लुत्फ़ गुनाह में मिला और न मज़ा सवाब में
लुत्फ़ गुनाह में मिला और न मज़ा सवाब में
उम्र तमाम कट गई काविश-ए-एहतिसाब में
तेरे शबाब ने किया मुझ को जुनूँ से आश्ना
मेरे जुनूँ ने भर दिए रंग तेरी शबाब में
आह ये दिल कि जाँ-गुदाज़ जोशिश-ए-इजि़्तराब है
हाए वो दौर जब कभी लुत्फ़ था इजि़्तराब में
क़ल्ब तड़प तड़प उठा रूह लरज़ लरज़ गई
बिजलियाँ थीं भरी हुईं ज़मज़म-ए-रूबाब में
चर्ख़ भी मय-परस्त है बज़्म-ए-ज़मीं भी मस्त है
ग़र्क़-ए-बुलंद-ओ-पस्त है जलवा-ए-माहताब में
मेरे लिए अजीब हैं तेरी ये मुस्कुराहटें
जाग रहा हूँ या तुझे देख रहा हूँ ख़्वाब में
मेरे सुकूत में निहाँ है मेरे दिल की दास्ताँ
झुक गई चश्म-ए-फ़ित्ना-ज़ा डूब गई हिजाब में
लज़्ज़त-ए-जाम-ए-जम कभी तल़्ख़ी-ए-ज़हर-ए-ग़म कभी
इशरत-ए-ज़ीस्त है ‘असर’ गर्दिश-ए-इंक़िलाब में
मेरी साँस को सब नग़मा-ए-महफ़िल समझते हैं
मेरी साँस को सब नग़मा-ए-महफ़िल समझते हैं
मगर अहल-ए-दिल आवाज़-ए-शिकस्त-ए-दिल समझते है।
गुमाँ काशान-ए-रंगीं का है जिस पर निगाहों को
उसे अहल-ए-नज़र गर्द-ए-रह-ए-मंज़िल समझते हैं
इलाही कश्ती-ए-दिल बह रही है किस समंदर में
निकल आती हैं मौजें हम जिसे साहिल समझते है।
तर्ब-अँगेज़ हैं रंगीनियाँ फ़स्ल-ए-बहारी की
मगर बुलबुल उन्हें ख़ून-ए-रग-ए-बिस्मिल समझते हैं
पिघल कर दिल लहू हो हो के बह जाता है आँखों से
सितम है शम्मा को जो ज़ीनत-ए-महफ़िल समझते हैं
कहाँ होगा ठिकाना बर्क़-रफ़्तारी उन की वहशत का
कि वो मंज़िल को भी संग-ए-रह-ए-मंज़िल समझते हैं
बगूले उड़ रहे हैं जो हमारे दश्त-ए-वहशत में
उन्हीं को ऐ ‘असर’ हम पर्दा-ए-महमिल समझते हैं
तुम्हारी फ़ुर्क़त में मेरी आँखों से ख़ून के आँसू टपक रहे हैं
तुम्हारी फ़ुर्क़त में मेरी आँखों से ख़ून के आँसू टपक रहे हैं
सिपहर-ए-उल्फ़त के हैं सितारे की शाम-ए-ग़म में चमक रहे है।
अजीब है सोज़-ओ-साज़-ए-उल्फ़त तरब-फ़ज़ा है गुदाज़-ए-उल्फ़त
ये दिल में शोले भड़क रहे हैं कि लाला ओ गुल महक रहे हैं
बहार है या शराब-ए-रंगीं नशात-अफ़रोज़ कैफ़ आगीं
गुलों के साग़र छलके रहे हैं गुलों पे बुलबुल चहक रहे हैं
जहाँ पे छाया सहाब-ए-मस्ती बरस रही है शराब-ए-मस्ती
ग़ज़ब है रंग-ए-शबाब-ए-मस्ती की रिंद ओ शाहिद बहक रहे हैं
मगर ‘असर’ है ख़ामोश ओ हैरान हवास गुम चाक चाक दामाँ
लबों पे आएँ नज़र परेशाँ तो रूख़ पे आँसू टपक रहे हैं
तुम्हारी याद में दुनिया को हूँ भुलाए हुए
तुम्हारी याद में दुनिया को हूँ भुलाए हुए
तुम्हारे दर्द को सीने से हूँ लगाए हुए
अजीब सोज़ से लब-रेज़ हैं मेरे नग़मे
कि साज़-ए-दिल है मोहब्बत की चोट खाए हुए
जो तुझ से कुछ भी न मिलने पे जोश हैं ऐ साक़ी
कुछ ऐसे रिंद भी हैं मय-कदे में आए हुए
तुम्हारे एक तबस्सुम ने दिल को लूट लिया
रहे लबों पे ही शिकवे लबों पे आए हुए
‘असर’ भी राह-रव-ए-दश्त-ए-जिं़दगानी है
पहाड़ ग़म का दिल-ज़ार पर उठाए हुए
ज़ुल्मत-ए-दश्त-ए-आदम में भी अगर जाऊँगा
ज़ुल्मत-ए-दश्त-ए-आदम में भी अगर जाऊँगा
ले के हम-राह मह-ए-दाग़-ए-जिगर जाऊँगा
आरिज़-ए-गुल हूँ न मैं दीद-ए-बुलबुल गुल-चीं
एक झोंका हूँ फ़कत सन से गुज़र जाऊँगा
ऐ फ़ना टूट सकेगी न कभी कश्ती-ए-उम्र
मैं किसी और समदंर से उतर जाऊँगा
देख जी भर के मगर तोड़ न मुझ को गुल-चीं
हाथ भी तू ने लगाया तो बिखर जाऊँगा
एक क़तरा हूँ मगर सैल-ए-मोहब्बत से तेरे
हो सके जो न समंदर से भी कर जाऊँगा
दूर गुलशन से किसी दश्त में ले जा सय्याद
हम-सफ़ीरों के तरानों में तो मर जाऊँगा
सहन-ए-गुलशन में कई दाम बिछे हैं ऐ ‘असर’
उड़ के जाऊँ भी गर मैं तो किधर जाऊँगा