रा एकल चित्रांम
खाथौ- खाथौ चाल
खाथौ चाल रे कमतरिया!
समंदर थूं : समदर हूं
थूं…………..
मच चढियोड़ौ
साव उघाड़ौ नागो
दूर दिसावां तांई
सूतौ दीसै…
नेड़ौ तो आंटीज्यौ आवै
पड़ै पछाड़ां खा -खा
लूरलै मखमलिया माटी
झागूंटा थूक जावै
बोला नीं रेवै एक पळ
घैंघावतौ रेवै
सुणै कुण
उछांचळी छोळां-सा
थारा बोल
थूं…………
हँसतौ-हँसतौ
जबड़ा पसार
गिट जावै जाज
जूंण री खातर
थारो पताळ छाणती
नांवां, मछेरा
डकार नीं लेवै
उडीकां सुपनां रा
जगता दीका बुझावै थूं
थूं…………..
कोई नीं जाणै
कणै भुंआळी खाय
रमझोळी बाड़यां खिंडावै
घरकोला ढावै
मार झपटा
तोड़ लै निरळसूत
थूं……….
लागै तो निमळ नीर
चाखतां
थू-थू खारो
नांव तो संमदर
अंतस तक खारो
सभाव नागो !
अर हूँ
ऊपर सूं हुळक केसरिया
म्हारै हियै
पताळ
अमरत पांणी सूं
तिरिया- मिरिया
बारे री बाट जोेवै
हूँ
नूंता देवूं, उतारूं
खाली बारा
हूँ भरीजूं
गांवतौ – गांवतौ चढूं
धरमजलां धरकूंचां
आंवतौ दीसूं
‘‘आवतौ दीसूं
‘‘आयौ….आयौ..
बठै वो खीली खीलै
अठीनै
हँखळकीजूं कूंडयां-देगां
मैदी सूं राच्या
चुड़लै सूं भरिया हाथ बाजै
लडावै म्हनैं
गावै ‘पिणहरी’
थूं……….
पांणी रो समंदर
हूँ………
म्हारी बाड़यां रो पांणी
आंख रो मोती
हियै रो बळ
चेरे रो मांण
खेत रो सोनो
हूँ……….
म्हारै आखै बास री
जूंण रो बेली
दुखती रंगां
सुखां सूं फाटतौ हेजड़
धूमर …. डांडिया रम्मत
अर थूं………..
कतरा गुण – गोत थारा
बोल नीं
घैंघावता घमंडीराम बोल
अणथाये
पताळ रा धणी बोल…
समंदर थूं….
क’ समंदर हूँ!
नित-नेम
थारो-म्हारो नित-नेम
आ, भळै बाथेड़ा करां!
खायली आंधी
पीयली लूआं
पूंछलै मूंढै लाग्यौड़ी झूठ
रगड़ हथाळयां
झाड़लै चैरै चेंटीज्यां
काळा-पीळा लेवड़ा
थारो-म्हारा नित-नेम
आ, भळै बाथेड़ा करां !
बीज्यौड़ी बाजरी
मतीरा, मोठां नै
लांपो देग्यौ काळ
आ, लूरलाँ
जाळ क’ खजेड़ी रोडील
छाल नै कूट पोयलां टिक्कड़
सियोजलां सिणियो
बांधो, बंधै जियाई बांधां पेट रै पाटी
थारो-म्हारो नित-नेम
आ, भळै बाथेड़ा करां !
आव चालां
राज रै सिरे-थांन
वर्ण तमोळा मेड़यां
अकासी माळिया बणै
आंपां अडाण बणा
माथै ईटां चूनै रो भारौ
नीचै चींथीजी जूंण ढोवां
थारो-म्हारो नित-नेम
आ,भळै बाथेड़ा करां !
थारै-म्हारै
दुखां सूं दूबळा दाता
पगोथिया सांटता चढ़ै रांस
रांस सूं बांचै
थारै-म्हारै खातर
बिधि-विधान
नांख
बातां रै ठंडे भोभर माथै
नांखदै धोेबा- धोबा धूड़
थारो- म्हारो नित-नेम
आ, भ्ळै बाथेड़ा करां!
चोथो जथारज
पूरब री पिरोळ
खुलतां-खुलतां
उड़गी चिड़कोली आंख्यां…
राख्यौड़ी सोध
कसी,कुंवाड़ा सांभ
हुयग्यौ बयीर
धरनी रो धणी……
टुरगी लारै
काकी, भोजाई
डांग रै सायरै बाबो….
नीं दीसै पाळ
खिंडियौड़ी बाड़
खेत आया…….
कै’ आया उजाड़……
देखै एक नै दूजौ
निजरां रै
सूनै झरोखां में आगोतर
आगोतर …… ओ…..आगोतर
कसमसतै छोटियै
तरणाटी खा’र
कसिया कोछा
एकै सागै
सगळां रै डीलां
तिरछ तड़कीजी
हथाळयां सधगी
खोसण लाग्या
मठोठी दे’र बूझा,
साव उधाड़ा खेलूंणा
पगल्या-पगल्या
रमता-रमता
चुग-चुग फैकग्या
बैरी भाठा-डग्गड़
थप-थप दैयनै
बिछाई गाभण माटी
हँई-हँई
हँईसा बज्जर भींवै
पाड़दी पाळ चारूंमेर
दांतेळ सूं भांज
सूकी सणाट झाड़यां
खूंट सूं खूंट
चिणदी बाड़-
टीडी फाकै नै
अब कै……….
फाकाई करणा पड़सी
ऊभौ गुमेज
टग-टगता हांफीज्या
सूरज रा सातूं घोड़ा
मूंढै रा झाग झरग्या
डीलां रै माथै
बढातै सूरज दीवी साख
हाथां-पगां
आंख्यां नै जोत
भळै रचायी खेत
धरती रै धणी
आंख्या में हिलकै हेज नै
निजर नीं लागै
फाडै तावड़े री
झळमळतै धूंवटै री ओट दियां
ढाक खारटियौ
आई छोटोड़ी
दीवी टिचकारी
जाळ री छिंयां
बजबजते चुड़लै
थाळी बिछा’र पुरसी
जतना री रोटयां-राब
तिरिया-मिरिया
छाछ रो कुलड़ियौ
पेट रै पांण लागी
भीजी रसीजी तिस
बैठग्या सगळा
पंगत जोड़
हुयग्या उडीक
अबकै…..
अबकै बैगौ मांडैली
काळी कळायण आभौ
बाबो बिछाण लाग्यौ
धोळै दिन
सुपनां री लांबी-चोड़ी चानणी
काले बोलैली
मिंदर रै पींपळ सुगनड़ी
अबकै……
अरड़ा’र पड़ैला आभौ
‘‘धाया-धाया बापजी’’
धोकेला आखौ गांव
फाटैला खेतां में
हरियो टांच सोनो
सांसा री लीकां पाड़ी
पाड़ता गया
गिणताई रैया
छांट री घड़ी
गाजणौ-गरड़ाणौ किसौ
चै’रै री छांव तक
नीं छीपण दीवी
उडीकतां-उडीकतां
आंख्यां रै आगै
आया तिरवाळा
नीं आई
आणौई नीं धो बींनै
आई…..सागण बा ही
धाडै़तण आई
पैरयौड़ी
काळा-पीळा धाबळा
भेज्या आगूंच
एक रै लारै एक
आंधळधोटा भतूळिया
बैयग्या
भूंआळी खा-खा……….
चढियोड़ी पूठ आई
हूंआटा-खैखाटा करती
आपरा गाभा फैंक
गांव रा टापरा
छप्पर पैर नाची
ओरा, बरसाळी
पाधरा करती
रड़की बिंयाई
रळकोज रळकि
सूंतगी
आंख्या काळजौ
खेतां री आंतां
दाढ़गी कूआ
छांटो तक नीं रैयो
आंसूड़ो रो………
माटी री कूख में
सोन ळिया भळकौ दीसतांई
मच चढगी धाड़ैतण
हेमांणी माटी सूं
खूंजा गोथळिया भरिया
फेरियौ झाड़ू
करियौ पणीढो ऊंधो
धोबां-धोबा
नांखदी चूलै में राख
जांवती-जांवती सूंपगी
चोकलिये बैठी
झुरती माऊ नै
आपरो चौथो जारज
म्हारी हेमांणी जूंण
हूं …..कई
कोरो डूंगर
झाल्यौड़ौ खभौ
खेजड़ी…. जाळ……कै’ आक
कै तळैचैठी ज्यौ सिणियौ
तूं बे री बेल….?
म्हारौ उघाड़ौ
पळपळतौ हेमांणी काळजो देखतांई
सूरज री लाडैसर किरन्यां
उतरै करै रमझोळ
दूर सूं देखै काच
कैवता जावै….
वो रैयौ पांणी रौ छळावौ………
पांणी कठै है अठै
चौखूंट पड़ियौ है
सूकौ सून्याड़
बरसां-बरसां
बादळ री लीरी तक रो नीं पासंग………..
सांचा काचां री देखी-कैयी
पण दीठ नै दीसै
सूकै सरणाट में
जागती बैठौ
तावड़ियौ साच
कै,बादळ रै बसू नीं रैयी
म्हारी जूंण
देखतौ आयौ है सूरज बाप
म्हारा,हां म्हारा कमतर
धर मजलां, धर कूचां
दिनूगै-सिझ्यां
जा पूगै पाताळ
भरलै बारे में
खळ-खळ नांखदै देगां में
आडा आयोड़ा
काच उतारै दीठ
म्हारै पणीढ़ै
कांसी री थाळी
म्हारी आंख्यां में झांकै तौ दीसै
नीलम आभौ
आभै पसरयौड़ी हरियल बेलां
बेलां में पांणी
पांणी सूं तिरिया-मिरिया
म्हारी हेमांणी जूंण
तिरवाळा तावड़ै रा
धम-धम बाजी
सईकां बाजी, बाजै अजूं ही
पण नीं फाटयौ म्हारो काळजौ
पुतियौ पोतीजै
काळ रो कळमस चेरै
आंख्यां में पीळियो ऊंधीजै आए साल
रेत री पांख्यां बैठ देख्या
अठी-उठी रा खूंट
सै’रां रा सै’र नाप्या,
पूछयौ चलवां-चैजारां रो
गादी ओपता सैणां नै
म्हारी जंूण सूं आंध्यां
कद तांई करैला खेला
आंगळी सूं लीकी जकी
नैर री मरोड़र
कद हुवैला ऊभी पाळ
म्हरा आगोतर गिटते
बिना दांतां रै बांबी सरीखे
बाकै आगै कद लागैला डाटौ
बड़कां री दीठ में
दीस्यौ रातींदौ
म्हें ही लपेटी
चूलै री राख री पाटी
पूरबलां धोंता-धोंता पड़गी चांदयां माथै
दीनी समदरियै पूठ
बीं दिन सूं
पछबाड़ै पड़ियौ कळपीजूं
पूरब-सा सोंवता धणियां
कों तो बोलो।
कतरा सईका आंता रैसी
म्हारी आंख्या में
तिरवाळा तावड़ै रा ?
औतार जाम्या
जद जाम्या औतार जाम्या
मखमलिया डूंगरां
धोळां फाडा-सा
भाठाआळी धरती
रज्जी नीं लगीं
बांरी पगथळयां रै
आंख्यां में फूस नीं रड़क्यौ
कवै में कोकरू आणौ कसौक
सिंर धोक्या
पूरबला धोया ऊमर ओसींजी
आगोतर घड़िया
चरणां रै धोवणा सूं
आला-गीला
चढियोड़़़ी तुलछी-मिसरी रै
छत्तीसां भोगां सूं
उफणतौ आफरो
सिरीमुख री बाण्यां सुण-सुण
जूंणां पर जूंणां जीया
कांधां रै तमोळै ऊभी
आंगळी बताई सीध
जुग चाल्या
किलबिलता चालताई रैया
घर मजलां नै धर कूचां नै घर मजलां….
सूंठ रा गांठिया भांगया बिना
अजवाण री
फाक्यां गिटियां बिना
गोरी गाय री
चूंटियो चाटयां बिना
जतरो नाखीज्यौ
मानीज्यो कीड़ी नगरो
धूड़ रै झाल्लोड़ौ
आभै पटक्यौ व्हैला
म्हैं नीं जांणू
कुण ही बा बेमाता
जीं पर धणी
धणियाप तो धणाई रैया
पण पूरां सूं
परोटणआळै आदमी नै
जद-जद हेला पाड़या
देवळयां
होंता गया औतार
दुखता कानां में सींच लैंता तेल
मांडणां मंडयौड़ी
छातां में फंसा’र दीदा
गैर-गंभीर होंता
डबडबता देख्या करता
खायां ई खायांआळै
कीड़ीलोक रा चितराम
अमूजता उफत्यौड़ा
वरदान रा
उठियोड़ा हाथ जड़ता
काच रा किवाड़ नै जाळयां-भरोखा
हूं जिलम्यो आखड़ियो
मरतां आखड़तो
आखड़तां-आखड़तां
भणियो-गुणियो
अबकै तो बोलतोई
चामड़ी-जर फाड़ पड़ियो
पड़तांई चालण लाग्यो
हूं सुकदेव……
कै मौसम री मार सूं
गरीभ ठेरै कै कूख फाटै
भळै औतार जामै
चालतां-चालतां
जुगां रा कांधा घसीज्या
डागळा-तमोळा
थोड़ा नीचा पड़ग्या
पगां नै
पगोथिया बणा’र
छाती तांई आ चढियो कीड़ी नगरो
औतारां री सांसां अमूजी
धड़को उपड़ियो जद-जद
खावणी पड़ी
पाकी उमर में
सठवा सूंठ
तवै तळनी पड़ी अजवाण
लोटडयां ऊंधावड़ी पड़ी चूंटियै री
थाळयां फूटी
थोथ रा ठांव नै
गळा पीटीज्या
भळै जाम्यौ मायड़ औतार
पण किणी नीं देख्यौ
म्हारी जामण रौ
जापो-स्वाढ
भूंगड़ा-फाकां सूं करती मासवो
मूंढै रै माथै चिणती
खोखरे दांतां री भींत
अकूरड़ी रै आसरै पसरती
म्हारी जामण
सम्हळाया टाट छीतरा फरोळ
गोडा घसीट
ऊभतां-ऊभतां
तड़ंग हुयग्यौ
छबीली घाटी रै
धूड़ो-मोड़ै
पेट री तांत्यां में
गुलगांठयां घालतौ
सुकदेव बौलूं सुणज्यौ….
सुणज्यौ धरमां रै
धोरां सूं जाम्यां
औतारां सुणज्यौ
कळजुग री कळां लगा’र
चालण लाग्यौ है कीड़ी नगरो
म्हारे मांय म्हारे बारै
पूरब-पच्छिम
दिखणादे-उत्तर चारू मेर
कीड़ी नगरै रा
लाग्यौड़ा थागो-थाग
थांरै कानां री ठेठयां काढण
उठग्या हांथां नै
ले’र हाका
सुणज्यौ… कीं थमतां सुणज्यौ
जुग रै माथै रा मौड़
रैवता आया
ठाणा-ठिकाणां
देवळयां-भोपां सुणज्यौ
रेलां-पुळां सूं
बेसी सांतरो
सैंतीस हुयग्यौ
कीड़ी नगरो बोलै…. बौलै…
थांरी छोडयौड़ी झूठ-
तुलछी-मिसरी सूं
भभका मार नीं चालैला अबै
ओझरयां रां इंजण
हथाळी
हुयगी है हथ्थयाळ
नीं पसरैला
नीं हुवैला अबै आला-गीला
सूखी-बणाट
ठाठयां रा ठट्ठ
थांरै चरणामत सूं
नीं बणाण दैला
कांधां रै माथै मेड़यां-माळिया
बोलतो-बालतो चालै
“म्हारै परवार नीं बणैला अबै
कैरोई इतियास
चेतो बापरयग्यो म्हनै
कींकर तोड़ीजै
काच रा किवाड़ नै जाळयां-झरोखा
हाफै थरपीज्या धणियां
आंख्यां उघाड़ देखो
कीड़ी नगरै रै
फाटी है
अतरी लांबी जाड़
दीसै बत्तीसूं दांत
गंगा रै पाट सौ
हबोळा खातो
बाको बोलै…. बोलै….
मानखै रै नांव रौ
लिखायो पट्टो
खोलणोई पड़सी
पोथ्यां-तिजूरयां में
राख्या इधकार
म्हारै हाथां में सोंपणाई पड़सी
म्हें भरियो है
बाथां में भूगोळ
म्हारी कमज्या रै माथै
म्हारौ ….. हां म्हारौ
धणियाय रैसी
पूठ री घोड़ी चढिया
बीन राजा
माटी रै माथै
फूठरा-फर्रा पगल्या
मांडणांई पड़सी
जद जिणसी
माणसिया जिणसी मायड़ री कूख
देबळयां सऊकार
ठकराई रा होकड़ा
नीं चढै़ला अबै चैरां रै माथै
मिनखां रै परवार में
सगळां री हांती-पांती
बरोबर रैसी
मिनखा रै नांव सूं
बाजैली धरती
नै देस नै आखी दुनिया
हूणियै रा होरठा
हूणियै रा होरठा (1)
सूकै अकरै तावड़ै
हाड मांस रा बोल
रगड़यां सांसो सांस
जगै हगड़ता हूणिया
आखर तो खीरां जिसा
चुगतां लागै डांभ
आला लीला बाळ
जगरौ तापै हूणिया
आखर रो सत ऊजळो
आखर रूप अकूत
आखर-चेतौ एक
हिरदै धारै हूणिया
आखर जुड़ बोली बणै
बोली उपजै हेत
हेत जूण रो सार
होठां राखै हूणिया
हेत हियै में ऊपजै
हुवै रगत – सौ लाल
उगटै हुवै हजार
रातौ एक न हूणिया
थूं नीं जाणै हेत री
बारखड़ी रो अर्थ
आखर लिखै अणूत
अबखौ लागै हूणिया
थै नीं देखी मावड़ी
थै नीं देख्यौ बाप
हेलाहेल मचा’र
थूक बिलावै हूणिया
हर तक गिटले हेत री
जीमै मसळ पिछाण
लेवै नहीं डकार
कांसारोणी हूणिया
हूणियै रा होरठा (2)
दिन में तो चैरा गुमै
हर गुमज्या अंधार
सै’र है क सृन्याड़
थूं कई जोवै हूणिया
जांरै हाथां मांडिया
सांस रंग्या चितराम
उगटयां उगटयां ले’र
चढ़या हाट जा हूणिया
आंख्यां खातर मांडिया
आंख्या सूं चितराम
एकलखोरी बाण
राख लीपगी हूणिया
खण-खण करतै तेल सूं
चलै गिस्त री रेल
छोडा आखर ले’र
बण्यौ डलेवर हूणिया
पांणी झुर-झुर सूकग्या
रेत -कंवळ रा नैण
देख्या सूना डैर
उग्या कोकरू हूणिया
बसकां सूं जूँणा भरी
जी निसखारा नांख
कद लेवैला एक
सांस नचीती हूणिया
मनवंतर तो नापिया
पगां पांयडौ बांध
कद लबैली सांस
एक बिंसाई हूणिया।
हूयौ गिस्टियो मानखौ
घस एडयां घस हाथ
कुण कीना ए डोळा
पूछै दानां हूणिया
हूणियै रा होरठा (3)
जकां न देखी कळपती
चींती कायाकळ्प
आखर रच्या अणूत
आंख्यां मींच्यां हूणिया
धूंसा साथै बाजता
गढ कोटां रा बोल
गाजै मांड अडाण
नूंवा राजा हूणिया
पैला राणी जामती
अब जामै संदूक
सागी राजा राज
गाभा बदळया हूणिया
पांचै बरसै जैवड़ा
लटकै बजै चुणाव
लोकराज रै मै’
लूंठा पूगैे हूणिया
बिनर निसरणी रा बण्या
लोकराज रा मै’ल
देखै आंख्यां फाड़
‘‘सैचासै’’ सूं हूणिया
हाका करतां रा फटै
पेट काळजा रोज
बंदूकां कानून
तीबा देवै हूणिया
भाषणआळी मील में
रोज बुणीजै थांन
मसां आदमी दीठ
खफण लंगोटी हूणिया
गोठ योजना री करै
सोनो रूपो रांध
चाखण में सौ जीम
झोळ पुरसर्द हुणिया
हूणियै रा होरठा (4)
बटिया आलू प्याज रा
उड़ना तिरणा जाज
देखै चकरीबम्म
हवा खांवता हूणिया
खुरसी री चरभर रमै
खेवट पंगत जोड़
लोकराज री नाव
हवा भरोसे हूणिया
गूंगी खुरसी दावलै
सुरता बोली दीठ
बिना डोळ रो देख
मिनखाचारौ हूणिया
कळ पुरजा हाका करै
गोखै बयां हिसाब
फड़कै जद-जद होंठ
जडै़ किंवाड़ हूणिया
सोटयां खुभतां ही जगै
भाजै पहिया होय
फिरै थाकैलो लाद
थरकण नापै हूणिया
हाकम री हालै कलम
दिन रातींदो होय
लुळ-लुळ करै सलाम
रात तावड़ौ हूणिया
हाकम री आंख्या अजब
बांचै घोर अंधार
ताबड़ियै-सौ सांच
लगै फारसी हूणिया
छांट एक नांखै नहीं
बैठै मांडयां बूक
इंदर रा ए डाळ
देखै रेतड़ हूणिया
हूणियै रा होरठा (5)
सीयाळै में तापलै
रगड़ हाड सूं हाड
ऊनाळै उकळीज
ठरै पसीणै हूणिया
गिट सीयाळै डांफरांे
लू ऊनाळां पी’र
आया जुग-जुग जी’र
जुग-जुग जीसी हूणिया
गाभण हुयलै छांट सूं
बांझ बाजती रेत
जामै हरियल टांच
मोठ बाजरी हूणिया
बिछी जमीं नै पसरलै
आभौ लेवै ओढ
रातां गीला होय
दिन में सूकै हूणिया
आभौ आंरी अंगरखी
तावड़ियौ है पाग
हवा अंगोछो हाथ
रेत पगरखी हूणिया
मोठ बाजरी मूंग गऊँ
रळा बणावै खीच
दांतां तळै दळीज
जीभ छोलसी हूणिया
लीलां लीलां चरण री
पड़ी जकां नै बाण
एकर सी तौ चाल
भाठा पुरसां हूणिया
मीठा-मीठा लेयग्या
बाजार मोठ मतीर
एकर तूंबा बीज
भूख जीमतौ हूणिया
हूणियै रा होरठा (6)
पीता गिटतौई रयौ
खाया घणा धमीड़
कीं तौ सांस उपाड़
रोळा करलै हूणिया
कवळा कवळा तोड़िया
ठरिया लिया मठार
लगा आंगळाी देख
खण खण उकळया हूणिया
आंता बळती आग नै
लीवी हाथां थाम
फिर-फिर चारूंमेर
लाय लगासी हूणिया
लीलां मंडसी काळजै
खुभसी बूंठा बैण
राख्यां एक उडोक
जींतौ जाजै हूणिया
म्हारी आंख्या सूं उडीक
थारा हुनरी हाथ
सांसां लियै परोट
बजै हरावळ हूणिया
तन थाकै बेगो घणौ
तन रा ओछा लाभ
चालै मन री चाल
अण थकियां ही हूणिया
आभौ बांध अंगोछियै
नदियां आडी पाळ
मांडै घर परवार
सिरजणहारा हूणिया
आंध्या उमट उजाड़ दै
गिटै ताड़का बाढ
फिर-फिर निवजै जूण
सिरजण्हारा हूणिया
हूणियै रा होरठा (7)
भाठां तीरां तोप सूं
मच्या घणा घमसांण
जीग्या परलै बीच
सिरजणहार हूणिया
जकां पळीता बाळिता
बांनै बाळया काळ
जीग्या काळ अकाळ
सिरजणहार हूणिया
जात-पांत पूछै नहीं
देवळ अर रसूल
धरम ठगोरा बैठ
राड़ रचावै हूणिाया
सांच न बामण -बाणियों
ना तुरकन ना ढेढ
आखौ एकल सांच
मिनखाचारौ हूणिया
थूं करूणा री आँख सूं
दूजां रा दुख देख
दीसैला साच्छात
मिनखाचारौ हूणिया
मंदिर मस्जिद खोजतां
दीनी उमर गंवाया
हियै बिराजै सांच
खोल किंवाड़ा हूणिया
बौलै सरणाटो
बोलै सरणाटौ
ऊभा चारूं खूँट
धुंए रा डूंगर
बोलै सरणाटो
डरतो ऊगै डरयौ बिसींजै
इकटंगियै बंधियोड़ौ
साखा ही गूंगो
जद कूण भण
लोहे रा कागद
बौले सरणाटौ
हाथ पखारै आंख चुगै
माणक-मोतीड़ा
धोरां रै समदरियै
परवा-पछवा
उतर-उतर फेंरै आंध्यांरा झाड़ू
होड़ करै धीरज रो सांसां
किंया करै गोफणिया हाका
बोल सरणाटौ
पगां मंडीजी
डामर रो दुनियावां पसरै
माोड़-मोड़ै
आंगण औढी लाज सम्हाळै
फाटयौड़ौ थाकेलो
रोटी रौ चंदोमामो देखण नै
पथरावै सोनल सुपना
राज मजूरी राजा करसां रा
रोळ ही रोळा…..
कुण देखै
कूण सुणै
चूलै रै सामै बजतो चूड़ो
बैठा मिनख मठोठयां खावै
बोलै सरणाटौ
थारै लांबा जोड़ूं हाथ
थारै लांबा जोड़ू हाथ
उनाळा थिड़ी-थिड़ी कर ऊभ
पगलिया लेले रे
थारी मावड़ लू बळता खीरां सूं
सींचीं सगळी रेत जी
थारी आंधी बैनड़ रा रोळा सुण
रूस्या रसिया खेत जी
पाळसियै में जंवरा पूजूं
क्वारै हाथ कळसिया ढोळदूं
म्हारौ जतनां चींत्यौ थाळ
तीज रौ घी सीज्यौड़ौ खीच
आमली लेले रे
थारै लांबा जोडं़ ू हाथ……
म्हारी भातौ लेजाती भावज रौ
रूड़़ो रूप ममोलियो
कोढ़ी तावड़ियो भरै चूंटिया
घुरड़ै घिरै रांधी राब
राव में मोळी- मोळी छाछ
सबड़का लेले रे
थारै लांबा जोडूं हाथ…….
म्हारौ अणमण पिणघट खड़ो उडीकै
सोनलदै पणिहार नै
म्हारी खूंटी चढ़ियौड़ी ईढाणी
जोवै है सिणगार नै
जे तूं बोलै तो चौभाटे
रोटी पेड़ा ढाळ दूं
म्हारै आंगणियै रमझोळ
मटक्यां मांडयौड़ी अणमोल
उतारौ लेले रे
थारै लांबा जोड़ं हाथ
उनाळा थिड़ी-थिड़ी कर ऊभ
पगलिया लेले रे
हेलो पाड़ रे
बास-बास में हेलो पाड़
धूड़ीमोड़ां हेलो पाड़
मेघा राग उगार रे, घर-घर हेलो पाड़ रे
इन्दर आज पखार
इंदर आज पखार म्हरा बीरा
फिर-फिर हेलो पाड़ रे
आभौ उमस कसीजैला
बादळिया परसीजैला
थूं खूरपा कसी संभाळ ढांढा नै टिचकार
भाज्यौ खेतां चाल रे
सिणिया बूझ उपाड़
सिणिया बूझ ऊपाड़ म्हारा बीरा
माठां नै मचकाव रे
घर-घर हेलो पाड़ रे
सुण रमझोळां बाजै है
घूमर रमती लाजै है
थूं कोछा ऊंचा टाण उठजा ले हूंकार
ले लारै परवार रे
पाकी फसल्यां झाड़
पाकी फसल्यां झाड़ म्हारा बीरा
छाटयां भर-भर बांध रे
धर कोठां में धान रे
मन री अमी पकीजी है
हरिया-टांच मतीरां में
बासां-बासां हेलो पाड़
धूड़ीमोड़ां हेलो पाड़
पंचायत री चौकी बैठ
मिसरी -सी गिर बांट रे
पांणी पी’र डकार रे
घर-घर हेलो पाड़ रे, फिर-फिर हेलो पाड़ रे
आखर बोल: आखर बांच
आ लिछमणिया आखर बोल
आ रे गामेड़ी रूघपतिया
कळमस री पाटी रै माथै
उजळा-उजळा आखर मांड
मांडयौडा अखरां नै बांच
आखर री आंख्यां नै दीसै
घर रै बारै
मन में कतौ अंधारो
आखर लांबा हाथ करे
तिडकावै तौड़े
हियै जड़यौड़ौ ताळो
आखर बाळ अंधारो
दप-दप दीपावै
मन-आंगण
ए ही बे आखर
बाण्यां बोलीज्या
ए ही आखर बैद मंडीज्या
ए ही पोथी लिखियौड़ा है
बाणी और जूण रो सार आखर
आ लिछमणिया आखर बोल
मधिया-किसना आखर बोल
आखर देवै
कसी समै री
पूरबला परखीजै
आखर हाथ लिया सूं
जूंण जूंण रो
आगोतर राचीजै
आखर है जंगळ रा मंगळ
आखर में मंगळ रो राज
आमैं जुगां-जुगां रा सांच
थूं थारै जुग रो सत बांच
थूं थारै जुग रो सत मांड
आ गामेड़ी आखर जोड़
आ सैराती आखर मांड
चाल रे चाल
चाल रे चाल
गांव रा करसा चाल….चाल
सैराती चाल
धर मजलां, धर कूंचां चाल
धर कूंचां, धर मजलां चाल
ले आ पाटी
ओ लै कागद
बरतौ थाम,क
ले लै कलम दवात
आखर मांड
आखर मांड मांडतौ बोल
बोल बोलतौ
आखर जोड़
आखर-आखर सबद रचातौ
रचियोड़ै सबदा रो अरथ बांचती
चारूंमेर सुणातौ
धर मजलां, धर कूंचां चाल
धर कूंचां,धर मजलां चाल
चाल रे चाल
गांव रा करसा चाल…चाल
सैराती चाल
अरथां में
उगटै उजास
ओ उजास
आंख्यां आंज
आंज आंजतौ
बाळ अंधारो
कळमस बाळै
चारूंमेर
हियै आंख्यां में
कियां चानणौ
धर मजलां, धर कूंचा चाल
चाल रे चाल
गांव रा करसा..चाल…चाल
सैराती चाल
करसा बोल : मजूरा बोल
करसा बोल: हाळी बोल !
मजूरा बोल !
धरती थारी
थूं बीजै है
थूं सींचै है
निपज्यौड़ौ धन
थारो ही है
आ बा सगळी थारी कमज्या
थूं धणियाप जतातौ बौल
भल-भल
थूं धणियाप जतातौ बोल
करसा बोल ! हाळी बोल !
मजूरा बोल !
कुंण आया हा
किंया लगाई
मन रै आडी
कूंण बांधग्या
दो हाथां नै
थूं बा सांकळ खूंटी खोल
तड़-तड़ सांकळ खूंटी खोल
करसा बोल ! हाळी बोल !
मजूरा बोल !
सैराती नै
बरसां ताई
आंख उडीकी
छां छींपण नीं आयौ कोई
छोड़़ उडीक
भुजा भरौसै बोल !
जीवट भुजा भरोसै बोल !
करसा बोल ! हाळी बोल !
मजूरा बोल!
पौ फाटै संू
सूंई सिंझ्या
खेती खड़तौ
लूआं पीती
तकली माथै
सूतो साध्यां
खाट-खटुली
मूंज मांडतौ
माटी खूंद
माटी खूंद खूँदतौ बोल!
चाक फेरतौ
घड़िया घड़ितौ घड़तौ बोल !
सिस्टी रचतौ
परजापत – सौ बोल
आडी-तिरछी
लीक मांडतौ बोल
गैरी-फीकी गेरू रंगतौ बोल !
करसा बोल ! हाळी बोल !
मजूरा बोल !
लै चिणियोड़ौ
लादो-भारो
मगरां छाटी
कदैक माथै
ल खारटियौ
सींवां माथै सींव नापतौ
सैरां मांड पगलिया बोल !
गांव रा थंभ
थंभै सरसौ बोल !
करसा बोल ! हाळी बोल !
मजूरा बोल !
चूलै-आंगण
आंख काळजै
खेतां धोरां
आंध्यां लूआं
धणी बाजली
कमज्या सुपना
जीव खायगी
कीं तौ करड़ी
आंख देखतौ बोल !
ऊभ, नुंवै उणियारा सामै बोल
था रै सिरसा
ए उणियारा
क’ ऊभी आडयां
ओळखतौ बोल !
उत्तर पड़ू तर दैंतौ बोल !
करसा बोल ! हाळी बोल !
मजूरा बोल !
पूरब री किरतां
भरम कतरगी
फांटीजी पंगतां जुड़गी
मिलग्या मजूरा-करसा
पाड़ां री मोच निकाळी
माटी रा पांणी बोल !
पाटां रै परियां
थूं हबोळ खांतौ बोल !
करसा बोल ! हाळी बोल !
करसा बोल ! हाळी बोल !
मजूरा बोल !
थूं बूझां री
बूंठ बाळतौ बोल !
बळया काळजा
ठार ठारतौ बोल !
थूं गांवां रा
पगल्या होंतौ बोल !
थूं गांवां रा
पगल्या दैंतौ बोल !
गण सूं मोटो
गण-गण गुणतौ बोल !
करसा बोल ! हाळी बोल !
मजूरा बोल !
मूल राजस्थानी में कुछ प्रतिनिधि कविताएँ
बोलैनीं हेमाणी…
बोलैनीं हेमाणी…..
जिण हाथां सूं
थें आ रेत रची है,
वां हाथां ई
म्हारै ऐड़ै उळझ्योड़ै उजाड़ में
कीं तो बीज देंवती!
थकी न थाकै
मांडै आखर,
ढाय-ढायती ई उगटावै
नूंवा अबोट,
कद सूं म्हारो
साव उघाड़ो औ तन
ईं माथै थूं
अ आ ई तो रेख देवती!
सांभ्या अतरा साज,
बिना साजिंदां
रागोळ्यां रंभावै,
वै गूंजां-अनुगूंजां
सूत्योड़ै अंतस नै जा झणकारै
सातूं नीं तो
एक सुरो
एकतारो ई तो थमा देंवती!
जिकै झरोखै
जा-जा झांकूं
दीखै सांप्रत नीलक
पण चारूं दिस
झलमल-झलमल
एकै सागै सात-सात रंग
इकरंगी कूंची ई
म्हारै मन तो फेर देंवती!
जिंयां घड़यो थेंघड़ीज्यो,
नीं आयो रच-रचणो
पण बूझण जोगो तो
राख्यो ई थें
भलै ई मत टीप
ओळियो म्हारो,
रै अणबोली
पण म्हारी रचणारी!
सैन-सैन में
इतरो ई समझादै-
कुण सै अणदीठै री बणी मारफत
राच्योड़ो राखै थूं
म्हारो जग ऐड़ो?
[‘जिण हाथां आ रेत रचीजै’ से ]
हिन्दी कविता संग्रह
अपना ही आकाश
ड्योढ़ी
ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए
कुनमुनते ताम्बे की सुइयां
खुभ-खुभ आंख उघाड़े
रात ठरी मटकी उलटा कर
ठठरी देह पखारे
बिना नाप के सिये तकाजे
सारा घर पहनाए
ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए
सांसों की पंखी झलवाए
रूठी हुई अंगीठी
मनवा पिघल झरे आटे में
पतली कर दे पीठी
सिसकी सीटी भरे टिफिन में
बैरागी-सी जाए
ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए
पहिये पांव उठाये सड़कें
होड़ लगाती भागे
ठण्डे दो-मालों चढ़ जाने
रखे नसैनी आगे
दोराहों-चौराहों मिलना
टकरा कर अलगाए
ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए
सूरज रख जाए पिंजरे में
जीवट के कारीगर
घड़ा-बुना सब बांध धूप में
ले जाए बाजीगर
तन के ठेले पर राशन की
थकन उठा कर लाए
ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए
कोलाहल के आंगन
दिन ढलते-ढलते
कोलाहल के आंगन
सन्नाटा
रख गई हवा
दिन ढलते-ढलते
दो छते कंगूरे पर
दूध का कटोरा था
धुंधवाती चिमनी में
उलटा गई हवा
दिन ढलते-ढलते
घर लौटे
लोहे से बतियाते
प्रश्नों के कारीगर
आतुरती ड्योढ़ी पर
सांकल जड़ गई हवा
दिन ढलते-ढलते
कुंदनिया दुनिया से
झीलती हक़ीक़त की
बड़ी-बड़ी आंखों को
अंसुवा गई हवा
दिन ढलते-ढलते
हरफ़ सब रसोई में
भीड़ किए ताप रहे
क्षण के क्षण चूल्हे में
अगिया गई हवा
दिन ढलते-ढलते
सुई
सुबह उधेड़े शाम उधेड़े
बजती हुई सुई
सीलन और धुएं के खेतों
दिन भर रूई चुनें
सूजी हुई आंख के सपने
रातों सूत बुनें
आंगन के उठने से पहले
रचदे एक कमीज रसोई
एक तलाश पहन कर भागे
किरणें छुई-मुई
बजती हुई सुई
धरती भर कर चढ़े तगारी
बांस-बांस आकाश
फरनस को अगियाया रखती
सांसें दे दे घास
सूरज की साखी में बंटते
अंगुली जितने आज और कल
बोले कोई उम्र अगर तो
तीबे नई सुई
बजती हुई सुई
धूप सड़क की
धूप सड़क की नहीं सहेली
जब कोरे मेड़ी ही कोरे
छत पसरी पसवाड़े फोरे
छ्जवालों से छींटे मल-मल
पहन सजे शौकीन हवेली
काच खिड़कियों से बतियाये
गोरे आंगन पर इठलाये
आहट सुन कर ही जा भागे
जंगले पर बेहया अकेली
आंख रंग चेहरे उजलाये
हरियल दरी हुई बिछ जाए
छुए न संवलाई माटी की
खाली सी पारात तपेली
सड़क पांव का रोजनामचा
मंडे उमर का सारा खरचा
सुख के नावें जुगों दुखों की
बिगत बांचना लगे पहेली
धूप सड़क की नहीं सहेली
सांसें
शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएं
कफ़न ओस का फाड़ बीच से
दरके हुए क्षितिज उड़ जाएं
छलकी सोनलिया कठरी से
आंखों के घड़िये भर लाएं
चेहरों पर ठर गई रात की
राख पोंछती जाएं
शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएं
पथरीले बरगद के साये
घास बांस के आकाशों पर
घात लगाए छुपा अहेरी
बुलबुल जैसे विश्वासों पर
पगडंडी पर पहिये कस कर
सड़कों बिछती जाएं
शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएं
सर पर बांध धुएं की टोपी
फरनस में कोयले हंसाएं
टीन काच से तपी धूप पर
भीगी भीगी देह छवाएं
पानी आगुन आगुन पानी
तन-तन बहती जाएं
शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएं
लोहे के बांवलिये कांटे
जितने बिखरें रोज बुहारें
मन में बहुरूपी बीहड़ के
एक-एक कर अक्स उतारें
खिड़की बैठे कम्प्यूटर पर
तलपट लिखती जाएं
शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएं
हाथ झूलती हुई रसोई
बाजारों के फेरे देती
भावों की बिणाजारिन तकड़ी
जेबें ले पुड़िया दे देती
सुबह-शाम खाली बांबी में
जीवट भरती जाएं
शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएं
मन सुगना
टिक टिक बजती हुई घड़ी से
क्या बोले मन सुगना
चाबी भर-भर दीवारों पर
टांगें हाथ पराये
छोटी-बड़ी सुई के पांवों
गिनती गिनती जाए
गांठ लगा कर कमतरियों का
बांधे सोना जगना
क्या बोले मन सुगना
पहले स्याही से उजलाई
धूप रखे सिरहाने
फिर खबरों भटके खोजी को
खीजे भेज नहाने
थाली आगे पहियों वाली
नौ की खुंटी रखना
क्या बोले मन सुगना
दस की सीढ़ी चढ़ दफ़्तर में
लिखे रजिस्टर हाजर
कागज के जंगल में बैठी
आंखें चुगती आखर
एके के कहने पर होता
भुजिया मूड़ी चखना
क्या बोले मन सुगना
साहब सूरज घिस चिटखाये
दांतों की फुलझड़ियां
झुलसी पोरों टपटप टीपे
आदेशों की थड़ियां
खींच पांच से मुचा हुआ दिन
झुकी कमर ले उठना
क्या बोले मन सुगना
रुके न देखे घड़ी कभी
तन पर लदती पीड़ा
दिन कुरसी पर रात खाट पर
कुतरे भय की कीड़ा
घर से सड़क चले पुरजे की
किसने की रचना
क्या बोले मन सुगना
टिक टिक बजती हुई घड़ी से
रचना है
जिन्हें अपने समय का आज रचना है
अकेली फैलती
आंखें दुखाती चाह को
सूने दुमाले से
सुबह आंजे उतरना है
जिन्हें अपने समय का आज रचना है
आंगने हंसती
हक़ीक़त से
तक़ाजों का टिफिन लेकर
सवालों को
मशीनों के बियाबां से गुजरना है
जिन्हें अपने समय का आज रचना है
तगारी भर जमी
आकाश रखते हाथ को
होकर कलमची
गणित के उपनिषद की
हर लिखावट को बदलना है
जिन्हें अपने समय का आज रचना है
आदमी से आदमी की
पहचान खाएं लोग
आदमी से आदमी को
तोड़ने का शौक साजें लोग
तोड़ी गई हर हर इकाई को
धड़कता एक सम्बोधन ग़ज़लना है
जिन्हें अपने समय का आज रचना है
ठहर जाएं स्वप्न भोगें
वे जिन्हें
इतिहास जीना है
कस चलें संकल्प में छैनी
जिन्हें अपने समय का आज रचना है
रेत है रेत
इसे मत छेड़
पसर जाएगी
रेत है रेत
बिफर जाएगी
कुछ नहीं प्यास का समंदर है
ज़िन्दगी पांव-पांव जाएगी
धूप उफने है इस कलेजे पर
हाथ मत डाल ये जलाएगी
इसने निगले हैं कई लस्कर
ये कई और निगल जाएगी
न छलावे दिखा तू पानी के
जमीं आकाश तोड़ लाएगी
उठी गांवों से ये ख़म खाकर
एक आंधी सी शहर जाएगी
आंख की किरकिरी नहीं है ये
झांक लो झील नज़र आएगी
सुबह बीजी है लड़के मौसम से
सींच कर सांस दिन उगाएगी
कांच अब क्या हरीश मांजे है
रोशनी रेत में नहाएगी
इसे मत छेड़
पसर जाएगी
रेत है रेत
बिफर जाएगी
जंगल सुलगाए हैं
आए जब चौराहे आग़ाज कहाए हैं
लम्हात चले जितने परवाज़ कहाए हैं
हद तोड़ अंधेरे जब
आंखों तक धंस आए
जीने के इरादों ने जंगल सुलगाए हैं
जिनकों दी अगुआई
चढ़ गए कलेजे पर
लोगों ने ग़रेवां से वे लोग उठाए हैं
बंदूक ने बंद किया
जब-जब भी जुबानों को
जज्वात ने हरफ़ों के सरबाज उठाए हैं
गुम्बद की खिड़की से
आदमी नहीं दिखता
पाताल उलीचे हैं ये शहर बनाए हैं
जब राज चला केवल
कुछ खास घरानों का
कागज के इशारे से दरबार ढहाए हैं
मेहनत खा सपने खा
चिमनियां धुआं थूकें
तन पर बीमारी के पैबंद लगाए हैं
दानिशमंदो बोलो
ये दौर अभी कितना
अपने ही धीरज से हर सांस अघाए हैं
न हरीश करे लेकिन
अब ये तो करेंगे ही
झुलसे हुए लोगों ने अंदाज दिखाए हैं
आए जब चौराहे आग़ाज कहाए हैं
लम्हात चले जितने परवाज़ कहलाए हैं
बाकी अभी बारी
उम्र सारी इस बयावां में गुजारी यारो
सर्द गुमसुम ही रहा हर सांस पै तारी यारो
कोई दुनियां न बने
रंगे-लहू के ख्याल
गोया रेत ही पर तस्वीर उतारी यारो
देखा ही किए झील
वो समंदर वो पहाड़
अपनी हर आंख सियाही ने बुहारी यारो
जहां सड़क गली
आंगन जैसे बाजार चले
न चले अपनी न चले यहां असआरी यारो
रहबरों तक गई
बो तलाश रहे साथ सफ़र
उसकी आबरू हर बार उतारी यारो
हां निढाल तो हैं
पर कोई चलना तो कहे
मन के पांवों की बाकी अभी बारी यारो
उठके डूबे है कहीं
अपनी आवाज यहां
एक आग़ाज से ही सिलसिला जारी यारो
अब जो बदलो तो कहीं
हो गुनहगार हरीश
वही रंगत वे ही दौर वही यारी यारो
उम्र सारी इस बयावां में गुजारी यारो
सर्द गुमसुम ही रहा हर सांस पै तारी यारो
क्या किया जाए
बता फिर क्या किया जाए
सड़क फुटपाथ हो जाए
गली की बांह मिल जाए
सफ़र को क्या कहा जाए
बता फिर क्या किया जाए
नज़र दूरी बचा जाए
लिखावट को मिटा जाए
क्या इरादे को कहा जाए
बता फिर क्या किया जाए
स्वरों से छंद अलगाएं
गले में मौन भर जाएं
ग़ज़ल को क्या कहा जाए
बता फिर क्या किया जाए
उजाला स्याह हो जाए
समंदर बर्फ़ हो जाए
कहां क्या-क्या बदल जाए
बता फिर क्या किया जाए
आदमी चेहरे पहन आए
लहू का रंग उतर जाए
किसे क्या-क्या कहा जाए
बता फिर क्या किया जाए
समय व्याकरण समझाए
हमें अ आ नहीं आए
ज़िन्दगी को क्या कहा जाए
बता फिर क्या किया जाए
चाहों की थाली
लोहे की नगरी में भैया
लोहे की नगरी में
फेरी वाला सायरन
हूंकता दस्तक देता
जड़े किवाड़ों
नींद झाड़ उठ जाती बस्ती
कस पांवों के पंेच
बिछाती जाती सड़कें
फाटक से परवाना लेकर
नाम टीपता
अपना नम्बर
उठा सलाम देखते ही
पहिये चल जाते
गा-गा बुनते सूत
सांस के तकुए
तान बिछाएं आंखें छापें
तहें संवारे जाएं थपिये
इतने पर भी
पुरजे जैसा
जिये आदमी
लोहे की नगरी में भैया
लोहे की नगरी में
पातालों की पर्त उघाड़े
उझक-उझक कर
कसी कुदाली
भरे फावड़ा हुआ निवाला
सुरसा नींवें
थप थप थाप सुलाएं
तोला-मासा
चूना-बजरी
रसमस-रसमस
गुंथ-गुंथ दोनों हाथ भरें
माथे पर रख लें
छैनी बैठी लिखे चिट्ठियां
और तगारी
बांसों की सीढ़ी थामे
ईंटें रख आए आसमान पर
और धूप को
चिढ़ा चिढ़ा कर
रंगती जाये कोरे चेहरे
ताम्बे के तन वाली कूची
पर हाड़-मांस की
ऊंचाई तो
घिसती ही रहती है
लोहे की नगरी में भैया
लोहे की नगरी में
धुआं भाग जाता चेबें भर
समय टीप कर
खाली टिफिन निकलता बाहर
संकेतों का
एक कथानक रच जाता है
आज बदल देने का
मौसम ओढ़े
सड़क सरक जाती गलियों में
घूम रही होती
ड्योढ़ी की धुरी थाम कर
प्रश्नों की
छोटी-सी दुनियां
खुली हथेली पर
दुख गिन देते लौटे कारीगर
जमती हुई नसों पर
फोहे-सा ठर जाता
भीगा आंचल
आंगन टांगे
खूंटी पर मजबूरी
और रसोई
तुतलाता कोलाहल आंज परोसे
कड़छी बजा-बजा
चाहों की थाली
लोहे की नगरी में भैया
लोहे की नगरी में
गोरधन
काल का हुआ इशारा
लोग हो गए गोरधन
हद कोई जब माने नहीं अहम
आंख तरेरे बरसे बिना फहम
तब बांसुरी बजे
बंध जाय हथेली
ले पहाड़ का छाता
जय-जय गोरधन!
हठ का ईशर जब चाहे पूजा
एक देवता और नहीं दूजा
तब सौ हाथ उठे
सड़कों पर रख दे
मंदिर का सिंहासन
जय-जय गोरधन!
सेवक राजा रोज रंगे चोले
भाव-ताव कर राज धरम तोले
तब सौ हाथ उठे
उठ थरपे गणपत
गणपत बोले गोरधन
जय-जय गोरधन!
शहरीले जंगल में
याद नहीं है
चले कहां से
गए कहां तक
याद नहीं है
आ बैठा छत ले सारंगी
बज-बजता मन सुगना बोला
उतरी दिशा लिए आंगन में
सिया हुआ किरणों का चोला
पहन लिया था
या पहनाया
याद नहीं है…..
झुल-झुल सीढ़ी ने हाथों से
पांवों नीचे सड़क बिछाई
दूध झरी बाछों ने खिल-खिल
थामी बांह करी अगुवाई
रेत रची कब
हुई बिवाई
याद नहीं है…..
रासें खींच रोशनी संवटी
पीठ दिये रथ भागे घोड़े
उग आए आंखों के आगे
मटियल स्याह धुओं के धोरे
सूरज लाया
या खुद पहुंचे
याद नहीं है…..
रिस-रिस झर-झर ठर-ठर गुमसुम
झील हो गया है घाटी में
हलचल सी बस्ती में केवल
एक अकेलापन पांती में
दिया गया या
लिया शोर से
याद नहीं है…..
चले कहां से
गए कहां तक
याद नहीं है…..
नहाया है
मन रेत में नहाया है
आंच नीचे से
आग ऊपर से
वो धुआंए कभी
झलमलाती जगे
वो पिघलती रहे
बुदबुदाती बहे
इन तटों पर कभी
धार के बीच में
डूब-डूब तिर आया है
मन रेत में नहाया है
घास सपनों सी
बेल अपनों सी
सांस के सूत में
सात स्वर गूंथ कर
भैरवी में कभी
साध केदारा
गूंगी घाटी में
सूने धोरों पर
एक आसन बिछाया है
मन रेत में नहाया है
आंधियां कांख में
आसमां आंख में
धूप की पगरखी
ताम्बई अंगरखी
होठ आखर रचे
शोर जैसा मचे
देख हिरनी लजी
साथ चलने सजी
इस दूर तक निभाया है
मन रेत में नहाया है
कबूतर अकेला
किस दिशा को डड़े
अब कबूतर अकेला !
बांग भरती हुई
जब मुंडेरें उठीं
फड़फड़ा गई पांखें
सूत रोशनी का
ले सुई सांस की
पिरोती गई आंखें
बुन गए आकाश में
कुछ धुएं आ अड़े
किस दिशा को उड़े…..
पांत से टूट कर
छांह की माप के
कई रास्ते रच गए
छोर साधे हुए
बीच गहरा गई
खाइयों में मुच गए
देह होकर जुड़े वे
सब जुदा हो खड़े
किस दिशा को उड़े…..
उड़ना पंछी को
घेरे पिंजरे में
मौसम का बहेलिया
साखी सूरज का
झुरियाया चेहरा
रात के अंधेर दिया
कुनमुनाई चोंच को
बींध नेजे गड़े
किस दिशा को उड़े
अब कबूतर अकेला!
रचते रहने की
मौसम ने रचते रहने की
ऐसी हमें पढ़ाई पाटी
रखी मिली पथरीले आंगन
माटी भरी तगारी,
उजली-उजली धूप रसमसा
आंखें सींच मठारी,
एक सिरे से एक छोर तक
पोरंे लीक बनाई घाटी
मौसम ने रचते रहने की
ऐसी हमें पढ़ाई पाटी
आसपास के गीले बूझे
बीचोबीच बिछाये,
सूखी हुई अरणियां उपले
जंगल से चुग लाए,
सांसों के चकमक रगड़ा कर
खुले अलाव पकाई घाटी
मौसम ने रचते रहने की
ऐसी हमें पढ़ाई पाटी
मोड़ ढलानों चौके जाए
आखर मन का चलवा,
अपने हाथों से थकने की
कभी न मांडे पड़वा,
कोलाहल में इकतारे पर
एक धुन गुंजवाई घाटी
मौसम ने रचते रहने की
ऐसी हमें पढ़ाई पाटी
हवा ही शायद
कोई एक हवा ही शायद
इस चौराहे रोक गई है
फिर फिर फिरे गई हैं आंखें
रेत बिछी सी
पलकों से बूंदें अंवेर कर
रखीं रची सी
हिलक-हिलक कर रहीं खोजती
तट पर जैसे एक समंदर
बरसों से प्यासी थी शायद
धूप चाटती सोख गई है
कोई एक हवा…..
हुए पखावज रहे बुलाते
गूंगे जंगल
बज-बजती सांस हुई है
राग बिलावल
झूल गया झलमलता सपना
झूले जैसे एक रोशनी
बरसों से बोझिल थी शायद
रात अंधेरा झोंक गई है
कोई एक हवा…..
थप थप पांवों ने थापी है
सड़क दूब सी
रंगती गई पुरुषा दूर को
दिशा उर्वशी
माप गई आकाश एषणा
जैसे एक सफेद कबूतर
होड़ बाज ही होकर शायद
डैने खोल दबोच गई है
कोई एक हवा ही शायद
इस चौराहे रोक गई है
छींटा ही होगा
पीट रहा मन
बंद किवाड़े
देखी ही होगी आंखों ने
यहीं-यहीं ड्योढ़ी खुल-खुलती
प्रश्नातुर ठहरी आहट से
बतियायी होगी सुगबुगती
बिछा बिछाये होंगे आखर
फिर क्यों झर-झर झरे स्वरों ने
सन्नाटों के भरम उघाड़े
पीट रहा मन…..
समझ लिया होगा पांखों ने
आसमान ही इस आंगन को
बरस दिया होगा आंखों ने
बरसों कड़वाये सावन को
छींटा ही होगा दुखता कुछ
फिर क्या हाथों से झिटकाकर
रंग हुआ दागीना झाड़े
पीट रहा मन…..
प्यास जनम की बोली होगी
आंचल है तो फिर दुधवाये
ठुनकी बैठ गई होगी जिद
अंगुली है तो थमा चलाये
चौक तलाश उतरली होगी
फिर क्यों अपनी सी संज्ञा ने
सर्वनाम हो जड़े किवाड़े
पीट रहा मन
बंद किवाड़े
झिरमिर धूप झरी
वे सब कहां उड़ीं
एक चिड़ी ने जंगल-जंगल
जा आ आकार
एक पेड़ पर लाये तिनके
रखे बिछा कर
रसमस माटी रसमस तन मन
रूप रचाये
सांसें पी-पी
चोंचें चहक पड़ीं
दाने चुग-चुग बांट निहोरे
सांझ सवेरे
फड़-फड़ फुद-फुद पाटी पढ़कर
पंख उकेरे
नीले-नीले आसमान से
रंग ली आंखें
झुरमुट हिलका
झिरमिर धूप झरी
गुन-गुन गूंजी शाख-शाख ज्यों
एक शहर हो
भरी उड़ानें बरसों जैसे
एक पहर हो
कोने बैठी हवा न जाने
तमक गई क्यों
काली-पीली
आंधी हुए झड़ी
सावन एक सिपाही जैसा
छत पर आकर
मटिया-मटिया राख फेंक दी
गुर गुर्राकर
बिजुरी कड़-कड़ पैने दांतों
पीस गई सब
गीतों जैसी
वो बस्ती उजड़ी
वे सब कहां उड़ीं
अपराधी
किससे करूं शिकायत
मेरा हिरना मन अपराधी
ओ अलगोजे
आलाप उठे तुम तो
रागों के मानसून
बह गए दिशाओं ,
मेरी ही #तृष्णा पी गई
स्वरों के सात समंदर
किससे करूं शिकायत
मेरा हिरना मन अपराधी
ओ शिखरों के सूरज
कोलाहल के पांवों उतरे तुम
गली-गली में
आंज गए उजियारा
बंद किवाड़े किये रही
मेरी ही घाटी
किससे करूं शिकायत
मेरा हिरना मन अपराधी
पोर-पोर से
दुनिया रूप गए तुम तो
माटी के आंगन
फेर गई उलटी हथेलियां
मेरी पुरवा-पछवा
किससे करूं शिकायत
मेरा हिरना मन अपराधी
दे गए मुझे तुम
पीपल से कागज
झलमलती स्याही
मोर पांख दे गए लेखने
बरफ़ हो गई लिखने से पहले
मेरी ही भाशा
किससे करूं शिकायत
मेरा हिरना मन अपराधी
तपाया करूं
ठहराव से क्यों बंधा ही रहूं
पीठ दे ही गई जब
क्षितिज की दिशा
आवाज़ क्यों दूं उसे
उसी के लिए
फिर हरफ़ क्यों घड़ूं
ठहराव से क्यों बंधा ही रहूं
सवालों के कपड़े पहन जब
सड़क ही खड़ी हो गई सामने
उसी पर
चरण खोज के क्यों उठाऊं-धरूं
ठहराव से क्यों बंधा ही रहूं
सीढ़ियों से उतर कर कुहरता ही हो जब
धरम सूर्य का
फिर उजालों में मिलते अंधेरों की
किससे शिकायत करूं
क्यों उसी धूप से आंख खोलूं भरूं
ठहराव से क्यों बंधा ही रहूं
हाथ पर हाथ ही जब
सुलगता हुआ
एक चुप रख गए,
इसी आग से
और कितनी उमर
सिर्फ़ झुलसा करूं
किसी और शुरूआत की
एषणा ही तपाया करूं
ठहराव से क्यों बंधा ही रहूं
एषणा पर
कैसे पैबंद लगाऊं
जिस कैनवास पर
अगले क्षण
तस्वीर उजलनी थी
वह कौन हवा थी
यहां-वहां से
गुमसुम लीक गई
फट गई एषणा पर
कैसे पैबंद लगाऊं
लिखनी थी जिनसे
अगले ही क्षण
अर्थवती पोथी
वे कौन जुबानें थीं
दरवाजे रख गई पत्थरों की भाशा
कागज के नर्म कलेजे पर
कैसे हरफ़ बिछाऊं
होनी थी जिनसे
अगले ही क्षण
क्षितिजों छूती धरती
कैसी थी दीवारें
पथ काट गई
मन के मन बांट गई
अजनबी हुई संज्ञाएं
कौन स्वरों आवाजूं
कैसे पैबंद लगाऊं
वे ही स्वर
वे ही स्वर वे ही मनुहारें
वही वही दस्तक ड्योढ़ी पर
वही वही अगवाता आंचल
वह आंगन
वे ही दीवारें
वही ख्याल खिलौने वे ही
वे मौसम वे ही पोशाकें
वही उलहना
वे तकरारें
वही लाज घेरें मृग छौने
सिके वही चंदोवा रोटी
वही निवाला
वे मनुहारें
वही वही हठियाये चेहरे
बहला लेती वही हक़ीक़त
वही गोद
वे सगुन उतारें
वही वही निंदियाये आंखें
थपके वही गोत सिरहाने
वे ही स्वर
वे ही हिलकारें
वही तक़ाजों का दरिया है
वही नाव है कोलाहल की
वे हिचकोलें
वे पतवारें
यह दुनियां यादों को दे दें
चुप का चौकीदार बिठा दें
क्या बतियायें
किसे पुकारें?
तुम
ओ तुम
गीत ही बुनता रहा आंगन
तुम्हारी आहटों से
गूंज के गले में
गुमसुम बांध कर गए तुम
ओ तुम
दिशा ही तो देखती रही आंखें
तुम्हीं से सूरजमुखी
लरज़ता उजले क्षितिज का
एक सपना धुंधवा कर गए तुम
ओ तुम
तुम्हीं से हां तुम्हीं से रेखा किए
दुखते फलक पर
शोर का संसार
रंगों से भरी हथेलियों पर
ठंडी आग का
हिमालय रख गए तुम
ओ तुम
किससे भरूं
कैसे भरूं
यात्रा में आई दरारें
कैसे टांक लूं पैबंद
फट गई तितीर्शा पर
पिरो तो लूं कभी
विरासत में बची
नंगी सुई
सूत भर सम्बन्ध भी
संवेट कर ले गए तुम
ओ तुम
गलत हो गया
एक और तलपट
गलत हो गया
डैने खोल गुमसुम
दो पहर
पहले उठा
पसरा रास्ते को काट
दूरियां लीकता
सिलसिला रूक गया
हुआ कुछ भी नहीं
सफ़र से समय का
गुणनफल गलत हो गया
दिशाओं-दिशाओं
गई एषणा
आ जुड़े पंक्तियां
रोशनी के आकार की
हुआ कुछ भी नहीं
आकाश उतरा
अंधेरा ठर गया
पत्थरों को
उकेरा किये हाथ
सांस होती रही हवा
आग-पानी
पांव रच-रच गए रेत
उतरे बिखेरू
अड़-अड़ गए
छितरा गए,
एक-एक क्षण पी गए
हुआ कुछ भी नहीं
उम्र का
एक और तलपट
गलत हो गया
जिज्ञासा
और छलांगें भर
हिरनी जिज्ञासा
आदत है
गूंगे सूरज की
बैठा-बैठा आंख तरेरे
बिना ठौर की
हवा न पूछे
और सफ़र कितनी दूरी का
घिरे मौन के नीचे
आवाज़ तलाशे जा जिज्ञासा
और छलांगें भर
हिरनी जिज्ञासा
प्रश्नों का विस्तार
कहीं-कहीं पर
उत्तर के आभास दिया करता है
झुलस रही यायावर सांसें
थकें न हारें
देह छवाती जा जिज्ञासा
और छलांगें भर
हिरनी जिज्ञासा
यहीं कहीं पर
धरती उठ जाती
आकाश झुका करता है
झर-झरता
कल कलता
बह जाता है
इन्हीं क्षणों से छू जाने तक
पांव छापती जा जिज्ञासा
और छलांगें भर
हिरनी जिज्ञासा
होना पड़ा
बाज़ार होना पड़ा
हरफ़ ही उलट कर
खड़े हो गए
क्या बोलती
फिर अरथती किसे
गुमसुमाये रही तो
हक़ीकत के इज़लास में
जुबां को
ग़ुनहगार होना पड़ा
सवालों से
कतरा तो जाते मगर
जिस दिशा को गए
घेरे गए
धुरी यूं बनाई गई
देह को
तक़ाजों का हथियार होना पड़ा
धड़कनें चीज हो लें
बिकें बेच लें
तब उसूलन जिया जा सके
घड़ना न आया
ऐसा कभी
मगर बांधे रही
एषणा के लिए
जिन्दगी को
सांझ का ही सही
उठता हुआ
बाजार होना पड़ा
टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगें
यह ठहराव न जी पाएंगे
सांसों का
इतना सा माने
स्वरों-स्वरों
मौसम दर मौसम,
हरफ़-हरफ़
गुंजन दर गुंजन,
हवा हदें ही बांध गई है
सन्नाटा न स्वरा पाएंगे
यह ठहराव न जी पाएंगे
आंखों का
इतना सा माने
खुले-खुले
चौखट दर चौखट,
सुर्ख-सुर्ख
बस्ती दर बस्ती,
आसमान उलटा उतरा है
अंधियारा न आंज पाएंगे
यह ठहराव न जी पाएंगे
चलने का
इतना सा माने
बांह-बांह
घाटी दर घाटी
पांव-पांव
दूरी दर दूरी
काट गए काफ़िले रास्ता
यह ठहराव न जी पाएंगे
टूटी ग़ज़ल न गा पाएंगे
मितवा
कल से क्या
आज से गवाही ले मितवा
घाटी में आंगन है
आंगन में बांहें
बांहती दहरिया की
कल से क्या
आज से गवाही ले मितवा
आंखों में झीलें हैं
झीलों में रंग
रंगवती हलचल की
कल से क्या
आज से गवाही ले मितवा
माटी में सांसें हैं
सांसों के होठ
बोलती पखावज की
कल से क्या
आज से गवाही ले मितवा
दूरी पर चौराहे
चौराहे खुभते हैं
चरवाहे पांवों की
कल से क्या
आज से गवाही ले मितवा
रात एक पाटी है
पहर-पहर लिखता है
उजलती हक़ीक़त की
कल से क्या
आज से गवाही ले मितवा
घाटी में आंगन है, आंगन में बाहें
सड़क
जाने कब से सड़क अकेली
दस्तक पांव नहीं देते हैं
लोरी नहीं सुनाती आहट
उमर अनींदी
दूर-दूर आंखें पसराती
जाने कब से सड़क अकेली
सूरज अंगुली नहीं थामता
रूनझुन नहीं बजाता बादल
उमर अछांही
हिलका-हिलका कर बिसूरती
जाने कब से सड़क अकेली
छाती तोड़ गया है गुमसुम
हवा उढ़ाये क़फन रेत का
उमर अगूंजी
डूबा-डूबा शोर सांसती
जाने कब से सड़क अकेली
संध्या गर्म राख रख जाती
रात शरीर झुलस जाती है
उमर दाग़िनी
क्षण-क्षण दुखता अकथ पिरोती
जाने कब से सड़क अकेली
ठूंठ किनारे के बड़ पीपल
गूंगे मील-मील के पत्थर
उमर अनसुनी
चौराहों मर-मर जी लेती
जाने कब से सड़क अकेली
अपना ही आकाश बुनूं मैं
सूरज सुर्ख बताने वालो
सूरजमुखी दिखाने वालो
अंधियारे बीजा करते हैं
गीली माटी में पीड़ाएं
पोर-पोर
फटती देखूं मैं
केवल इतना सा उजियारा
रहने दो मेरी आंखों में
सूरज सुर्ख बताने वालो
सूरजमुखी दिखाने वालो
अर्थ नहीं होता है कोई
अथ से ही टूटी भाशा का
तार-तार
कर सकूं मौन को
केवल इतना शोर सुबह का
भरने दो मुझको सांसों में
स्वर की हदें बांधने वालो
पहरेदार बिठाने वालो
सूरज सुर्ख…..
गलियारों से चौराहों तक
सफ़र नहीं होता है कोई
अपना ही
आकाश बुनूं मैं
केवल इतनी सी तलाश ही
भरने दो मुझको पांखों में
मेरी दिशा बांधने वालो
दूरी मुझे बताने वालो
सूरज सुर्ख बताने वालो
सूरजमुखी दिखाने वालो
आवाज़ दी है
आवाज़ दी है तुम्हें इसलिये
शोर की सांस में
जी रही ख़ामोशियां
अनसुनी रह न जाएं कहीं
आवाज दी है तुम्हें इसलिये
बरसात के बाद की
गुनगुनी धूप की छांह में
रह न जाए कहीं
आंगने में नमी
आवाज दी है तुम्हें इसलिये
जुड़े अक्शरों का यहां
एक ही अर्थ होता रहा
और भी अर्थ होते हैं जो
अनहुए रह न जाएं कहीं
आवाज दी है तुम्हें इसलिये
इन्हें
क्या हो गया है इन्हें
रोशनी की
हिलकती हुई
फुलझड़ी थे कभी
राख का आकाश होने लगे
ये सूरजमुखी
क्या हो गया है इन्हें
खुलते हुए
अर्थ के
रास्ते थीं कभी
संदेह की बांबियां
होने लगी आंखें
क्या हो गया है इन्हें
हाथ घड़ते रहे
जो कंगूरे कभी
फैंकने लग गये
कांच की किरकिरी
क्या हो गया है इन्हें
रोशनाई लिये
चलें, आग के रंग की
रोशनाई जिये
सांस के रंग में
एषणाएं भिगोते हुए
संकल्प की
एक तस्वीर रेखें
कोरे पड़े
हर दिशा के सफ़े पर
रोशनाई लिये
एक आवाज को
आंधियों में बदल
जहां भी अबोले उठी
कल की चोटियां
सभी को
ढहा लाएं जमीं पर
रोशनाई लिये
भर गई है
धुएं ही धुएं से सदी
आंख भी यूं फिरे कि
देखें कहीं और दिखे और ही
पोंछ दें, आंज दें
भरे धूप से अंजुरी
रोशनाई लिये
अजनबी सी जिये है
इकाई-इकाई
टूटे यहीं हां यहीं
आदमी की लड़ाई
उघाड़ें भरम
असल एक चेहरा दिखाएं
रोशनाई लिये
ओ दिशा
स्वरों के पखेरू उड़ा
ओ दिशा
कब से खड़े रास्ते घेर कर
संशयों के अंधेरे
सहमी हुई खोज ड्योढ़ी खड़ी
ठहरे हुए ये चरण
सिलसिले हो उठें
संकल्प की हथेली पर
दृश्टि का सूर्य रख ले
ओ दिशा
मौन के सांप कुंडली लगाये हुए
हर एक चेहरा
हर दूसरे से अलग जी रहा
सांस बजती नहीं
आंख से आंख मिलती नहीं
सारे शहर में कहीं कुछ धड़कता नहीं
चोंच भर-भर बुनें
शोर का आसमां
स्वरों के पखेरू उड़ा
ओ दिशा
धूपाएं
आ सवाल चुगें धूपाएं
दीवारों पर
आ बैठी यादों की सीलन
नीचे से ऊपर तक रंग खरोचे
कुतर न जाए
माटी का मरमरी कलेजा
आ सवाल चुगें धूपाएं
आंख लगाये है
पिछवाड़े पर सन्नाटा
जोड़-जोड़ पर नेजे खोभे
सेंध न लग जाए
हरफ़ों के घर में
आ फ़सीलों से गूंजें पहराएं
पसर गया है
बीच सड़ंक भूखा चौराहा
उझक उझक मुंह खोले भरम निपोरे
निगल न जाए
यह तलाश की कामधेनु को
आ वामन होलें चल जाएं
क्या तोड़ गए
उनसे करें सवाल, चलो
क्या तोड़ गए वे किश्तों में
धड़क रहा है
यह टुकड़ा
उसमें से खुशबू आती है
आवाज रहा है
यह टुकड़ा
उसमें से गर्म-गर्म बहता
बिखरा तो वे गए
देह से
कुछ ख्याल के
और मिला क्या
उनसे करें सवाल, चलो
ये दोनों भीगे-भीले
वह अंगारा
यह थाली है
वह टूटा हाथ निवाले का
वे तो चुप बींध गए
आंगन में कोलाहल के
कुछ और मिला क्या
उनसे करें सवाल, चलो
सड़क लगें
ये बिछे-विछे
संकेत रहा है
यह टुकड़ा
इन पर
पीछे की धूल चढ़ी
उठ गए पांव
ये दो टुकड़े
वे तो बीच दरार गए
बुर्जियों उजलती दूरी के
कुछ और मिला क्या
उनसे करें सवाल, चलो
क्या तोड़ गए वे किश्तों में
हरफ़ों के पुल
रच लें फिर
और-और हरफ़ों के पुल
एक-एक पांव तले
एक-एक द्वीप
आगे है ठरी हुई
काई की झील
गहराये बीच
चौड़ाये पाट
रच लें फिर
और-और हरफ़ों के पुल
आस-पास अलग अलग
थके-थके शरीर
झाग हुआ निकले है
भीतर का शोर
चेहरों पर रिसती है पीर
आंखों में प्रश्नों की धुन्ध
रच लें फिर
और-और हरफ़ों के पुल
लांघ-लांघ जाता हूं
सूरज की ओर
खीज-खीज उझकता हूं
तानता हूं हाथ
बंध जाएं शायद
एक-एक मुट्ठी में
किरणों के
कई-कई बांस
पांवों से तट तक
उग आए
पथरीले द्वीपों पर
बांसों के पुल
रच लें फिर
और-और हरफ़ों के पुल
मैं भी लूं
मैं भी प्राण तो लूं
इक इरादे की मथानी को
बांहों-बांहों
बांध लिया
मथ-मथ ही दिया
कल्मश के समंदर को
और उजलते गए
उन पसीनों की तरह
वही सोने का कलस
मैं भी हाथ तो लूं
मैं भी प्राण तो लूं
वे ख्यालों के
किसन ही किसन
बलंदी के पहाड़ उठाये गए
तोड़-तोड़ गए
बारूद के इंदर का अहम
फसले-ज़ज़्ब़ात हुए
उन शरीरों की तरह
वह हवा बीज वही
मैं भी प्राण तो लूं
गांव की
एक अल्हड़ सी हंसी
फैंक गए
वे सियासत के बयाबां में
वे उकेर गए
वक्त के पत्थर पर
लोहू का जमीर
ग़ज़लती ही गई
उन जुबानों की तरह
वे ही आलाश-हरफ़
मैं भी आवाज तो लूं
मैं भी प्राण तो लूं
सांकलें काटने
रोशनी
तुमको आवाज़ देते रहें
आसमां को
जमीं पर
झुका देखती आंख में
आ पड़ी किरकिरी
रिसते हुए
गुनगुने दर्द को पोंछने
रोशनी
तुमको आवाज देते रहें
आहटों से जुड़े
दूर को काट
बना दी गई एक खाई
बीच की
दलदली झील को सोखने
रोशनी
तुम को आवाज देते रहें
थकन ओढ़ कर
सो गया है
मशीनों चिमनियों का शहर
जड़ लिए हैं
किवाड़े-खिड़कियां
गुमसुम खड़ा है
खबरदार बोले
मनों पर लगी सांकलें काटने
रोशनी
तुम को आवाज देते रहें
रचनाएगी
जाने क्या-क्या कर जाएगी
भले अभी तो आंखों को यह
पसरी-पसरी लगे
मगर यह रेत, रेत है
एक समंदर उफनाएगी
जाने क्या-क्या…..
अभी भले ही हुई धुएं सी
लगते-लगते हवा
यहीं हां यहीं यहां से
वहां-वहां तक अगियाएगी
जाने क्या-क्या…..
जाने कब से बर्फ़ गिरे है
सील गई हैं तहें
मगर लकड़ी है लकड़ी
सूरज पी-पी चिटखाएगी
जाने क्या-क्या…..
बरसे बरसे कोई मौसम
बुझी-बुझी सी लगे
मगर जगरे में चिनगी
पड़ी राख उठ ओटाएगी
जाने क्या-क्या…..
ठुंठ हुए पेड़ों पर लटकें
ऊंधे गुमसुम सभी
मगर पतझर की झाडूं
झाड़ किनारे रख जाएगी
जाने क्या-क्या…..
माटी नहीं रही है ऊसर
झरी कहीं से बूंद
हुई है बीजवती यह
हरियल मन फिर रचनाएगी
जाने क्या-क्या कर जाएगी
सपन की गली
सत्य का आभास
लगता है बहुत कड़ुवा
अन्तर के धूमिल सत्य का आभास,
क्योंकि मन तो हो गया है
युग-पुरानी परिधियों का दास।
संस्कारों के खड़ाऊ पहन कर
मन का पुजारी जा रहा है,
ताड़-पत्तों पर लिखी
किताबों की समाधि पर पहरा लगाने;
क्योंकि अब तो आत्मा की
हो गई बूढ़ी अवस्था ;
थम गई है
रग-शिराओं की रवानी,
जम गया है खून
जैसे पर्वती-सरिता
किसी हिमपात से ।
रह जाये ना
बिना अर्थ परिवर्तन,
मिट जये ना
कहीं मनुज की क्रियाशीलता,
इसलिये
हाथ में अब वह हरकत आ जाये
जो धरती की
व्याधि ग्रस्त परतें उधार कर
मिट्टी नई उलीचे,
नई बरखा का
पानी भिगो-भिगो कर
लोंदे नये बना दे,
नये-नये सांचों में
सजा सँवार कर
रूप नया ही दे दे
किसी निरूपम-निष्कलुष सृजन को!
तुम जागो मुस्काओ
नये भोर की वेला साथी –
तुम जागो – मुस्काओ ।
सपनों के विषधर समेट कर
लौट चली विष-कन्या रजनी,
अँधियारा सूने जादू की
बाँधे चला पिटारी आपनी।
बहुत दूर से आई है परभाती
निंदीया के दरवाजे ;
मोह बँधी पलकें उधार कर –
उठो और इठलाओ ।
देखो तो हो रहा गुलाबी,
उन्मन आसमान का आँगन
किरणें खोल रही धीरे से
लौट चली विष-कन्या रजनी,
सोई कलियों के मधुरानन
खेल रही है फूलों के आंचल में
भीनी गूँज भँवर की
उड़े पंछियों के कलरव सा –
तुम सुर साधो, गाओ।
नीचे का सूरज उठ आया
पर्वत की सीमा से ऊपर,
पीती है प्यासी हरियाली
धूप दूधिया हँस हँस जी भर।
सूनी राहों पर रुन झुन पायल की
चहल-पहल कोलाहल ;
कल की व्यथा भूल कर साथी –
नव आशा सहलाओ।
घृणा की घास
देखो!
अविश्वास का यह काला पहाड़,
जिसकी टेढ़ी-मेढ़ी फटी हुई रखों में
उगी हुई है घास घृणा की।
यह इतना ऊँचा
अतना कठोर कि
छिल जायेंगे तेरे नन्हें पांव,
और थक जायेगी
हर साँस नेह की।
इस कांटेदार घास में
उलझ-उलझ कर फट जायेगा
नभ-गंगा सी ममता का आँचल।
आ इस पहाड़ के,
एक ओर तू, एक ओर मैं,
आँसू की दारें
बनकर टकरायें;
यह सही, कि
यूं मिट जायेगा
एक मुइट जायेगा
एक नहीं, सौ सौ घड़ियों का जीवन;
मगर एक दिन
धरती का उर फट जायेगा
अविश्वास का यह काला पहाड़,
और कँटीली घास घृणा की डूब जायेगी!
मेरी कविते
मेरी कविते! तू वैभव की इन्द्र सभा में
बिकने कहीं चली मत जाना!
यह दुनिया तो रंग विरंगे
वैभव का दरबार है,
सस्ते-मंहगे लेन-देन का
बहुत बड़ा बाजार है।
हीरे मोती सब दरबारी
सोना ही सरदार है,
कुटनी चाँदी के हाथों में
कीमत का अखबार है।
यश के लोभी डोम खड़े हैं भीड़ जमाने-
मोटे-मोटे ढोल बजा कर;
मेरी कविते! तू इस सतरंग जाले में –
आकर कहीं छली मत जाना।
माँग रहे हैं कितने गाहक
तनी गुलाबी डोर को,
सब खरीदने को आकुल हैं
सावन की मधु-लोर को
बाँध रहे हैं ये भावों में
इन्द्र धनुष के छोर को,
आँक रहे हैं लिये कसौटी
ये संध्या की कोर को।
तोल रहे हैं झलर मलर तारों की आभा-
ये अपनी मोती माला से ;
मेरी कविते! दुकानों में सजी वासना,
उनकी गली चली मत जाना
संभव है बिक जाना तेरे
इस नीले आकाश का,
संभव है बँध जाना तेरे
रागों के मधुमास का!
थैली में छुप जाये शायद
बदरा तेरी आस का,
सूखा ही रह जाये आँगन
तेरे उर की प्यास का।
ये सब व्यापारी हैं, सूदखोर, संगदिल हैं-
मेरी इस पीढ़ी के आदमी ;
मेरी कविते! ये तो मोहित भरी उमर पर
इनके कहे ठगी मत जाना।
शपथ तुम्हें है मेरी कविते!
गर बेचो अरमान को,
अपना सब कुछ खो देना
पर मत कोना ईमान को।
साधे रहो अन्त तक अपने
विश्वासों के बाणों को,
सौ सौ बार निछावर कर दो
सत पर अपने प्राण को।
मैं भी श्रम-सीकर में आशा घोल-घोल कर
नये भोर के गीत लिखूंगा;
मेरी कविते! तेरी तो ये ही राहें हैं-
दूजी डगर चली मत जाना।
सन्नाटे के शिलाखंड पर
समर्पण
….सुन ! मेरे ही अंशी सुन
वह जो धारे है
कब किससे बोले है
जो बोले भी है कभी
सुने है कौन
उसको कौन समझे है
सुलाने को तुझे
सुनाई ही नहीं कभी लोरी
जागता रह कर सुने तो सुन….
रात तो रिसती
रात तो रिसती झरती
बरसती ही रही है
मेरे होने की जड़ों तक को
किया है नम
भीतर ही भीतर
खोखल रच दिए हैं
और अब तो दिन भी
ज़र्द अंधियारों की पोटली
खोले-रखे हैं
आगे और पीछे
मैं गोया रेत हूँ रेत
या कि फक़त मिट्टी
जबकि मैंने
होने के हर-हर जतन को
आदमकद किया है
पाताल से उलीचे स्वर दिए हैं
हुआ है यह कि
एक मैं हूँ
और कोलाहल खड़ा है
खोल कर जबड़ा गूंगी गुफा का
आंत तक निचोड़
पी ली गई है गूंज
गूंज की लौटी हुई आहट
मैं हूँ कि
कहीं गहरे धंसता हुआ
फरोले हूँ
पाताल को खरोंचे हूँ कि
गूंजे गूंजता जाए
गूंगी गुफा के
जबड़े से निकलकर कि
रेत ही नहीं हूँ मैं
फक़त मिट्टी भी नहीं हूँ
धरती की
फटी है कूख जब-जब
तभी मेरा होना हुआ
मार्च’ 77
अब तो उठ जा थार
अब तो उठ जा थार
बहुत तप लिया उठ जा
माना अनहोनी तो हुई
कि पूछे-कहे बिना ही
जाने कौन
उतार ले गया तेरी
सागरिया नीलाई?
कैसे-कैसे
कितने थे वे हाथ
बीन ले गए
जल से अन्तरंग अंतस पर
सीपी में गर्भाते मोती?
कौन कहे वे हाथ
अंजुरी हुए
कि कुम्भ कि जेब परातें
भर-भर कर ले गए
छपक छप-छपता फेन
जाल भर सोन मछरियां?
दूर दूर से लुट-लुट आता
बिन सीढ़ी
आकाश भिगोने का
तेरा आवेग
पछाड़े खा-खा कर बिछ जाता
रेत जिसे
रसमसा लिया करती रग-रग में
वैजंती तट पर
गीत अगीतों में
आलाप भरा करता तेरा संवेग
न जाने कौन सी गया
असुरशरण दाता भी नहीं रहा तू
जिसको पी जाने
देवों ने आत्र्त अर्चना की
अगस्त्य की
तू तो था गोताखोरों का जीवट
तुझ पर झूला करती नावें
कंदील जलाए
घर की सीध
दिखाती थी मछुआरिन
कि मछुआ
लदा हंसी से लौट रहा है
तू अनथाया सागर था न
फिर कोई दूजा अगस्त्य
क्यों-कैसे
आकर बैठ गया तेरे तट
चुल्लू भर
पी गया तुझे वह
आँखों की सीमा के पार
हिलकते रहे
अछोरी थार
एक इसी दुर्दान्त घटित पर ही तू
पसर गया
ऊपर को आँखें फाड़े
एक निमिश ही
पलक झपकता तो दिख जाते
वर्तमान के हाथों
होते हुए भूत मन्वंतर
मगर एक भी रेख
नहीं घिस पाई अब तक जिनकी
भीतर से बाहर
खुद की ही
एक झलक भर की ही हर कर लेता
दिखता तुझको
तेरी ही फेरी-चकफेरी देता
मैं मेरा संसार-
हाथों को मठोठ
बूझाली़ धरती करता खेत
खेत को पांव-हाथ से लीक
एषणा बीज गया हूँ
पोरों
फटी बिवाई
तांबे का तन चुआ-चुआ कर
सींच गया हूँ धरती
तब पक-पक जन्मे
फली बाजरी काचर मोठ मतीरे
सीधी नहीं
आँख तिरछी कर
कभी-कभी तो देखा करता…..
आँखों में झलमलती
हीरों की ढिगलियां
पलकों के छाजले झटक कर फूस
छाटियां भरते
जाने कहां-कहां से
तेरे ही जायों जैसे
माणस जैसे ही बतियाते
जेबों से निकाल
खोभ ही जाते पीठ कलेजे में
पोले मुंह वाली
लोहे की परखी
केवल मुझको छोड़
सभी कुछ का बाजार
बनाया जाता जहाँ-तहाँ
देखले अब भी त्राटक तोड़
तू अपना ही आधा मुझ में
देख कि
आँखें जिससे जोड़
तापता बैठा है तू कबसे
देवता है कभी तो टूठेगा ही।
उसकी ही
अबरक सी भळ-भळ किरणें
कंगूरों पर ही झाड़
सुबह की महंदी
तेरे सन्दलिया चेहरे कों फेंचें
शूर्पनखायें होकर
और सूर्य
शून्य की खूंटी
ओंधा टंगा अलाव सरीखा
बरसाये खीरे
झुलसे सिणगारी सीवण घास
जड़ाऊ सिट्टे
न्यौते बिना
महूरत साधे उतरे
आए साल बटो ही टिड्डी-फाका
और कातरा
चाट जाय
सपनों का हरियल आंगन
कुतरे बेल उमर की
यह यह तेरा आराध्य
धूप का तवा चिपाता फिरे
कलेजे से कल झळती बूंद-बूंद को
भाप बना ले जाए
फिर यह आहट किए बिना ही
पच्छिम से लौटी रम्भाती
गो-धूली की ओट सरकता
दरका जाए एड़ी-चोटी
ठरी हड्डियों के नीचे ओटाई
आगुन से अनजान
धाबल काम्बल खोल उतरे
अनाहूत कल्मष
पोर-पोर में ठर जाए
फिर भी अनदेखा कर
यह सारा विकराल
खनकता चूड़ा
चूल्हे को सीरनी चढ़ाए
हाँडी में राँधे
मोठ कोकरू
पुरसे खदबदते धीरज का खिचड़ा
कोरों में कुनमुनता पानी
खाया पिया हुआ
तेरा यह पौरुष
घास बिछा कर
बीती सारी रख सिरहाने
सोये कल को तान
सुख की यह भी नींद
बरछी जैसी लगे हवा को
मरी ईस्के
बैरन बांज उठे
खोले उंचास हाथ
झाड़ती जाय
चूल्हे आंख दिये में
काली पीली राख
उपाड़े झूपे-टपरे
खींच उतारे
काया कात-कातकर
खेतों को पहनाए गए धोतिये
पाटती जाय
कुए ताल तलाई
ओंधे करती जाय पणीढे
हांफे हलर-फलर कर खूंट किनारों
देख अखूटी सांस प्यास की
दुख-दुखकर
सुखियाती
प्राण में साधे हुए खड़ी
पानी की साध
कि अब अब उठले
कल्पों से सोया थार
तो उठलें पड़े उनींदे धोरे
‘‘आयो-आयो’’ टणकारे जो
अभी दिगम्बर मौनी
फोग खेजड़ों बाड़-बोअटी
थार-आकड़ों का सन्नाटा
कोलाहल हो जाए
कहां छिपा बैठा है औघड़
पिये समंदर
कहे अब तो यह थार
कि गूंगा तप
केवल दुःख का विस्तार
कि ऊपरवाला नहीं
कूख का जाया पला
देवता ही देता वरदान
कहे तो सही
पीले स्याह बगूलों का कुबेर
तो बूझे भुरठ मठोठती मुट्ठी
बज-बजकर
पाताल तोड़दे
बाहर ला रखदे अगस्त्य को
चीरदे पेट
बह आए अदबदा समंदर !
सितम्बर’ 79
धूप
धूप
केवल धूप खा
अघिया गया
यह सन्नाटा
चिटखा है भीतर से
सुलगने लग गया है
लप-लप लहकेगा
दूर तक
जा जा हंसेगी आंच इसकी
झुलस जाएगी
छुआ तो
हो भर रहेगी राख
आ गिरी जो
सूखे पत्ते-सी
किसी की याद
मार्च’ 82
रेत जाये
रेत जाये
दर्द की
यह प्यास
कैसी है
कि आँखें जोड़
सूरज से
पिये जाए
पानी की तरह
आवाजों को
फरवरी’ 77
चिटखा है
दब-दब चिंथ-चिंथ
चिटखा है
भीतर ही भीतर
सुलग गया है
दर्द रेत का
हवा तो
पहले से ही
बांधे बैठी बैर
पी-पी
लपक गई है आंच
आंखों को
झुलस गई है
अब जो
आएं आंसू
कहां रखेंगे
अगस्त’ 77
बिछा हुआ है
बिछा हुआ है
सीवण का आसन
सोने की चौकी
भले उसे तू
सन्नाटे का
शिलाखंड भर कह दे
था अनसुना
अदेखा करजा
बोला है बोले है
बजा बज-बजता जाए है
इकतारा…..
………….
सागर है
मेरे भीतर
उतर कर
देख रहा आकाश
उगटी है कि नहीं
चांद की टिकुली,
रात ने
पहनी है कि नहीं
तारोंवाली बंधेज,
उगेरी है कि नहीं
लहर ने
सांय-सांयती
राग बिलावल,
ठंडी नींद उतार
उठे अन्तस ही
भरे भैरवी का आलाप,
जाल पोटली
कांधे ऊपर लाद
खोल खूंटे से नाव
मछेरा
चप-छप चप्पू
चले दिसावर
नीला-नीला सा
यह सागर
जो मेरे भीतर है
उसी में नहा
चढ़े चढ़ता जाए
शिखरों पर सूरज,
धूप
देखती रहे उसे
आंखें चौड़ाए
सारे भीतर को खंगार
भर लिए मोती
सोन मछरियां
और उधर वह
रांध निवाले
छवां गई आंगन में
खुले गुलबिया हाथ
रचें कोलाहल
खाली हो-हो
पिटें पीटें आवाजें
तब वह
चुग-चुग चुने परोसे
थका सूरज
सरका जाए कंदील
उठे सिंदूरिन
जला रखे ड्योढ़ी पर
कल्मष तो कांपे ही
थर-थर सिहरा-सिहरा
दूर-दूर पर
और आंख में
झलमलती सी आस
लौटना देखे,
दिखाए भी वह
रोशनी की
झीनी
लरजाई सीध-
लौटो लौट आओ
घर यहीं है
लगते ही किनारे नाव
कुलांचें भर गया है
आखा घर
और तू है कि रोज
शोर के जंगल में
जा धंसे है
न देखे है किसी को तू
फिर तू भी तो
नहीं दिखता किसी को
तू भी तो
वहां की होड़ दौड़े है
फटा-चिथरा हुआ
लौटे है घर
जेब में ही नहीं
सोच में मुंह में
भरे हुए जंगल
जनवरी’ 82
मुझ पर तेरा होना
मुझ पर तेरा होना
पहली जरूरत है
मेरे होने की
और तू अक्सर ही
नहीं होता है मुझ पर,
अपने पर
रखे रहने तुझे
हुआ मैं
रेत के विंध्याचलों का
एक यायावर,
खोजे गया हूँ
आंखें फाड़ तुझको
फटी चिरती बिवाइयों से
जो झरा है
उसे ही चाट
हूंके गई है
रेत की हर हर पहाड़ी-
दे और दे पानी मुझे
आ गया होता जो सामने तू
मांग लेता
हो गया होता मैं
दूसरा वामन जो तू
मुझ में समा जाने
क्षितिज से उतर आता
बलि सा…..
तू दिखा भी है कभी
तो इतनी दूर कि
छू लेने भर को
तरसती ही रही है आंख
मैं तो फिर भी
सपना देखता रहा हूँ-
दूधियाये तू
घुल-घुल घुले
फुहार ही होकर रहे
तू मुझ पर
…………
और जो याद आ जाए तुझे
वह खोज-
पत्थरों
वन-प्रान्तरों को लांघ
पंचवटी
जाकर ही ठहरी
सामने हो गई उसके
मर्यादा किनारे रख,
उठा वह
लिपटा भिंचा तो
राम ही पिघला
बह-बह गया
तर-ब-तर लौटी
भरत सी
किन्तु मैं कब से
दिशाओं से दिशाओं
क्षितिज आकाश में
पाताल में भी
तुझे खोजे हूँ
अकेला
सर पर
सूर्य को ढोता हुआ मैं
अभिशप्त
अश्वत्थामा हूँ
दागा ही नहीं मैंने
किसी का गर्भ
न सही मुझे
पर यह तो देख
आधे
निर्वसन आकाश पर
अब भी बिछी है
मेरे कबूतर ने बुनी जो
नीलई मलमल कि
दूधियाये तू
घुल-घुल घुटे
लिपटा कर मुझे
भिंचे तू
पिघले बरस जाए
तर-ब-तर करदे
मुझे तू
मार्च’ 82
आखर
आखर
ऐसे दिए उन्होंने
जिन्हें मैं
बूझ न पाऊं
बूझ न पाऊं तो क्या बोलूं
कैसे बोलूं
और कभी
बोलना चाहा भी है मैंने
जीभ पर
ऐसे आखर चढ़े कि
फिसल टूट
बिसरे पहले ही
मुझको
यूं गूंगा रखने में ही तो
पर्वत होना था
उनका
आखर-आखर जोड़
अरथ बोला करती
वाणी से
अलगा दिया गया मैं
अब तो
इतना ही सोचे हूँ
एक जुलाहा आए
ले जा रखदे
आंगन की चटसार,
जुलाहिन के हाथों से
औंधी पड़ी
कठौती पर
थपथपती राग सुनूं
जुलाहे की आंखों
हाथों से तन-बुन
फलक हुआ करते
वे आखर
देखूं, सीखूं,
गाता फिरूं
गली चौराहों
फरवरी’ 82
क्या कहूं
क्या कहूं
कैसे कहूं
इस सरफिरी बरसात से
कि जब बनाए
आंख में ही घर बनाए
और आंख से तो
सम्हाले भी नहीं सम्हले
यह घर
बाहर आ-आकर खिरे
कलझल बिखर
सूख जाए
सूनी निपट सूनी ही रहे है आंख
मेरी न माने
देख सुन तो ले उसे भी
वह बुलाए
मनुहारें करे बरसों
अनसुना रहने का
उसका दुख
छटपटा कर
हूंकता बिफरता है
थका पसरा
कहे ही जा रहा है
मांड मुझ पर मांड
मांड तो सही
इस बार
ओ री सरफिरी बरसात
सूख कर दरके हुए
चौड़े कलेजे पर
घर मांड अपना
अगस्त’ 78
लो उठ गए
लो उठ गए
तेरी सराय छोड़ कर
हरफ़ों के जात्री
जाना जो है उन्हें
इस दिशा के पार
देखने भर को ही
ठहरे हैं
यहां होकर गए हों
होने की
जरूरत से बळते हुए
हम आहंग
जाते-जाते
आबनूसी कमरे की
किसी दीवार पर
सफ़ेद-ए-सुब्ह जैसी
वैसे नहीं
ऐसे भी
कटती हैं हदें
धुएँ की
मांड कर
वे चल दिए हों
ऐसी किसी
सम्भावना पर
फेर मसना
कर रही हो तुम
आया ही नहीं
अब तक
यहां से आगे
दूर तक
निकल जाने के इरादे से काई
खाली है सराय
आएं
ठहरे ही रहें वे
जिन्हें आगे न जाना हो
केवल लौटना हो
मील का पत्थर ही
बांचने भरके लिए
जो आ टिकें
क्या निस्बत हो
उनसे तुम्हारी
पहचानो ही क्यों
उन्हें तुम
भीतर से वह भी
खूब पहचाने बिना
हुआ भी है
किसी के साथ का
कोई भी अर्थ अब तक!
और फिर
भीतर से
पहचान लेना तो तभी हो
जब मैं
या फिर
तुम्हारा अपना मैं
ममेतर हो
ऐसा तो
हुआ ही नहीं है अभी तक
जाना ही है
लो चल दिए
आंख के आगे
छाते हुए
धुआंसे में
डूबी-डूबी सी
लगे तुझको
आहटें परछाइयां
तोड़ लेने
तू अपना
गूंगा अकेलापन
इतना ही
याद कर लेना
गया है जो अभी
जी लेने भर को ही बनी
यह सराय
छोड़ कर
बोल कर
बोल कर
चलते हुए
हरफ़ों का काफ़िला है वह
जनवरी’ 82
तूने तूने ही तो
तूने
तूने ही तो
जाया है न मुझको
फिर क्यों नहीं है
रंग मेरा
तेरी देह जैसा
तेरे इस शरीर के भीतर
बहुत भीतर
नहीं है न कहीं
मेरे ही रंग रस जैसा
रचा तन
फिर उस देह पर
यह पीली सिर्फ पीली देह
क्यों है मां
और मैं भी
अपना होना
जान लेने से अभी तक
एक मुर्दा व्यूह में ही
क्यों जिये हूँ
जबकि मैंने तो
सीखा ही नहीं
तेरी कूख में रहते
किसी भी ब्यूह में
जा धंसने का सबक
फिर कौन हैं वे
रच गए हैं
व्यूह दर व्यूह
चारों ओर मेरे
इस सूर्य जैसा तो नहीं
कोई मेरा पिता
स्वीकारा ही नहीं जिसने
मुझ जैसे किसी को
एक याचक को
होने का हिस्सा
काट कर देने से पहले तक
तू पांचाली तो नहीं है न मां
कि पति हों पांच
एक हारा हो जुए में
भुजाओं का धनी दूजा
मठोठियां खाए रहा
बगलें ही झांका किया
तीजा धनंजय
और छुटके दो
बळे तो ऊपर से
पर अन्तर-आत्मा तक पिघल
ठर गए
नकुल-सहदेव जैसे
मुझ में
अनवरत बोला किया है जो
उसी को तो निकाल
ला रखा है
आज तेरे सामने
यह अनवरत बोलारू ही मेरी
पपड़ाई हुई
वह प्यास है मां
जिसने मेरे
पूरे भीतर को
किया है झांग
बाहर ही फैंके गया है
और मैंने भी
इस बुदबुदाते फेन को
छीटों से मार देने
अंजुरी भर पानी के लिए
इन ढूहों
धोरों को उलीचा है
पानी तो पाताल में था मां
हाथ आए
मरे घोंघे शीपियां
गळगच्चिये कह-कह गए हैं
तेरी मां तो
नीली थी
यह पीली कैसे हो गई है
बोलती थी
कल-कलती सी
‘राग रग-रग से निसरता था’
वही निरी गूंगी
और तू…..निपट तांबा…..
कहां से
ले आई यह तन
मैं नियोगी तो नहीं
नहीं हूँ न मां
यही तो
तू भी जानती है न
नीलबर्णा थी
दु्रपद की बेटी द्रौपदी
नहीं है न तू
वैसे किसी प्रारम्भ
उपसंहार का
कोई भी कारण
नहीं रे नहीं
मैं पांचाली नहीं हूँ
वरे ही नहीं मैंने पांच
हारते मुझको
फिर तेरे पिता होते
पाप भी नहीं है तू
मेरी कुआंरी उम्र का
जो कह दूं
कोई कायर सूर्य है तेरा पिता
मैं नहीं
वैसे किसी प्रारम्भ
उपसंहार का
कोई एक भी कारण
मैं, मैं तेरी मां हूँ
मैंने ही जाया है तुझे
और तेरा बाप
वह रहा अकेला
एक ही आकाश
पूछ उससे
क्यों नहीं मिलता है
तेरा रंग
मुझ से
पीली क्यों हुई यह देह मेरी?
सुन मेरे दूध से नहाये
बेटे सुन
मैं धरती हूँ न धारती हूँ
फिर फाड़ती हूँ कूख
और जन्म आता है
तू मेरा हमरूप
तेरी आंख में आकाश
तेरा पिता
और तू कहे है
मैं बोलूं…..
बोलते ही बिफर जाऊं तो…..तो…..
सुन मेरे ही अंशी सुन
वह जो धारे है
कब किससे कैसे बोले है
जो बोले भी है कभी
सुने है कौन
कौन कैसे समझे है!
सुलाने को तुझे
सुनाई ही नहीं कभी लोरी
जागता रह कर
सुने तो सुन…..
एक औरत थी
और था
देवों का देव इन्दर
लम्पट हो गया देखा जो
वल्कली सौन्दर्य
लूटा खसोटा राक्षस हो
अतिथि देवता ने
भार्या तो थी
वह मां भी थी किसी की
करती ही क्या वह
पत्थर सिर्फ पत्थर
होकर रह गई अहिल्या
सी जो लिया था
आदमजात राजा
जनक ने भी मुंह
चिचियाकर ही रह गया
पति गौतम
वैसी ही नारी सी
भुभुक्षु पवन के उंचास हाथों
मैं भी तो
लूटी खसोटी गई
मैं जो नीलांजला थी
कंटियल जीभों ने
शिराओं तक खुरच चाटा
फिर हड्डियां भी पिसी
कोई भी नहीं बोला
तेरा पिता भी नहीं
पर जीवेशणा को
किसने चाटा-पीसा है
बता तो…..
बच रही इस रेत भर से
पहले रचा खुद को
फिर इसे धारा
धारे ही रही हूँ
फिर गाभण हुई हूँ
पूरब की किरणें खा
दिशाओं की हवाएं पी
पोशी है कूख
सातों रंग
रचे हैं रेत में
सुन मेरी ममता के
छोटे से बड़े आकाश सुन
रेत के
सारे रचावों का
अकेला एक
पौरुष तू
और तू कहे है
मैं बोलूं…..फिर बिफर जाऊं
नहीं बेटे नहीं
तेरे बाप के चुप से अघा कर
जब भी बिफरी हूँ
मेरा अपना ही
रचाव उजड़ा है
बोलने भर से
हांडी कठौती में दरारें पड़ गई हैं
सर पर छवाया
फूस का छाजन उड़ा है
नंगे आंगने रसोई को
सर पर बैठने के आदी हो गए
इस सूरज के
संपोलों ने उतर कर
सीधे डस लिया है
इसलिए मुझे मत कह
मैं बोलूं बिफर जाऊं
हां जो तेरे भीतर
अनवरत बोले है
जिसने तेरे
पूरे भीतर को
किया है झाग
बाहर ला रखा है
उस उस प्यास को ही ।
करला और तीखी
धूप से जल-जल
होते हुए मेरे कुन्दन
उस प्यास से ही खोद
मेरे रेतीले
वक्षस्थलों
उदरान्तलों को खोद
कलकलती नदी सी
ठहर जाऊंगी मैं
तेरी अंजुरी में
देखेगा तू
मैं अब भी नीलांगना हूँ
मैं तेरी मां हूँ
मई’ 82
क्या कहें
क्या कहें
किसको कहें
कैसी तलाश थी
देखा ही नहीं
लिए हुए हमें
उतारती ही गई
कुआं…..नदी…..
समुंदर…..तलहटी
शहर जंगल
भीतर तक
कड़वा गए सब
जून’ 78
दसमाले ऊंचा है
दसमाले ऊंचा है
बेगानापन
सड़कों
गलियों में टहले है
पहियों पर
बैठी खामोशी
कोरी आँखों में
लिखा हुआ है
टूटे हरफ़ों के मलबे का
बड़ा शहर है
अक्टूबर’ 77
फिरे बांधता
फिरे बांधता
आवाजों को
गली सड़क
सन्नाटा
किसे भेज
रोशनी बुलाऊं
पहरेदार अंधेरा
अप्रैल’ 77
फूटी है
फूटी है
पीड़ा की हांडी
थकें न दो
कलझलती आंखें
एक शिला
मुझ को दे दीजे
बांधे रहूं
मुहाने दोनों
नवम्बर’ 77
सांस-सांस
सांस-सांस
रसमसती रहती रेत
अंगुलियों से
होता रहता रचाव
प्रतिमाओं का
सन्नाटे के
शिलाखंड पर
क्षण की छैनी
उकेर दिया करती है भाषा
मैं-तुम
मैं-तुम
प्रतिरूपों से भी
वही-वही तुतलाया जाता
आंगन गली
चौक जी जाया करते
यहीं यहीं लगता है
रंगवती हो गई
जिन्दगी की अभिलाशा
ओ मैं ओ तुम
उसे भी कह दो
जहां झुका करती है आंख
अर्चना की
वे होते हैं प्रतीक प्रतिरूप
यही एषणा आज
अनागत यही
प्रतिरूपों
और प्रतीकों पर
जब-जब लगता है प्रश्न
तब-तब
उत्तर की खातिर अकुलाती हुई
एषणा बोला करती
बिना राग आलाप
जिया जाता है कैसे?
जनवरी’ 80
पटरियां पहिये
पटरियां पहिये
ब्रेक गेयर भी
झटकालो
सुन्न सूज तो नहीं गए हैं
हाथ-पांव
सायरन धड़-धड़
भक भक सर्र
उड़ गए न
कानों के पर्दे
कोयलों के कुए
गुबराती चिमनियां
फाड़ों मिचमिचाओ दीदे
दिख जाए कुछ
अटका रखी है
सुबह धूप मौसम
दस माथों
हजार हाथ वाले
सिरमट के देवदारुओं ने
उचकलो झाड़दो छींका
हाथ लग जाए एक भी
चटखारे नहीं लेती
सांय सांयती सुरसा
फुट-फुट फुस-फुस
टस-टस चाटती
चोखो चीखलो
गड़ाप गड़प निगल लिए जाने
उधर देखो उधर
कांच के झुरमुट से
तक-ताक झांके है वह
ढेर हो जाओ तुम
इस-उस किनारे
या फिर बीच में ही
तभी निकल आएं
अररड़ाते हुए बुलडोजर
सपाट जाएं
रहेगा ही नहीं निशान
किसी के कुछ भी होने का
अधमिटी सी छाप पर
रख पांव
यहां तक आ भी जाए
कोई सरफिरी तलाश
तो थोड़ा सा और आगे
कर दिया जाना है उसका
ऐसा ही
होकर न होना
हैरत में हो न तुम
लौटने की खातिर ही
निकले थे घर से
और आ पहुंचे यहां
यहां…..तुम…..
आए नहीं भाई
लाए गए हो
लाए गए हो
टिच-टिच हांक तड़तड़ा कर
इस शहर…..हिश्शश…..जंगल में
जुलाई’ 81
धर्म था उनका
धर्म था उनका
मुझे निकट रखना
निभाया भी
पर पुजारी
तो बने ही रहना था उन्हें
कैसे होने देते हिस्सा
मुझे अपनी छाया का
कुंती नहीं रही
मेरे होने का कारण
राधा भी नहीं थी परोटने वाली
धाय भी नहीं थी
छांट-छींटों से ही
हो गया खेजड़ा मैं
किससे जुडूं मैं
किससे जुड़ो तुम
उगे ही नहीं ऐसा कुछ
ऊसर ही रखी गई जमीन
और जोड़ दिया तुम्हें मुझसे
मैंने ही दिया
देता ही गया तुम्हें
मेरे मैं का
मेरा साथ होने का वास्ता
कि दिया गया सब कुछ
घर नहीं गोदाम है
सील गई गांठों का
तुम्हारा भी हक बनता है जिन पर
वह तो
स्वाहा-स्वाहा के साथ
सुनाया गया था न तुम्हें
फिर फैशन भी नहीं की तुमने-
पूछ ही लेती मुझसे
यह पिरोल
ये किनारी-तोड़
ये बहियां यह बंदोबस्त
कचरा क्यों है…..
पर तुम तो
मेरी मुट्ठी में कसी
बीटली से लगी गांठ जो रही
कैसे खुलती
फिर मैंने
खुलने ही कब दिया तुम्हें
कह दिया जो भी मैंने
तुलछी मान लिया तुमने
दे दिया मुझे
हजार हां का
अंगूठा ठाप कर पक्का दस्तावेज
बस बाहर ला-लाकर
गोदाम तोड़ा किनारी बहियां
लगा गया बटने
और-और चीजों से
वह तो बदहजम की
बीमार होकर
डचके थूकने लगी हो जब से
तब से ही
लगने लगा है
चीजें नहीं कपूर था
लाता रहा हूँ जो कुछ
हो गया है भक्क
दूर से ही देखकर आग
देखी है मैंने
जले पान सी हथेली थाली
कई-कई बार
चेहरे पर मांडण हो गया धुंआ
हाथ का ही नहीं
समझ का भी कारीगर हूँ न
अंदेखा किए रहा हूँ
तुम्हारे दूधदार टोपियों तले
चेंटी पड़ी कल्मष
खांसी के धक्के
खा-खाकर
बाहर आ पड़े लेवड़े
अब तो थमाता भी हूँ कभी
चिमटी भर कपूर
उधर ही किए रहता हूँ आंखें
कड़ियल जवान हो गया
तुम्हारा चुप
पूछ न ले
अलफी झंझोड़ कर मुझसे-
तुम तुम्हीं हो न वह मैं
नहीं होने दिया इसे
अपने जैसा ही मैं
रु-ब-रु जो हो जाता
थमा दिया करता
बोरसी हांडी माचिस
बंद कर लिया करता किवाड़
सच ऐसे सोच से ही भाग
जा धंसता हूँ
बन गए कागज के गोदाम में
और कारियां लगा किवाड़ थामे
सुनती हो एकालाप
देख कर तुम्हें
फिर न देने लगूं कोई और वास्ता
रखदी है सामने आज की डाक
अक्टूबर’ 79
तेरी आंख में हो
तेरी आंख में हो
आ गया है दोष
देखे तो है
पर कहे ही जा रहा है
मैं नहीं हूँ
अब समंदर
देखे तो हैं
मैंने भी रतौंधे
तू शायद दिनौंधा है
फिर प्रज्ञा-चक्षु
क्यों नहीं हुआ तू
यह मैं हूँ मैं जिसे
देखे था तूं
उफनता फेनाता
फिर भी चलती थीं मछलियां
पेट के बल
और मछुआरिन
जला कंदील
सीध देती थी
कि मछुआरा
कश्ती भरे
लौट आए घर
फर्क इतना सा ही है
मैं पहले घहघहाता था
और अब
हांय-हांयता हुंआता हूँ
बेड़े ही क्यों
लश्कर भी निगले हैं
पेट के बल
चलती मछलियों के अब
लग गए है पांव
खड़ी रहती है
अब भी मछुआरिन
जला कंदील
कि तन की नाव पर ही
लिए भारा
मछुआ लौट आए
अगस्त’ 80
अरे ओ
अरे ओ
तेरे बाहर का यह जंगल
भीतर ही
क्यों आ धंसता है
मुझ से पहले
तुझे ही जानना चाहिए
तू खुद उगाता है यह जंगल
या फिर कोई और
मैं तो इतना ही जानता हूँ
मैं ही मुचता हूँ
इसके भीतर आ धंसने से
मैंने नहीं सुना कभी तुझे
जंगल उगाते रहने की
जरूरत पर चीखते
सच मेरे दीदे भी नहीं फटे कभी
तेरे बाहर
जंगल उगाते रहने वालों से
देखा भी नहीं तुझे
कभी उनसे दो-दो हाथ करते
शायद इसीलिए जारी है
जंगल का होना
और हमेशा
भीतर धंसते जाना
मुझ पर आती
मुतवातिर मोचों के बावजूद
मारता रहा हूँ
अपने सवालों के पत्थर
तुझ पर तेरे धीरज पर
तेरे निराकार सोच पर भी
और तो और
जंगल उगाने वालों पर भी
तेरे चारों ओर
जंगल उगाये जाने की
जरूरत पर भी
जंगल उगाए जाने का
सबब जानना
तेरी जरूरत न हो भले
पर पहली जरूरत है
मेरा होना बने रहने की
इसलिए कि
मैं ही तो मुचता हूँ बार-बार
सूखे सपाट आंखों के कोटरों में
क्या देखूं
क्या समझूं
मेरे बोलते-बोलते
आ जाए शायद तुझे भी
उत्तर देने की झुरझुरी
और खोजने लगे
तू कोई सम्बोधन
ले, मैं ही दिये देता हूँ
‘ओ’ कह देना
‘तुम’ थाम लेना
उत्तर से पहले
‘ओ’ और ‘तुम’ का
फर्क तो हरूफ ही कर देंगे
जब भी मुचा हूँ न मैं
बोल ही गया हूँ अंट-शंट
मगर तू रहा है
फक़त घोंघा-बसंत
आज मैं फिर मुचा हूँ
वह भी बांये से
इसलिए अफराकर बिखरे हैं
मुंह से सवाल
तू नहीं मुचता है क्या कभी
किरकिराते नहीं है क्या
दांतों तले अक्षर
थूकने जैसे
होते ही नहीं क्या
सब निगल लेता है क्या
मुचा हुआ नहीं देखते मुझे
तब किस ओट में
रख लिया करते हो खुद को
लगता ही नहीं क्या तुझे
अपने भीतर
मेरा होना
कैसे…..कैसे हो सकता है
कोई भी इतना नितान्त?
जब कि मैं
हर बार छिल-मुच जाने पर
उठा लिया करता हूँ
तेरे ही भीतर धुंआते
अलाव से खीरा
फैंक देता हूँ तुझ पर
मुझे नहीं दिखता
तेरा झुलसना
पर हाँ
फफोलों भरी अपनी हथेलियां तो
रगड़ ही देता हूँ तुझ पर
और तू
तब भी बना रहता है
निरा घोंघा-वसंत!
सितम्बर’ 78
यादें नहीं
यादें नहीं कह कहते इन्हें
कि कभी कभार ही आएं
या फिर
यूं आती जाएं
कि असल रंग ही न देख पाएं
चीजों का
तू और मैं
मौसम जैसी भी
नहीं होती ये
कि उबटन करें
चुन्नट डालें टहलें
चश्मा भी तो नहीं हैं ये
कि आंखों पर चढ़ा कर
देखते रहें
इमारतें आदमी पाण्डाल
पर कहें कुछ भी नहीं
आईना भी तो देख लेते हैं न
तू और मैं
इतनी हम-आहंग
हम-बगल लगें
कि फुरकें ये
और बोल पड़ें तू और मैं टर्र-टर्र
पांवों में फट-फट
माथे पर ईढूणी सा पोतिया
कांधों पर झूलता झरोखा
बंधा घोतिया लंगोट
कहां नहीं होती ये
तुझ-मुझ पर
तिस पर भी
खोखल मुंह मां
किए ही जाती है फिच-फिच
क्या फबे है रे बेटा
और वह…..
फूटे चूल्हे पर
गोबर से कारी लगाती चनणा
लजा जाती है नवली सी-
कैसा कड़ियल लगे है मेरा रामू
अरे वाह रे
मूमल-चनणा वाले तू-मैं
जूंए काढने ही उतारा है
अपने पर से इन्हें
कभी तूने-मैंने
लगा है न
चूंथी से पकड़
चाम उपाड़ली है किसी ने
सोचना ही छूट गया है
इनसे अलग होना
अब भी समझलें तू-मैं
और कुछ भी नहीं हैं
फकत होना हैं ये
तेरा और मेरा
इनके कहे होता है सोना
जगना जगे ही रहना
उठा देती हैं
तुझे और मुझे
एक ही लोटा सूरज उंडेल कर
भागो रिक्षा हो जाओ
ढोओ ढोते जाओ
हो जाओ कतार
बटन तकुए कलम
धिसो घूमों पीसो पिसो
बजो पीटो पिटते जाओ
पीसा-उलीचा सारा छोड़
झूलते हाथ
पहुंच जाओ उसके सामने
फूं-फूं फूंके है न चूल्हा
निकलता ही नहीं कभी
गोगिया पासा का जादू
खाओ पियो
खारा-खारा धुआं
किया भी है क्या कभी
नौ का तेरह
डूबते ही तो हैं
नाक-आंख तक तू-मैं
जूड़ी ताप न चढ़ जाए
तुझे और मुझे
ओढ़ा देती हैं धाबल रात
घुसे-घुसे
भले कलपें झुरझुराएं
फिर बता
कैसे नहीं है ये
होना तेरा और मेरा
खुर्दबीन से देखती हैं
आंत और माथे में उठती मरोड़ें
तड़-तड़ फटककर साटके
ले जाती हैं तुझे-मुझे
बोट-क्लब, कांच के आगे
जिसके पीछे रखा होता है
जमीन-से-जमीन की खाई पर पुल
महल के कबाड़खाने से
निकलवाई गई सलून
जमींदोज बाजार
बनवाने का सारा हिसाब
बढ़ा तो लें
एक ही पांव तू या मैं
सदा सुहागिन फटाकदार किरच
ऊभी ही रहती है बीच में
हाथ हिला-हिलाकर
कर भी लेते हैं जतन
भीतर जा धंसने का
फट-फूट करही लौटते हैं
अपने बिलों तक
तब ये चुप बांध देती हैं धीरे से
तुझ-मुझ पर
कि सुन लिया करें अध्यादेश
संसद से बाहर आता
बहस का छाणस ही फाक लिया करें
क्या दिखाएं
मोतियाबिंद बिलबिलाती मां को
कि गिरने पर
थूक तो रखे रह
कोई नहीं है सामने
कोरा आसमान है
मस्तूल मकबरे हैं सीमेंट के
तसला छूट जाता है
हक-हकलाती मूमल से
कें-कें हांय-हांयकर
मच चढ़े ज़िद पर
झापड़ रसीद कर
साबित करदें बाप होना
तू और मैं
या फिर होते रहते अपने ही मलबे में
डालते जाएं कचरा
अपनी सुबहों-शामों का
टीन की छत के सपने
उमर जमीन जीने का हक
बता इनमें से
एक भी खूट पाया है क्या अब तक
हांकती ही हैं न ये
तुझे और मुझे
तब आ-आ
कहां-कहां से
ला सकते हैं रुई
ठूंस लेने कानों में
किस-किस अस्पताल से
बंधवाते रह सकते हैं पट्टी
यूं ही होते रहने
यह कि ऐसा ही
होना बनाए रखने
जुड़े ही रहते हैं घाणी से
न हो जाने का डर
खा जो गया है
घाणी से छूट जाने का
एक-एक सोच
ऐसा नहीं वैसा हो जाने का
सपना भी तो नहीं आता
तुझे और मुझे
उससे भी चिपकी रहेंगी ये
ठान लिया है जिसने
फिलहाल चुप रहकर
बालिग होते ही
ठठा लेना तुझ-मुझ पर
तब तक भर के लिए आ
कहते ही रहें
आदमी है तू आदमी हूँ मैं
मजाक थोड़े है जो
एक ही जनम में
हो जाए शहतीर
तेरी-मेरी शक्ल जैसी कोई ज़िद
मार्च’ 77
आंख मिचौनी
आंख मिचौनी
खेला करती
किस तलघर जा छिपी
रोशनी
गूंगे अंधियारे ने घेरा
शहरीले जंगल में
मुझको
नवम्बर’ 78
स्तूप मीनारों से बनी
स्तूप मीनारों से बनी
ऊंचाइयाँ
इतिहास की
भूतात्माएं होकर जिएं
बदलाव की हवा की
छुअन भर से ही
हो जाएं जो अस्थिपंजर
वे पूज्य कैसे हों
समय के
हम-रूप न हों जो
उन्हें कैसा नमन
रेत पर खोजें
उन्हीं के पांव पर पांव
क्यों चला जाए
मन बरफ़ का
संगमरमरी हो
देह जिनकी
किसी भी जुलाहे के बुने हों
पहनते हों
गेरूए रक्ताभ पीताम्बर
क्यों छुए कोई
इस तरह की छांह
क्यों समर्पित हों
कोई यहां-वहां
वह कोई हो
या फिर तुम
बोधने भर की ही संज्ञा
संयोजा करे
अणु-परमाणुओं से
एक अक्षर
रूप का आकार
आदमी से आदमी का शब्द
अर्थ होने का यतन
ऐसी एषणा तुम्हारी हो
तुम्हें मेरा नमन
ऐसी निर्मिति तुम्हारी
मेरा नमन
अनागत को आकारने की
ऊर्जा तुम्हारी हो
मेरा नमन
मई’ 79स्तूप मीनारों से बनी
ऊंचाइयाँ
इतिहास की
भूतात्माएं होकर जिएं
बदलाव की हवा की
छुअन भर से ही
हो जाएं जो अस्थिपंजर
वे पूज्य कैसे हों
समय के
हम-रूप न हों जो
उन्हें कैसा नमन
रेत पर खोजें
उन्हीं के पांव पर पांव
क्यों चला जाए
मन बरफ़ का
संगमरमरी हो
देह जिनकी
किसी भी जुलाहे के बुने हों
पहनते हों
गेरूए रक्ताभ पीताम्बर
क्यों छुए कोई
इस तरह की छांह
क्यों समर्पित हों
कोई यहां-वहां
वह कोई हो
या फिर तुम
बोधने भर की ही संज्ञा
संयोजा करे
अणु-परमाणुओं से
एक अक्षर
रूप का आकार
आदमी से आदमी का शब्द
अर्थ होने का यतन
ऐसी एषणा तुम्हारी हो
तुम्हें मेरा नमन
ऐसी निर्मिति तुम्हारी
मेरा नमन
अनागत को आकारने की
ऊर्जा तुम्हारी हो
मेरा नमन
मई’ 79
मैंने तो नहीं चाहा
मैंने तो नहीं चाहा
कोई भव्य नारायण
मैं नहीं हूँ
संशयों से संतप्त
नर कौन्तेय
मेरे होने
धड़कते रहने की
अपनी आयतें ऋचाएं है
जिनकी हिज्जे किए बिना
फैला दिया जाए
शून्य तक को भेदने
उठा दिया जाए रचाव
जिसकी नींव का
पत्थर न हो मेरी हथेली
सम्बोधन ही
कैसे दूं उसे
जो एषणा
जीवेशणा मेरी नहीं
उसे मैं सांस कैसे लूं
कैसे कहूं उसे
अद्दश्य का द्दष्टा
कैसे अगुआऊं
रखे गए अव्यक्त का
यही है व्यक्त
उड़ाया ही उड़ाया गया
आकाश ही बने रहने
आखिरश
हो ही गई मुझे
पहचान अपनी
सूरज के रु-ब-रु होकर
झुलसती पपड़ियाती
पसरी हुई
धरती हूँ मैं जिसे
मुट्ठियां भर-भर उछाल
रंगे जाते क्षित्तिज
उकेरली जाती दिशाएं
लो मैंने भी
हिमालय को
अर्पित कर दिया है शंख
झालर थमादी है
अतीत को मैंने
सोच के बयाबां से
कभी का
आ गया बाहर
उठे हैं पांव जिस ओर
वह सीध मेरी है
फटेगी यवनिका
वह दिशा सुनिश्चित है
प्रत्यंचा
तूणीर
कर्म का महात्म्य
जो भी बाँचें वे सुन
मेरे चेहरे को
जरूरत ही नहीं
कि रंग पोते
न मेरे भीतर है
मुचा हुआ कोई अहम कि
आकाश का विराट
औंचक देखता जाए
इन हाथों ने
यूं बरती है छैनी
तगारी कलम कि
आदमकद हुआ है समय
यही है
मेरा आज
यही मेरा अनागत
यह मुझसे
मैं इसीसे
गूंजता अतलान्त तक
इत्ता बड़ा अस्तित्व
बर्फ की फुनगियां
जो बिखेरें
वे सुनें देखें
अलगजर उठता
यह आज
अनागत को
अपने ही कद का आकार लेने
आंधियां पीता है
धूप खाता है
और बोलता है
मैं किसी मैदान में
हथियार त्यागे-हाथ बांधे
बृहनला हो गया
अर्जुन नहीं हूँ
और मेरे सामने
रचा गया है
जो भी भव्य नारायण
वह मेरा नहीं
कत्तई मेरा नहीं
जनवरी’ 77
तन पर सूजन
तन पर सूजन
मन पर घाव
खरोंचे लिए
आंगने आ लेटी
गोधूली
आ गई देखते वह भी
खामुशी
पड़ौसन थी जो
सेके गई
गरम-गरम फोहों से
ठरी-ठरी
आंखों के आगे
खिंच-खिंच खिंची
अतीत की रेखाओं पर
धुनी अंधेरा
रहा फिराता
एक रंग की बुरुश
जाने किसने
होले से उतार ली
काली कामल
खुभोदी
किरण सुबह की
अंगुली पकड़
उठा किया घर बाहर
दिखा-
गली हाथ मांजे थी
पांवों तने खड़ी थी सड़क
मुंह मांज रहा था
शोर सुबह का
अगस्त’ 80
कितनी-कितनी
कितनी-कितनी
और कैसी-कैसी
होती हैं जरूरतें
तेरी और मेरी
चेहरे पर
एक चुल्लू पूरब
छींट लेने की घड़ी से
तन जाने तक
आंखों में
थकान का मांजा
हो जाती हैं ये
यहां वहां वहां यहां
रख आती हैं ये
बांस ऊपर बांस
बांस के माथे तगारी
राजा जनक
उर्फ विदेह बनी रहती हैं
आंखें बिचारी
देखना पड़ता ही है उन्हें
देहों से
चूता हुआ झरना
सूंघनी पड़ जाती उनको
मितलियाती गंध
वो जो हैं
तेरी और मेरी
उनके सोने को
कहा भी कैसे जाए नींद
वे सोती हुई भी
बोलती हैं गोया
पूछती हों
पोथियां-निष्णात वर्दियों से
उनके ही
दीक्षान्त भाषण का खुलासा
फेंक देती हों
चिकनी मेज के उस पार
चेहरे पर
मस्टर रजिस्टर
क्या मजाल
जो दिठौने भर ही
लग जाए खरोंच
टोक देखे तो
इन्हें कोई
सूरज को धकेल
थाली थामती
किसी भी एक को
तमतमा जाएंगी
अलाव में पकने पर
खींचली जाती
सुर्ख छड़ियों की मार्निद ये
गर्मा दें
सारा आस-पास
वो…..वो जो गंगा
फूटती है
रसोई में
तकाजों के सारे दहाने
तोड़ देती है
खुद तो खुद
आंगना थाली तक
डूब तिर जाता है उसमें
वे जो हैं
तेरी और मेरी
बोल ही नहीं पाती कि
आंखों में
मांजा तना है कि
हाड़ों में ठनी है होड़
एक दूजे पर
आ बैठ जाने भी
इस तरह इनके
चुप हो जाने को
कह दिया जाए
भले ही नींद पर…..
ये जरूरतें
तेरी और मेरी
तोड़कर
किवाड़ मांजों-तनावों के
देख ही जाती हैं ये
बड़े-बड़े संसार
ले कई-कईयों को साथ
तय कर जाती हैं ये
अनसुनी
अनदेखी दूरियां
नींद में
खुशफ़हम होती
तेरी और मेरी जरूरतों को
कौन समझाए कि-
साथ लेने का कि-
दूरियों को
जोड़ लेने का कि
बांस ऊपर बांस
बांस के माथे
तगारी का कि-
चिकनी चाम ऊपर शिकन
मांड देने का कि
पीछे छोड़कर भगीरथ को
रसोई के
सारे दहाने तोड़कर
आगे निकलने का कि-
भंभड़ों की चीख से
भय खा
सूखी हुई पर गर्म
छातियों से
चिपक जाने का अर्थ
पोथी पढ़-पढ़
लार होना है तो
तुझको और मुझको
इन जरूरतों की मार पर
फकत बदनाम होना है
धुरी तो हैं ही ये
तेरी और मेरी
देखना तो यह कि
फिरकनी सी
फिराए ही रहें ये
तुझको और मुझको
या फिर
ये ही
फिरकनी सी फिरें फिरती रहें
दिसम्बर’ 77
हमेशा की तरह
हमेशा की तरह
आज भी
उतार फेंकी है
अपने सर पर से चटाई
चुराली है
सपनों में विसूरते चेहरे से
अपनी आंख
थमक कर पीछे न हो ले
चलने की
नन्ही सी आदत
बांध न ले मुझे
तोतले गले की भैरवी
लटकाकर
कमीज की जगह अपना प्यार
दबाए पांव
मैं आया हूँ बाहर
देहरी के बीच
खड़ी है मेरी हक़ीकत
जिसकी आंखों में फैली है
मेरी सराय
भरे-भरे हाथों लौटने की
मेरी प्रतीक्षा
रुई के फोहों सी
रोटियों की गांठ
थमादी है मेरे हाथ में
शुतुरमुर्ग हुआ
चल दिया हूँ मैं
कूड़े के ढेर में से ही
अदेही सर्वव्यापी
बनाकर रखे गए
सुर्ख सवेरे की तलाश में
न तो दहकता सूर्य
और न ही
सुर्खियां बिखेरती दिशा ही
आई है मेरे सामने
गुम्बदों ताजियों का
तैरता आकाश ही गुजरा है
मेरे ऊपर से
बीमार हवा और
ज़र्द धूप से
सूज गई आंखें
जब भी फिराई है चारों ओर
लोहे के जंगल में ही
पाया है खुद को
ओर झूझने लगा हूँ
दे दी गई आग से
जो मेरी नहीं होती
जो भी बनता है
पिघलता है मुझसे
निगल जाती है सुरसा
दमाग तक झुलस देती है
पेट में भभकी अंगीठी
फेंकता हूँ
भीतर की ओर
रोटियों के साथ पानी
आज भी नहीं बनी है
मेरी यात्रा की तस्वीर
पर जंगल के जमादारों के पास
होती है मशीन
काट-छांटकर
बना लेते हैं
बहुत कुछ मुझसे
दुहरती-तिहरती रहती हैं
कर्कशा आवाजें
रेंकता है सायरन
आजाद कर देते हैं मुझे
लोहे के दांत
जेबां-जोड़-जोड़ में
भर गया होता है नमक
देखता हूँ
खास अन्दाज को
तेवर बदलते
अंधेरा खिलाए जाने के खिलाफ
ऊंचे मचान पर
करते हुए नाटक
सोचता हूँ
आज तो गड़ा ही दूं
इस खास अन्दाज के
तेवर पर
अपनी आंख
जड़लूं कान के किवाड़े
सुनूं ही नहीं
मुट्ठियों में भींचकर
अपना तनाव
बोलता चला जाऊं
बर्फ सी उछलती
आवाजों के बीच
फोड़ दूं मैं अपने
धीरज का अलाव
कहूं-नहीं दिखेगी
कांच में से
जीवित तक़ाज़ों से
किलबिलाती मेरी सराय
बनेगी हीं नहीं
हंसने की हसरत में ही
बाहर से भीतर तक
तार-तार हो गई
मेरी हक़ीक़त की
कोई तस्वीर
ऐसे बोलता ही नहीं
कोई समय
ऐसा भी नहीं होता
उसका शरीर
व्यसनी हो गए हैं हाथ
सुइयां लें
डोरे बंटें पिरायें
सियें सिये जाएं
कतरनी लो कतरनी
चलाओ चलाते ही रहें
कटे उनका बुना
यह जाल
इस सिरे से
उस सिरे तक
नवम्बर’ 78
गलियों में
गलियों में
भटकते दुख
आ ही गए हैं सड़क पर
देखली है
एक लम्बी सीध
बीच से
लांघा है चौराहा कि
कहने न लग जाए
छूटे गुबार
डूबी हुई आवाज़ की कहानी
वे तो
आसमानों पर टिकाए आंख
नापने को हैं
इतना बड़ा विस्तार
सूंधें हैं हवाएं
लम्बे कर दिए हैं हाथ
कुहासे पोंछ देने
झरोखों के शहर
पहुंचना ही है उन्हें
दिसम्बर’ 81
पानी की साध
जुत-जुत जुतते
मौन मापते
नागा किये बिना
कोई दिन
सूरज बटोही बैल ऊंट आदमी
बोझ सहेजे कड़ियल कंधे
तभी तभी तो
पुलकती-पुराती है
पानी की साथ
परीढ़े के चेहरे
मार्च’ 82
गहरा ही सही
गहरा ही सही
अथाह रेत के गर्भ में
फूटता छलछलाता
मिल ही तो जाता है
पानी
अटूट पानी…..
मार्च’ 82
नहीं
नहीं
आंख की हद तक
कहीं भी तो नहीं सागर
फिर भी तू
उफनती
भागती है सांय-सांय…..सांय…..
कहां किसमें
जा समाएगी
ओ रेत की नदी
नदी
नदी
ओ रेत की नदी
थम, जरा सी थम
देख तो ले मुझे
हमशक्ल तो नहीं
हम आहैग हूं ही मैं,
एक दरिया में
समाना है मुझे भी
तेरी तरह मुझको भी होना है,
एक तनमन का विराट
फिर अकेले
कहाँ भागे जा रही हो रेत की नदी।
जून’ 82
रोज सुनता हूँ
रोज सुनता हूँ
कि सुबह
सुलग कर
दोपहर होती ही है
फिर…..फिर यह
मेरी आंख पर ही
क्यों आ-आ ठरे है-
सुबह की
भलक भर के बाद ही
ठण्डा अंधेरा
मार्च’ 82
तूने ही
तूने ही
रच दिया होता
मेरे लिए भी
एक तो
हिलकता नील दर्पण
देखता
पहचान जाता
यह हूँ मैं
फरवरी’ 82
हाथ ही तो हैंछानते हैं
सुबह से शाम
आखी रात
पर्वत दिशा
धरती समुन्दर
अतलान्त को भी
मेरी देह से जुड़े
ये क्या हैं फिर
तरेड़ा हो नहीं गया है
जिनसे
आंख भर का ही
अंधेरा…..
फरवरी’ 82
शब्द ही तो थे
शब्द ही तो थे
जिनसे जाना था
तूने मुझे मैंने तुझे
यह जानना
पहचान हो जाता
बंद कमरों से निकाल
तुझको और मुझको
रच गया होता सड़क
चलते-चलते
बुन ही लेता एक अलफी
तुझसे, फिर मुझसे ही
दुराहा घड़ लिए जाने से पहले
रु-ब-रु हो
आंखें फैंच कर ही उतार लेता चोला
तेरा और मेरा
फिर तो अलफी पहन
होना ही पड़ता तुझको और मुझको
हम…..केवल हम
जो देख लेते तुम
और मैं भी
कि जान लेने को
आकाश जैसी पहचान कर देने
जो आया तो दुभाशिये सा
तेरे और मेरे बीच
पर ठर पसर कर
हो गया वह सन्नाटा….सिर्फ सन्नाटा
सुनता गया है…..बोलते क्यों
बड़बड़ाते टसकते तक तुझे मुझे भी
निगला चाट तक गया है
बोला बोलना चाहा है
जो-जो भी
तूने मुझे मैंने तुझे
और-और अब तो कोरी निपट कोरी
आंख से ही देखता हूँ
मैं तुझे ऐसे ही तू मुझे
वह जो
पसवाड़े फिरती रही न लू
बलबलाती लू झपट्टामार
ले गई वह
मुझसे और तुझसे शब्द…..शब्द…..
जिनसे जाना था
मैंने तुझे तूने मुझे
मई’ 82
रोटी नाम सत है (कविता)
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
ऐरावत पर इंदर बैठे
बांट रहे टोपियां
झोलिया फैलाये लोग
भूग रहे सोटियां
वायदों की चूसणी से
छाले पड़े जीभ पर
रसोई में लाव-लाव भैरवी बजत है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बोले खाली पेट की
करोड़ क्रोड़ कूडियां
खाकी वरदी वाले भोपे
भरे हैं बंदूकियां
पाखंड के राज को
स्वाहा-स्वाहा होमदे
राज के बिधाता सुण तेरे ही निमत्त है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बाजरी के पिंड और
दाल की बैतरणी
थाली में परोसले
हथाली में परोसले
दाता जी के हाथ
मरोड़ कर परोसले
भूख के धरम राज यही तेरा ब्रत है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
सड़कवासी राम
सड़कवासी राम (कविता)
सड़कवासी राम!
न तेरा था कभी
न तेरा है कहीं
रास्तों दर रास्तों पर
पाँव के छापे लगाते ओ अहेरी
खोलकर
मन के किवाड़े सुन
सुन कि सपने की
किसी सम्भावना तक में नहीं
तेरा अयोध्या धाम।
सड़कवासी राम!
सोच के सिर मौर
ये दसियों दसानन
और लोहे की ये लंकाएँ
कहाँ है कैद तेरी कुम्भजा
खोजता थक
बोलता ही जा भले तू
कौन देखेगा
सुनेगा कौन तुझको
ये चितेरे
आलमारी में रखे दिन
और चिमनी से निकलती शाम।
सड़कवासी राम!
पोर घिस घिस
क्या गिने चैदह बरस तू
गिन सके तो
कल्प साँसों के गिने जा
गिन कि
कितने काटकर फेंके गए हैं
ऐषणाओं के पहरूए
ये जटायु ही जटायु
और कोई भी नहीं
संकल्प का सौमित्र
अपनी धड़कनों के साथ
देख वामन सी बड़ी यह जिन्दगी
कर ली गई है
इस शहर के जंगलों के नाम।
सड़कवासी राम!
आदमी की आंखों में
आंखों में घृणा – होठ पर चेंटी लहू की भूख,
हाथ में हथियार लेकर
आदमी में से निकलता है जब
आदमी जैसा ही
मगर आदिम
तभी हो जाता है
उसका ना कातिल – जात कातिल
और उसका धर्म – सिर्फ हत्या।
वह पहले
अपने आदमी को मार कर ही
मारता है दूसरे को
आदिम के हाथों
आदमी की हत्या का दाग
आदिम को नहीं
आदमी की दुनिया को लगा
फिर लगा
फिर-फिर लगा है।
सोच के विज्ञान से
धनी हुए लोगो
लहू के गर्म छीटों से
इस बार भी
चेहरा जला हो
गोलियों ने तरेड़ी हो
मनिषा पर पड़ी
बर्फ की चट्टान तो आओ
अपने ही भीतर पड़े
आद्फिम का बीज ही मारें
पुतलियों में आ बैठती
घृणा की पूतना को छलनी करें
आंखों को बनाएं झील
और देखें…. देखते रहें
आदमी की आंखों में
आदमी ही चेहरा!
कैसे दे देते
जीना बहुत जरूरी समझा
इसीलिए सारे सुख
गिरवी रख
लम्बी उम्र कर्ज में ले ली
लेकिन
जितने सपने साथ निभने आये
हमसे भी ज्यादा मुफलिस निकले वे
जैसा भी था
सड़काऊ था दर्द मलंग
हमारा था
लेकिन यादें तो बाजारू निकली
खुद तो नाची
टेढ़ाकर-कर हमें नचाया
गली-गली बदनाम कर दिया
कई-कई आए
अपने होकर
सिर्फ सूद में ही ले लेने
आखर खिला-पिलाकर
पाले-पोषे गए इरादे
ये अपने थे
या थे शाइलाक?
उजियारा पी
पगे इरादों को ही पाने
उथल दिया सारी धरती को
काट दिए पर्वती कलेजे
रोकी सब आवारा नदियां
बांध दिया सागर कोनों में
इतना जीने बाद मिले वे
सिर्फ सूद में ही कैसे दे देते?
कर्ज उमर का
फक़त इसलिए लिया था
कागज पर लिखवाए गए
सभी समझौते तोड़ें
सूद चुकाने का कानुन जलाएं
अपने हाथों
लिखे इबारत
जिसे हमारे बाद
जनमने वाली पीढ़ी
अपने समय मुताबिक बांचे।
आज की आंख का सिलसिला
और ईसा नहीं
और ईसा नहीं
आदमी बन जिएं
सवालों की
फिर हम उठाएं सलीबें
बहते लहू का धर्म भूल कर
ठोकने दें शरीरों में कीलें
कल हुई मौत को
दुहरा दिए जाने से पहले
तेवर बदलते हुए आज को देख लें
बहुरूपियों की नक़ाबें उलटने
हक़िक़त को फुटपाथ पर
खोलने की सजा है ज़हर हम पिएं
सुकरात को
साक्षी बना देने से पहले
तेवर बदलते हुए आज को देख लें
साधु नहीं आदमी बन जिएं
रची फिर न जाएं अधूरी ऋचाएं
बांचे न जाएं गलत फ़लसफ़े
जिन्दगी का नया तर्जुमा
कर लिए जाने से पहले
इतिहास का
आज की आंख से
सिलसिला जोड़ दें।
गलियों-घाटियों
गलियों-घाटियों
भटके दुखों का एक लम्बा काफ़िला
लेकर चले हैं
सामने वाली दिशा की और
ठहरने का नहीं है मन कहीं भी
धीरज भी नहीं है
मुड़ कर देख लें
न कोई गुबार
करना ही नहीं है
डूबती आहट का पीछा
चौराहा थामे खड़े ओ अकेले
देख तो सही
आंखें जा टिकी
नीलाभ पतों पर
हवा में घुल गई है स्संस
सूघे छोर सारे
हाथ लम्बे हो
पोंछने लग गये हैं कुहासा
झरोखों के बाहर
दूर-दूर पसरे नगर तक
भीड़ के समुन्दर में
भीड़ के समुन्दर में
बचाव के उपकरण पहने
न रहूं
गोताखोर सी एकल इकाई
उतरता चला जाऊं
अत्लान्त में समाने
टकरा जाऊं तो लगे
भीतर दर्प की चट्टान दरकी है
इतेने बड़े आकार में
इतनी ही हो पहचान मेरी।
मांस की हथेलियों से
मांस की हथेलियों से पीटे ही क्यों
जड़ाऊ कीलों के किवाड़
खुभें ही
रिस आया लहू झुरझुराया मैं
कितनी दुखाती है जगाती हुई यह नींद
पोंछा है खीज कर
फटी कमीज से इतिहास
अक्षरों की छैनियों से तोड़ने
लगा हूं
मेरे और मेरी तलाश के बीच
पसरा हुआ जो एक ठंढ़ा शून्य
सयुजा सखाया
उतर कहाँ से आये हैं ये
उतर कहां से आये हैं ये
वह घर मुझे बता!
ऊपरवाले आसमान में
कभी न थमती
पिण्ड और ब्रह्माण्ड क्रिया को
समझ अधूरी
बता, इसे फिर समझूं कैसे?
किसी ओर से देखूँ
दीखे चका चौंध ही
है केवल अचरज ही अचरज,
फिर जानूं, पहचानूं कैसे ?
रचना के अनगिन रूपों में
इस क्षण तक तो
किसी एक को
अथ ही न आया
आखर की सीमा में,
ओ मेधापत!
तू इनका पहला प्रस्थान बता!
उतर कहां से आये हैं ये
वह घर मुझे बता!
मैं इनको इतना ही जानूं
ये सारे ही
लोकपाल हैं
इनके अपने-अपने लोक,
रमें गगन में
रमें जगत के
अचराचर में,
सुन रे रमणिये !
ऎसा रमना
आकर मुझे बता!
उतर कहां से आये हैं ये
वह घर मुझे बता!
सोचूं भी जो
मूलरूप
ये सारे ही एक
फिर इनका यह मूल रूप ही
कैसे-कैसे
होता रहे अनेक?
बुन-बुन खुलती
खुल-खुल बुनती
इन सबकी संरचनाओं का
कबिरा, सबब बता।
उतर कहां से आये हैं ये
वह घर मुझे बता!
वामन जैसा
एक प्रश्न यह
दीर्घतमस मैं नहीं अकेला
पूछे सब ज्ञानी-विज्ञानी,
अगर एक यह नही जाना तो
जा, जानते, मैं अज्ञानी,
क्या है इस कोसा के पीछे
सूत्रधार जी ।
परदा उठा दिखा!
वह सच मुझे बता!
उतर कहां से आये हैं ये
वह घर मुझे बता!
आड़ी तानें-सीधी तानें
ऐसे तट हैं – क्यों इन्करें
ऐसे तट हैं —
क्यों इन्कारें
किरणें खीज
खुरच जाती हैं
माटी पर दो – चार दरारें
ऐसे तट हैं —
क्यों इन्कारें
भरी – भरी – सी
सांस – झील पर
तन-मन प्यासे पंख पसारें
ऐसे तट हैं —
क्यों इन्कारें
परदेशी
बुद बुदे देखने
कंकर फैंकें, थकन उतारें
ऐसे तट हैं —
क्यों इन्कारें
एक-एक क्षण जिया गया है
एक-एक क्षण जिया गया है
अभी-अभी
डूबे सूरज की
दिनभर की
कुनमुनी झील को
सांस-सांस भर पिया गया है
एक-एक क्षण जिया गया है
अभी चुभे
अंधियारे विष से
सीत्कारती
आवाज़ों को
रात-रात भर सिया गया है
एक-एक क्षण जिया गया है
खोल मौन के
बंद किवाड़े
मन के इतने बड़े नगर में
कोलाहल भर लिया गया है
एक-एक क्षण जिया गया है
चाहे जिसे पुकार ले तू … अगर अकेली है!
चाहे जिसे पुकार ले तू
अगर अकेली है!
संध्या खड़ी मुंडेर पर
पछुवाए स्वर टेर कर
अँधियारे को घेर कर
ये सब लगे अगर परदेशी
आँगन दीप उतार ले तू
अगर अकेली है!
चाहे जिसे पुकार ले तू
अगर अकेली है!
देख सितारे और गगन,
दुखती-दुखती बहे पवन
घड़ियाँ सरके बँधे चरण
ये भी लगे अगर परदेशी
कल का सपन सँवार ले तू
अगर अकेली है!
चाहे जिसे पुकार ले तू
अगर अकेली है!
टहनी-टहनी बाँसुरी
आई ऊषा नागरी,
खिली कमल की पाँखुरी
गीत सभी पूरब परिवेशी
अपने समझ पुकार ले तू
अगर अकेली है!
चाहे जिसे पुकार ले तू
अगर अकेली है!
सात सुरों में बोल… मेरे मन की पीर !
सात सुरों में बोल
मेरे मन की पीर !
हर पतझर के देश में,
जा बासंती वेश में
सिणगारी सी डोल,
मेरे मन की पीर !
सात सुरों में बोल
मेरे मन की पीर !
जा शोलों के राज में,
बदरी के अंदाज में,
रिमझिम घूंघट खोल,
मेरे मन की पीर !
सात सुरों में बोल
मेरे मन की पीर !
अपनी-अपनी राह पर
मन भाती हर चाह पर
विरह-मिलन मत तोल
मेरे मन की पीर !
सात सुरों में बोल
मेरे मन की पीर !
साँसों की सीमाओं पर
मुस्कानों पर, आहों पर
जीवन का रस घोल,
मेरे मन की पीर !
सात सुरों में बोल
मेरे मन की पीर !
रही अछूती
रही अछूती
सभी मटकियाँ
मन के कुशल कुम्हार की
रही अछूती….
साधों की रसमस माटी
फेरी साँसों के चाक पर,
क्वांरा रूप उभार दिया
सतरंगी सपने आँककर
हाट सजाई
आहट सुनने
कंगनिया झन्कार की
रही अछूती
सभी मटकियाँ
मन के कुशल कुम्हार की
रही अछूती….
अलसाई ऊषा छूदे
मुस्का मूंगाये छोर से,
मेहँदी के संकेत लिखे
संध्या पाँखुरिया पोर से
चौराहे रख दी
बंधने को
बाँहों में पनिहार की
रही अछूती
सभी मटकियाँ
मन के कुशल कुम्हार की
रही अछूती….
हठी चितेरा प्यासा ही
बैठा है धुन के गाँव में,
भरी उमर की बाजी पर
विश्वास लगे हैं दाँव में
हार इसी आँगन
पंचोली
साधे राग मल्हार की
रही अछूती
सभी मटकियाँ
मन के कुशल कुम्हार की
रही अछूती…
सभी सुख दूर से गुजरें
सभी दुख दूर से गुजरें गुजरते ही चले जाएँ
मगर पीड़ा उमर भर साथ चलने को उतारू है
सभी दुख दूर से गुजरें…
हमारा घर धूप में छाँव की क्या बात जानें हम
अभी तक तो अकेले ही चले क्या साथ जानें हम
बता दें क्या घुटन की घाटियाँ कैसी लगीं हमको
रूदा नंगा रहा आकाश क्या बरसात जानें हम
बहारें दूर से गुजरें गुजरती ही चली जाएं
मगर पतझड़ उमर भर साथ चलने को उतारू है
सभी दुख दूर से गुजरें…
अटारी को घटा से किस तरह आवाज दे दें हम
मेंहदिया पाँव को क्यों दूर का अन्दाज दे दें हम
चले श्मशान की देहरी नहीं है साथ की संज्ञा
बरफ के एक बुत को आस्था की आँच क्यों दें हम
हमें अपने सभी बिसरें बिसरते ही चले जाएं
मगर सुधियां उमर भर साथ चलने को उतारू हैं
सभी दुख दूर से गुजरें…
सुखों की आँख से तो बाँचना आता नहीं हमको
सुखों की साख से आंकना आता नहीं हमको
चलें चलते रहें उमर भर हम पीर की राहें
सुखों की लाज से तो ढाँपना आता नहीं हमको
निहारें दूर से गुजरें, गुजरते ही चले जाएं
मगर अनबन उमर भर साथ चलने को उतारू है
सभी दुख दूर से गुजरें…
सुधियाँ साथ निभाएँगी
सुधियाँ साथ निभाएँगी
थकी अगर
रुकी जाएँगी,
दूरी भर-भर आएँगी,
मुझको छोड़ न पाएँगी
तुम न भले ही साथ चलो
सुधियाँ साथ निभाएँगी
थकी अगर…
पीड़ा ओढ़े
धूप हमारे साथ में
और दुःखों के हाथ
हमारे हाथ में
आकर्षण दिखलाएँगी
मृगतृष्णा बन जाएँगी
और सरकती जाएँगी
तुम न भले ही साथ चलो
सुधियाँ साथ निभाएँगी
थकी अगर…
मेरा उस
सुर्खी के पार पड़ाव है
राहों में अनजान
चढ़ाव-ढलाव है
आहट कर-कर जाएँगी
प्रतिध्वनियों- सी आएँगी
मुझको सीध बताएँगी
तुम न भले ही साथ चलो
सुधियाँ साथ निभाएँगी
थकी अगर…
पाप-पुण्य की
परिभाषा से दूर हैं
बंदी सुख की
अभिलाषा से दूर हँ
सावन- सी बदराएँगी
रिमझिम कर बतियाएँगी
फ़ूलों-सी महकाएँगी
तुम न भले साथ चलो
सुधियाँ साथ निभाएँगी
थकी अगर
रुक जाएँगी
दूरी भर-भर आएँगी
मुझको छोड़ न पाएँगी
तुम न भले ही साथ चलो
सुधियाँ साथ निभाएँगी
साँसों की अँगुली थामे जो
साँसों की अँगुली थामे जो
आए क्वांरी साध तो
गीतों से माँग संवार दूँ
मैं रागों से सिंगार दूँ
संकेतों की मनुहार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो….
गीतों के आखर को सुर्खी
दी है तीखी धूप ने
रागों के स्वर को आकुलता
दी लहरों के रूप ने
तट सा मौनी सपना कोई
चाहे मेरा साथ तो
पीड़ा-सा उसे उभार दूँ
सौ आँसू उस पर वार दूँ
आशाओं के उपहार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो….
मेरे गीतों को ढलुआनें
दी झुकते आकाश ने
रागों को बढ़ना सिखलाया
वनपाखी की प्यास ने
शूलों से बतियाते कोई
आए मुझ तक पाँव तो
मैं बाँहों को विस्तार दूँ
मैं दो का भेद बिसार दूँ
परछाई सा आकार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो….
मेरे गीतों को गदराया
सावन की सौगात ने
रागों को गूँजें दे दी हैं
मेघों की बारात ने
रिमझिम बरखा जैसी कोई
बरसे मुझ पर याद तो
मैं मन की जलन उतार दूँ
मैं धुँधले पंथ निखार दूँ
मैं सारा सफर गुजार दूँ
सांसों की अँगुली थामे जो….
मेरे गीतों में सागर की
अनदेखी गहराई है
मेरी रागों के सरगम में
मौजों की तरुणाई है
सूनेपन से सिहरी-सिहरी
बहके कोई नाव तो
मैं मलयाई पतवार दूँ
मैं हर क्षण फेनिल प्यार दूँ
मैं कोई तीर उतार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो
आए क्वांरी साध तो
गीतों से माँग संवार दूँ
मैं रागों से सिंगार दूँ
संकेतों की मनुहार दूँ
साँसों की अँगुली थामे जो
फेरों बाँधी हुई सुधियों को
फेरों बँधी हुई सुधियों को
कैसे कितना
और बिसारें
आती ही जाती
लहरों-सी
दूरी से सलवटें संजोती
तट की फटी दरारों में ये
फेनाया-सा
तन-मन खोती
अनचाहा यह मौन निमन्त्रण
कौन बहानों से इन्कारें
फेरों बँधी हुई सुधियों को
कैसे-कितना
और बिसारें
रतनारे नयनों को मूँदे
पसर-पसर
जाती रातों में
सिहर-सिहर
टेरें भरती हैं
खोजी सपनों की बातों में
साँसों पर कामरिया का रंग
किन हाथों से पोंछ उतारें
फेरों बँधी हुई सुधियों को
कैसे, कितना
और बिसारें
परदेशी जैसी
अधसोई
अलसा-अलसा कर अकुलाती
सूरज देख
लाजवंती-सी
उठ जाती
परभाती गाती
धूप चदरिया मिली ओढ़ने
फिर क्यों तन से इसे उतारें
फेरों बंधी हुई सुधियों को
कैसे-कितना
और बिसारें
तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है
तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है
क्या हुआ जो
रागिनी को पीर भागई
क्या हुआ जो
चाँदनी को नींद आगई
स्याह घाटियों में कोई बात खो गई
क्या हुआ जो
पाँखुरी पे रात रो गई
कि हर घड़ी उदास है
फिर भी एक आस है
कि लाल-लाल भोर की
कि पंछियों के शोर की
तेरे-मेरे जागरण की रीत एक है
तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है
क्या हुआ कली जो
अनमनी-सी जी रही
क्या हुआ जो धूप
सब पराग पी रही
अभी खिली अभी झुकी-झुकी-सी ढल रही
क्या हुआ हवा
रुकी-रुकी सी चल रही
कि हर कदम पे आग है
फिर भी एक राग है
कि साँझ के ढले-ढले
कि एक नीड़ के तले
तेरी-मेरी मंजिलों की सीध एक है
तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है
आ, कि तू, मैं
दूरियों को साथ ले चलें
आ, कि तू, मैं
बंधनों को बांधकर चलें
क्या हुआ जो पंथ पर धुएँ का आवरण
किन्तु कुछ भी हो
कहीं रुके-थके नहीं लगन
कि हर किसी ढलान पर
कि हर किसी चढ़ान पर
कि एक साँस एक डोर से
कि एक साथ एक छोर से
तेरी-मेरी जिन्दगी की प्रीत एक है
तेरी-मेरी जिन्दगी का गीत एक है
पीर कुछ ऐसी
पीर कुछ ऐसी
बरसी सारी रात…..
भोर कुछ और सुहानी होकर निकली
बहुत घुली
घुल-घुल गहराई
बदरी विरहा साँस की
उलझ-उलझ
पथ भूली गंगा
सपनों के आकाश की
रही तड़पती
बिजुरी-सी आधी बात
ऊषा कुछ और कहानी होकर निकली
पीर कुछ ऐसी
बरसी सारी रात
भोर कुछ और…..
बहुत झुरी
झुर-झुर कर रोई
मन की आस अभाव में
अनजाने
अनगिन तट देखे
आँसू के तेज बहाव में,
सूनेपन में
कुछ अपना लगा प्रभात
धूप कुछ और सलोनी होकर निकली
पीर कुछ ऐसी
बरसी सारी रात
भोर कुछ और…..
रात चली
रोती-रोती
इस धरती का सिंगार कर
सातों स्वर
ले आई किरणें
कली-कली के द्वार पर
सहमी-सहमी
कुछ जगी हृदय की साध
साँस कुछ और सयानी होकर निकली
पीर कुद ऐसी
बरसी सारी रात
भोर कुछ और सुहानी होकर निकली
मैंने नहीं कल ने बुलाया है !
मैंने नहीं कल ने बुलाया है !
ख़ामोशियों की छतें,
आबनूसी किवाड़े घरों पर,
आदमी-आदमी में दीवार है,
तुम्हें छैनियाँ लेकर बुलाया है !
मैंने नहीं कल ने बुलाया है !
सीटियों से
साँस भर कर भागते
बाजार-मीलों दफ़्तरों को
रात के मुर्दे,
देखती ठण्डी पुतलियाँ-
आदमी अजनबी
आदमी के लिए
तुम्हें मन खोल कर मिलने बुलाया है !
मैंने नहीं कल ने बुलाया है !
बल्ब की रोषनी
शेड में बंद है,
सिर्फ़ परछाई उतरती है
बड़े फुटपाथ पर,
ज़िन्दगी की ज़िल्द के
ऐसे सफ़े तो पढ़ लिए
तुम्हें अगला सफ़ा पढ़ने बुलाया है !
मैंने नहीं कल ने बुलाया है !
शहर सो गया है!
शहर सो गया है!
औज़ार से खेलते
एक संसार के सोच को
आर से पार तक बींधता
एक तीखा सा
बजता हुआ सायरन
बस, गया है अभी
और बोले बिना
साख भर छापकर
धूप को सांटता
आकाशिया भी सरका अभी
यूं घिसटता चले
जैसे तन बोझ भर रह गया है !
शहर सो गया है!
रची आँख ने दोपहर
साँझ माँडी
खिड़कियों, गली
और माटी लिपे आँगन
फ़क़त एक जबड़े से निकला
धुआँ धो गया है !
शहर सो गया है!
बैठा हुआ था बाजार में जो
अभी शोर का संतरी
उगे मौन के जंगलों में
सहमा हुआ खो गया है!
शहर सो गया है!
बुत रोशनी के
सड़क के किनारे
लटका दिये सूलियों पर
अँधेरी अँगुलियों में
स्वर रूँध गया है!
शहर सो गया है!
आग-पानी के नद पार पर
घास का एक बिस्तर
बिछाया है उसने
तमोलो-चमोलों चढ़ी
काँच से झाँकती
रोशनी को अँगूठा दिखा कर
ओढ़ कर थकन की
फटी-सी रजाई
छाती में घुटने
धँसा, सो गया है !
शहर सो गया है !
क्षण-क्षण की छैनी से
क्षण-क्षण की छैनी से
काटो तो जानूँ!
पसर गया है घेर शहर को
भरमों का संगमूसा
तीखे-तीखे शब्द सम्हाले
जड़ें सुराखो तो जानूँ !
क्षण-क्षण की छैनी से…..
फेंक गया है बरफ छतों से
कोई मूरख मौसम
पहले अपने ही आँगन से
आग उठाओ तो जानूँ!
क्षण-क्षण की छैनी से…..
चौराहे पर प्रश्न चिह्नसी
खड़ी भीड़ को
अर्थ भरी आवाज लगाकर
दिशा दिखाओ तो जानूँ !
क्षण-क्षण की छैनी से
काटो तो जानूँ !
थाली भर धूप लिए
थाली भर धूप लिए
बैठी अहीरन!
सिरहाने लोरी सुन
सोये पल जाग गए,
अँजुरी भर दूध पिया
बिन बोले भाग गए
उड़ी-उड़ी फूलों की गंध
बाँधन में मगन!
थाली भर धूप लिए…..
छाँहों की छोड़ गली
सड़कों-चौराहों को,
खेतों में हिलक रही
बालों की बाँहों को
गूँज-गूँज डोरी से
बाँधने की लगन!
थाली भर धूप लिए…..
साथ देख रीझे है
साँझ-सी सहेली,
चाहों से भर दी है
रात की हथेली
आंज लिए आँखों में
उजले सगुन !
थाली भर धूप लिए
बैठी अहीरन !
उतरी जो चाह अभी
उतरी जो चाह अभी
पूरबी दुमहले से…..
सोने के पाँव रखे
चौक-छत-मुंडेरों पर
पोरों से दस्तक दी
बंद पड़ी ड्योढ़ी पर
निंदियायी पलकों पर
कुनमुनती गलियों
सड़कों-फुटपाथों पर
उठ बैठे जितने सवाल
सब बटोर ले गई मुहल्ले से!
उतरी जो चाह अभी
पूरबी दुमहले से…..
धरती पर आ उतरे
टीन के आकाश नीचे,
साँस-साँस पिघलाई
आग की कढ़ाही में
लोहे के साँचों पर
आँख टिका, आँख झपक
हिल-हिलते हाथों से
पानी में ठार-ठार
संकेतों-संकेतों-
आखर ही आखर
ढल रहे धड़ल्ले से!
उतरी जो चाह अभी
पूरबी दुमहले से…..
हीरों से हरियाये खेतों में
हुम-हुम कर हिलके हैं
हाथ-हाथ हाँसिये
हो-हो की आवाजें
टिच-टिचती टिचकोरी
हेर रही बैलों को
ऐसा यह दूर दरसन
देख-देख, रीझ-रीझ
ठहरी है दोपहरी मेड़ों पर
वे भी तो थम-थमते
धूप से धो हाथ-मुँह
एक पंगत हो जुड़े हैं
घर से ढाणी
घर-ढाणी के थल्ले से!
उतरी जो चाह अभी
पूरबी दुमहले से…..
खाली हुई पेट की
कुई के आगे आ गया है
प्याज-छाछ-सोगरा
मुट्ठी में मसोस कर
मसक लिया है थाली में,
एक बखत पांण दे
उठ लिए हैं कमधजी
बे उधर कि ये इधर
घास-घास, फूस-फूस
फटक हैं पल्ले से
उतरी जो चाह अभी
पूरबी दुमहले से!
कोलाहल के आँगन
कोलाहल के आँगन
सन्नाटा रख गई हवा
दिन ढलते-ढलते…..
कोलाहल के आँगन!
दो छते कंगूरे पर
दूध का कटोरा था
धुँधवाती चिमनी में
उलटा गई हवा
दिन ढलते-ढलते…..
कोलाहल के आँगन!
घर लौटे लोहे से बतियाते
प्रश्नों के कारीगर
आतुरती ड्योढ़ी पर
सांकल जड़ गई हवा
दिन ढलते-ढलते…..
कोलाहल के आँगन!
कुंदनिया दुनिया से
झीलती हक़ीक़त की
बड़ी-बड़ी आँखों को
अँसुवा गई हवा
दिन ढलते-ढलते…..
कोलाहल के आँगन!
हरफ़ सब रसोई में
भीड़ किए ताप रहे,
क्षण के क्षण चूल्हे में
अगिया गई हवा
दिन ढलते-ढलते
कोलाहल के आँगन
सन्नाटा रख गई हवा
दिन ढलते-ढलते…..
कोलाहल के आँगन!
आए जब चौराहे
आए जब चौराहे
आग़ाज़ कहाए हैं
लम्हात चले जितने
परवाज़ कहाए हैं
हद तोड़ अँधेरे जब
आँखों तक धँस आए,
जीने के इरादों ने
जंगल सुलगाए हैं
आए जब चौराहे…..
जिनको दी अगुवाई
चढ़ गए कलेजे पर,
लोगों ने गरेबां से
वे लोग उठाए हैं
आए जब चौराहे…..
बंदूक ने बंद किया
जब-जब भी जुबानों को
जज्बात ने हरफ़ों के
सरबाज उठाए हैं
आए जब चौराहे…..
गुम्बद की खिड़की से
आदमी नहीं दिखता,
पाताल उलीचे हैं
ये शहर बनाए हैं
आए जब चौराहे…..
जब राज चला केवल
कुछ खास घरानों का,
काग़ज़ के इशारे पर
दरबार ढहाए हैं
आए जब चौराहे…..
मेहनत खा, सपने खा
चिमनियाँ धुआँ थूकें
तन पर बीमारी के
पैबंद लगाए हैं
आए जब चौराहे…..
दानिशमंदो बोलो
ये दौर अभी कितना
अपने ही धीरज से
हर साँस अघाए हैं
आए जब चौराहे…..
न हरीश करे लेकिन
अब ये तो करेंगे ही
झुलसे हुए लोगों ने
अंदाज़ दिखाए हैं,P.
आए जब चौराहे, आग़ाज़ कहाए हैं
लम्हात चले जितने, परवाज़ कहाए हैं
प्यास सीमाहीन सागर
प्यास सीमाहीन सागर
अंजुरी भरले कोई!
लहरें टकरती पीर की
मौनी किनारों से,
झुलसी हुई ये लौटती
तपते उतारों से
शेष सुधियाँ फेन जैसी
आँगने रखले कोई!
प्यास सीमाहीन सागर…..
दूरियों से दूरियों तक
सिर्फ़ टीसें गूँजती,
और बहकी-सी सिहरनें
द्वार-ड्योढ़ी घूमती
सपन तारों से अनींदे
आँख में भरले कोई!
प्यास सीमाहीन सागर…..
आस जागेगी अलस कर
रात जो करवट भरे,
साँस पीलेगी स्वरों को
भोर जो आहट करे
साध पूरब की किरणसी
बाँह में भरले कोई!
प्यास सीमाहीन सागर
अंजुरी भरले कोई!
उम्र सारी
उम्र सारी इस बयाबां में गुजारी यारो!
सर्द गुमसुम ही रहा
हर साँस पे तारी यारो !
कोई दुनिया न बने
रंगे-लहू के खयाल,
गोया रेत ही पर
तस्वीर उतारी यारो!
उम्र सारी…..
देखा ही किए झील
वो समंदर, वो पहाड़,
अपनी हर आँख
सियाही ने बुहारी यारो !
उम्र सारी…..
जहाँ सड़क, गली
आँगन जैसे बाज़ार चले,
न चले, अपनी न चले
यहां असआरी यारो!
उम्र सारी…..
रहबरों तक गई
वो तलाश रहे साथ, सफ़र
उसकी आबरू
हर बार उतारी यारो !
उम्र सारी…..
हाँ, निढ़ाल तो हैं
पर कोई चलना तो कहे,
मन के पाँवों की
बाकी अभी बारी यारो !
उम्र सारी…..
उठके डूबे है कहीं
अपनी आवाज़ यहाँ
किसी आग़ाज़ से ही
सिलसिला जारी यारो !
उम्र सारी…..
अब जो बदलो तो कहीं
हो, गुनहग़ार हरीश
वही रंगत, वे ही दौर,
वही यारी यारो !
उम्र सारी इस बयाबां में गुजारी यारो !
सर्द गुम-सुम ही रहा
हर साँस पै तारी यारो !
टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे !
टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे !
साँसों का इतना सा माने
स्वरों-स्वरों
मौसम-दर-मौसम
हरफ़-हरफ़ गुंजन-दर-गुंजन
हवा हदें ही बाँध गई है
सन्नाटा न स्वरा पाएंगे !
टूटी ग़ज़ल न गा पाएंगे !
आँखों का इतना-सा माने
खुले-खुले
चौखट-दर-चौखट
सुर्ख-सुर्ख बस्ती-दर-बस्ती
आसमान उल्टा उतरा है
अँधियारा न आँज पाएँगे !
टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे !
चलने का इतना-सा माने
बाँह-बाँह
घाटी-दर-घाटी
पाँव-पाँव दूरी-दर-दूरी
काट गए काफ़िले रास्ता
यह ठहराव न जी पाएँगे !
टूटी ग़ज़ल न गा पाएँगे !
कल से क्या
कल से क्या
आज से गवाही ले, मितवा !
घाटी में आँगन है
आँगन में बाँहें
बाँहती दहरिया की
कल से क्या
आज से गवाही ले, मितवा !
आँखों में झीले हैं
झीलों में रंग
रंगवती हलचल की
कल से क्या
आज से गवाही ले, मितवा !
माटी में सांसें हैं
सांसों के होठ
बोलती पखावज की
कल से क्या
आज से गवाही ले, मितवा !
दूरी पर चौराहे
चौराहे खुभते हैं
चरवाहे पाँवों की
कल से क्या
आज से गवाही ले, मितवा
रात एक पाटी है
पहर-पहर लिखता है
उज़लती हक़ीक़त बड़ी
कल से क्या
आज से गवाही ले, मितवा !
घाटी में आँगन है,
आँगन में बांहें
बाँहती दहरिया की
कल से क्या
आज से गवाही ले, मितवा !
ओ दिशा ! ओ दिशा !
ओ दिशा ! ओ दिशा !
कब से खड़े
रास्ते घेर घर
संशयों के अँधेरे
सहमी हुई साँझ ड्योढ़ी खड़ी
ठहरे हुए ये चरण
सिलसिले हो उठें
संकल्प की हथेली पर
दृष्टि का सूर्य रखले
ओ, दिशा ! ओ, दिशा !
मौन के साँप
कुण्डली लगाए हुए
हर एक चेहरा
हर दूसरे से अलग जी रहा
साँस बजती नहीं,
आँख से आँख मिलती नहीं
सारे शहर में
कहीं कुछ धड़कता नहीं,
चोंच भर-भर बुनें,
षोर का आसमां
स्वरों के पखेरू उड़ा
ओ, दिशा ! ओ, दिशा !
आ, सवाल चुगें, धूपाएं…..आ !
आ, सवाल चुगें, धूपाएं…..आ !
दीवारों पर आ बैठी
यादों की सीलन
नीचे से ऊपर तक
रंग खरोंचे
कुतर न जाए
माटी का मरमरी कलेजा
आ, सवाल चुगें, धूपाएं…..आ !
आँख लगाए है
पिछवाड़े पर सन्नाटा
जोड़-जोड़ पर नेज़े खोभे
सेंधन लग जाए
हरफ़ों के घर में
आ, फ़सीलों से गूंजें…..पहराएं !
आ, सवाल चुगें, धूपाएं…..आ !
पसर गया है
बीच सड़क भूखा चौराहा
उझक-उझक मुँह खोले
भरम निपोरे
निगल न जाए
यह तलाश की कामधेनु को
आ, वामन होलें, चल जाएं…..आ !
आ, सवाल चुगें, अगियाएं…..आ !
ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए…..
ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए…..
कुनमुनते तांबे की सुइयाँ
खुभ-खुभ आंख उघाड़े
रात ठरी मटकी उलटाकर
ठठरी देह पखारे
बिना नाप के सिये तक़ाज़े
सारा घर पहनाए
ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए…..
साँसों की पंखी झलवाए
रूठी हुई अंगीठी,
मनवा पिघल झरे आटे में
पतली करदे पीठी
सिसकी-सीटी भरे टिफिन में
बैरागी सी जाए
ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए…..
पहिये, पाँव उठाए सड़कें
होड़ लगाती भागें
ठण्डे दो मालों चढ़ जाने
रखे नसैनी आगे,
दो-राहों-चौराहों मिलना
टकरा कर अलगाए
ड्योढ़ी रोज़ शहर फिर आए…..
सूरज रख जाए पिंजरे में
जीवट के कारीगर,
रचा, घड़ा सब बाँध धूप में
ले जाए बाजीगर,
तन के ठेले पर राशन की
थकन उठा कर लाए
ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए…..
सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े
सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े
बजती हुई सुई !
सीलन और धुएँ के खेतों
दिन भर रुई चुनें
सूजी हुई आँख के सपने
रातों सूत बुनें
आँगन के उठने से पहले
रचदे एक कमीज रसोई,
एक तलाश पहन कर भागे
किरणें छुई-मुई…..
सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े
बजती हुई सुई !
धरती भर कर
चढ़े तगारी
बाँस-बाँस आकाश,
फरनस को अगियाया रखती
साँसें दे-दे घास
सूरज की साखी में बंटते
अंगुली जितने आज और कल,
बोले कोई उम्र अगर तो
तीबे नई सुई
बजती हुई सुई
सुबह उधेड़े, शाम उधेड़े
बजती हुई सुई !
शहरीले जंगल में सांसों
शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएँ…..साँसें !
कफ़न ओस का
फाड़ बीच से
दरके हुए क्षितिज उड़ जाएँ
छलकी सोनलिया कठरी से
आँखों के घड़िये भर लाएँ
चेहरों पर ठर गई रात की
राख पोंछती जाएँ, सांसें…..
शहरीले जंगल में सांसें…..
पथरीले बरगद के साये
घास-बाँस के आकाशों पर,
घात लगाये
छुपा अहेरी
लीलटांस से विश्वासों पर
पगडण्डी पर पहिये कसकर
सड़कों बिछती जाएँ, सांसें…..
शहरीले जंगल में सांसें…..
सर पर बाँध
धुएँ की टोपी
फरनस में कोयले हँसाएँ
टीन-काँच से तपी धूप में
भीगी-भीगी देह छाँवाएँ
पानी, आगुन, आगुन, पानी
तन-तन बहती जाएँ सांसें…..
शहरीले जंगल में सांसें…..
लोहे के बावळिये काँटे
जितने बिखरें
रोज़ बुहारें,
मन में बहुरूपी बीहड़ के
एक-एक कर अक्स उतारें
खिड़की बैठे कम्प्यूटर पर
तलपट लिखती जाएँ सांसें…..
शहरीले जंगल में सांसें…..
हाथ झूलती
हुई रसोई
बाजारों के फेरे देती
भावों की बिणजारिन तकड़ी
जेबें ले पुड़ियाँ दे देती
सुबह-शाम खाली बांबी में
जीवट भरती जाएँ, सांसें
शहरीले जंगल में सांसें
हलचल रचती जाएँ सांसें…..
कोई एक हवा ही शायद
कोई एक हवा ही शायद
इस चौराहे रोक गई है
फिर-फिर फिरे गई हैं आंखें
रेत बिछी सी
पलकों से बूंदें अंवेर कर
रखी रची सी,
हिलक-हिलक कर रहीं खोजतीं
तट पर जैसे एक समंदर
बरसों से प्यासी थी शायद
धूप चाटती सोख गई हैं
कोई एक हवा ही शायद
इस चौराहे रोक गई है
हुए पखावज रहे बुलाते
गूंगे जंगल
बज-बजती साँस हुई है
राग बिलावल
भूल गया झलमलता सपना
झूले जैसे एक रोशनी
बरसों से बोझिल थी शायद
रात अँधेरा झोंक गई है
कोई एक हवा ही शायद
इस चौराहे रोक गई है!
थप-थप पाँवों ने थापी है
सड़क दूब सी
रंगती गई पुरुरवा दूर को
दिशा उर्वशी
माप गई आकाश एषणा
जैसे एक सफेद कबूतर
होड़ बाज़ ही होकर शायद
डैने खोल दबोच गई है !
कोई एक हवा ही शायद
इस चौराहे रोक गई है !
चले कहाँ से
चले कहाँ से
गए कहाँ तक
याद नहीं है…..
आ बैठा छत ले सारंगी
बज-बजता मन-सुगना बोला
उतरी दिशा
लिए आँगन में
सिया हुआ किरणों का चोला
पहन लिया था
या पहनाया
याद नहीं है…..
चले कहाँ से…..
झुल-झुल सीढ़ी ने हाथों से
पाँवों नीचे सड़क बिछाई,
दूध झरी
बाछों ने खिल-खिल
थामी बाँह, करी अगुआई
रेत रची कब
हुई बिवाई
याद नहीं है…..
चले कहाँ से…..
रासें खींच रोशनी संवटी,
पीठ दिये रथ, भागे घोड़े
उग आए
आँखों के आगे
मटियल, स्याह, धुँओं के धोरे,
सूरज लाया
या खुद पहुँचे
याद नहीं है…..
चले कहाँ से…..
रिस-रिस, झर-झर
ठर-ठर गुम-सुम
झील हो गया है घाटी में
हलचलती बस्ती में केवल
एक अकेलापन पांती में
दिया गया या
लिया शोर से
याद नहीं है…..
चले कहाँ से, गए कहाँ तक
याद नहीं है !
पीट रहा मन बन्द किवाड़े !
पीट रहा मन बन्द किवाड़े !
देखी ही होगी आँखों ने
यहीं-यहीं ड्योढ़ी खुल-खुलती
प्रश्नातुर ठहरी आहट से
बतियायी होगी सुगबुगती
बिछा, बिछाये होंगे आखर
फिर क्यों झरझर झरे स्वरों ने
सन्नाटों के भरम उघाड़े ?
पीट रहा मन बन्द किवाड़े !
समझ लिया होगा पाँखों ने
आसमान ही इस आँगन को
बरस दिया होगा आँखों ने
बरसों कड़वाये सावन को,
छींट लिया होगा दुखता कुछ
फिर क्या हाथों से झिटका कर
रंग हुआ दाग़ीना झाड़े ?
पीट रहा मन बन्द किवाड़े !
प्यास जनम की बोली होगी
आँचल है तो फिर दुधवाये
ठुनकी बैठ गई होगी ज़िद
अँगुली है तो थमा चलाये
चौक तलाश उतरली होगी,
फिर क्यों अपनी-सी संज्ञा ने
सर्वनाम हो जड़े किवाड़े ?
पीट रहा मन बंद किवाड़े !
बता फिर क्या किया जाए
बता फिर क्या किया जाए
सड़क फुटपाथ हो जाए
गली की बांह मिल जाए
सफ़र को क्या कहा जाए
बता फिर क्या किया जाए
नज़र दूरी बचा जाए
लिखावट को मिटा जाए
क्या इरादे को कहा जाए
बता फिर क्या किया जाए
स्वरों से छन्द अलगाएँ
गले में मौन भर जाएँ
ग़ज़ल को क्या कहा जाए
बता फिर क्या किया जाए
उजाला स्याह हो जाए
समंदर बर्फ हो जाए
कहां क्या-क्या बदल जाए
बता फिर क्या किया जाए
आदमी चेहरे पहन आए
लहू का रंग उतर जाए
किसे क्या-क्या कहा जाए
बता फिर क्या किया जाए
सड़क
सड़क बीच चलने वालों से
क्या पूछूँ…..क्या पूछूँ ?
किस तरह उठा करती है
सुबह चिमनियों से
ड्योढ़ी-ड्योढ़ी
किस तरह दस्तकें देते हैं
सायरन…..सीटियां…..क्या पूछूँ ?
सड़क बीच चलनेवालों से
क्या पूछूँ…..क्या पूछूँ ?
कब कोलतार को
आँच लगी ?
किस-किसने जी
किस-किस तरह सियाही ?
पाँवों की तस्वीर बनी
कितनी दूरी के
बड़े कैनवास पर…..क्या पूछूँ ?
सड़क बीच चलने वालों से
क्या पूछूँ…..क्या पूछूँ ?
कैसे गुजरे हैं दिन
टीनशेड की दुनिया के ?
किस तरह भागती भीड़
हाँफती फाटक से ?
किस तरह जला चूल्हा ?
क्या खाया-पिया ?
किस तरह उतारी रात
घास-फूस की छत पर…..क्या पूछूँ ?
सड़क बीच चलने वालों से
क्या पूछूँ…..क्या पूछूँ ?
पूछूँ उनसे
चलते-चलते जो
ठहर गए दोराहों पर
पूछूँ उनसे
किस लिए चले वे
बीच छोड़, फुटपाथों पर
उस-उस दूरी के
आस-पास ही
अगुवाने को
खड़े हुए थे गलियारे
उनकी वामनिया मनुहारों पर
किस तरह
कतारें टूट गई…..क्या पूछूँ
सड़क बीच चलने वालों से
क्या पूछूँ…..क्या पूछूँ ?
देखे मुझे हँसे सन्नाटा !
देखे मुझे हँसे सन्नाटा !
निरे अकेले बैठे-बैठे
बहुत दूर की
कई-कई आवाज़ें लगें मुझे
अपने तक आतीं,
अगुवाने को उठूँ कि देखूँ
सड़क ले गई उन्हें
झोंक कर मुझ पर सिर्फ गुबार
हँसे सन्नाटा !
देखे मुझे हँसे सन्नाटा !
रोज ऊँघते गूँग लगे है फिर भी
मुझसे केवल मुझसे ही बतियाने
कोलाहल आँगन में आ बिखरा है,
हँसती आँखें फेर बुहारूँ,
चुग-चुग जोडूँ आखर-आखर
बने न कोई दो हरफों का बोल
हँसे सन्नाटा !
देखे मुझे हँसे सन्नाटा !
कई-कई बार
लगे सपने में
मेरे ही सिरहाने बैठा
लोरी झलझलता कोई सम्बोधन
दुलरा-दुलरा मुझे जगाए
इस चूनर, आँचल से हुमकूँ
फैंकू नींद उघाड़
दिखे सन्नाटा !
देखे मुझे हँसे सन्नाटा !
इसे मत छेड़ पसर जाएगी
इसे मत छेड़ पसर जाएगी
रेत है रेत बिफर जाएगी
कुछ नहीं प्यास का समंदर है,
जिन्दगी पाँव-पाँव जाएगी
धूप उफने है इस कलेजे पर
हाथ मत डाल ये जलाएगी
इसने निगले हैं कई लस्कर
ये कई और निगल जाएगी
न छलावे दिखा तू पानी के
जमीं-आकाश तोड़ लाएगी,
उठी गाँवों से ये ख़म खाकर
एक आँधी सी शहर जाएगी
आँख की किरकिरी नहीं है ये
झाँकलो झील नजर आएगी
सुबह बीजी है लड़के मौसम से
सींच कर साँस दिन उगाएगी
काँच अब क्या हरीश मांजे है
रोशनी रेत में नहाएगी
इसे मत छेड़ पसर जाएगी
रेत है रेत बिफर जाएगी
रेत में नहाया है मन !
रेत में नहाया है मन !
आग ऊपर से, आँच नीचे से
वो धुँआए कभी, झलमलाती जगे
वो पिघलती रहे, बुदबुदाती बहे
इन तटों पर कभी धार के बीच में
डूब-डूब तिर आया है मन
रेत में नहाया है मन !
घास सपनों सी, बेल अपनों सी
साँस के सूत में सात सुर गूँथ कर
भैरवी में कभी, साध केदारा
गूंगी घाटी में, सूने धारों पर
एक आसन बिछाया है मन
रेत में नहाया है मन !
आँधियाँ काँख में, आसमाँ आँख में
धूप की पगरखी, ताँबई, अंगरखी
होठ आखर रचे, शोर जैसे मचे
देख हिरनी लजी साथ चलने सजी
इस दूर तक निभाया है मन
रेत में नहाया है मन !
बिणजारे आकाश ! करले
बिणजारे आकाश ! करले,
जितनी भी कर सके कमाई !
सोने के अवसर के ऊपर
मिला तुझे अनमोल महूरत
बिना तले की बांबी वाला
साथ हुआ है प्यासा मौसम
पहन होकड़े लूट लुटेरे
यह मेरा अनखूट ख़ज़ाना
पड़ा दिगम्बर सात समंदों
कितनी ही तन्वंगी नदियाँ
शिखरों-घाटी फाँद उतरते
कल-कल करते झरनों का जल
चूके मत चौहान कि घर में
घड़े-मटकियाँ जितनी भी हैं
अपनी सत-हथिया किरणों को
तप-तप तपते थमा तामड़े
कहदे साँसों-साँस उलीचें
बह-बह बहती यह नीलाभा
भरे-भरे सारे ही बर्तन
रखता जा अपने तलघर में
जड़दे लोहे के किवाड़ पर
बिन चाबी के सातों ताले
दसियों, बीसों बरसों तक के
करले जो कर सके जतन तू
,
छींप न पाए तेरी मेड़ी
धरती जादों की परछाई
बिणजारे आकाश करले,
जितनी भी कर सके कमाई !
चम-चमती आँखें उघाड़कर
देख, देखता, गोखे भी जा
मेरे एक कलेजे के ही
इस कोने पर अड़ा-अड़ा-सा
हर क्षण उठे पछाटें खाए
यह है अड़ियल अरबी सागर
धोके है जिसको गंगाजी
वह आमार बांगला खाड़ी
चढ़-उतराती साँसों ऊपर
लोहे के मस्तूल फरफरें
बंसी-जालों वाला मानुष
मर, जन्में पीढ़ी-दर-पीढ़ी
निरे लाड से इसे पुकारूँ
पूरब का वासी हिंदोदध
तू भी देख न पाया आँगन
वह मेरा ही शान्त, प्रशान्त
सोया-सोया लगे तुझे जो
वह त्राटक साधक कश्यपजी
हो जाए है तन कुंदनिया
वह कुंकुमिया लाल समंद
अनहद नाद किए ही जाए
कामरूप में ब्रह्मपुत्र जी
पंचोली पंजाबन बैठी
आंजे आँखों में नीलाई
बिणजारे आकाश ! करले,
जितनी भी कर सके कमाई !
काले-पीले चेहरों वाले
वर्तुल चौकीदार बिठाले
कह, कानों में धूपटिये से
और भरे ईंधन अलाव में
कह, उसकी लपती लाटों से
मेरी बळत अजानी उससे
भक-भक झोंसे जाए लम्पट
मेरे हरियाये खेतों को
साझा कर उंचास पवन से
भल माटी को रेत बनादे
सातों जीभों को सौ करले
पी-पी, चाट खुरचता जाए
सुन, मेरे ओ अथ के साथी !
मेरी इति ना देख सकेगा
उससे पूछ, याद आ जाए
एक समंदर लहराता था
कैसे छोड़ गया मुझको वह
मैंने कभी न पूछा उससे
अब खारा, मीठा, बर्फीला
जितना भी है, जैसा भी है
कभी तुम्हारा दिया हुआ ही
अब यह केवल मेरा ही है
इससे अपनी कूख संजोई
प्राणों से पोशा है इसको
इसका दूजा रूप रचा जो
ले, मेरी आँखों में देख !
झील, झीलता झीले है ना ?
ले, तू, इसमें खुद को देख !
मानवती आँखों का पानी
या फिर पानी वाली माटी
अगर एक भी सूखे तुझसे
मैंने अपनी जात गंवाई !
बिणजारे आकाश ! करले,
जितनी भी कर सके कमाई ?
आँखों भर की हदवाले आकाश !
आँखों भर की हदवाले आकाश !
एक-एक संवत्सर ही क्यों
कई-कई अनुवत्सर तक भी
रख पानी का
पत तू अपने पास !
आँखों भर की हदवाले आकाश !
चल-अचलों को रच-रच रचती
सदा गर्भिणी धाय धरा को
नहीं रही है
केवल तेरी आस
आँखों भर की हदवाले आकाश !
देख रे ओ नागे ओगतिये !
सूखे आँचल सात समंदर,
पहले तू ही
पांणले अपनी प्यास,
आँखों भर की हदवाले आकाश !
कभी-कभी रिमझिम बरसे जो
वह मेरी माटी माँ का ऋण
मत लौटा तू
रखले अपने पास
आँखों भर की हदवाले आकाश !
आँख खोलने से पहले ही
मुझे पिलाई गई एषणा
वही बुने है
कई-कई आकाश
आँखों भर की हदवाले आकाश !
इसके गहन क्रोड़ में अमरत
जीवट भरे कुम्भ जीवन का
अन्तस-बाहर
दोनों हरियल टांस
आँखों भर की हदवाले आकाश !
सड़कवासी राम !
न तेरा था कभी
न तेरा है कहीं
रास्तों-दर-रास्तों पर
पाँव के छापे लगाते ओ, अहेरी !
खोल कर मन के किवाड़े सुन,
सुन कि सपने की
सपने की किसी
सम्भावना तक में नहीं
तेरा अयोध्या धाम…..
सड़कवासी राम !
सोच के सिर मौर
ये दसियों दसानन
और लोहे की ये लंकाएँ
कहाँ है क़ैद तेरी भूमिजा
खोजता थक देखता ही जा भले तू
कौन देखेगा,
सुनेगा कौन तुझको ?
थूक फिर तू क्यों बिलोये राम…..
सड़कवासी राम !
इस सदी के ये स्वयम्भू
एक रंग-कूंची छुआकर
आल्मारी में रखें दिन
और चिमनी से निकाले शाम…..
सड़कवासी राम !
पोर घिस-घिस क्या गिने
चौदह बरस तू
गिन सके तो
कल्प साँसों के गिने जा
गिन कि कितने
काट कर फैंके गए हैं
एषणाओं के जटायु ही जटायु
और कोई भी नहीं
संकल्प का सौमित्र
अपनी धड़कनों के साथ
देख, वामन सी
बड़ी यह जिन्दगी !
करदी गई है इस शहर के
जंगलों के नाम…..
सड़कवासी राम !
सड़कवासी राम !
न तेरा था कभी
न तेरा है कहीं
रास्तों-दर-रास्तों पर
पाँव के छापे लगाते ओ, अहेरी !
खोल कर मन के किवाड़े सुन,
सुन कि सपने की
सपने की किसी
सम्भावना तक में नहीं
तेरा अयोध्या धाम…..
सड़कवासी राम !
सोच के सिर मौर
ये दसियों दसानन
और लोहे की ये लंकाएँ
कहाँ है क़ैद तेरी भूमिजा
खोजता थक देखता ही जा भले तू
कौन देखेगा,
सुनेगा कौन तुझको ?
थूक फिर तू क्यों बिलोये राम…..
सड़कवासी राम !
इस सदी के ये स्वयम्भू
एक रंग-कूंची छुआकर
आल्मारी में रखें दिन
और चिमनी से निकाले शाम…..
सड़कवासी राम !
पोर घिस-घिस क्या गिने
चौदह बरस तू
गिन सके तो
कल्प साँसों के गिने जा
गिन कि कितने
काट कर फैंके गए हैं
एषणाओं के जटायु ही जटायु
और कोई भी नहीं
संकल्प का सौमित्र
अपनी धड़कनों के साथ
देख, वामन सी
बड़ी यह जिन्दगी !
करदी गई है इस शहर के
जंगलों के नाम…..
सड़कवासी राम !
केवल घर, घरवाला खोजें…
केवल घर, घरवाला खोजें…..
चलने का पहला दिन,
और आज का यह दिन,
और नहीं कुछ
केवल घर, घरवाला खोजें…..
इसी गरज की मार कि जमादार को
पहली चौकी दर्ज़ कराई
नाम, वल्दियत, उम्र कि जंगल-
है तो शहरीला ही,
खुली हुई ड्योढ़ी में आंगन,
आँगन के पसवाड़े चूल्हा,
चकले-चुड़ले की संगत पर
कांसी की थाली पर बजती
परभाती-संझवाती पर तो रीझेंगे ही, पर-
चलने का पहला दिन…..
सिले होठ सी
लगी नाम की
एक-एक तख्ती के पीछे
केवल जड़े किवाड़े देखें-
चलने का पहला दिन…..
दीवारों ही दीवारों के बीहड़ में भी
रस्ते धोती धूप कहीं तो दिख जाएगी,
सूरज के आगे चंदोवे ताने
चौक-गली में रचते ही होंगे कारीगर, पर-
चलने का पहला दिन…..
धोये है आकाश चिमनियाँ
खड़ा आदमी पंच करे है-
अपना होना,
लोहे के दड़बों में
केवल अँधी होड़ सरीखी
भाग रही सड़कों को देखें-
चलने का पहला दिन…..
गुमसुम के पर्वत के नीचे दब-चिंथ जीती
बतियाने की केवल
एक बळत सुन लेने
इतने अपनों बीच परायी
एक अकेली
दुख-दुख कर सूजी आँखों में
सारथ हो चलने की
एक कौंध पा लेने-
चलने का पहला दिन…..
दिनों-दुखों की
जोड़ भूल कर,
दूरी को आँजे आँखों में
एक बड़ी दुनिया हो गए शहर में
और नहीं कुछ
अपनापा केवल अपनापा खोजें-
चलने का पहला दिन,
और आज का यह दिन
और नहीं कुछ
केवल घर, घरवाला खोजें…..
जो पहले अपना घर फूंके,
जो पहले अपना घर फूंके,
फिर धर-मजलां चलना चाहे
उसको जनपथ की मनुहारें !
जनपथ ऐसा ऊबड़-खाबड़
बँधे न फुटपाथों की हद में
छाया भी लेवे तो केवल
इस नागी, नीली छतरी की
इसकी सीध न कटे कभी भी
दोराहे-चौराह तिराहे
दूरी तो बस इतनी भर ही
उतर मिले आकाश धरा से
साखी सूरज टिमटिम रातें
घट-बढ़-घटते चंदरमाजी
पग-पग पर बांवळिये-बूझे
फिर भी तन से, मन से चाले
उन पाँवों सूखी माटी पर
रच जाती गीली पगडण्डी
देखनहारे उसे निहारें
जो पहले अपना घर फूंके,
फिर धर-मजलां चलना चाहे
उसको जनपथ की मनुहारें !
इस चौगान चलावो रतना
मंडती गई राम की गाथा
एक गवाले के कंठो से
इस पथ ही गूँजी थी गीता
जरा, मरण के दुःख देखे तो
साँस-साँस से करुणा बाँटी
हिंसा की सुरसा के आगे
खड़ा हो गया एक दिगम्बर
पाथर पूजे हरी मिले तो
पर्वत पूजूँ कहदे कोई
धर्मग्रन्थ फैंको समन्दर में
पहले मनु में मनु को देखो
जे केऊ डाक सुनेना तेरी
कवि गुरु बोले चलो एकला
यूँ चल देने वाले ही तो
पड़ती छाई झाड़-झूड़ते
एक रंग की राह उघाड़ें
जो पहले अपना घर फूंके
फिर धर-मजलां चलना चाहे
उसको जनपथ की मनुहारें !
हद, बेहद दोनों लांघे जो !
हद, बेहद दोनों लांघे जो !
एकल मैं बज-बजता रहता
थापे कोई फटी पखावज
इसका इतना आगल-पीछल
रीझे माया, सीझे काया
देखा चाहे सूरदास जो
इस हद में भी दिख-दिख जाएं-
मीड़, मुरकियों की पतवाले
निरे मलंगे अद्भुत विस्मय !
ऐसों से बताये वो ही
गांठे सांकल बांवळियों की
इस हदमाते कोरे मैं को
कीकर के खूँटे बाँधे जो !
हद, बेहद दोनों लांघे जो !
आगे बेहद का सन्नाटा,
खुद से बोल सुनो खुद को ही
यहाँ न सूरज पलकें झपके
रात न पल भर आँखें मूँदे
धाड़े तन सी हवा फिरे है
जहाँ भरी जाए हैं साँसें,
ऐसे में ही गया एक दिन
यम की ड्योढ़ी पर नचिकेता
एक बळत के पेटे लेली
सात तलों की एकल चाबी
यह चाबी लेले फिर कोई
ऐसा ही कुद हठ साधे जो !
हद-बेहद दोनों लांघे जो !
बेहद की कोसा के उठते
दीखन लागे वह उजियारा
जिसका आदि न जाने कोई
इति आगोतर से भी आगे
यह रचना का पहला आँगन
उसका दूजा नाम संसरण
प्राण यही, विज्ञान यही है
रचे इसी में अनगिन सूरज
इस अनहद में नाद गूँजते
नभ-जल-थल चारी सृष्टि के
हो जाए है वही ममेतर
हद-बेहद दोनों रागे जो !
हद, बेहद दोनों लाँघे जो !
हदें नहीं होती जनपथ की
हदें नहीं होती जनपथ की
वह तो बस लाँघे ही जाए…..
एकल सीध चले चौगानों
चाहे जहाँ ठिकाना रचले
अपनी मरजी के औघड़ को
रोका चाहे कोई दम्भी
चिरता जाए दो फाँकों में
ज्यों जहाज़, दरिया का पानी
इससे कट कर बने गली ही
कहदे कोई भले राजपथ
इससे दस पग भर ही आगे
दिख जाए है ऊभी पाई ।
आर-पारती दिखे कभी तो
वह भी तो कोरा पिछवाड़ा
इन दो छोरों बीच बनी है
दीवारों की भूल भूलैया
इनसे जुड़-जुड़कर जड़ जाएँ
भीम पिरालें, हाथी पोलें
ये गढ़-कोटे ही कहलाए
अब ‘तिमूरती’ या ‘दस नम्बर’
इनमें सूरज घुसे पूछ कर,
पहरेदार हवा के ऊपर,
खास मुनादी फिरे घूमती
कोसों दूर रहे कोलाहल
ऐसे अजब घरों में जी-जी
आखिर मरें बिलों में जाकर
जो इतना-सा रहा राजपथ
उसकी रही यही भर गाथा
आँखों वाले सूरदास जी
कुछ तो सीखें इस बीती से
पोल नहीं तो खिड़क खोल कर
अरू-भरू होलें जो पल भर
दिख जाए वह अमर चलारू
चाले अपना जनपथ साधे !
हदें नहीं होती जनपथ की
वह तो बस लाँघे ही लाँघे !
जनपथ जाने तुम वो ही हो
सोच वही, आदत भी वो ही
यह तो अपने अथ जैसा ही
तुम ही चोला बदला करते
लोकराज का जाप-जापते
करो राजपथ पर बटमारी
इसका नाभिकुंड गहरा है
सुनो न समझो, गूँजे ही है
लोकराज कत्तई नहीं वह
देह धँसे कुर्सी में जाकर
राज नहीं है काग़ज़ ऊपर
एक हाथ से चिड़ी बिठाना
राज नहीं आपात काल भी
किसी हरी का नहीं की रतन
विज्ञानी जन सुन लेता है
यन्त्रों तक की कानाफूसी
‘रा’ रचता है कौन कहाँ पर
क्यों छपता है ‘राम’ ईंट पर
सजवाते रहते आँगन में
पाँचे बरस चुनावी मेला
झप-दिपते, झप-दिपते में यह
खुद को देखे, तुझको देखे
भरी जेब से देखे जाते
झोलीवाला पोंछा, पुरजा
कल तक जो केवल चीजें थी
आदमकद हो गई आज वे
चार दशक की पड़ी सामने
संसद में सपनों की कतरन
अब तो ये केवल दरजी हो
अपनी कैंची, सूई, धागा
लो अब तुम ही देखे जाओ
कैसे काट, उधेड़ें, साधे ?
हदें नहीं होती जनपथ की
वह तो बस लाँघे ही लाँधे !
ऐसी एक छाँह देखी है..
ऐसी एक छाँह देखी है…..
खुली-खुली सी, धुली-धुली सी,
शीतल-शीतल, बोल-अबोली,
घेर, घुमेरों गहरी-गहरी
देख, देखता लगा नापने
मेरा अचरज इसकी सींवें,
वह क्या जाने, वह तो केवल
नीली रूपवती सैरंध्री
अपनी ओछी डोर समेटे
भीतर दुबका उधम मचाये
दबचिंथ दबचिंथ छूटूँ ही तो—
छूट-छूटते उघड़ें आँखें,
सावचेत हो देखन लागूँ-
लगी हुई है ठीक भुवन के
बीचोबीच सुपर्णी टिकुली
उससे यूँ छँवयाये मुझमें
छन-छन जाय एक रोशनी
एक गुनगुना जगरा लहरे
इससे भीतर हलबल-हलबल
बाहर का मैं आकळ-बाकळ
ताप तताये आ-आ निकलें
आखर-आखर के ही छौन
करते जाएं वे रागोली
टमका-टमका करें निहारे
ठिठका-ठिठका पाँव उठाऊँ
दिखें मुझे ऐसे कमतरिये
इक दूजे की परछाई से
इनमें ही अपने होने की
वैसी एक चाह देखी है
ऐसी एक छाँह देखी है !
ऐसी एक ठौर देखी है !
ऐसी एक ठौर देखी है !
सड़क नहीं पगडण्डी कोई
नहीं कहीं से बँटी-बँटी सी
पाँव-पाँव को चलन बताए
दूरी से अनुराग सिखाए
चले तो खुद ही पथ बन जाए
लगे बिछी दाके की मलमल
देखन लागो, थके न आँखें
हेमरंग डूँगर ही डूँगर
लगो पूछने अपने से ही
यह रचना किसने देखी है !
ऐसी एक ठौर देखी है !
यहाँ सुबह से पहले उठती
रमझोळों वाली यह ड्योढ़ी
धूपाली गायों के संग-संग
रंभाती दूधाली गायें
यह अपने पर घर रूपाये
खुद सिणगारी ऐसे संवरे
जैसे लडा-लडा बेटी को
मायड़ केश संवारे गूँथे
भर-भर भरती जाय कुलांचें
यहीं एक हिरनी देखी है !
ऐसी एक ठौर देखी है !
थप-लिपती इसकी सौरम को
हवा उड़ाये ऐसे फिरती
जैसे हाथ छुड़ा कर भागे
हँसती हुई खिलंदड़ छोरी
आँक नहीं है, बाँक नहीं है
इसके मन में फाँक नहीं है
सुनो तो लागे सबको ऐसी
बेहदवाली बोल रही है
बाथों में भूगोल सरीखी
जैसे विषुवत ही रेखी है !
ऐसी एक ठौर देखी है !
ऐसी एक चलन देखी है !
ऐसी एक चलन देखी है !
अपना होना
बिसरी-बिसरी
इस-इसको, उस-उसको निरखे
इसकी खातिर
उसकी खातिर
अपना होना बीजे जाए
सींचे हेत
पसीना सींचे
कभी न सोये पहरेदारिन
एक हाथ
सबसे ऊपर हो
सूरज के नीचे छतरी सी
हवा बिफरती
आए जब भी
केवल आँचल भर हो जाए
लीलटांस
जैसे सपनों को
अपनी आँखों रहे निथारे
ऐसी एक लगन देखी है !
ऐसी एक चलन देखी है !
यूँ बज-बजती
रहे जहाँ वह,
कहे रसोई यहाँ और बज
काँसी बजती
राग भैरवी
सुनते ही तो भागी आए
हाथ हिले
समिधायें जुड़लें
हड़-हड़ हांसन लागे चूल्हा
रसमस-रसमस
आटा-पानी
थप-थप थपे…..थपे चंदोवे
सिक-सिक उतरें
गट-गट, गप-गप
आखर भागें धाप रागते
खाली हांडी
और कठौती
छू-छू कर होना पूरे जो
ऐसी एक छुअन देखी है !
ऐसी एक चलन देखी है !
ना घर तेरा, ना घर मेरा
ना घर तेरा, ना घर मेरा
लुबडुब थमने तक का डेरा !
इस डेरे के भीतर बीहड़
कांटें और उगाएँ बाहर
भीतर के काँटों से छिल-छिल
बाहर आ सुखियाया चाहें,
लागे बाहर तो चिरमी भर
हो ही जाए वह विंध्याचल
खाय झपाटे समझ सूरमा
थकियाये भीतर जा दुबकें
दुबके-दुबके बुनें जाल ही
फैंके चौकस बन बहेलिये
कटे, कभी तो उड़ ही जाए
आखी उमर चले यह फेरा !
ना घर तेरा, ना घर मेरा
लुब-डुब थमने तक का डेरा !
इस फेरे को देखे ही हैं
क्या लेकर आता है काई
फिर भी हर-हर लगे मांडता
जमा-नाव के खाते-पाने
पोरें घिस-घिस गिनता जाए
ज्यू-त्यूं जुड़ें नफे का तलपट
यह तलपट हो जाय तिजूरी
यूँ-व्यूँ नापे, तोले-जोखे
ऐसे में ही साँस ठहरले
सीढ़ी झुक हो जाय बिछौना
आ ! मैं-तू दोनों ही देखें
क्या ले जाए साथ बडेरा ?
ना घर तेरा, ना घर मेरा
लुबडुम थमने तक का डेरा !
जाते बड़कों की जमघट में
अनदेही होकर भी देही
चौराहों पर बोल बोलते
दिखें कबीर, शिकागो-स्वामी,
इन दोनों का कहा बताया
इनसे पहले कई कह गए
सुना, अनुसना करते आए
करते ही जाए हैं अब भी
पर एकल सच इतना-सा ही
सबका होना सबकी खातिर
इस सच का सुख सिर्फ यही है
और न कोई डैर-बसेरा !
ना घर तेरा ना घर मेरा
लुबडुब बसने तक का डेरा !
उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे
उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे
इतना पूछ गई !
सोचे बैठा,
ये-वो आसमान तो रचलूं,
उठी न जाने
किस अनहद से
दोनों हाथ बाँध कर मेरे
मुझसे झूझ गई !
देख बतातो
अपने आगे ठूंठ सरीखे
बीती बातों के करघे पर
कितने बरसों, कितनी साधी
आड़ी तानें, सीधी तानें,
कितनी छूट गई !
इतने बरसों
कितने थान बुने बोलो तो,
कैसे रंग सने देखो तो,
ओढ़-बिछा क्या-क्या पहनोगे ?
प्रश्नों की अनबूझ पहेली
मुझमें गूंथ गई !
यह ले दर्पण
झुरियाया तन, फटियल आँखें,
राखोड़ी रंग, फटी-फटी सी
एक चटाई भर देखूं मैं
यही बुना क्या, कहते-कहते
मुझको कूंत गई !
जाने कब से
वैसी सी ही फिर चाहूँ मैं
गूंजे-अनुगूंजें उतरे फिर,
पळ-पळती बारहखड़ी देखे-
बीती की गुळगांठ खोलते
पोरें सूज गई
उड़ती हुई सुपर्णा मुझसे
इतना पूछ गई !
उड़ना मन मत हार सुपर्णे
देख लिए देखे ही है तू
अपने पर मंडराते बाज,
पड़ी पड़े कड़कड़ा कभी फिर
जाने कौन दिशा से गाज,
आए-गए सभी जुड़वां थे
वैसे ही ऊभे कारीगर,
भरा हुआ तरकश है पीछे
दोनों हाथों सधी कमानी
नाद-भेदिये छोड़ेंगे ही
विश-बुझे तीर कलेजे पार
सुपर्णे उड़ना…..
रंग-पुती आंखें ही देखें
बाहर का बाहर ही बाहर,
एक अहम देखे ही फिर क्यों
इस विराट का कैसा अन्तर
बाहर के भीतर दुनिया
देखे यह जड़ भरत कभी तो,
ना-जोगे इस सूरदास की
भीतरवाली खुले कभी तो
दिखे उसे तब इस दर्पण में
मेरे मैं का क्या आकार ?
सुपर्णे…..
रचनावती एषणावाले
सुन तू समय पुरुश बोले है,
अथ-इति-अथ की उलझी आडी
निपट भाखरी में खोले हैं,
एक नहीं वे साते मिलें जब
मैं-तू बनें तभी संज्ञाएं,
जीना-मर-जीना इतना भर
आँखें झप खुल झप-खुल जाएं
लगते से सारे असार में
संसरित ये-वे सब संसार
सुपर्णे…..
नीली-नीली आँखों वाले
तेरा धरम उड़ानें भरना,
सबको साखी रख-रख तुझको
सांसों-सांसा सिरजते रहना,
जो देखे है सब हम रूपी
रम रमता सबमें रमजा तू
कलकलता बह रहा अथाही
घुल-घुलता इसमें घुल जा तू
तू इस विस्मय का अंशी है
तेरे होने का यह सार
सुपर्णे उड़ना मन मत हार ।
यूं जीने का रोज भरम उघड़े
रात-रात भर
निपट निगोड़े आखर जनना
होने की मजबूरी
किरणों का रंभाना सुन-सुन
सरकंडों की लाज ठेल कर
बोल-बोलते ये जा…..वो जा…..
यह उनकी मजबूरी,
मेरे जाये
मुझ तक तो वे लौटेंगे ही
आखा दिन हेराती आँखों
लौट रहे
हर एक सयाने का सपना उतरे
यूं जीने का…..
सुनूं अचानक
लोहे के जबड़े से छूटी
हू-हू करती हूंक,
सुनूं पड़ी, पड़ती जाए यूं
सड़सड़ाक कोड़े,
मगर न चीखे कोई, ना कोई कुरळाए
लगे, सांस में ठरा-ठरा
भीगा, खारा गुमसुम
कड़वाया गुमसुम,
हाथों से हम्फनी साधता देखे जाऊँ-
सुबह गए जो घुटरुन-घुटरुन
झलझल-झलमल से दिप दिपते,
वे ही हां वे मेरे आखर
तुड़े-मुझे सब आंगन आय पड़े
यूं जीने का…..
बाप सरीखा तरणाटी खा
अपने आपे से आ निकलूं,
नीली मेड़ी उतर-उतर कर भाग गई जो
सड़कों-गलियों,
पीछे-पीछे बोली होने को अतुराये
मेरे आखर,
वह भी तो लौटी ही होगी
जा पकडूं जो दिखे कहीं वह,
कोई नहीं….सिर्फ सन्नाटा…..
ऊपर था न,
कहां गया वह आसमान ही
दिखती केवल गीली स्याह कपास
एक अकेला दस-दस हाथों
चिथराता उतरे,
मेरे आंगन मेरे दिन की
ऐसी सांझ झरे,
आखर के सपनों का हर दिन
कलमष हो उतरे
यूं जीने का रोज भरम उघड़े ।
अभी और चलना है….
अभी और चलना है…..
दरवाजा खुलते ही बोले-
मुझसे सड़क शुरू होती है,
आहट की थर-थर-थर पर ही
लीलटांस पाँखें फर फरती
उड़े दूरियाँ गाती
चूना पुती हुई काली पर
पाँवों को मण्डना है…..
कहते से बैठे हैं आगे…..
चार, पाँच, कई सात रास्ते,
दस-दस बाँसों ऊँचे-ऊचे
खड़े हुए हैं पेड़ थाम कर
छायाओं के छाते,
घाटी इधर, उधर डूंगर वह
जंगल बहुत घना है…..
झुका हुआ आकाश जहाँ पर
उस अछोर को ही छूना हो,
कोरे से इस कागज ऊपर
अपने होने के रंगों को
भर देना चाहा हो
तब तो आखर के निनाद को
सात सुरों सधना है…..
अभी और चलना है…..