यूँ ही कुछ मुस्काकर तुमने
यूँ ही कुछ मुस्काकर तुमने
परिचय की वो गाँठ लगा दी !
था पथ पर मैं भूला-भूला
फूल उपेक्षित कोई फूला
जाने कौन लहर थी उस दिन
तुमने अपनी याद जगा दी ।
कभी कभी यूँ हो जाता है
गीत कहीं कोई गाता है
गूँज किसी उर में उठती है
तुमने वही धार उमगा दी ।
जड़ता है जीवन की पीड़ा
निस्-तरँग पाषाणी क्रीड़ा
तुमने अन्जाने वह पीड़ा
छवि के शर से दूर भगा दी ।
विदा किया तब कहा कि यह लाना वह लाना
विदा किया तब कहा कि यह लाना वह लाना,
ग्वैड़े आया, और हाथ दोनों हैं ख़ाली;
सजी ख़ूब थी हाट, मगर मुश्किल था पाना
पैसों बिना। “जानती हो, मुझको ख़ुशहाली
जैसे यहाँ वहाँ भी न थी”— क्या यही कह दूँ।
कितनी ठेस लगेगी उसको। अपने मन में
क्या क्या सोचे बैठी होगी । कैसे चह दूँ
बाँध बात से। ऐसे भी मनुष्य हैं जन्मे
दुनिया में, जिनको दुर्लभ है कानी कौड़ी।
प्यार उन्हें भी मिलता है, सुख का कोलाहल
उन्हें नहीं सुन पड़ता है, विपत्ति ही दौड़ी
दौड़ी उन्हें भेंटती है, करती है विह्वल।
क्या दूँ क्या दूँ क्या दूँ क्या दूँ क्या दूँ क्या दूँ
अपनी पहुँच में कहाँ, क्या है, जो मैं ला दूँ।
सचमुच, इधर तुम्हारी याद तो नहीं आई
सचमुच, इधर तुम्हारी याद तो नहीं आई,
झूठ क्या कहूँ। पूरे दिन मशीन पर खटना,
बासे पर आकर पड़ जाना और कमाई
का हिसाब जोड़ना, बराबर चित्त उचटना।
इस उस पर मन दौड़ाना। फिर उठकर रोटी
करना । कभी नमक से कभी साग से खाना ।
आरर डाल नौकरी है। यह बिलकुल खोटी
है। इसका कुछ ठीक नहीं है आना जाना।
आए दिन की बात है। वहाँ टोटा टोटा
छोड़ और क्या था। किस दिन क्या बेचा-किना।
कमी अपार कमी का ही था अपना कोटा,
नित्य कुआँ खोदना तब कहीं पानी पीना।
धीरज धरो, आज कल करते तब आऊँगा ,
जब देखूँगा अपने पुर कुछ कर पाऊँगा।
अधिभूत
मदन के शर केवल पाँच हैं
बिंध गए सब प्राण, बचा नहीं
हृदय एक कहीं, अधिभूत की
नियति है, यति है, गति है, यही ।
दिन ये फूल के हैं
मत जाना चले कहीं भूल के
दिन ये फूल के हैं
किए मन के सिंगार
सामने कचनार
आम के बौर कहते हैं
देखो बहार
हाल ऎसे ही कुछ
अब बबूल के हैं
कोई रूठे मनाओ
जाओ जाओ अपनाओ
इस हवा की समझ से
सभी को समझाओ
कितने दिन फूल मंदिर
में धूल के हैं
आ गई वह कली
आज अपनी गली
कल जो आई थी
पहचान पा कर खिली
प्राण धारा के हैं
कहाँ कूल के हैं
आकांक्षा
सुरीली सारंगी अतुल रस-धारा उगल के
कहीं खोई जो थी, बढ़ कर उठाया लहर में,
बजाते ही पाया, बज कर यही तार सब को
बहा ले जाएँगे, भनक पड़ जाए तनिक तो ।
बात क्या है
आज तू उदास है चमेली,
बात क्या है ।
उदासी आ ही जाती है
बुलाने कोई जाता है
बताऊँ क्या ।
अरी चल
मुझ से छिपाती है
कोई बात आज फिर कही होगी भैया ने
भैया ने ?
उटक्कर ही मारती है तू भी प्रभा
भैया अब चुप रहा करते हैं समझी
कुछ नहीं कहते
तो फिर यह उदासी क्यों है बता
रात युगों बाद, स्वप्न देखा
स्वप्न देखा वही बार बार इन आँखों को
झलक दे दे जाता है
क्या देखा
देखा वे हमारे द्वार आए हैं
रँगे हैं वस्त्र ख़ून से
पसली में बाईं ओर छुरा धँसा हुआ है
चेहरे की रेखा रेखा पीड़ा की डगर है
मेरी ओर देखा
जाने कैसे हँसी आ गई । बोले, “चमो
पाँच घाव खाए हैं तुम्हारे लिए
अभी मन नहीं भरा
फिर तन पाऊँ तो तुम्हारी राह आऊँगा
अभी मेरे रोम रोम भूखे हैं
प्रभा, क्या करूँ मैं, बता
क्या करूँ ?
नन्हे
नन्हे ने सिर पर हवाई जहाज़ देखा
तो हठ पकड़ा
पापा, पापा,
हवाई जहाज़ मुझे भी ला दो
मैं भी उड़ाऊँगा
कैसे समझाए कोई बच्चे को
वह क्या जाने हवाई जहाज़
उस का बाप भी
बस देखा करता है और
उसे पाने का
स्वप्न तक नहीं देखा उस ने
किसी दिन
पापा, हवाई जहाज़
जाओ, अभी ला दो
हम उसे उड़ाएँगे
मम्मी ने इसी समय मोटर में चाभी भरी
फिर तो वह दौड़ चली
फिर पुकार कर कहा
नन्हे, यहाँ आओ
ज़रा देखो तो
यह क्या है
नन्हा उतरा, दौड़ा, मम्मी के पास गया
और देखने लगा मम्मी ने पूछ दिया
नन्हे यह किस की है.
नन्हे ने कहा, मेरी है. छोड़ो तुम
अब मैं दौड़ाऊँगा
इच्छा
सर दर्द क्या है
मुझे इच्छा थी
तुम्हारे इन हाथों का स्पर्श
कुछ और मिले
और
इन आँखों के
करुण प्रकाश में
नहाता रहूँ
और
साँसों की अधीरता भी
कानों सुनूँ
बिल्कुल यही इच्छा थी
सर दर्द क्या है।
पवन शान्त नहीं है
आज पवन शांत नहीं है श्यामा
देखो शांत खड़े उन आमों को
हिलाए दे रहा है
उस नीम को
झकझोर रहा है
और देखो तो
तुम्हारी कभी साड़ी खींचता है
कभी ब्लाउज़
कभी बाल
धूल को उड़ाता है
बग़ीचों और खेतों के
सूखे तृण-पात नहीं छोड़ता है
कितना अधीर है
तुम्हारे वस्त्र बार बार खींचता है
और तुम्हें बार बार आग्रह से
छूता है
यौवन का ऎसा ही प्रभाव है
सभी को यह उद्वेलित करता है
आओ ज़रा देर और घूमें फिरें
पवन आज उद्धत है
वृक्ष-लता-तृण-वीरुध नाचते हैं
चौपाए कुलेल करते हैं
और चिड़ियाँ बोलती हैं
आओ श्यामा थोड़ा और घूमें फिरें
असमंजस
मेरे ओ,
आज मैं ने अपने हृदय से यह पूछा था
क्या मैं तुम्हें प्यार करती हूँ
प्रश्न ही विचित्र था
हृदय को जाने कैसा लगा, उस ने भी पूछा
भई, प्यार किसे कहते हैं
बातों में उलझने से तत्त्व कहाँ मिलता है
मैं ने भरोसा दिया
मुझ पर विश्वास करो
बात नहीं फूटेगी
बस अपनी कह डालो
मैं ने क्या देखा, आश्वासन बेकार रहा
हृदय कुछ नहीं बोला
मैं ने फिर समझाया
कह डालो
कहने से जी हलका होता है
मन भी खुल जाता है
हमदर्दी मिलती है
फिर भी वह मौन रहा
मौन रहा
मौन रहा
मेरे ओ
और तुम्हें क्या लिखूँ
कर्म की भाषा
रात ढली, ढुलका बिछौने पर,
प्रश्न किसी ने किया,
तू ने काम क्या किया
नींद पास आ गई थी
देखा कोई और है
लौट गई
मैं ने कहा, भाई, तुम कौन हो.
आओ। बैठो। सुनो।
विजन में जैसे व्यर्थ किसी को पुकारा हो,
ध्वनि उठी, गगन में डूब गई
मैंने व्यर्थ आशा की,
व्यर्थ ही प्रतीक्षा की।
सोचा, यह कौन था,
प्रश्न किया,
उत्तर के लिए नहीं ठहरा
मन को किसी ने झकझोर दिया
तू ने पहचाना नहीं ?
यही महाकाल था
तुझ को जगा के गया
उत्तर जो देना हो
अब इस पृथिवी को दे
कर्मों की भाषा में।
इलाहाबादी
काफ़े,रेस्त्राँ में हिलमिल कर बैठे । बातें
कीं; कुछ व्यंग्य-विनोद और कुछ नए टहोके
लहरों में लिए-दिए । अपनी-अपनी घातें
रहे ताकते । यों भीतर-भीतर मन दो के
एक न हुए, समीप टिके, अपनापा खो के,
जीवन से अनजान रहे, पर गाना गाया
जन का, जीवन का, लेकिन दुनिया के हो के
दुनिया में न रहे । दुनिया को बुरा बताया ।
उससे तन बैठे जिसने कुछ दोष दिखाया ।
इस प्रकार से ढले नवीन इलाहाबादी
कवि-साहित्यकार, जिन को भाती है छाया,
नहीं सुहाती । आँखों को भू की आबादी ।
जीवन जिस धरती का है । कविता भी उस की
सूक्ष्म सत्य है, तप है, नहीं चाय की चुस्की ।
कठिन यात्रा
कभी सोचा मैं ने, सिर पर बड़े भार धर के,
सधे पैरों यात्रा सबल पद से भी कठिन है,
यहाँ तो प्राणों का विचलन मुझे रोक रखता
रहा है, कोई क्यों इस पर करे मौन करूणा ।
कला के अभ्यासी
कहेंगे जो वक्ता बन कर भले वे विकल हों,
कला के अभ्यासी क्षिति तल निवासी जगत के
किसी कोने में हों, समझ कर ही प्राण मन को,
करेंगे चर्चाएँ मिल कर स्मुत्सुक हॄदय से ।
कातिक का पयान
कातिक पयान करने को है, उठाया है
दाहिना चरण, देहरी को लाँघ आया है,
लेकिन अँगूठा अभी भूमि से लगा नहीं,
ऊपर ही ऊपर है, जैसे जगा नहीं ।
जीवन का एक लघु प्रसंग
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- तब मैं बहुत छोटा था
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- कौन साल, कौन मास और कौन दिन था
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- यह सब कुछ याद नहीं,
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- जानता भी नहीं था,
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- पढ़ता था;
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- नाम और ग्राम लिखना आ गया था
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- स्कूल जाने का समय हो आया था
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- बहुत व्यग्र बुआ के पास खड़ा-खड़ा मैं
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- उससे किताबें नई लेने के लिए पैसे मांग रहा था
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बुआ ने पूछा : जो किताबें अभी ली गई थीं उसको क्या पढ़ लिया
मैंने कहा : कब न पढ़ा, अब तो नई चाहिए, और सब ख़रीद चुके
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- दर्ज़े में जितने हैं, केवल मैं बाक़ी हूँ ।
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बुआ ने कहा : अभी वही पढ़ो, फिर पैसे दूंगी, कुछ दिन बीते,
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- ले जाना नई लेना,
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मैंने कहा : बुआ, यह कैसे हो सकता है, वह दर्ज़ा पास कर चुका हूँ मैं,
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- अब नई लेनी हैं, किताबें पुरानी बेकार हैं
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बुआ ने कहा : किसी लड़के से मांग लो ना, तुमसे जो आगे पढ़ता रहा हो,
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- वह दर्ज़ा पास कर चुका हो अब, जिसमें तुम नए-नए आए हो,
मैंने चिढ़ कर कहा : बुआ, वे किताबें अब बदल गईं ।
बुआ ने पूछा : क्यों ?
- क्या जानूँ– मैंने कहा,
अर्ध स्वगत बुआ बोलीं– सभी पैसे कमा रहे हैं,
- मैंने पूछा : बुआ, क्या कहती हो, दाम मुझे देती हो,
बुआ ने कहा : आज मदरसे तुम चले जाओ, मास्टर से कह देना :
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- पैसे आज नहीं मिले, कल तक मिल जाएंगे
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तब तक माँ आई और उसने कहा : रोज़-रोज़ कहती हूँ,
पढ़-लिख कर क्या होगा, पढ़ना अब बन्द करो इसका, घर काम करे,
- पढ़ना हमारे नहीं सहता, पर बात मेरी कौन यहाँ सुनता है ।
रान-परोसी कहते हैं, लड़का इन्हें भारी है, इसी राह खो रहे हैं ।
बुआ ने मुझ से कहा चिल्ला कर : जाओ तुम, नहीं तुम्हें देर होगी
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- सब चले गए होंगे ।
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लेकिन मैं बुआ के पीछे जा खड़ा हुआ,
पूरी बात सुनना मैं चाहता था, गया नहीं ।
बुआ ने कहा : धन्य बुद्धि, जो नहीं पढ़ते, वे सब क्या अमर हैं ?
माँ ने कहा : देखते हुए मक्खी लीलते नहीं बनता,
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- पढ़-लिख कर ही आख़िर फलाने विक्षिप्त हुए,
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- पढ़ते-लिखते ही तीन-चार जने मर गए,
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- तुमको तो जैसे कहाँ पत्ता भी नहीं खड़का,
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- गिरते हुए थोड़ा भी
बुआ ने का : दुलहिन (माँ को वे यही कहा करती थीं ) इस बच्चे को
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- मैंने श्रद्धा से, प्रेम से, निष्ठा से,
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- विद्या को दान कर दिया है,
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- जानबूझ कर दान कैसे फेर लूँ,
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- ऎसा कभी नहीं हुआ–
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- विद्या माता ही अब इसको निरखें-परखें ।
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- रक्षा और पालन-पोषण करें !
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जो है सो है
खिले फूलों से ही खिंच कर रमे जो भुवन में
अभावों की छाया पकड़ कर भावांत उन का
दिखाएगी, क्या है ललित रचना, शून्य मन की.
यहाँ जो है सो है विवश पद की धूल बन के ।टूटा हृदय
कहीं से टूटा भी हृदय अपना नित्य अपना
रहेगा । भूले भी पथ पर इसे छोड़ कर जो
चलेगा, भोगेगा । क्षण क्षण कहानी अवश सी
सुनाएगी गाथा, मुखर मुख होंगे सुरस सेदु:खों की छाया
दुखों की छाया में यह भव बसा है, नियति की
सदिच्छा होगी तो कुछ दिन कटेंगे, समय के
सधे आयामों में। भ्रम भ्रम रहेगा कि सच का
कभी पल्ला लेगा; श्वसन ठहरेगा विजन में।पयोद और धरणी
पयोदों की धारा गगन तल घेरे क्षितिज में
विलंबी होती है, धरणि उर का ताप तज के
बुलाती गाती है पल-पल, नए भाव उस के
बलाका माला से उठ कर उड़े और फहरे।प्रकाश के रंग
प्रकाशों की धारा दिवस रजनी नित्य बहती
सभी की आँखों में अदिख छवि लाई मचल के
सधे आवर्तों में घिर कर कई प्राण बहके
इन्हीं में रंगों की लहर उमड़ी व्योम-सरि सी ।पास
और, थोड़ा और, आओ पास
मत कहो अपना कठिन इतिहास
मत सुनो अनुरोध, बस चुप रहो
कहेंगे सब कुछ तुम्हारे श्वासवसंत
नव वसंत खिला जब भाग्य सा,
भुवन में तब जीवन आ गया,
गगन ने उस को अपनाव से,
अतुल गौरव से, अपना किया ।विनिमय
अजाने जाने का अभिनय चला था नियम से,
चलेगा आगे भी, जन जन इसे जान कर ही
करेंगे भावों का विनिमय, नहीं और पथ है ;
लड़ाई आत्मा को कुचल कर ही शक्ति प्रद हो ।स्वर
स्वर व्यतीत कदापि नहीं हुए
समय-तार बजा कर जो जगे,
रँग गई धरती अनुराग से,
गगन में नवगुंजन छा गया ।हृदय की लिपि
यह रहस्य कढ़ा किस ओर से है
हृदय की लिपि वायु-तरंग में
लिख उठी छवि की अरधान सी
नयन देख जिसे चुप हो गएभाषा की लहरें
भाषाओं के अगम समुद्रों का अवगाहन
मैंने किया। मुझे मानव–जीवन की माया
सदा मुग्ध करती है, अहोरात्र आवाहनसुन सुनकर धाया–धूपा, मन में भर लाया
ध्यान एक से एक अनोखे। सबकुछ पाया
शब्दों में, देखा सबकुछ ध्वनि–रूप हो गया ।
मेघों ने आकाश घेरकर जी भर गाया।
मुद्रा, चेष्टा, भाव, वेग, तत्काल खो गया,
जीवन की शैय्या पर आकर मरण सो गया।सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ, सबकुछ भाषा ।
भाषा की अंजुली से मानव हृदय टो गया
कवि मानव का, जगा नया नूतन अभिलाषा ।भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है,
ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल हैखुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार
खुले तुम्हारे लिए हृदय के द्वार
अपरिचित पास आओआँखों में सशंक जिज्ञासा
मिक्ति कहाँ, है अभी कुहासा
जहाँ खड़े हैं, पाँव जड़े हैं
स्तंभ शेष भय की परिभाषा
हिलो मिलो फिर एक डाल के
खिलो फूल-से, मत अलगाओसबमें अपनेपन की माया
अपने पन में जीवन आयाचंचल पवन प्राणमय बंधन
चंचल पवन प्राणमय बंधन
व्योम सभी के ऊपर छाया
एक चांदनी का मधु लेकर
एक उषा में जगो जगाओझिझक छोड़ दो, जाल तोड़ दो
तज मन का जंजाल जोड़ दो
मन से मन जीवन से जीवन
कच्चे कल्पित पात्र फोड़ दोसाँस-साँस से लहर-लहर से
और पास आओ लहराओहाथों के दिन
हाथों के दिन आयेंगे, कब आयेंगे,
यह तो कोई नहीं बताता, करने वाले
जहाँ कहीं भी देखा अब तक डरने वाले
मिलते हैं। सुख की रोटी कब खायेंगे,
सुख से कब सोयेंगे, उस को कब पायेंगे,
जिसको पाने की इच्छा है, हरने वाले,
हर हर कर अपना-अपना घर भरने वाले,
कहाँ नहीं हैं। हाथ कहाँ से क्या लायेंगे।हाथ कहाँ हैं,वंचक हाथों के चक्के में
बंधक हैं,बँधुए कहलाते हैं, धरती है
निर्मम,पेट पले कैसे इस उस मुखड़े
की सुननी पड़ जाती है, धौंसौं के धक्के में
कौन जिए।जिन साँसों में आया करती है
भाषा,किस को चिन्ता है उसके दुखड़ों की।तरूण से
तरूण,
तुम्हारी शक्ति अतुल है
जहाँ कर्म में वह बदली है
वहॉं राष्ट्र का नया रुप
सम्मुख आया है
वैयक्तिक भी कार्य तुम्हारा
सामूहिक हैऔर
जहाँ हो
वहीं तुम्हारी जीवनधारा
जड़ चेतन को
आप्यायित, आप्लावित करती है
कोई देश
तुम्हारी साँसों से जीवित है
और तुम्हारी आँखों से देखा करता है
और तुम्हारे चलने पर चलता रहता हैमनोरंजनों में है इतनी शक्ति तुम्हारे
जिससे कोइ राष्ट्र
बना बिगड़ा करता है
सदा सजग व्यवहार तुम्हारा हो
जिससे कल्याण फलित हो।भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
भीख माँगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
जिस को समझा था है तो है यह फ़ौलादी
ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी
नहीं; झेल जाता श्रद्धा की चोट अचंचल,
नहीं संभाल सका अपने को; जाकर पूछा
‘भिक्षा से क्या मिलता है; ‘जीवन’ ‘क्या इसको
अच्छा आप समझते हैं’ ‘दुनिया में जिसको
अच्छा नहीं समझते हैं करते हैं, छूछा
पेट काम तो नहीं करेगा’ ‘मुझे आप से
ऎसी आशा न थी’ ‘आप ही कहें, क्या करूँ,
खाली पेट भरूँ, कुछ काम करूं कि चुप मरूँ,
क्या अच्छा है ।’ जीवन जीवन है प्रताप से,
स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था,
यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था ।अस्वस्थ होने पर
मित्रों से बात करना अच्छा है
और यदि मुँह से बात ही न निकले तो
उतनी देर साथ रहना अच्छा है
जितनी देर मित्रों को
यह चुप्पी न खले।आत्मालोचन
शब्द
मालूम है
व्यर्थ नहीं जाते हैंपहले मैं सोचता था
उत्तर यदि नहीं मिले
तो फिर क्या लिखा जाए
किन्तु मेरे अन्तर निवासी ने मुझसे कहा-
लिखा कर
तेरा आत्मविश्लेषण क्या जाने कभी तुझे
एक साथ सत्य शिव सुन्दर को दिखा जाएअब मैं लिखा करता हूँ
अपने अन्तर की अनुभूति बिना रँगे चुने
कागज पर बस उतार देता हूँ ।पीपल
मिट्टी की ओदाई ने
पीपल के पात की हरीतिमा को
पूरी तरह से सोख लिया था
मूल रूप में नकशा
पात का,बाकी था,छोटी बड़ी
नसें,
वृंत्त की पकड़ लगाव दिखा रही थी
पात का मानचित्र फैला था
दाईं तर्जनी के नखपृष्ठ की
चोट दे दे कर मैंने पात को परिमार्जित कर दिया
पीपल के पात में
आदिम रूप अब न था
मूल रूप रक्षित था
मूल को विकास देने वाले हाथ
आंखों से ओझल थे
पात का कंकाल भई
मनोरम था,उसका फैलाव
क्रीड़ा-स्थल था समीरण का
जो मंदगामी था
पात के प्रसार को
कोमल कोमल परस से छूता हुआ|आछी के फूल
मग्घू चुपचाप सगरा के तीर
बैठा था बैलों की सानी पानी कर
चुका था मैंने बैठा देखकर
पूछा,बैठे हो, काम कौन करेगा|
मग्घू ने कहा, काम कर चुका हूं
नहीं तो यहां बैठता कैसे,
मग्घू ने मुझसे कहा,
लंबी लंबी सांस लो,
सांस ले ले कर मैंने कहा,सांस भी
ले ली,
बात क्या है,
आछी में फूल आ रहे हैं,मग्घू ने कहा,अब
ध्यान दो,सांस लो,
कैसी महक है|मग्घू से मैंने कहा,बड़ी प्यारी मंहक है
मग्घू ने पूछा ,पेड़ मैं दिखा दूंगा,फूल भी
दिखा दूंगा.आछी के पेड़ पर जच्छ रहा करते हैं
जो इसके पास रात होने पर जाता है,उसको
लग जाते हैं,सताते हैं,वह किसी काम का
नहीं रहता|इसीलिये इससे बचने के लिये हमलोग
इससे दूर दूर रहते हैं|