दूसरा दर्ज़ा
दोपहर का वक़्त था वह
पर ठीक दोपहर जैसा नहीं,
नदी जैसी कोई चीज़ भागती हुई खिड़की से बाहर
सूख रही थी
पुलों और पटरियों के शोर को उलाँघता
किसी तंद्रा में कहीं जा रहा था मैं
बाहर
खेतों से उलझ रही थीं झाडियाँ
झाड़ियों से बेलें बेलों पर तितलियाँ तितलियों पर रंग
उन्हें ठहर कर देखने की हम में से भला
किसको फ़ुरसत थी
दृश्य जैसा हू-ब-हू
वह एक दृश्य था: किसी घाव की तरह ताज़ा और दयनीय
कछार का छू कर आ रही हवा में थे कुछ
जड़े हुए पहाड़
जिन पर छाई पीली घास
ऐसी दिखती थी जैसे कछुए की पीठ को
किसी ने रेती से घिस दिया हो
लाखों बरस पहले
चिड़ियों को पंख दिए गए थे
वे लोहे के अजगर की रफ़्तार से अभिभूत
एक साथ लहराती हुई उड़ रहीं थीं
किसी अप्रिय ज़िम्मेदारी के निर्वाह में
लोगों ने अपने घर छोड़े होंगे अक्सर इतिहास में इसी तरह
अकेला कइयों के साथ मैं कहीं चला जाता था
वे क्यों चल रहे थे मेरे साथ
इस अन्तहीन समय में
आख़िर किस भरोसे पर
मैं किससे पूछता भी तो आख़िर किस से
ऊँघते और एक-दूसरे पर गिरते हुए भी वे प्रायः
निर्दोष लग रहे थे
डिब्बे के साथ-साथ अकेले लोग
हालाँकि थे वे एक दूसरे से बेतरह ऊबते
प्यार का क्या करें कविगण
भारत में प्रेम एक घटिया शब्द
बनाया जा चुका है। और रहेगा।
इसे ही मुंबई का सिनेमा कहता है ‘प्यार’
रही सही कसर सस्ते उपन्यास-सम्राटों ने पूरी कर दी है।
स्थिति यह है कि अब प्रेम करने वाले भी प्रेमी कहलाने से डरते हैं।
पर विडम्बना देखिए
गाहे-बगाहे हमें भी
पूरी गंभीरता से करना पड़ता है
इसी शब्द का इस्तेमाल।
और तब हम भीतर से प्रेम को लेकर उतने चितिंत नहीं होते
जितने होते हैं इसके दु:खद पर्यायवाची से:
कुछ खास-खास मौकों पर
हूबहू प्रेमी की तरह दिखते हुए ‘प्यार’ शब्द से डरते ,
भीतर से पर
महज
कवि रहते ।
कुछ यों
कुछ यों
तोड़ता हूं –
जीवन में सिर नहीं, कविता में शिल्प!
फोड़ सकता हूं पहला, दूसरे के लिए
(कि) हत्यारा नहीं
हूं तो तथाकथित कवि ही
मस्तक तले तकिया
पत्नी पड़ोस में
कमरा धुंध से बाहर आता
खिड़की में उजाला
चाय की तलब
बासी ख़बरों से भरा ताज़ा अख़बार
मिला खोलते ही फिर आज भी हू-ब-हू
ठीक बीते कल जैसा संसार
किसी भी जगह से शुरू हो सकता है
समापन
हर शुरुआत का अन्त उसके आरंभ में निहित है
चूंकि हर इति में छिपा है अथ
और इसका विलोम भी उतना ही सही है
फलस्वरूप दोनों शब्द यहाँ अस्थाई तौर पर भ्रामक हैं
तुम आज ही आओ अभी
तुम आज ही आओ अभी
कल क्यों नहीं? – पूछा उसने
नहीं क्यों कि कल का आज, आज न होगा
वह आई और चली गई
मैं आने वाले कल के बारे में आज सोच रहा हूँ
कि क्या वह किसी आज में आई थी या कल में
इससे आगे और क्या हो सकता था
इससे आगे और क्या हो सकता था, क्या
पूछता हूँ अपने आप से और पछताता हूँ
जवाब न देने के लिए वह यहां से जा चुकी
कमरे में पीछा करते शब्द हैं कुछ मेरे आगे
जिन्हें बोल सकता हूँ
कुछ वे जिन्हें बोल चुका
मैं तो बस इतना ही कहना चाहता था
प्रेम में
यों घटनाविहीन भी हो सकती हैं
कुछ एक शारीरिक मुलाक़ातें
टपकती पेड़ से कांव-कांव छापती है
टपकती पेड़ से कांव-कांव छापती है
आकृति कौवे की
दिमाग के खाली कागज पर
मुझे किस तरह जानता होगा कौआ
नहीं जानता मैं
उस बिचारे का दोष नहीं, मेरी भाषा का है
जो उसे ‘कौआ’ जान कर सन्तुष्ट है
वहीं से शुरू होता है मेरा असंतोष
जहां लगता है – मुझे क्या पता सामान्य कौए की आकृति में
वह क्या है कठिनतम
सरलतम शब्द में भाषा कह देती है जिसे ‘कौआ’ !
आंखें खोलते ही
आंखें खोलते ही
जैसा मिला यह संसार
था संदिग्ध
जाना जितना अपर्याप्त, न जाने जितना
बन्द होने तक आंखें
वह जानने लायक है
यह सोचते हुए ही मैंने जाना
बस कुछ असंदिग्ध –
और थोड़ा सा अनजाना
कोयला नहीं कहूँगा मैं
कोयला नहीं कहूँगा मैं
तब भी वह काठ ही तो होगा काला स्याह
सदियों से भूगर्भ में दबा हुआ
जानता हूँ
नाम या सिर्फ शब्द
जो काठ की कालिमा और पीड़ा के लिए अंतिम नहीं हो सकता
तब जानूं कैसे
जो हो पर्याय भी और अनुभव भी: अन्तःपरिवर्तनीय
सोचता हूँयही
और चुप रहता हूँ देख कर
तथाकथित कोयला इन दिनों
एक दिन
एक दिन
तुम उसे अग्नि को सौंप आओगे
जो हो सकती थी पहली पंक्ति
वह बन गई शीर्षक जैसी !
(इस संग्रह में मैं शीर्षकों के विरुद्ध हूँ)
याने सिर्फ एक क्रिया नहीं है नष्ट होना
जो कुछ था-वह था
जो कुछ था – वह था , ‘नहीं होने’ जैसा
जो कुछ नहीं था- उस की खबर ‘होने’ से लगी
हालांकि होना कुछ अधिक ठोस था –
पर न होने ने उसका अधिकांश छिपा रखा था
और तब मैं समझा
निधन
नामक एक भयानक शब्द का असल मायना
अमूर्त का चेहरा अनन्त है
अमूर्त का चेहरा अनन्त है
और अनन्त एक अमूर्तन असमाप्त
ऐसे में कवियों को चाहिए
कि वे प्रेमियों के प्रति कृपया अतिरिक्त सहानुभूति रखें!
मृत्यु शायद किसी घाव का अंत होती हो
मृत्यु शायद किसी घाव का अंत होती हो
शायद यहाँ कहीं किसी चीज़ की कमी है
शायद कुछ और हम कहना चाहते हों
शायद थोड़ी सी थमी है बारिश
बस अब यहाँ से आगे हम कहीं और जाएं नहीं
अगर मृत्यु मृत्यु ही है
कई बार कितने छोटे सुखों से सुखी हो जाता हूं
कई बार कितने छोटे सुखों से सुखी हो जाता हूं
कितने छोटे दुखों से दुखी
‘अनुभव’ क्या चीज है क्या चीज़ है ‘अनुभूति’
मैं था
कह सकता हूं मैं हूं
मैं यह भी कह सकता हूं
मैं रहूंगा
नहीं बांध पाता ये कहने की हिम्मत
कि भविष्य में होना मुझ से बाहर की सत्ता है
तब क्यों हुआ खुश क्यों खिन्न
बस यही एक बात नहीं जान पाता हर भविष्य में
नन्द चतुर्वेदी एक ही आदमी का नाम हो सकता था
नन्द चतुर्वेदी एक ही आदमी का नाम हो सकता था
मैंने एक दिन सोचा
एक दिन जब मैं जा चुके सालों के बारे में
कुछ भी नया सोचना चाहता था
एक दिन जब मैं कुछ भी पढ़ना चाहता था
कुछ अच्छा कुछ बुरा कुछ अधपका कुछ रसीला
याद आया उनका ठिठुरता हुआ हस्तलेख
रुई देख कर उनके सफेद बाल
उनके कुछ ठहाके कुछ व्यंग्य मुझ पर
हँसते उनके बचे-खुचे कुछ दांत
कुछ स्मरणीय भाषण और समाजवादी प्रतिज्ञाएं
समाज को बदल देने की
और जब सारी हिन्दी कविता के बावजूद
हिन्दुस्तानी समाज नहीं बदला
उस दिन नन्द चतुर्वेदी मेरे लिए
एक और कवि का नाम था
फरवरी में देख कर तरबूज़ फलों की दुकान में
फरवरी में देख कर तरबूज़ फलों की दुकान में
डूबा अफ़सोस-दर्पण में
कि क्या-क्या नष्ट नहीं कर डाला
हम लोगों के लालच ने
जून के तरबूज़ का रसीला स्वाद तक
इस तरह सजाये गए बेमौसम तरबूज़ों में
दिल की लपलपाती जीभ
दिल की लपलपाती जीभ
और खोल कर बैठा रहता हूँ दिमाग़ का मुंह
कि आए कोई अनूठा विचार और
एक मांसाहारी पौधे की तरह उसे लपक लूँ
भाषाशास्त्रियों को सहानुभूति हो सकती है विचार के प्रारब्ध से
कि उसके भाषा में व्यक्त होने का मायना है –
अर्थ की नब्ज़ का
बस वहीं तक धड़कना
अगर हाथी एक जीव है और मच्छर भी
अगर हाथी एक जीव है और मच्छर भी
तो दोनों की ‘मात्रा और भार’ के फर्क को
कविता-प्रयोजन में कैसे समझें
दुख है प्रगतिशील-काव्य सिद्धान्त
इस दिशा में हमारी कोई मदद नहीं करते
अब आप को क्या समझाना
हाथी और मच्छर पर लिख कर
मैंने यही तो बात कहनी चाही थी
आदतन मोची की निगाह
आदतन मोची की निगाह
सबसे पहले पड़ती है
हरेक के जूतों पर
नाई की खोपड़ियों पर
और कवि की कहां ?
इसका जवाब देती है –
उसकी अच्छी या बुरी कविता !
निकालता हूं तलवार और खुद का गला काटता हूं
निकालता हूं तलवार और खुद का गला काटता हूं
खोजता हूं अपना धड़ आंखों के बगैर
किसी दूसरे के घर में शराब या प्यार
समुद्र के पानी में बजती हैं टेलीफोन की घंटियाँ
हो यही शायद किसी लेखक की मौत की खबर
नहीं, नहीं मैं नहीं हूं इस कहानी में
वह तो कोई और होगा
मैं तो कब का मर चुका आत्महत्या के बाद
तब निकाली किसने
काटने को मेरा गला दूसरी बार यह तलवार?
गुसलखाने में नल बहने की आवाज़
गुसलखाने में नल बहने की आवाज़ को भी
एक छिपकली बरसात समझ सकती है
बिना छिपकली हुए ऐसी मार्मिक ग़लतफ़हमी को
नल नहीं
जान सकती है तो सिर्फ मेरी कविता ही
नहा रही है जो मेरे साथ
बाहर अगर यह गुलाबों के खिलने का वक़्त है
बाहर अगर यह गुलाबों के खिलने का वक़्त है
तो चिड़ियों के बीट करने का भी
या बच्चों के गुसलखानों में जाने का
चाय का कप आने का तब तक कुछ-न-कुछ घसीटने को लिखता हूं
जितना अनलिखा रह जाता है
उससे ज़्यादा कठिन है वह
जो नहीं लिखा जा सका!
वह रात मेरे जीवन की आखिरी रात नहीं होगी जब मैं मरूंगा
जीते हुए लगातार मरता रहा हूँ
हर पल रोज़ टुकड़ों में मर रहा हूँ
पैदा होते ही मरना सीख गया था
और यही अभ्यास आजीवन मेरे काम आएगा
अपनी हर मृत्यु में अंशतः जीवित रह जाता हूँ
हर बार यह सोच कर कि समूचा जब तक मर नहीं जाता
पूरा-पूरा जीवित हूँ और मरने तक रहूँगा
अगर कोई कविता बस इतनी ही हो…
अगर कोई कविता बस इतनी ही हो …
अगर आप किसी तरह पहला वाक्य लिखने में सफल हो जाएं
तो जरूरी नहीं है लिख सकें दूसरा भी
और इस तरह इसे एक वाक्य की कविता होने का गौरव प्रदान करें
कहीं नहीं जाते हैं हम जब कहीं जाते हैं
कहीं नहीं जाते हैं हम जब कहीं जाते हैं
जगहें वहीं की वहीं रहती हैं
हम प्रविष्ट हो जाते हैं
सिर्फ
एक बदले हुए दृश्य में.