श्री गणपति की याद में – 1
कोई एक व्यक्ति है, जो
समता सिद्धान्त का
फैलाव करने के लिए
करता ही चलता है-
त्याग सब वैभव का।
लक्ष्मी उसे घेरती है
ऐश्वर्यशाली अपने कान्त को भुला करके,
किन्तु वह उसके सौन्दर्य से
आंखें फेर लेता है,
निर्धन, कंगाल ही
रहता है हमेशा वह
धरती में
सब को ही
अपना दोस्त मानता है;
प्रेम की अहिंसा की रोशनी
सारे विश्व में
फैलाता ही रहता है।
अत्याचारियों को
उदरस्थ कर लेता है,
जैसे गजराज खाता
पीपल के पत्तों को
और सुड़क लेता है
पानी को सूँड से।
पिता और माता ने
उसके गुण देख ये
”गज मुख का नाम दिया।
उस विचित्र देव को-
हजार बार मैं प्रणाम करता हूँ।
श्री गणपति की याद में – 2
चाहता नहीं है वह लक्ष्मी को
और लक्ष्मी क्या करे?
उसके अलौकिक गुणों पर
अगर रीझे नहीं
कैसे अस्तित्व रहे चंचला का
व्याकुल सी हुई वह
हो गयी अचंचल सी
दुविधा में पड़ कर के-
बैठाऊँ चूल कैसे
कामों में
घर और बाहर के
मिलें हठधर्मी जब
साधारण व्यवहार भी
जो नहीं जानते।
अपने भी सुभीते का
ध्यान रखते जो नहीं
पिता और माता की
दी हुई
कीमती पोशाकों को
फेंक कर
खुली देह
रहते हैं-
घोर शीत सहते हैं
कैलाश पर्वत के बर्फ में।
अधिक आहार कर
लम्बोदर हो गया जो
हठी मन की ही तरह
जिसका शरीर भी
हिल नहीं पाता
और रह कर अचल भी
जो इतना चलायमान
माना गया,
घोषित हुआ सर्वश्रेष्ठ
देवों की दौड़ में
और हुआ वह पूजित
सुरों और मानवों-
सभी के लिए
हर शुभ काम में।
लोक और परलोक
दोनों का समन्वय कर
दाँत दोनों ढंग के
दिखलायी पड़े जिसमें,
हहर कर जिसने
प्रसन्नता के साथ लिया
जीवन को,
देव वह महान
मेरी श्रद्धा का पात्र है
शत शत प्रणम मेरा
अंगीकार कर ले।
श्री गणपति की याद में – 3
सुन्दर सवारियों के बीच
जिसने पसंद किया
चूहे को-
वाहन के रूप में,
और दिया
तुच्छ को भी,
लघु को भी
गौरव अपरिमित।
देख कर अपने बड़े भाई
स्वामिकार्तिक को,
ललचा के बैठे मंजु मोर पर,
द्वेष नहीं माना,
मुसकाया भर
संगम बड़प्पन का-
बचपन का मान कर
वह अपूर्व शक्ति
वह सारे जगत का बन्धु
चूहे के माध्यम से
पहुँचा जो
कंगाल की कुटी में और
राजा के महल में,
संकट में फंसे
मानवों के जाल काटने।
विघ्नों का विनाशक
विनायक यह
मेरा भी सहायक हो
चरणों में प्रणाम मेरा
शत-शत स्वीकार करें।
श्री गणपति की याद में – 4
बड़ा ही निराला
वह देव
जिसे पूजा मिली
पिता के विवाह समय
विघ्नेश्वर रूप में
रहकर के पत्नी-हीन
जीवन बिताया सब जिसने
किन्तु जिसे
ऋद्धि-सिद्धि लक्ष्मी मिलीं
लेकर अनन्य भाव
पत्नी से ऊँचा।
पंचशील अपना कर
जो कुरुप होकर भी
रूप का निधान बना
तीन लोक नेत्रों में
पार्वती का लाल वही
विश्व कष्ट हर ले।
पुष्प नगर
महाकाव्य रचना के
विघ्न सब दूर करे
भर दे पंचशीलता की
चाल मेरे पाँवों में
पार करूँ मंजिल
प्रणाम करूँ उसको।
पहला पुष्प
कवि सोचता था
मानवों ने बड़ी उन्नति की
चारों ओर जीवन में
नया ही संसार रचा,
रेल, तार व्योमयान,
क्रूजर जहाज द्वारा
संगठन कर डाला
मानव समाज का,
लाखों मील दूर बैठा
व्यक्ति विश्व भर की
सेवा में समर्थ हुआ।
कवि की प्रसन्नता थी,
भूतल ही स्वर्ग बना जाता है।
देवताओं को भी इस जीवन में
आने की उमंग होगी
इसकी परीक्षा करने की
उत्कंठा से
प्रेरित हो एक दिन
चला वह यात्रा में।
ज्यों-ज्यों बढ़ा आगे
स्वप्न होने लगे चूर-चूर।
भेंट हुई नेता से
बातें कर जान लिया
उन्हें नहीं चिन्ता कुछ
देश की, समाज की।
काम उनको है
बस केवल एक बात से
सीधा हो जाय
किसी भांति उल्लू उनका।
अपने ही भोजन की
अपने ही वस्त्र की
अपने निवास और
अपने भविष्य की-
चिन्ता दिन-रात उन्हें
कार्य मगन रखती है।
शिक्षकवर शिक्षा
आज देते हैं,
जिससे विकास दूर
हा्रस होता उलटा।
मानव चरित्रहीन
होकर के खो रहा
अपनी शक्ति सारी।
धर्म गुरुओं ने भी
किया ईश्वर का सौदा।
आप तो विलास और
भोग के गुलाम बने,
किन्तु चाहते हैं।
और लोग छोड़ दुनिया
उन्हीं के पुजारी बने
पागल बने घूमें
जिनमें शारीरिक बल
वे भी उस बल को
अत्याचार, चोरी, डाका,
बलात्कार ही के लिए
काम में हैं लाते।
धनवान धन द्वारा
सेवा नहीं करके समाज की,
चाहते हैं तोंद उनकी ही रहे फूली
निर्धनों का रक्त चूस
पलते हैंऐसे वे
जैसे पले खटमल।
श्रमिकों की विचित्र दशा
कड़ा श्रम करके
पाये हुए पैसे को
जुआ में, शराब में,
ताड़ी, सिगरेट, बीड़ी पीने में
पानी के समान
बहा देते हैं।
कवि को यह देखकर
खेद हुआ, किन्तु
उसे आशा थी
उनसे जो कल्पना के लोक से
खाकर के भाव नये
जनता के, मानव के
भावों को उठाते हैं
हृदय विकसाते हैं।
इससे वह कवियों के
पास गया, उनसे भी बातें की
लेकिन उनकी तो दशा
और भी शोचनीय थी।
जहाँ उन्हें समाज दशा
देख कर रोना था,
करुणा का दान कर
आंसुओं की धारा से
मोह ग्रस्त लोगों के
मनों का मैल धोना था,
वहां वे विलासिता के
पंक में ही गहरे धँस के थे गाते गीत
विषयी प्रणय के।
प्रेयसी के कटाक्ष
घायल कर उनको
जीवन की शक्ति से
बना रहे थे वंचित।
बहुत निराश होकर
कवि आया अपने निवास पर
मानव किस ओर जाता
उसका उद्धार कैसे
हो सकेगा, इसी गूढ़ चिंता में
डूब गया,
अपने कर्तव्य की ओर भी
गया ध्यान उसका
किन्तु यह विचार
आया शीघ्र ही-
मुझ में कहाँ शक्ति है।
जो हो, यह कह कर ही
अपने कार्य क्षेत्र से
भाग सकता भी नहीं
नहीं है कभी संभव
तो फिर है विश्व के
महान कवि, साहित्यिक,
आओ मेरी प्रतिभा में
नई शक्ति भरने।
कहाँ बाल्मीकि हैं,
कहाँ हैं कालिदास,
वेदव्यास, भवभूति, तुलसी और मीरा,
फिरदोसी, हाफिज,
शेक्सपियर, गेटे और मिल्टन,
रवीन्द्र महाकवि यश जिनका
है भूतल में फैला।
अपनी महान प्रतिभा का
एक कण मुझको दें,
भाव समुद्र
लहराये मेरे मानस में
लेकर इस चिनता को
कवि था यों खोया हुआ
भूल गया अपने को
और उसने जाना नहीं
कब निद्रा देवी ने
आकर धीमे पाँव
बाहुओं में कस लिया।
निद्रा के द्वारा
कवि स्वप्नलोक में गया,
महारानी प्रकृति के
दर्शन हुए वहाँ-
परम गम्भीर और
वत्सलतामयी मुद्रा,
अधरों पर
मधुर हँसी
सहज ही पवित्र प्रेम प्यारा
उमंगाती थी।
बोली वे-
‘हे कवि!’
तुम्हारा दुःख
मैंने सब समझा।
धैर्य धरो,
शीघ्र ही
ऊषा से तुम्हारा
मैं परिचय कराऊँगी
तुमको प्रकाश देगी,
जिससे तुम्हारे सब
शोक मिट जायेंगे।”
इतनी ही बातें कह
प्रकृति चली गयी
स्वप्न भंग हो गया।
जागरण पाकर
कवि ऊषा की प्रतीक्षा में
दत्त चित्त हो गया।
आयी ऊषा
यौवन की
मंजुल लावणय की
मूर्ति सी
निर्मल सरोवरों के
शीशे में
शोभा देख कर अपनी
फूली न समाती थी।
कवि ने की वंदना
ऊषा ने भी किया अभिवादन
मधुरता भरे कोकिल के स्वर में
और कहा-
”वाणी पुत्र।“
महारानी प्रकृति से
मुझको
तुम्हारा सब हाल ज्ञात हो चुका है,
जानती हूँ-
लोक की वेदना से
तुम हुए विचलित।
मेरी प्रिय भगिनी है-सूर्यमुखी,
चलो तुम
उससे मिला दूँ, तुम्हें,
उपचार कर देगी
सारा ही तुम्हारा वह,
अनुभव पाओगे विचित्र
महा कविवर।
उससे तुम्हारी
कमजोरी मिट जायेगी।
”चलो देवि“
कह कर के
कवि हुआ, ऊषा देवि अनुगामी।
ऊषा ने उपस्थित कर कवि को
सूर्यमुखी सामने
कवि के उद्देश्य सब
उसने समझा दिए।
समय नहीं था
उसे शीघ्र कहीं जाना था
कवि को असीस देकर
वहाँ से चली गयी।
सूर्यमुखी,
सूर्य की प्रिया थी वह
ऊषा की बहन छोटी ।
पाया था प्रफुल्ल,
उन्माद भरा यौवन उस बाला ने,
कवि ने न देखा था
ऐसा दिव्य लावणय
कल्पना की
ऊँची उड़ान में भी,
रूप पर मोहित हो
एकटक
वह उसे देखता ही
रह गया।
उसकी परवशता को
उसकी विमुग्धता
सूर्यमुखी जान गयी।
बोली-खुले शब्दों में-
”हे कवि!“
तुम्हारी यह अनुरक्ति
ठीक नहीं।
कार्य क्षेत्र विस्तृत तुम्हारा है,
तुमको हैं बड़े कार्य करने।
तुमको उन्मादित
महानद की भांति ही
होना है प्रवाहित,
सोचो मत
बंधे जल छोटे तालाब के बीच
डूब जाने की।
तुम्हीं एक आशा हो
मानव समाज के।
भावनाएँ ऊँची करो
ऊँची उठें लहरें
मानस के समुद्र में।
महारानी प्रकृति का
जीजी ऊषा का
आदेश मिला मुझको
कि मैं तुम्हें बताऊँ
पुष्पनगर व्यवस्था सब।
चित्त करो स्वस्थ और-
बातें सुनो मेरी।
विश्व के समस्त नगरों में
पुष्पनगर महान है।
पैसे पर आधारित
यहां का प्रबन्ध नहीं
यहाँ पर प्रेम ही है मूल मंत्र।
इसके विपरीत ही
मानव समाज में
पैसे का बोलबाला है।
पैसा नहीं जिसके पास
उसको कोई भी नहीं पूँछता।
विश्व के सुकवियों ने
पुष्पनगर ही से आदर्श का
किया है प्रचार सदा
तुम भी वही करो।
यहाँ के रहस्य सब खोल कर
सामने तुम्हारे
रख दूँगी मैं-
सोचते हैं मूर्ख लोग
यहाँ नहीं शासन
किन्तु यहाँ शासन व्यवस्था बड़ी चौकस है।
शासन अध्यक्ष हैं
गुलाब पुष्पराज
महामंत्री है कदम्ब कुलश्रेष्ठ
खाद्य, जल मंत्री अरविंद हैं।
शिक्षा और स्वास्थ्य
मंत्री हैं अशोक पुष्प
रक्षामंत्री पुष्प भटकटैया विख्यात हैं।
नारी उत्थान के लिए भी
एक मंत्री यहाँ, श्रीमती चमेली
हैं नियुक्त।
सूर्यमुखी बातें सुन
घूम कर भव्य पुष्पनगर विभागों में
कवि ने यह प्रश्न किया-
”किन्तु देवि, एक बात तुमने बतायी नहीं,
क्या तुम्हारे यहाँ
काव्य, चित्र, संगीत आदि
सुन्दर कलाओं की
व्यवस्था नहीं है कुछ?
यह तो अभाव बड़ा भारी है
तेज भरे स्वर में तब हल्की मुसकान साथ
सूर्यमुखी ने कहा-
कैसे यह सोच लिया,
काव्य का, कलाओं का
आदर नहीं हैं यहाँ?
यहाँ है अनेक दक्ष सुकवि, महाकवि भी
और एक राष्ट्र कवि-
जिनके नेतृत्व में
सारा ही शासन प्रबंध यहाँ चलता।
इसी से यहाँ कभी
संघर्ष नहीं होते,
सभी के लिए है
यहाँ जीवन भरा सुख से।
”देवि, पुष्पनगर के
शासन संचालकों से
मिलने की अभिलाषा
मुझे हो रही है
क्या उत्कंठा मेरी यह
तृप्त कर दोगी तुम?
कवि का यह प्रश्न सुन
सूर्यमुखी ने कहा-
हे कवि, रहे होतुम
दिन भर भ्रमण में
हो रही है संध्या
अब चल के विश्राम करो
सुंदर अतिथि निकेतन में
पुष्पों की शैया पर।
करके प्रणाम
बड़ी बहन ऊषा देवी को
तुम्हें ले चलूँगी कल
सबसे मिलाने को
पहली तुम्हारी भेंट होगी अध्यक्ष
पुष्पराज श्री गुलाब से।“
यह कह सूर्यमुखी आगे चली चपला सी
अपने भवन को
कविवर को साथ लिये।
वहाँ जब पहुँचे,
सुन्दर खजूर और श्रेष्ठ मधु द्वारा
सत्कार हुआ उनका।
तृप्ति पाकर
कवि जमुहाई लगे लेने,
बोली तब सूर्यमुखी
हे कवि! विश्राम करो शैया पर
नमस्कार, जाती हूँ अब मैं
अपने शयनागार में।
दूसरा पुष्प
ऊषा दूत अरुणा शिखा की
ध्वनि सुन कर
जागरण पाया,
अरुणाई भरे कवि के नयन ने,
मन में उमंग आयी
गाने लगा गीत उसी स्वर में,
मिला के स्वर अपना।
जगी उत्कंठा,
शीघ्र नित्य कर्म पूरा कर
बैठ गया
सूर्यमुखी की प्रतीक्षा में।
आयी सूर्यमुखी
लावणय भरी देह भर-
धारण किए पीली साड़ी
उल्लास नया नेत्रों में,
मुसकान लहरा रही थी अधरों पर।
बोल पड़ी
चलिये प्रकृति पुत्र!
अध्यक्ष अब आसन पर
होंगे विराजमान,
पहले ही उनसे हमारी भेंट हो ले।
यह कह कर सूर्यमुखी आगे बढ़ी,
कविवर को साथ लिए।
सुन्दर अध्यक्ष भवन
शीघ्र ही दिखलायी पड़ा-
पहरेदार काँटे खड़े
द्वार रक्षा में थे लगे।
देख सूर्यमुखी को
झुक गए, मार्ग दिया उसको।
किन्तु जब देखा एक मानव को
होकर सशक्त खड़े हो गये।
कवि दीन हीन सा
जहाँ था वहाँ ही रुका रह गया।
सूर्यमुखी ने कहा-
हे कवि अधीर मत होना तुम
नियम यहाँ का यही,
जाती हूँ अध्यक्ष पास मैं अभी।
उनकी विशेष आज्ञा लेकर
शीघ्र आती हूँ।
मानव प्रवेश के लिए
है वह आवश्यक।
यह कह गयी वह
और लौटी ले आदेश उनका।
काँटो ने राह छोड़ी
कवि चला सूर्यमुखी साथ बड़े हर्ष्ज्ञ से।
अध्यक्ष सिंहासन
काँटों का दिखलायी पड़ा
जिस पर वे बैठे थे
एक योगी से जमकर आनन्द में विभोर हो।
दोनों जब पहुँचे,
उनके गुलाबी नेत्र
खिल पड़े सहसा,
बोले मधुर वाणी में-
बहन सूर्यमुखी कहो,
कैसे किया कष्ट
प्रातःकाल यहाँ आने का?
कौन ये तुम्हारे साथ
कैसे सहयोग यह मानव से
हो गया तुम्हारा है?
बोली वह सरलता भरे शब्दों में-
”मान्यवर! ये मानवों के प्रतिनिधि हैं,
आये हैं, मानवों के लोक से
और बड़े पीड़ित हैं,
मानवों का अत्याचार और स्वार्थ
देखकर मानवों के ऊपर ही।
जानने को आये हैं,
राज्य शासन व्यवस्था
हमारे नगर की।
ये हैं कवि प्रकृति के,
प्रकृति के आदेश से
ऊषा जीजी के साथ
मेरे पास आये थे।
आप सब समाधान इनका करें
बोले अध्यक्ष तब-
हे कवि! स्वागत तुम्हारा है
सम्मान दिया हमको
इसके लिए भी धन्यवाद तुम्हें देता हूँ।
शांति और सुख की
हमारे यहाँ वृद्धि है,
कारण बताता हूँ,
ध्यान देकर सुनो।
सम्पूर्ण राज्य में
हमारे यहाँ,
पंचशील मान्य है,
कोई राष्ट्र पुष्प संसार में
कितना भी छोटा हो,
कितना भी शक्तिहीन,
किन्तु कोई उस पर
करेगा नहीं आक्रमण,
राज सत्ता मान्य ही रहेगी।
कोई निर्धन हो, नीच हो
धनवान और उच्च द्वारा
नहीं होगा
तिरस्कृत,
सब के समान अधिकार
माने जायंेगे।
जियो और जीने दो,
सुविधायें लो, और-
सुविधाएँ देते चलो,
सभी यहां करते हैं
मित्र का सा,
बन्धु का सा व्यवहार,
आदान और प्रदान
सदा चलता है
द्वार नहीं बंद
कभी होता है
भूख और प्यास से
दुखी जो कभी आते हैं।
भूत यहां पीछा नहीं करता
छुआछूत का
ईर्ष्या, द्वेष, घृणा का
यहाँ नहीं है संचार,
प्रेम का आधार
यहां जीवन का सार है।
इसी से हमारे यहाँ
होते नहीं महायुद्ध।”
अध्यक्ष बातें सुन
कवि ने कहा-महोदय!
मुझे है अपार हर्ष
जान कर, जिस तरह
मौन और नीरव ही
विघ्न बिना
संचालित करते हैं
आप लोग जीवन की शान्ति को,
किन्तु मेरी जिज्ञासा
बढ़ती ही जा रही है,
प्रश्न कितने ही हैं,
जिन्हें सुलझाना है,
करिए तदबीर कुछ
मेरी तृप्ति की।”
अध्यक्ष उत्तर में बोले सूर्यमुखी से-
“देवी, इन्हें ले जाओ
महामंत्री पास।”
“जो आज्ञा”
कह कर यों
सूर्यमुखी ने नमस्कार किया
कवि ने प्रणाम किया,
दोनों ही
अध्यक्ष के यहां से
चले कुलश्रेष्ठ कदंब पास।
तीसरा पुष्प
अध्यक्ष श्री गुलाब-
कक्ष से निकल कर
सूर्यमुखी आगे बढ़ी
साथ लिए कवि को
मिलने के लिए
महामंत्री श्री कदंब कुलश्रेष्ठ से।
ऊँची तरु डाल पर
घिरे हुए
चाटुकार पक्षियों से
दिखलायी दिए महामंत्री वे
अपनी ही मादक महत्ता की
सुगंध में
डूबे हुए आप ही,
पता नहीं उनको था
कौन वहाँ आता है
और कौन जाता है,
उदासीनता की
भावना थी वहाँ
अहंकार मान लेना जिसको
स्वाभाविक था।
कवि को
परिस्थिति यह खली
लगी ठेस सी-
उसके स्वाभिमान को
फिर भी उठे क्रोध को
उसने दबाना ही
माना कल्याणकर।
भीड़ दरबारियों की
छंटी क्रम-क्रम से,
दृष्टि महामंत्री की
सूर्यमुखी और कवि
ओर गयी सहसा;
नमस्कार कर के तब
सूर्यमुखी ने कहा-
”मानवों के लोक से
आये ये कविवर;
देखने को पुष्पनगर निवासी,
पुष्प मंडल का
जीवन विधान
प्रिय शांति बसी जिसमें।
मोद मय झोंका लगा हवा का
हिले श्री कदंब और बोले-
”मानवों के मान्य कवि आप ने पधार कर
आदर दिया हमको
मानवों में ज्ञान और विज्ञान को
कोई भी कमी नहीं है,
केवल गुण ग्राहकता वश ही
पधारे आप
स्वागत है आपका।
शिशिर की ठंडी हवा
भाती नहीं पेड़ों को,
प्रेम उपजाती नहीं
उलटा बढ़ाती क्रोध,
होकर वे बावले से
पत्ते फेंक-फेंक कर
नंगे बन जाते हैं।
महामंत्राी स्वागत भी
इसी तरह
भाया नहीं कवि को,
क्रोध जो दबा पड़ा था
रुका नहीं रोकने से
फूट पड़ा
तीखी और तेजमयी
वाणी में …
”महामंत्री, आया मैं,
सीखने के लिए ही
कुछ मर्म भरे तत्वों को
लेकिन जो देखता हूँ
ढंग आप लोगों का
उससे निराशा ही
हो रही है मुझको।
प्रेम पूर्ण सहजीवन
बली और दुर्बल का
आक्रमण हीनता में
निर्मल अहिंसा में
सब के विकास में
आदर की धारणा-
इन पर अवलम्बित जो
पंचशील माने गये
सुना था,
स्वीकार आप लोग
उन्हें करते।
किन्तु यहाँ उसका
सब उलटा ही देखता हूँ।
यह कह कवि मौन हुए,
जैसे आग बिजली की
भीतर छिपाये हुए
कभी-कभी मेघ
शांत, नीरव हो जाता है।
खाकर के चोट सी
बोले महामंत्री तब-
”कविवर! शरमिन्दा हूँ
बातें सुन आपकी,
इच्छा के विरुद्ध
कौन ऐसी बात हो गयी,
जिससे दिया
भारी इल्जाम यह आपने?“
कवि ने तब तुरन्त
दिया यह उत्तर-
”आप पूँछते हैं,
तो बताता हूँ, सुनिए-
नीचे मैं खड़ा हूँ
और आप
चढ़े ऊँचे पर,
नम्रता का क्या
यही है रूप पंचशील में?
देवता की तरह है
जो अतिथि पधारे कभी
सज्जन खड़े होकर
उसको बैठाते हैं,
भीतर से अहंकार
बाहर से नम्रता-
कपट का ढंग यह
और भी बढ़ाता क्रोध
इससे तो अच्छा है
खुला अपमान हो,
न कोई संदेह हो।“
”ठीक कहते हैं आप“
कहा महामंत्री ने,
”स्वागत में छल हो तो
त्यागने के योग्य वह,
कपट प्रवेश
कभी ठीक नहीं प्रेम में।
किन्तु अपराधी
मैं नहीं हूँ इस पाप का।
सत्य है, मैं
ऊपर से नीचे नहीं आ सका,
मेरे बंधनों को
आप नहीं जानते।
आसन जो छोड़ कर
नीचे गिर आऊँ मैं,
सेवा का क्षेत्र मेरा
होगा फिर संकुचित।
लेकर सुगंध मेरी
यहाँ से सहज ही
दूर दूर तक हवा
बाँटती है लोगों में,
नीचे मैं रहूँ तो
यह होगा नहीं संभव।
अपने कर्तव्य का भी
पालन करता हुआ
स्वागत करता हूँ
यदि सच्चा स्नेह लेकर
तो उसमें मुझे तो
कहीं ऐब नहीं दिखाता।”
”बंधन को लेकर भी
आप तो प्रसन्न हैं,
उत्कंठा आप में
दिखलायी नहीं पड़ती
बंधन से-
मुक्ति प्राप्त करने की,
यह तो है दासता,
पाता है राष्ट्र गति
जिसकी ही गति से,
दासता में मग्न हो
वही तो
क्या आशा भला
राष्ट्र के कल्याण की?
पंचशील जैसे उच्च सिद्धान्त
पायेंगे
कैसे उन्नति
भला ऐसे कार्यकर्ता से?“
कवि के इस उत्तर से
पहले निरुत्तर से
देख पड़े
बोले फिर भी कदंब-
‘कविवर!
मैं मुक्ति नहीं मानता हूँ उसको
जिसमें नहीं है शेष
कोई भी बंधन,
निर्विशेष,
अनासक्त, बंधन विहीन ब्रह्म
आप ऊब बंधन विहीनता से
ओढ़ता है बंधन को सुख से,
जैसे आम वृक्ष
अपने ही उन्माद से
मधु ऋतु के आने पर
इत्र से आमोदित सी
बौरों की चादर
सप्रेम ओढ़ लेता है।
बंधन के बिना मुक्ति
वैसे ही असार होगी
जैसे धान में से
कण चावल का
त्याग कर आप भूसी बनता है
मानवों के प्रतिनिधि!
दासता ही होती पास
मेरे यदि,
तो न कभी आते कृष्ण
छाया तले मेरी
आती नहीं गोपियाँ
स्वतंत्रता की प्यास लिए
रसिक कृष्ण साथ
रासलीला रचने।
एक बात और कहँू,
स्थान छोड़ अपना
कोई भी विश्व में
महत्व नहीं पा सका,
आप चढ़ जायें ऊँचे
और नीचे मैं चलूँ
समता की समस्या कभी
इससे न हल होगी।
पंचशील सिद्धान्त की
नहीं है मान्यता कि
पर्वत समुद्र बने
सिन्धु बने पर्वत
सच तो यही है,
हमें दोनों सदा चाहिए,
अपनी ही जगहों पर।
आशा है, बातें ये विचार कर
आप होंगे शांत चिरा
और पुष्प मंडल को
देंगे शुभ आशीर्वाद।“
प्रेम पूर्ण शब्दों में
महा मंत्रीवर का
सुन कर व्याख्यान यह
और पाकर आश्वासन
कहा तब कवि ने-
”कहना आप का
मुझे मान्य हुआ मंत्रीवर।
जीवन का एक गूढ़
ज्ञान यहाँ मिला मुझे।
जाना चाहता हूँ अब
अन्य मंत्रियों के पास
नमस्कार मेरा अब
अंगीकार कीजिए।“
खा कर हवा की धौल
हिले श्री कदंब
क्षमा याचना सी करने को,
हवा की सजगता से,
महामंत्रीवर की प्रमोदमयी मुद्रा से
होकर प्रभावित
सूर्यमुखी अनुगत हो
कक्ष में से निकले।
चौथा पुष्प / खाद्य एवं जल मंत्री से भेंट
सूर्यमुखी और कवि
पहुँचे जब
खाद्य और जल मंत्री
कमल के कक्ष में
जहां गा रहे थे
सुन्दर प्रबन्ध के प्रशंसा गीत
भौंरे अनुराग भरे
सारा कक्ष गूंजता था, जिससे
प्रसन्न हो कर
कमल प्रफुल्ल थे।
नमस्कार के अनंतर
इस भाँति दिया परिचय
कविवर से
सूर्यमुखी देवी ने कमल का-
‘ये हैं पुष्पनगर के
खाद्य और जल मंत्री
इनके परिश्रम से
यहां सुन्दर व्यवस्था है
भोजन की, जल की।
कभी किसी वस्तु की भी
यहाँ कमी होती नहीं,
आता है अकाल नहीं
कभी यहाँ स्वप्न में।“
”देवि! खाद्य और जल मंत्री
आप ने बताया,
चाहता हूँ जानना मैं
दलदल के मंत्री भी तो
कहीं यह हैं नहीं“
लेकर स्वर और शैली
व्यंग की
कवि ने मुसकाते हुए
सूर्यमुखी से कहा।
कमल तत्काल बोले,
”कविवर! मैं
दलदल का मंत्री भी अवश्य हूँ।
पंक से है मेरा जन्म
पंकज कहलाता हूँ,
पुष्पनगर में ही
वह कला हमें ज्ञात है जो
नीच और अपमानित
को भी यश देती है।
मानवों के लोक में तो
यही है समस्या नित्य
कैसे नीच और उच्च-
में हो समता प्रसार
बड़े बड़े युद्ध होते
होती विकराल क्रान्ति
थोड़ी सी
विषमता तब
कहीं मिट पाती है।
मानवों के दलदल में
व्यक्ति की तो बात ही क्या
जातियाँ समाप्त होती,
राष्ट्रों का विनाश होता,
अंधकारमय होता
मानव भविष्य ही।
ऐसी बात
संभव नहीं है
‘पुष्पनगर में’
यहां जहां दलदल है,
आशा भी वहीं है,
एक नूतन विकास,
एक नए निर्माण की।
भावना भी यहां जब
पाप की आ जाती है
मिलता है कठोर दंड,
बंद कर देता हूँ
खाद्य और जल अपराधी का
मानवों के यहाँ तो
अशुद्ध भावना ही नहीं
कर्म भी
अशुद्ध होते
और नहीं होता है
फिर भी दंड का विधान
ऐसा जिससे हो
शुद्ध जीवन की धारणा।
देवि सूर्यमुखी!
कहीं मैंने यह बात सब
केवल प्रसंगवश
व्यंग, तिरस्कारमयी-
वाणी सुन कवि की।
मानवों का कितना
पतन है
आवश्यक हो तो
कुछ और भी सुनाऊँ मैं।“
उत्तर में सूर्यमुखी ने कहा-
”सत्य ही की
खोज के लिए
यहां पधारे हैं मानवों के
कविवर, जो कुछ भी
कहेंगे आप
उसमें से आवश्यक
सार ये निकाल लेंगे,
आप कहे चलिए।“
सूर्यमुखी को ही
सम्बोधित कर
कमल फिर कहने लगे थे
”देखिए तो,
मानवों के कवि हैं वे
और दशा इनकी है जैसी
वह सामने हैं आप के।
चिन्ता से
बल पड़ा माथे पर इनके,
आंखें धंसी भीतर को,
चेहरे के दोनों ओर
हड्डियाँ ठोड़ी से मिलकर
त्रिभुज सा बनाती हैं,
अभी-अीाी
आयी है जवानी
किन्तु असमय ही
उसको भगाया मार
सबल वृद्धावस्था ने।
मानवों ने कितना
अपमान कवि का है किया,
आंकी नहीं कीमत कुछ
उसकी सेवाओं की,
मानते नहीं हैं वे कि
इन कवियों के द्वारा
जीवन की शक्ति
सदा पाते हैं
मानव जब भूल कर
सेवा भाव,
सौजन्य, शील सब
जानवर सा होता है,
या बनकर हिंसक,
दुराचारी परपीड़क
वह दानव बन जाता है,
कवि ही निज प्रतिभा के
रस से सींच
सूखी हुई बुद्धि लता को
हरी-भरी फिर करता है,
और सूखी हुई
भावनाएं फिर जाग जाग
अमृतमय, प्राणमय-
लेकर पदध्वनियां
मानव के मानस के
आँगन में नाचती है-
ऐसा कवि
कितना उपेक्षित है
आज नरलोक में।
सूर्यमुखी से यह कह
दृष्टि कवि ओर फेरी
मन्त्री अरविंद ने
और कहा-
”कविवर! स्वागत तुम्हारा है
हमारे यहाँ आए हो
देखने के लिए
यहाँ शान्ति का क्या मूल है।
सुन लो बतलाता हूँ,
कवि का महत्व
यहांँ ठीक-ठीक आँका गया,
उससे ले प्रेरणाएँ
शासन चलाया गया
राष्ट्रपति से भी उच्च
आदर हमारे यहाँ
राष्ट्रकवि को मिला।
पहला सत्कार
हम कवियों को देते हैं
हृदय का रस पान
उनको कराते हैं,
गूंजमयी वाणी सुन
धन्य बन जाते हैं।
केवल प्रफुल्लता में
मोद आमोद के समय में ही
हम अपने कवि मधुपों को
मान दिया करते हैं-
ऐसा भी सोचा मत,
गिरे दिनों में तो हम
उन्हें और मानते हैं,
आती जब संध्या,
सूर्य अस्ताचल जाते हैं,
गौरव-विकास के
हमारे सब प्यारे स्वप्न
मिटते हैं साथ ही,
अपने कवि मधुकर को
लेकर के गोद में
हम काटते हैं रात।
दुख की घड़ियों में
हम अपना सुख भूल सके
किन्तु अपने कवि को
अपने कलेजे में ही
हमने बैठा के रखा,
झंझा, तूफान
हम लोग झेल लेते
धू धू करती जो आग
उसकी भी लपटें
कर लेते सहन।
परन्तु यदि
कवि को हमारा दुखी
सहन न होगा हमें,
मरने के समान ही
कष्ट होगा हमको।
हम यह मानते हैं-
सभ्यता की, संस्कृति की
दृष्टि से
कोई राष्ट्र कितना समुन्नत है,
यह जानने की
बस एक ही कसौटी है-
कवियों का आदर
वह कितना है करता।
हमको प्रसन्नता है,
तिरस्कार पाकर भी
अपने कर्तव्य को
निबाहने में हो लगे
खोजते ही फिरते हो
मानव सुख साधन।
व्यंग किया आपने
न उसकी चिन्ता है हमें
न उसकी चिन्ता है हमें
कवियों की वाणी का
व्यंग एक भूषण है
हर्ष मुझे है बड़ा
पीड़ा निज भूल कर
चमत्कार वाणी का
सुन्दर दिखला सके।“
मंत्रीवर कमल के शब्दों का
बड़ा ही प्रभाव पड़ा
कवि पर, वे बोले-
क्षमा करो मेरी भूल,
मान्यवर! मेरी
व्यंगमयी वाणी
डसने के लिए नहीं
प्रेरणा के लिए थी,
हल्का, निर्दोष
मनोरंजन था उसमें।
मेरी दीन दशा का
जो चित्र खींचा आपने,
उसमें बस थोड़ी बात
कहनी है मुझको।
सच्चा काव्य
सांसारिक साधन का
होता नहीं अनुगामी,
अंतर की उच्चता ही
उसकी जन्म दात्री है।
धन्यवाद आपको है,
आगे अब जाऊँगा,
दूसरे मंत्रियों से भी
मिलना अभीष्ट है,
नमस्कार लीजिए।“
कमल से ले करविदा,
नमस्कार कर के
सूर्यमुखी आगे बढ़ी
पीछे चले कविवर।
पाचवाँ पुष्प / शिक्षा एवं स्वास्थ्य मंत्री से भेंट
खाद्य और जल मंत्री
कमल के कक्ष से
थोड़ा ही आगे
सूर्यमुखी और कवि बढ़े थे,
तभी सुन्दर सद्भावना की
शीतल सुगन्ध से
बोझिल सा झोका एक
मन्द-मन्द माहत का आया
कुछ और आगे बढ़े,
सुन्दर प्रपात एक मिला
किसी प्रतिभामय व्यक्ति की
प्रशंसा गीत सा गाता हुआ,
आस पास पक्षियों की
चहचह थी मची।
एक-एक कदम ज्यों ज्यों
आगे पड़ता था
त्यों-त्यों
चित्त में निराली शान्ति
आप धँसी आ रही थी,
कवि को न भेद यह
आया कुछ समझ में।
देवि! यह बात क्या है?
पुष्पनगर का
यह कितना धन्य मार्ग है।
मिलता है
विलक्षण विश्राम मुझको यहाँ
कहाँ चल रही हो?
वह कौन है महान व्यक्ति
जिसके मिलने के पहले
पा रहा हूँ इतना सुख
जितना नहीं पा सका हूँ
अभी कहीं भी यहां“
सूर्यमुखी बोली
”बोली! अब चलती हूँ मैं
शिक्षा और स्वास्थ्य मन्त्री
श्री अशोक पास,
जहाँ जीवन का प्रकाश सच्चा
आप को मिलेगा, और
यात्रा यह आप की
प्राप्त कर लेगी
वह कुंजी सफलता की
जिससे ही रहस्य सब ज्ञान के
बंद पड़े ताले में
आप खुल जायेंगे।
देखिए, अब आया
वह उपवन
और सामने ही
थोड़ी दूर पर
खड़े हैं अशोक वृक्ष
एक बड़ी पंक्ति में
इनकी ही डाल पर
सुन्दर लहरदार
हरी-हरी पत्तियों के बीच में
शोभा पा रहे हैं
वे अशोक पुष्प,
जिनसे ही हमको है मिलना।
यह कह सूर्यमुखी
शांत हुई
कवि ने भी धारण की मौनता।
थोड़ी ही देर में
गति शील पाँवों ने
पहुँचाया उनको
अशोक पुष्प के सामने
सुन्दर स्वरूप देख
भावमग्न हुआ कवि
श्रद्धा की उमंग
लहरायी हृदय में
नत शिर हो गया
सहज ही, और फिर बोला-
हे पुष्पेश्वर अशोक!
मिला दर्शन शुभ आपका
मैं हुआ कृतार्थ,
कुछ सुनना अब चाहता हूँ
गूढ़ बातें, जीवन के
निर्मल प्रवाह में,
जिन्हें जान कर के
उबरे डूबा हुआ मानव।
मैं अशांत होकर चला
मानवों के लोक से
सूर्यमुखी देवी ने
कर के असीम कृपा
मुझको मिलाया
पुष्पनगर अधिकारियों से
बना इनका ही अनुगामी
यहां आया हूँ।
आपका महान यश
यहीं नहीं मैंने सुना
मानवों के लोक में भी
ख्याति बढ़ी आपकी।
कौन नहीं जानता कि
आप की छाया में बैठ
पायी शान्ति सीता ने
जिनको महान अन्यायी, क्रूर
रावण ने
बंदिनी बनाया और
आप की छाया तले
जा कर रखा मूर्ख ने
भूल कर
आप के प्रभाव और
शान्ति भरे भाव को।
साधक को शक्ति देती
चैत्र शुक्ला अष्टमी ज्यों
और सुख देती है
मानव को
फाल्गुन की पूर्णिमा
त्यों ही आप
विश्व के विकाश को बढ़ाते हैं
जीवन की शुष्कता का
नाश कर
उसमें वसंत की
उमंग नयी लाते हैं।
आपकी सेवा में लगी
रहती जो पत्तियां हैं,
शोभामयी, लहरदार
वे भी तो मानवों के
घर के दरवाजे पर
लिये संदेश मंगलमय,
संगठित होकर दिव्य
बंदनवार में
दिखलायी पड़ीं।
जहाँ नहीं जा सकीं वे
वहीं पर दुर्भाग्य का
निवास माना गया,
और जहाँ आप पहुँच जाय
वहां का क्या कहना।
और मौर्य वंश का
यशस्वी सम्राट वह
दो हजार वर्षों के
बीत जाने पर भी
जो आज भी हमारे
इतना करीब लगता।
जिसने महान बुद्ध
के प्रकाश दीपक को
सारे विश्व में किया
प्रेम से प्रसारित,
जिसकी अनमोल शिक्षाएँ
लिखी मिलती हैं
स्तम्भों पर
और शिला पट्टों पर
वही राज राजेश्वर
जिसका अशोक शुभ नाम था।
शोक से विहीन हुआ
यह तो सब जानते हैं
किन्तु कम जानते हैं
कैसे वह
हिंसा का पुजारी
महाक्रूर शासक
होकर अशोक
बना शान्ति का उपासक।
क्या यह आवश्यक है-
विश्व को बताया जाय,
एक दिन
कर के कलिंग विजय
रक्तपात दृश्यों से
होकर के विचलित
आप ही की छाया तले बैठे थे
और जिन युवकों
आप ही के ऐसा खिल खिल कर
जीवन का, विश्व का
बनना था अलंकार,
तलवार की भेंट उन्हें
देख दम तोड़ते,
अन्याय, अत्याचार से विचलित
सोचने लगे थे
कौन सा मार्ग होगा श्रेयस्कर?
बोधि वृक्ष ने दिया था
बुद्ध को प्रकाश
और तुमने दी ज्योति
उस योद्धा सम्राट को,
जिसके प्रभाव से
रक्तपात भूल कर
हो गया प्रचारक वह शांति का।
इसे सब जानते हैं
मैं भी पहचानता हूँ
तुममें जो अपार शक्ति
भरी है, मनुष्य को
आत्म स्थिति करने की
शिक्षा और स्वास्थ्य की
व्यवस्था में प्रवीण
तुम युग युग से
मानव को
चेतना से चौकस
बनाते चले आ रहे हो।
शरण में तुम्हारी आज
मैं भी आ गया हूँ
अब मुझ पर कृपा कर
बतलाओ कैसी मिले शिक्षा
जिससे शांति विश्व में
निवास करे सुख से
और मानव चैतन्य हो
लग जाय पालन में
अपने कर्तव्यों के।
कवि के उदगारों से
चकित हो सूर्यमुखी
उसके चेहरे और
दृष्टि किए, रही
बातें सब सुनती,
हालत देख दोनों की
प्रेम के प्रभाव से
प्रफुल्ल होकर
हलकी मुसकान साथ बोले वे-
”देवि सूर्यमुखी और
मानव कवि श्रेष्ठ सुनो,
मैं हूँ जड़ पुष्प मात्र
मुझमें सामर्थ कहाँ
मैं प्रकाश दूँ अशोक जैसे ज्ञानवान को
मुझमें नहीं है शक्ति
कर पाऊँ
आप का, या
सूर्यमुखी देवी का समाधान
यह सच है, फिर भी
मैंने देखा है,
अपनी ही छाया में
चिन्ता में मग्न उस तेजस्वी सम्राट को।
पंचशील का विधान
जिसने दिया विश्व को
जिसने ज्ञान गणपति का, बुद्ध का
प्रचारित किया घर घर।
हिंसा मत करो,
मत भाषण असत्य करो
चोरी का त्याग करो
पालो नियम शरीर स्वास्थता के
और मादक जो द्रव्य है
त्याग करो उनका-
इन उपदेशों का व्यवहार
जिसने कराया
व्यक्ति व्यक्ति से
और राष्ट्र राष्ट्र से
वहीं गुरु जग का
वहीं है समर्थ
बतलाये फिर आकर
कैसी हो शिक्षा?
इस युग के मानव की
और किस प्रकार स्वास्थ्य
मानव का रक्षित हो?
किन्तु उस ज्ञानी और सिद्ध से
ज्ञान परम्परागत
मिला है जो मुझको
वही मैं कहता हूँ
ध्यान दे कर सुनो।
शिक्षा वह तत्व है
जिससे जहां हो
अंधकार घना
वहां भी प्रकाश हो।
उससे सब उन्नति की
नित्य प्रेरणाएं मिले
प्रगति की,
केवल पशुओं की तरह
जीवन चलाये नहीं,
खाकर मर जाये नहीं
ऐसा कुछ काम करे
लाभ हो स्वदेश का ही नहीं
इस सारे विश्व के
मानवों का, प्राणियों का
कल्याण हो।
खेद है,
वैसी शिक्षा की ओर
ध्यान अब
किसी का भी है नहीं।
मानव अधिकाधिक
पशुता की ओर
ढला जा रहा है,
सच्ची मानवता की
ज्योति नहीं पाता वह
और बिना उसके
सूखता ही जा रहा है
जैसे सूख जाता है
बिना पानी मिले, उगा
नया, नया पौधा।
एक बात कहना मैं चाहता हूँ,
किन्तु कहने के पहले
सूर्यमुखी देवी से
प्रश्न है-
क्या वे मुझे क्षमा दान
कृपाकर कर देंगी?
यदि मैं यह कहूँ,
आज नारी ने बिगाड़ दिया
मानव का संतुलन
ज्ञान बन गया है
केवल अर्थ साधन।
नारी ने मानव को
विवश बनाया है कि
उच्च स्तर वाला ज्ञान
त्याग कर
निम्न स्तर वाले
ज्ञान का ही
वह पुजारी बने।
यह कह अशोक पुष्प
भाव जानने के लिए
सूर्यमुखी मन का
मौन रहे थोड़ी देर,
इस बीच सूर्यमुखी
नारी समाज पर
दोषारोपण सुन कर
अपने विचार
व्यक्त करने लगी शान्ति से।
”सभी जानते हैं संसार में
अन्याय कभी होता नहीं
आप से, अशोक भाई!
फिर यह कैसी
उलटी सी
बात देखती हूँ
आप में,
और यह कैसी है विडम्बना।
ऊपर से
आप क्षमा माँगते हैं!
अपनाया आपने
बड़ी दक्षता के साथ
ढंग यह आधुनिक!
आप को बधाई
दे रही हूँ इसके लिए।
मानव का संतुलन
नहीं बिगड़ा है कभी
नारी के द्वारा
उसको तो बिगाड़ा है
पुरुषों को
वासना की प्यास ने।
ज्ञान का भी
स्तर यदि उतरा है
तो है वही
इसकी भी उत्तरदायिनी।
छोड़ यशोधरा को
जब बुद्ध थे बिरागी बने
करते कठिन तप ऊंचे ज्ञान के लिए
काननों में जाकर,
बाधा कौन उनको
यशोधरा से थी मिली?
आज भी सुबुद्धि वाले
ऊंचे ज्ञान लालसा से
करें सच्चा तप तो
नारी कहाँ बाधा डालने को
वहाँ जाती है?
पुरुष यदि अपना मन सच्चा करे
नारी कभी भूल कर
पास नहीं जायेगी,
किन्तु यदि उसका मन
कच्चा है, तो
नारी के अभाव में भी
नारी के नाम पर
बाधाएँ हजारों, लाखों
आप पहुँच जायेंगी।
मैं तो यह आप से
सुनने की आशा किये बैठी थी कि
पुरुष ने नारी को
अपनी नीच कामनाएँ
पूरी करने के लिए
कहीं तो पिंजड़े में
बन्द कर रक्खा है-जिसमें कैद होकर
वह उसका भार
और भी बढ़ाती है,-
और कहीं नाचना सिखाया है
जैसे मदारी
बन्दरों को सिखलाता है
रोटी और कपड़े पर
बिकी सी
हयादार, बेहया दोनों वह बनती है।
पुरुष के अत्याचार का
यह नतीजा है,
नारी नहीं पाती अपना विकास
वह घुल-घुल कर मरती है
और डूबती हुई
अपने साथ
पुरुष को भी ले डूबती है।“
यह कह कर
मौन हुई सूर्यमुखी
कविवर तब उसके
समर्थन में बोले यों-
”मेरी श्रद्धा के पात्र
श्री अशोक पुष्प सुनो
जैसी भी परिस्थिति है
उसमें हो सकता नहीं
दोष कभी एक का
पुरुष में, किन्तु, है
पराक्रम की शक्ति की अधिकता
उससे ही वह
कभी पशुता की ओर ढल कर
गिरता है और नारी को भी
गिरा देता है।
दीजिए, प्रकाश, जिसे पाकर
नर और नारी-
दोनों हों विकसित
और, आगे जो
आवें नयी पीढ़ियाँ
पावें संसार को
सुरम्य और सुन्दर।
मीठी मुसकान साथ
उत्तर दिया अशोक पुष्प ने-
”सूर्यमुखी देवी और सत्य खोजी कविवर!
नारी को दोष देना
इष्ट नहीं मुझको
किन्तु यदि नर में
उदारता नहीं है शेष,
यदि आज उसमें है द्वेष,
हिंसा की भावना, तो
नारी पर ही है
सदा दायित्व इसका
क्योंकि वह माता है
रूप वही देती क्षण क्षण पर
परिवर्तनशील इस जग को।
इससे ही कहता हूँ
शिक्षा का पहला
उद्देश्य होना चाहिए
परित्राण नारी का-
संकुचित हुई दिखलाती जो आज
एक मात्र प्रेयसी के रूप में,
याद है दिलानी उसे
उसके मातृत्व की।
आज विद्यालय और विश्वविद्यालय जो
चलते हैं देश में,
माता रूप नारी का
करते नहीं विकसित-
वह रूप
जिसमें है त्याग
और कोमल अहिंसा,
सेवा भाव का विकास
वहाँ लक्ष्य है नहीं।
इससे ही ज्ञान का
पवित्र क्षेत्र हो गया कलुषित
और व्यवसाय बढ़ा
वहाँ उन लोगों का
स्वार्थ के लिए जो
प्राण औरों का लेते हैं।
अपना और अपने ही मित्रों का
सुख ही प्रधान हुआ,
चाहे नाश देश का हो
और ही समाज
दुखी कितना ही।
मातृ भावना का
यदि होगा नहीं जागरण
सेवा का भाव उदय
कभी हो सकेगा नहीं,
और यह स्वार्थ भूख
बढ़ती ही जायेगी,
प्रचंड आग
प्रज्वलित होगी वह
जिसमें देश का भविष्य सब
जलकर होगा राख।
ऐसी दशा में
साँचा ही बदलना है
शिक्षा का, ज्ञान के प्रचार का।
नारी जिस ओर
जा रही है, उस ओर से
फेरो उसे पहले,
जानती नहीं है यदि
उसे समझाना है,
जैसे बने अपने लक्ष्य पर
उसे फिर लाना है।
पंचशील नियमों का
निर्वाह करके वह
जन्म देगी ऐसी पीढ़ियों को
जो सरस्वती के मंदिर
व्यवसाय, लोभ और
शोषण का विचार लेकर
कभी नहीं जायेंगे।
आयेंगी ऐसी जब पीढ़ियाँ,
अट्टालिकाओं की
ऊँची तनख्वाह वाले
अध्यापकों की,
कमर तोड़ फीसों की,
गलाकाट फाइनों की
जरूरत होगी नहीं
विद्यार्थी पेड़ के तले ही,
त्यागमूर्ति अपने अध्यापकों से
प्रेम के साथ
पढ़ लेंगे पाठ अपना।
झूठ, जाल, छल, अहंभाव
सहज ही नष्ट होंगे,
जागेगी एक एक व्यक्ति में
शुभ भावना कर्तव्यों के
पालन की।
ज्ञान गृह शुद्ध जब होगा
तभी गन्दगी मिटेगी
और स्वच्छ शिक्षा पाने पर
अच्छे भाव जागेंगे,
वाणी होगी विमल
और आचरण निर्दोष।
सच्चा स्वास्थ्य व्यक्ति का, समाज का
तभी होगा संभव।
यह कह कर मौन हुए
श्री अशोक पुष्प जब
कविवर ने कहा-
”सत्य कहना है आप का
देखता हूँ विश्व के जीवन में
मातृ भाव का प्रचार
दिनों दिन मिटता ही जा रहा।
माता का स्थान अब
ले रही है प्रेयसी
और उसके कटाक्षपात से ही
घायल हो
सभ्य और सभ्येतर ढंग के
चोरी और डाके
बढ़े जा रहे हैं
धन की कमाई पर
बंगले और मोटर खरीदने को।
आपने साधन
ठीक ही बतलाया है
इसका प्रचार
मैं करूंगा खूब जाकर
मानवों के लोक में।“
कविवर की बात के समाप्त होते
सूर्यमुखी ने कहा-
”हे अशोक बन्धु!
कैसे अस्वीकार करूं जब
कोई बात उसमें
विरोध योग्य है नहीं।
श्रद्धा समेत करके नमस्कार तब
दोनों वहाँ से चले।
छठा पुष्प / रक्षा मंत्री से भेंट
चल कर अशोक के भवन से
सूर्यमुखी और कवि
रक्षा विभाग मंत्री
पुष्प भटकटैया पास
पहुँचे सुनने के लिए
उनके विचार भी।
भटकटैया पुष्प थे विराजमान
पीताम्बर धारण किये
प्रेम और करुणा की
मूर्ति मानों सुन्दर।
आत्म रक्षा का महत्व मान कर
कांटों की छत्र छाया
स्वीकृत विश्राम सुखदायिनी
थी उनको।
बड़े उत्साह से
कवि के पधारने का
सब कारण बताकर
सूर्यमुखी बोली थीं-
देव! यहां आये थे
मानवों के लोक से,
कवि हैं, विशेष दुख
करते हैं अनुभव
देख कर मानवों का अधःपात।
पंचशील सुन्दर सिद्धान्त की
पुष्पनगर में यहाँ कितनी है मान्यता।
परिचित हो इससे
संतोष कुछ मिला इन्हें।
आप से भी बातें कुछ करनी हैं,
समाधान करिए।
बोले भटकटैया पुष्प,
आकर आवेश में
समाधान कैसे करूँ?
इनका संदेह क्या है?
प्रश्न ही नहीं है जहां
उत्तर हो किसका?
बोले कवि!
रक्षा सचिव सुनिए।
राष्ट्रपति श्री गुलाब
से भी मिल आया हूँ,
देखा उन्हें उग्र कांटों के बीच
बड़े गौरव से, गर्व से उमंगते!
किन्तु नहीं थे वे
एक प्रेम ही के प्रतिनिधि,
उनमें थी लाली कहीं
रोष की
और कहीं
स्वाभिमान उभरा था
बांकी पंखड़ियों के
लुभावने निखार में
प्रेम का प्रतीक
पीला रंग उनमें तो कहीं
मुझको न दिखायी पड़ा,
पाया कांटों के साथ
उसको बस आप में।
समझ में आयी नहीं बात यह
प्रेम का जो
अनुपम प्रतीक है
कांटों से मित्रता क्यों
उसकी है इतनी?
जरा मुसकराये और
बोलै भटकटैया यों-
”सत्य कहते हो कवि!
प्रेम का उपासक हूँ
फिर भी मैं
नीति वश शासन करने के लिए
क्रूरता, कठोरता भी
खूब अपनाता हूँ।
मेरा प्रेम अलग नहीं है कभी
क्रूरता से
प्रेम सारे विश्व से है।
क्रूरता है उनके प्रति केवल-
जो अत्याचार भावना से
प्रेरित हो वार किया करते हैं-
आत्मरक्षा भाव से
मैं उनका ही
मान अभिमान
किया करता हूँ मर्दन।
कष्ट पहुँचाने के लिए मुझे
जो बढ़ते,
उन्हें समझाता हूँ
न धोखा कभी खायें वे
मेरा प्रेम दुर्बलता,
दीनता से नहीं है निचुड़ता
वह तो उमड़ता है
शक्ति भावना से सदा।
समता का भाव जिन्हें प्रिय है,
उसका विकास इष्ट
जिनको है विश्व में
बांटें वे न प्रेम कभी
शक्ति नहीं जिसमें
उत्पादन की शेष है।
भूले वे लोग हैं,
अपराधियों को
क्षमा किया करते हैं जो
और नहीं जानते
कौन अपराधी
किस व्यवहार योग्य है।
ऐसे भी अधम हैं
आततायी दूषित,
जो मानव की संस्कृति का
नाश कर देना ही
जीवन का मानते हैं साधन।
उन्हें प्राण दंड देकर
हम विश्व मानव को
प्राण नया देते हैं,
मानव की गति शील
संस्कृति को
कदम एक आगे
ठेल देते हैं।
ऐसे नराधमों को
प्रेम और करुणा का
एक कण देना
विश्व मानवता कलेजे में
तेज धार वाली
तलवार भोंक देना है।
ऐसे प्रेम करुणा को
जिसने ”अहिंसा, कहा,
झूठ बोलता है वह
और ऐसे दोषियों के
दंड के विधान को
जिसने कहा ”हिंसा,
वह भी झूठ बोलता है,
बुद्धि भ्रष्ट जिनकी है
वे ही हैं
उलटी ये बातें किया करते।“
देख भटकटैया को
बातों को समाप्त
करने की ओर ढलते,
कविवर ने कहा
यह प्रेम का अनूठा रूप
बतलाया आपने,
उसका कर्त्तव्य और क्षेत्र
यदि माना जाय
वही जिसे कहा अभी आपने।
प्रेम एक अंश बन जीवन का
केवल व्यभिचार का
उत्तेजक न होगा कभी,
प्रेयसी की मुसकान
मदिरा को पीकर ही
शैया पर
करवटें लेने में,
कामना की ज्वाला से
तड़पने में
प्राणेश्वरी के
तीखे नयन-कटाक्ष बाण-
चोट खाकर
प्राण देने में
वह प्रेम सार्थकता
अपनी नहीं मानेगा।
ऐसा प्रेम मानव का
मानव समाज का
कल्याण साधन ही
इष्ट सदा समझेगा।
सच्चा प्रेम
औरों को मिटाता नहीं,
उनको जिलाता है,
पालता है, पोसता,
साजता, संवारता है।
मान लो, पुजारी
उसी प्रेम का मैं हूँ सदा।
कोमल, सुकुमार मेरे पत्ते
व्यर्थ मलने,
रौंदने के लिए
नहीं हैं बनाये गये,
इनका इस्तेमाल है
मानव की वेदना को,
दर्द को दबाने में,
शांति उसे देने में,
इसकी उपेक्षा कर
छेड़ते जो मुझको
उनको पुरस्कार
मेरे कांटों की नोकों का
अनायास मिलता है।“
कवि ने फिर प्रश्न किया-
हे महान कांटेश्वर।
और है अनेक पुष्प
यहां पुष्पनगर में।
कितने ही उनमें हैं
कांटों से विहीन,
वे किसी को
कभी दुख नहीं देते हैं।
और बड़ी भीनी है
महक भरी उनमें,
मानव को मिलता है
उनसे सदैव सुख।
आप में तो सुन्दरता भी
नहीं विशेष कुछ
और मनमोहक
महक का तो नाम नहीं
यही देख मुझे
यह शंका है हो रही,
आप का नहीं है यह
प्रेम मार्ग मानव को हितकर।“
कहा भटकटैया ने,
देखो कवि!
दोष भरी दृष्टि लेकर
मेरे पास आये हो,
पूरा सत्य आप को
न होगा कभी भासित
मीठी, विकारमयी,
चीजें जो मोह लेतीं मन को
आप को लुभाती हैं,
मानव का हित होगा, जिससे
वह चीज नहीं भाती है आप को,
फिर भी आप आये हैं
पंचशील पंचामृत खोज में
निश्चय यह मानिए,
मेरा प्रेम मानव के जीवन को
सुन्दर प्रवाह से
प्रवाहित बनाता है,
और वह जीवन है-
अखिल, समग्र, पूर्ण।
मेरी यह पावन विभूति
नहीं पायेंगे
कहीं किसी पुष्प में।
ये सब हैं
जीवन के केवल एक भाग की ही
सीमा में सीमित।
हे कवि! प्रमाद में न फँसो
बात समझो।“
खुली दृष्टि कवि की
और कहा तब उसने-
”हे पावन पुष्पराज।
शब्द भेद भरे अब
आये मेरे ध्यान में,
मैंने अब जाना यह
पंचशील तत्व सब
छिप कर बैठा है
कठोरता, मधुरता के
पावन मिलन में।
केवल कठोरता से, या
केवल मधुरता से
जीवन का संतुलन
कभी ठीक होगा नहीं।
दोनों ही मिलें और
मिल कर एक हों,
और वह एकता हो
ऐसी अधायी हुई, जिसमें
कहीं भी विषमता का
चिह्न नहीं मिल पाये
जैसे महासागर में
डूब कर एक बन जातीं
बूंदें जल की।
आप के यहाँ से
यह दिव्य ज्ञान पुंज लेकर
आगे अब जाऊंगा,
क्षमा करें
कोई भूल हुई यदि मुझसे।“
यह कह कर नमस्कार किया
और हास से प्रफुल्प
भटकटैया से बदले में
प्राप्त कर नमस्कार
कविवर सूर्यमुखी साथ चले आगे को।
सूर्यमुखी बोली,
कुछ दूर जाकर,
”चलिए, अब
महिला उत्थान मंत्राणी
श्री चमेली माननीया
के भवन हमें चलना है।
सातवाँ पुष्प / नारी उत्थान मंत्राणी से भेंट
थोड़ी दूर चलने पर
सूर्यमुखी और कवि
पहुँचे उस छोर पर,
जहां बिना प्रयास के ही
जान पड़ा सहसा कि
यहीं है
आवास मंजु
श्री चमेली महारानी का,
जो है मंत्राणी
पुष्पनगर में
नारी उत्थान की।
झोंका मंद शीतल
सुगंधित समीर का
आया और
उसने उन्माद दिया,
लहरायी प्रेम पीड़ा
हृदय हृदय में
हिला चित्त कवि का।
नभ ओर नजर गयी
देखा वहां उसने
चिड़ियों की टोलियां
दिन भर चारा चुगने के लिए
दूर दूर बच्चों से
उत्कंठा विचलित,
जा रही थीं
घोंसलों को अपने।
घोंसले बने थे
पहचाने हुए पेड़ों में,
मंजिल को पार कर
उन्हें पहुँच जाना था।
आसमान में ही
दिखलायी पड़े सूर्य देव
चिड़ियों से भी
जो दमनीय देख पड़ते थे,
पश्चिम दिशा को
ढलते ही चले जा रहे थे।
प्रेयसी की खोज में
बीता था सारा दिन
वेदना में, ताप में,
विरहानल ज्वाला में
दग्ध रहे होते,
कहीं न दिखलायी पड़ी
प्रिया पृथ्वी के ऊपर।
परलोक जाते हुए
क्यों काँपते थे वे?
भयभीत होकर क्या सोचते थे
यही परिणाम
कहीं वहां भी न प्राप्त हो?
चंचल सुकुमारी वह-
जहाँ कहीं जाते हैं-
वहीं से,
कुछ ही क्षण पहले
वह भाग खड़ी होती है।
संध्या में झलका था
हृदेश्वरी का हंसता मुख
इसी से तो संध्या ओर
ललक कर दौड़े थे,
किन्तु हतोत्साह हुए
परख कर अंतर-
प्राणेश्वरी का मुँह
पंकज सा था खिला
और कहां यह था कुम्हलाया हुआ।
वह थी प्रकाशमयी,
और कहां सामने इसके
एक एक पल
जोड़ता ही जा रहा था
मोटी तहें
केवल अंधकार की-
जो विकराल रूप धारण कर
आरहा था निश्चित।
जितने बड़े थे
उतनी ही बड़ी दुर्गति।
काल को भी
जिसने बनाया था
तीनों लोक जिससे ही
पाते थे जीवन
वही वह काल नहीं पाता था
विरह व्यथा का जो अंत करे,
जलन कलेजे की
मिटा कर आनन्द दे।
खिन्नता, निराशा में मग्न
दीन दिनमणि
भागे चले जा रहे
लोक में न कोई
मुंह देख सके उनका।
कवि को भी याद आयी
अपनी उस प्रेयसी की
होगी राह देखती जो
मानवों के लोक से
जिसे छोड़
आ पड़ा था
वह पुष्पनगर में।
रूप वह चाहता था
जिसमें ललायी भरी
सत्य की, अहिंसा की
त्याग और प्रेम की।
शंका हुई-
सूर्य ही की भांति कहीं
उसकी यह खोज
बन द्रोपदी की चीर सी
केवल बढ़ाये नहीं
उसके मन की व्यथा।
देखा सूर्यमुखी ने
कविवर के चेहरे पर
अंतर की वेदना को
सहसा प्रतिबिम्बित,
बोली वह-
”श्रेष्ठ कवि,
इस रमणीय उपवन के द्वार पर
दक्षिण पवन
जब संदेश देती है,
प्रेम का, प्रसन्नता का
व्याकुल से, व्यग्र से
क्यों तुम दिखलायी पड़े?
आगे बढ़ो
वैभव चमेली की सुघरता का
मोह लेगा तुमको
और तुम पाओगे
मिला नहीं जो अब तक-
अनुपम रूप राशि,
सत्य ने, अहिंसा ने
जिसको सँवारा है
जिसकी सुगंध
यहां तक चली आ रही है
और हवा के सहारे
दूर दूर तक जा रही है।
नारी इस विश्व की
विधात्री, जन्मदात्री
वही इसे पाल पोस
सुंदर बनाती है,
और नयी कलियों के
खिलने का मार्ग खुले-
इसलिए फूलों को
डाल से गिराती हैं।
नारी का महान यह धर्म
नारी जान ले,
वंचिता न होवे
न असुंदर को प्रश्रय प्रदान कर
निष्फल बनावे
अपने ही इष्ट कार्य को,
यही नहीं, पुरुष पहचाने रूप उसका-
लेकर उद्देश्य यही
नारी उत्थान की
मंत्राणी है चमेली देवी।
हे कवि! तुम्हारा लक्ष्य
सफलता के पास आया,
आगे बढ़ो
चित्त निज
विचलित न होने दो।
किन्तु एक बात मैं कहती हूँ
उसको भी याद रखो-
जगत में सुन्दरता देखो,
दर्शनीय है
कारीगरी जिसकी,
वह कर प्रशंसनीय है,
इतना ही करना तुम।
कहीं, जो कि सुन्दर है
उस पर अधिकार भी हो-
यह विचार आये नहीं
छा न जाये ममता,
अनिष्ट होगा उससे।“
यह कह सूर्यमुखी
चली दु्रत गति से
आत्मलीनता से कुछ मुक्त कवि
पीछे चला उसके।
उपवन प्रासाद वह
श्रीमती चमेली का
घोषणा सी करता था-
यहीं धरती पर स्वर्ग।
आप उतर आया है।
बोली फिर सूर्यमुखी-
सुनो श्रेष्ठ कविवर!
झूठ बात
कहते हैं लोग-
काम और रति
रहते हैं स्वर्ग में,
सच पूछिये तो,
निर्विकार भावना में मग्न होकर
रस बरसाने के लिये
वे यहीं रमते।
देखो क्यारियों में
रस जितना भी बहता है
उनके करों की कला-
से ही वह झरता है
देश देश के निवासी
सुन्दर, विचित्र
रंग रंग वाली चिड़ियाँ
आकर यहाँ पर
निज देश भूल जाती हैं।
बाहर से
कोयल की कूक में
झरनों का गान
गूंज अपनी मिला कर के
मन में निराली
एक लहर उठाता है
जिनमें इन छोटी और
चंचलता भरी, रस प्यासी
चिड़ियों की प्यारी चह चह
रचती है संगीत
लय ताल मय प्यारा।
और कहीं दुनिया में
तुमको मिलेगी नहीं वाणी वह
काम और रति की
वह प्यार भरी वाणी है
जिसके कलोल से ही
ध्वनित हो रहा है
भवन श्री चमेली का
चलो अब तुमको मिला दूँ
उस रूपमयी देवी से
चित्त को संभालो
और नेत्र करो निर्मल
”देवि, जो आदेश दिया आपने
पालन करूँगा सब,
कैसे कहूँ?
चित्त पर काबू कहाँ मेरा रहा?
मैं तो आप चाहता हूँ
मेरे नेत्र निर्मल हों
इसी निर्मलता की खोज में ही
पुष्पनगर में
यहाँ आया हूँ।
लेकिन यहाँ के
तोखे मादक प्रभाव में
समल और निर्मल की
पहचान देने वाला
कुछ बाकी नहीं रहा है
विवेक अब मुझमें।
और, बतलाओ देवि,
कौन वह रमणी है,
जिसकी झलक मात्र पाने से
मेरे नेत्र तृप्त हुए जाते हैं,
और मेरी देह के
रोएँ खड़े होते हैं।
कौन वह चन्द्रमुखी
जिसकी आभा को देख
मेरे उर सागर में
ज्वार सा उमड़ता ही आता है।
देखो वह,
मंजुल मूर्ति
आगे आ गयी-
चन्द्रमा सा चेहरा और
चांदनी सी श्वेत साड़ी
अस्त होते
सूर्य किरणों की अरुणाभा में
शोभामयी लगती है कितनी।
अनुभव करता हूँ मैं
पुष्पनगर में आज
आगमन मेरा हुआ
जीवन का सबसे
अनमोल लाभ पाने को।
कवि के इन शब्दों को सुनकर
उत्तर में सूर्यमुखी बोली यों-
”कवि श्रेष्ठ, वे ही
श्री चमेली देवी,
जिनसे मिलने का
हम दोनों यहां आये हैं।
देखो एक मधुकर
आ रहा है गुन-गुन करता।
शायद वह द्वारपाल
श्री चमेली के अंतर्भाव का,
चाहता है जानना कि
किस अभिप्राय से
यहां पर आगमन हमारा है।
समझ सकोगे तुम्हीं
उसकी विचित्र भाषा
क्योंकि वह प्राणी है
तुम्हारे काव्य लोक का।
सूर्यमुखी उत्तर में
कवि ने कुछ भी न कह
सम्बोधित किया इस भाँति
उस भौंरे को-
”रसिक शिरोमणि हे भृंग
अपनी स्वामिनी से
कह दो संदेश मेरा-
मानवों के लोक से,
पीड़ा बड़ी पाकर
है कवि एक आया
जिसे विश्व शान्ति देने वाली
प्यार की ही खोज है
वह प्यार मानवों में
मुझको कहीं न मिला
स्वार्थ का ही राज्य
वहाँ सब ओर छाया है।
भौंरा उड़ा उसी ओर
जिस ओर
चन्द्रमा के आगमन के पहले ही
चांदनी सी छिटका रही थी
चमेली अलबेली
पीछे पीछे उसके
चल अनुराग भरे
कवि और सूर्यमुखी।
जाकर फिर लौट आया मधुकर
शायद कहने को,
चलो बैठी हैं
तुम्हारी प्रतीक्षा में
देवी जी।
कवि और सूर्यमुखी
उल्लसित होकर चले।
शीघ्र दोनों आये जहाँ
भौरों की
अतिशय प्रशंसा से ऊब कर
आगन्तुक स्वागत में
डगर नयी शान्ति की
पाने को व्याकुल थीं हो रही
वे नारी कुलभूषण।
हलकी मुसकान साथ
सूर्यमुखी और कवि
दोनों को
उन्होंने नमस्कार किया-
”देवि सूर्यमुखी“
बतलाओ मुझे
कारण वह
जिससे उठाया कष्ट
आपने पधारने का
मेरे योग्य सेवा भी बताइये।“
सूर्यमुखी उत्तर में बोल उठी-
ये हमारे कविवर हैं
मानवों के लोक से पधारे यहां
ऊब कर मानव के जालों से
पुष्पनगर में आप लोगों से
प्रेम का, अहिंसा का
सबक पढ़ने के लिए।
सूर्यमुखी बातें यह
करती थी चमेली से
इधर चमेली ओर
कवि की थीं आखें गड़ी,
पलकें झपती नहीं थीं
मानो चुपचाप कहती थीं-
आँखें यदि रूप यह
पी कर अधाना चाहें
रुकावट होगी नहीं
हमसे जरा भी।
कवि ओर एक दृष्टि डालकर
सूर्यमुखी भांप गयी
कविवर की बेबसी
और छिपी नहीं रही उससे
यह बात भी कि
चमेली अलबेली भी
प्रेम की कंटली
झाड़ियों के बीच उलझी।
सजगता ज्यों ही कुछ
कविवर में आयी,
रूप यह, छवि यह
आयी किस लोक से?
सोचा कहीं चन्द्रमा के
किरणों की संगठित
राशि तो नहीं है यह।
और यह ठीक-ठीक
जानने की इच्छा से
उसने बढ़ाया हाथ
जो चमेली हाथ
जो चमेली चंचला के
अंगों को स्पर्श कर
धन्य हुआ शीघ्र ही।
बढ़े हुये हाथ ने
किया जो अनुरक्त था
उससे दूर
हटने की इच्छा
नहीं दिखलायी पड़ी
श्री चमेली में भी।
दोनों को देख कर
ऐसी मोह भग्नता
सूर्यमुखी दबे-दबे पैरों से
वहां से विदा हो गयी।
बाधा एक हटी
और बाधा दूसरी जो थी
द्वारपाल भौंरों की
सो भी हटी,
कैसे? उसको भी बताता हूँ,
कंजवन में वे गये
प्रेम करने के लिए
और वहां जाकर फंसे कोष में
पंकज के सम्पुटित होने पर
बंद हुए, उसमें से
आ न सके बाहर।
सूर्य हुए अस्त
चमकते चन्द्र आये नभ में
दो दो चन्द्र मिलकर
अमृत बरसाने लगे
कवि और श्री चमेली
ऐसे मिले प्रेम से
जैसे जन्म-जन्म का
वियोग अंत आया हो।
बादल का गर्जन ज्यों
मोर वाणी को मिला
पाया शशि की कला ने
ज्यों कुई के फूलों को
त्यों ही मिले कवि
चाह भरी चमेली से।
बीती रात
पौ फटी,
सरोजों ने विकास पाया,
मधुकर उन्मुक्त हुए
प्रेम कैदखाने से,
श्री चमेली देवी के
अनूठे इस मन्दिर में
उनकी फिर भीड़ लगी।
देखा उन लोगों ने
एक नया कांड
छटा नहीं था जैसा कभी
पावन पुष्पनगर में।
मोह का व्यापार यह
कवि का
श्री चमेली साथ
मधुपों के
महारोष का
कारण हो गया।
टोली बांध दौड़े वे वहाँ
जहां थे राष्ट्र कवि
नव निर्माण की
तैयारियों में उलझे।
”कहाँ नारी उत्थान कार्य की
महत्ता, और
कहाँ श्री चमेली का
पापमय यह व्यवहार।
पुष्पनगर के
सब नियमों को तोड़कर
लाकर निज हिंसा यहां
मानव विजेता बना
और हम हार गये।
पहले विशेषता थी हममें,
जिससे आकर्षित हो
मानव भी आस का हमारे पास
किन्तु आज
रोग के कीटाणु दिये मानव ने
रोगी अब हो गया
हमारा यह प्यारा नगर।“
”चलो शीघ्र मैं भी
वहां आती हूँ
उचित उपाय
करना पड़ेगा मुझको।“
भ्रमरों में श्रेष्ठ
राष्ट्र कवि भ्रमराधिप ने
विदा किया भ्रमरों को
यह कह कर,
और श्री चमेली के
उपवन महल को
अविलम्ब चलने की
अपनी तैयारी आरम्भ की।
कवि कमजोरी की
अनुभूति हो रही थी,
श्री चमेली भी लज्जित थीं
अपने व्यवहार पर।
राष्ट्र कवि-जिनके
नियंत्रण में, जिनके निर्देशन से
पुष्पनगर का है
समाज सब चलता-
आयेंगे यहां तो
किस तरह मुंह अपना
उन्हें हम दिखायेंगे?-
यह सोचकर
दोनों हो रहे थे
व्यथा विचलित, कातर।
आये जब राष्ट्र कवि,
श्री चमेली देवी से बोले यों
‘देवि, इस पुष्पनगर में
नयी बात हुई
मोह का था
यहाँ कहीं नाम नहीं
तुमने सिखलाई हमें
एक नयी कामना
देवता को अर्पित हो
या गले का हार बने
किसी प्रेमी प्रेमिका का।
भली हो महान
या हो वेश्या अति पतिता
पुष्प नेनकनी किया
पक्षपात किसी का
कारण इसका था यह
उसमें नहीं थी पहले
कोई चाह और कोई वासना।
कवि से कर दोस्ती
अब तुम चाहती हो
गौरव, प्रतिष्ठा जो
अब तक मिली नहीं है तुमको
दूसरे पुष्पों से
जिन्हें कवियों ने
अधिक सराहा है,
तुम होड़ लेना चाहती हो,
उनको गिराना और
स्वयं आगे बढ़ाना
अब तुमको पसंद है।
लाभ नहीं होगा कुछ तुमको,
व्यक्तिगत रूप से
अपयश के बोझ से
तुम दब जाओगी।
सारे पुष्पनगर की
हानि आज
तुमने कर डाली है।
इतना कह कर
श्री चमेली देवी से
पुष्पनगर के
राष्ट्र कवि भ्रमराधिप ने
कविवर से यों कहा-
”मानवों के कवि।
यहाँ आये थे सीखने को
उलटे, सीख तुमने ही
हमको दे दी नयी।
इसमें यदि मानते हो गौरव
तो तुम सा महान व्यक्ति
यहाँ अन्य कोई नहीं।
किन्तु मैं समझता हूँ,
पुष्पनगर की
हस्ती को हर कर
तुमने भी बहुत कुछ खोया है,
अपनी ही शक्ति का
विनाश कर डाला है।
अपनी आधार शिला एक
तोड़ डाली है
व्यक्तिगत रूप से
हुए हो तुम दुर्बल
और कर बैठे शक्तिहीन
सारे मानव समाज को
प्रायश्चित होगा किस तरह
इस सर्वनाशी दोष का?
कविवर से उत्तर की आशा में
राष्ट्र कवि लेते से विराम
कुछ जान पड़े
इससे प्रभावित हो
कविवर ने यों कहा-
”राष्ट्र कवि महोदय!
अपराध मेरे हों क्षमा
अपना ही नाथ
मैंने किया नहीं,
मानव समाज को भी
भेज दिया रसातल;
मानव जहाँ कहीं भी
जायेगा त्रिलोक में,
अब विश्वास कोई
उसको करेगा नहीं,
मेरी बदनामी की
कहानी इस विश्व में
चन्द्रमा की कालिमा सी
होगी अब अक्षय।
जिन्दा ही आज मैं
मरे के समान हुआ
मुँ में लगा है वह कालिख
जो जीवन भर धो न कभी पाऊँगा,
प्रायश्चित कोई
यदि आप बतला दें मुझे
मुझको उबार लेंगे
आपका कृतज्ञ हूँगा
इसे सत्य मानिए।”
राष्ट्र कवि भ्रमराधिप बोले,
”शुभ लक्षण है
उदय हुआ है यदि
विचार प्रायश्चित का।
प्रायश्चित ही में
वह शक्ति है,
जो अवगुण को अलंकार में बदलकर
दिखा सके;
सच्चे मन से यदि
करोगे तुम प्रायश्चित
तो हुआ जो पतन
बनेगा वह उन्नति का कारण।
किन्तु अब कठिन
तपस्या तुम्हें करनी है;
तप ही में शक्ति वह
सारा विष पान कर
अमृत पिला सके।
तुम में यदि तप करने का
दृढ़ निश्चय हो
तो सुनो-
जिस अज्ञान से
तुम्हारी बुद्धि मारी गयी
पृथ्वी पर उसका इलाज है,
केवल चार तत्वों के
अंतस में बारम्बार डूबना ही।
पहले तुम जल तत्व स्वामी
वरुण के पास जाओ
कुछ शुद्धि देंगे वे,
किन्तु उतने में संतोष मत मानो।
बढ़े चलो आगे,
अग्नि देव पास, फिर
इसी तरह
मारुत के पास जाओ
और फिर लीन बनो
शून्य तत्व नभ में।
पृथ्वी तत्व की अशुद्धि
नष्ट तभी हो सकेगी।
उतना परिर्माजन ले
आओ पुष्पनगर में
और तब शुद्धि दृष्टि से
देखो हम सबको।
साहस यदि तुममें हो
करो यह प्रायश्चित
इसमें तुम्हारा ही नहीं है
कल्याण भरा
इसमें सारे विश्व का
हित निहित है।”
राष्ट्र कवि मौन हुए,
कवि ने की घोषणा-
पालन करूँगा
आदेश यह अक्षरशः
धोऊंगा कलंक निज
उज्ज्वल करूँगा मुँह
मानव समाज का
और यह पुष्पनगर,
जिसको क्षति मैंने पहुँचायी है,
-प्रण करता हूँ मैं-
यशस्वी बन जायेगा
सारे संसार में।”
आठवाँ पुष्प / कवि वरुण लोक में
पंचशील खोजी कवि
अनुशासन का मंत्र लेकर
राष्ट्र कवि भ्रमर से
मानव की शुद्धि का
संदेश लेेने को चला।
राह बड़ी लम्बी
भरी कांटों, कुश, कंकणों से-
झेलने में
घायल से पाँव हुए,
मन चूर-चूर हुआ
देह की थकावट से
साधना के श्रम से,
पड़ा तब कानों में
हर हर शोर
महासागर की लहरों का
झोंके लगे तन में
शीतल समीर के
जैसे कोई प्रेम पथिका
आकर अचानक ही
लिपटे शरीर से।
और कुछ बाद ही
आंखों को स्वाद मिला
ठंडक का, जिससे
उत्साह नया,
आया दिव्य मानस में।
कदम उठे तेजी से।
”कौन हो?
कहां से तुम आये?
हे मनुष्यवर।
प्रलोभन तुम्हें कौन सा
यहाँ को खींच लाया है?
भावुकता खेलती
तुम्हारी दिव्य आँखांे में
नाचती सरलता है
चेहरे पर बेसुध बन
मुझे जान पड़ता है
तुम कवि हो,
लेकर विचार ऊँचे
यहाँ पर आये हो।“
स्वागत करने के इरादे से
ऊँची तरंग माला
पहनाने क लिए
यों ही कहता सा
बड़ा आतुर दिखलायी पड़ा
शीतल जल वैभव से
गर्वित सा सागर।
”कहते तुम सत्य हो,
रत्नाकर, नदियों की
माला से अलंकृत,
रस राशि युक्त
मानवों के लोक का
हूँ कवि एक मैं।
निकला हूँ विश्व बीच
पंचशील शिक्षा
मानवेतरों से लेने को।
मिलना है मुझको
जलाधिपति वरुण से,
निर्मल प्रकाश दें,
अंधकार सुस्त पड़ा मानव समाज है
जाकर प्रफुल्ल करूँ सबको।
साधना का मंत्र भी
जानना है उनसे,
कौन है जो
साधक की
आँखें मूंद लेता है?
और वह
गहरे गढ़े में
गिर पड़ता है।
मानव जो विश्व का सम्राट है,
ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, काम
आदि से हो विचलित
रंक से भी
दीन दीख पड़ता है।
श्री वरुण की प्रशंसा सुन
सेवा में आया हूँ
उनके ही दर्शनों के लिए
मैं अधीर हूँ।
लहरों ने किया अट्टहास
और तट को
चोट मार-मार कर
मानों यह कहने लगीं-
”हे कविवर।
नींव के बिना ही
तुम महल बनाते हो,
और बिना सोये
देखते हो सपना।
श्री वरुण के भवन की
राह कहाँ पाओगे?
रत्नाकर ही में
निवास है हमारा सदा
किन्तु हमको भी नहीं ज्ञात है,
कितनी दूर
अतल गहराई में
रत्नों से जड़ा हुआ
कहाँ महल उनका।
दिव्य साधनों से
सम्पन्न देवता ही वहां
जाते सुने जाते हैं,
मानव का
पहला प्रयास आज हो रहा है।
किन्तु कैसे कहें
सफल कामना तुम्हारी होगी।
खोजी कुछ साधन, और-
जा सको तो जाओ भी।
सागर की लहरों!
इस शुभकामना के लिए
तुम्हें धन्यवाद।
श्री वरुणा के आलय को
निश्चय ही मुझे शीघ्र जाना है।
कवि हूँ मैं
यदि कोई साधन
मुझको न मिल पायेगा,
तो तेरे पास कल्पना है
पहुँचेगी मुझे लेकर
वहाँ जहाँ हवा भी न पहुँचेगी
जहाँ गति कुंठित
सूर्य की भी होगी,
और बिजली भी जहाँ पर
हार मान बैठेगी।
कवि की कल्पना की
कौन समता कर पावेगा, और
कौन उसके प्रवाह को-
अवरुद्ध करने का
साहस दिखलावेगा?
यह कह, आवाह्न कर
कल्पना का कवि ने
पायी शक्ति ऐसी
जो है दूसरे को दुर्लभ,
मनुष्य लोक ही में नहीं
देव लोक मंे भी।
कल्पना के सहारे से
सागर के अंतस में
धँसा कवि और
अनायास बड़ी दूर तक
धँसता चला गया।
कवि की असीम शक्ति
देख कर
सागर की लहरें भी सहमीं।
कुछ दूर जाने पर
मोतियों की मालकिन
मिली अति सुंदरी।
प्रश्न किया उसने-
”कौन हो?
कहाँ को तुम्हें जाना है?
देखा नहीं आज तक
मैंने किसी मानव को
यहाँ कभी आते।
कौन तुम,
साहस तुम्हारा है
विचित्र बड़ा।
”देवि, मैं हूँ
मानव कवि,
वरुण देव दर्शन की
कामना है मुझको
मालिक होकर भी
अनमोल वैभव का
मानव दुखी है,
उसके ही दुख की दवा
पूछना है उनसे।“
कवि की सुन कर के
मिठास भरी वाणी
मोतियों की मालिकिन
मुग्ध हुई उस पर,
बोली यों उससे-
”हे सुकवि! मुझको
तुम लगे मन भावने,
तुमने जो देखा स्वप्न
भाया वह मुझको।
आओ, विश्राम करो
मेरे शांति निकेतन में,
थोड़ा आराम कर लो,
तुम थके दीख पड़ते हो
यात्रा के परिश्रम से,
शीघ्र ले चलूंगी तुम्हें
वरुण विशाल भवन को।“
कवि अनुगामी हुआ।
पहले कराया स्नान,
मोती स्वामिनी ने दिया
भोजन तब स्वाददार,
सुन्दर बिछा के सेज
फेन से भी स्वच्छ
नयी चद्दर से शोभित।
कवि से विश्राम की तब
मीठी मुसकान साथ
विनय किया उसने।
मोती स्वामिनी का आदेश यह
प्रेमभरा
स्वीकार हुआ कवि को
यद्यपि उतावली थी उसको
अपना कार्य करने की।
बीता कुछ समय
मोती मालिकिन मधुर वाणी
बोली थीं-
”हे कविवर आओ अब
चलें हम श्री वरुण के महल को।
शीघ्र ही तैयार होकर
पीछे मोतीश्वरी के
कवि चला लेकर उमंग नयी।
थोड़ी दूर जाने पर
देख पड़ा सुन्दर वरुणालय।
पानी के रंग का
महान वह भवन था,
जिसकी दीवालों में
कांति फूटती थी
जैसे लहरें समुद्र को भी
चंचल छवि देती हैं।
पन्ना, मुखराज,
मणि, माणिक, मोतियों से जड़ी
फर्श उस महल की
लहसुनिया से, हीरे से
अनमोल नीलम से,
बड़ी ही कला के साथ
मड़ी देख ऐसा कि
हर बार देखने पर
उनमें नया ही कुछ पानी था बरसता-
कवि का प्रफुल्ल मन हो गया।
आकुलता अधिक बढ़ी
शीघ्र वरुण देव का
शुभ दर्शन पाने की।
फाटक पर पहरा दे रहा था
शंख पहरेदार,
मोती मालिकिन ने
सब समाचार दे कर उसे
कहा, ”ऐसा कर दो प्रबंध
मिलें देव शीघ्र ही।“
प्रभु से मंजूरी पाकर
शंख आया बाहर
और बोला, चलिए,
बुलाते अविलम्ब हैं।“
मोतीश्वरी और कवि
दोनों गए अन्दर।
रत्न जड़े सिंहासन पर
विराजमान थे
वरुणदेव,
देखकर मोतीश्वरी
और कवि को वहाँ
आये निज कक्ष में,
बोले, ”यहाँ मानव का
आगमन कैसे हुआ?
कहिए, मोतीश्वरी।“
मोतीश्वरी ने जब
कुछ दे दिया परिचय,
कवि ने इस भांति तब
बात कही अपनी।
”देव, मैं हूँ मानवों का कवि,
यहाँ आया हूँ,
प्रभुवर से कुछ
उपदेश प्राप्त करने।
विद्या बुद्धि हममें है,
उसका सहारा ले
ब्रह्मा क ढंग पर
हम भी विचित्र
रचनाएँ किया करते हैं।
स्वर्ग से भी गंगा को
धरती पर
हमने ही पहुँचाया,
मरुभूमि को भी
सुरकानन की तरह रमणीय
हमने ही किया,
एटम बम, और हाईड्रोजन
आदि संहारक बमों
का हमीं ने किया आविष्कार,
जगत के जीवों का
चाहे हम नाश करें
और चाहें करुणा का दान देकर
जीने दें उनको।
इतनी क्षमता है तो भी
मानव दुखी है आज
सुना है पंचशील-
व्यवहार करने से
दुख यह दूर होगा
सुख का प्रभात होगा।
कृपा कर इसका ही
उपदेश दीजिए; जिससे मैं
प्रभुवर के श्रीमुख से
प्राप्त वचनामृत को
मानवों में सुलभ बनाऊं
और उनकी अशांति सब
नष्ट करूँ जड़ से
जैसे अरुणोदय की ज्योति से
कमलों की कसकन दूर भागती है
बोले तब वरुण देव।
”मानव कवि,
बातें यह तुम्हारी सुन
बहुत प्रसन्न हूँ मैं।
अपने लिए नहीं,
अपने समाज के सुख के लिए
भूतल को छोड़
तुम यहां तक आये हो,
ज्ञान की यह देख कर
इच्छा बढ़ी तुममें
मुझको संतोष है।
तुमने तो बात कही
मानव सामर्थ की
मानव की
विश्व विनाशिनी शक्ति की,
सो कहूँ मैं सत्य,
वह शक्ति नहीं
मानव की वह तो कमजोरी है।
सारा विश्व एक ही इकाई है-
सच्ची यह बात भूल
हम यह मानते हैं
उसमें दो विचार भी हैं,
कल्पना से अपने विरोधी की
मूर्ति हम एक गढ़ लेते हैं
और तब
लड़ते हैं उससे,
लोहे के अस्त्रों से मार
चूर चूर करते हैं उसको।
ऐसा नाश करने में
कौन सी भलाई है?
कौन सी बड़ाई है?
मैं तो कहता हूँ यह
मानव यों मत्त होकर
मूर्खता का ही परिचय देते हैं।
उनसे तो अच्छे वे जीव हैं,
गाय, भैंस, बैल, ऊंट
गधे और घोड़े आदि,
जो किसी की हानि नहीं करते
और सब लोगों की
सेवा में हमेशा लगे रहते हैं।
जगत के प्राणियांे को
मानव ने त्रास दिया
सबको बनाकर दास
अपना विकास नहीं
नाश किया।
साँप में है थोड़ा विष
मानव में उसका है हजार गुना
वही महाविष लेकर
वह घूम रहा है
चारों ओर
संहार का ही
फहराता हुआ झंडा।
संहार की यह अवगुण भरी आदत
जो है टिकी हुई झूठ पर,
छल, धोखाधड़ी के-
सहारे पर चलती है,
मार कर दुनिया को
अंत में मानव का
कलेवा कर डालेगी।
सावधान उसको अब होना है,
दो का विचार छोड़ देना है
फर्क नहीं करना है
मानव और मानव में
भोजन सबको ही मिले
वस्त्र पायें सब लोग
रहने के लिये मकान
सुन्दर हो सबका।
रोग में फँस जाने पर
दवा सबको ही मिले
जिंदगी बेकार किसी की भी
मत मानी जाये
सभी जियें और
निज शक्ति अनुसार करें
काम इस लोक का।
पंचशील व्यवहार
सेवा और प्रेम की
भावना को लेकर ही चलता है।
एक बात और कहता हूँ
समझो उसे!
आंधी, तूफान की
कमी नहीं है, विश्व में
घास अपने ही आप
उगती है खेत में।
आग भी अचानक
लग जाती है जंगल में।
जीवन का अधिक अंश
ऐसी ही चीजों से घिरा हुआ है।
इनको बढ़ाना
विष अपना बढ़ाना है,
अपने ही मन को
उस आग में जलाना है,
जिसे नहीं आता है बुझना।
मेरे यहां आग नहीं
आंधी, तूफान नहीं
घास नहीं
जिनसे मिटता है जन जीवन।
मेरे यहां पानी है
शीतलता देकर जो
प्यास को बुझाता है
जिसमें से लहरें उठती हैं
प्रेम और त्याग की।
जिससे कलेजा दुखे
किसी भी गरीब का
ऐसा काम करो मत
ऐसी बात कहो मत
सूखनी जो खेती
उसे आँसुओं से सींच दो,
पौधे उग आयें
फूलें फलें
प्यार बांट कर।
फली फूली खेती पर
आग बरसाओ मत
अपनी वासना की
काम क्रोध और लोभ की।
चोरी कर,
डाका डाल
अपना पेट पालो मत
काम बांटो उनको
जो काम बिना बैठे हैं।
सेवा में, शासन में
राह मत छेंक लो औरों की,
दूसरे प्रवेश करें,
उनको भी मौका दो।
मेरे यहाँ पानी के राज्य में
मेढक और मछली का
मगर और केकड़े का-
सब का समान अधिकार
माना जाता है।
मेरे सिंहासन छोड़ देने पर
आकर आनन्द से यहां
कोई बैठ सकता है।
मोह नहीं मुझको है,
यही ढंग सेवा का
विकसित हो मानवों में
रत्ती भर मोह में न अस्त हो
निज हित ही न व्यस्त हों
औरों का स्वार्थ
मान लें वे स्वार्थ अपना
पंचशील सार यही
इसमें उद्धार सही।“
देव शिक्षा यह आप की
जिन्दगी के पथ में
प्रकाश देगी मुझको
मेरे चिन्तित मन को
अब शान्ति मिली
अभी मुझे जाना है,
अग्नि लोक, मारुत लोक, और
व्योम लोक में
सब को आशीष लेकर
सफल मुझे होना है।
साष्टांग मेरा प्रणाम स्वीकार हो।
ऐसा कह मोतीश्वरी के साथ कवि
वरुण देव कच्छ में से निकले।
नवाँ पुष्प / कवि अग्नि लोक में
आँखांे में आँसू भर
मोतीश्वरी मुग्धा ने
कवि को विदा किया
शुभ कामनाएँ देकर
लक्ष्य सिद्ध के लिए।
कवि तब आगे चला।
पानी और आग में तो
गहरा विरोधी भाव
मिलता है,
वरुण का उपदेश कहीं
अग्नि देव शिक्षा से
समानान्तर रेखा के ढंग पर
चले तो, असहाय होकर के तब
क्या करूँगा मैं?
किसे त्याग दूँगा और
किसे अपनाऊंगा?
सामने ही आवेगी
दुविधा की बात जब
आह! यह परिश्रम सब
”बेकार चला जायेगा।“
पांच चलते ही रहे
और कवि मानस को
चिन्ता दग्ध करती रही
जैसे धू धू करके
जलाता है
दावानल जंगल को।
कुछ समय यों ही चला
आया कवि
ज्वालामुखी पर्वत के सामने।
उससे यों बोला वह-
”हे महान ज्वालामुखी गिरिराज।
बिना रुके आग ही उगलने में
तुम लगे रहते हो
किन्तु कम मानो मत
उस आग को,
जो ले दुविधा का नाम
मेरे मन को जला रही है।
तुम तो स्वभाव से ही
करते हो
अग्नि ज्वाला धारण,
इससे नहीं है क्लेश तुमको।
किन्तु इस दुविधा की आग को
अभी मैंने
रास्ते में पाया है
सही नहीं जाती है।
सुनो, मंजूर है मुझे
आग दे दो अपनी
किन्तु घोर संशय की,
भीषण अनिश्चय की
लपटों से बचने की
कोई तदबीर कर दो।“
”अरे! तुम कौन हो?
जो संदेह अग्नि की
ज्वाला से व्याकुल हो,
सचमुच ही
वह तो भयंकर है,
उसकी लपटों के बीच
पड़े तुम कैसे?
कार्य क्या तुम्हारा है?
कहाँ तुम्हंे जाना है!
भावुकता देख कर तुम्हारी
मैं करता अनुमान हूँ
भावना में भूले हुए
भोले तुम कवि हो।
उत्तर दो
मेरा समाधान हो जिससे।“
”ज्वालामय देव!
है तुम्हारा अनुमान सत्य
मैं हूँ कवि
संशय को आगम कभी
मैंने नहीं झेली है
मुक्त करो इससे।“
”हे कवि, तुम्हारी इस आग को
बुझा नहीं सकता मैं
शक्ति इसकी है
बस हमारे अग्निदेव में
उन्हीं की कृपा से
जलता जीवन भी मेरा यह
सुख का,
संतोष का आवास है।
दीक्षा ले उनसे ही
मैंने निज धर्म जाना,
मुझको आनन्द है,
इसी पर आरुढ़ हूँ
तुम भी उन्हीं के पास
चले जाओ निर्भय,
सच्चा ज्ञान पाओगे।
”अग्निदेव का निवास कहाँ
नहीं जानता है,
चाहता हूँ निश्चय ही
उन्हीं के पास जाऊँ।
ज्वालामुखी शैलराज।
उनका बताओ पता
यही नहीं
उनके पास
पहुँचूँ किस ढंग से
इसका भी विचार करो।“
बोले तब ज्वालामुखी
तेज भरे स्वर में
”हे कवि, पहुँचाऊंगा
तुमको अग्निदेव पास।
मेरे मित्र और
साथी जाते ही रहते हैं।
मैं भी उन्हें भेजता ही रहता हूँ
मुझको सुख मिलता है
जब कोई जाने को कहता है,
अग्नि की शरण में।
अग्नि ही तो जीवन का दाता है
भूख होकर प्राणियों में
भोजन मेें स्वाद होकर
अग्नि ही तो
मानव के
सुख का विधाता है।
सुनो, मेरे पास है
विमान एक
वही तुम्हें सुविधा से
वहाँ पहुँचाएगा।
मैंने कहा सुविधा से-
इसका यह अर्थ नहीं कि
क्लेश नहीं आयेंगे
बाधाएँ तरह तरह की
सिर नहीं उठायेंगी।
नहीं, वह रास्ता ही है
ऐसी प्रमदाओं का
ज्वाला-दग्ध,
वासना से
बेहद सतायी हुई
मानव को देखते ही
टूट पड़ती हैं जो
उसके शरीर का
मन का
रस सारा पी जाने को।
जैसे बने वैसे
बचना ही होगा, उनसे,
क्योंकि वे
विमान को भी रोक कर
उसमें से
तुमको उतार लेंगी
और चाट जायेंगी
तुम्हारे सपनों का सार।
उनकी रूप ज्वाला में
मोह मग्न होकर के
अपना यदि लक्ष्य तुम भूलोगे
तन और मन सब
जलकर राख होगा।
जिसका एक एक कण
हवा बिखरायेगी
और लक्ष्य भ्रष्ट की
यह दुर्दशा होती है-
कहती यह कानों में
सर सर कर आगे चली जायेगी।
उन प्रमदाओं का भी
अपराध कुछ है नहीं,
अग्निदेव ही ने उन्हें
साधक की जांच करने के लिये
नियुक्त किया ऊँचे विचार से।
जिससे जो कच्चे हैं,
पहुँच न पायें वे
पास अग्नि देव के
व्यर्थ वहाँ
पाने का
अपनी असफलता का
कलंकित प्रमाण-पत्र।
इसलिए, सावधान।
कोमल न होना,
सुकुमार जान पड़ना मत,
अपनी कमजोरी से
आकर्षक बनना मत।
काठ जैसा नहीं,
तुम्हें लोहे जैसा भी
सख्त होना नहीं-
काठ जल जायेगा
ज्वाला में पड़कर,
लोहा भी मुलायम पड़ जायेगा
और फिर चाहे जिस ओर को
मोड़ लिया जायेगा,
नहीं,
तुम्हें पत्थर के ढंग पर
सख्त और अचल बन जाना है।
तभी तुम
होकर सफल परीक्षा में,
पार कर बाधा
उन जलती
निशाचरियांे के चुम्बन की,
मादक आवेश से
गले से लिपट जाने की-
आगे बढ़ पाओगे।
अग्नि देव पास
जब पहुँचोगे,
पुरस्कार पाओगे
परिश्रम का
त्याग का
मन को हटाकर
सब ओर से
अग्नि देव ही की भक्ति में
निमग्न करने का।
अमरता खेलेगी
तुम्हारे चरणों के पास।
अच्छा, मैं
अपने विमान को
मंगा रहा हूँ।
ध्यान करो
केवल अग्निदेव का
और करो
मन में यह अनुभव,
जैसे उनका शरीर हो
पलास के लाल फूलों सा।
प्यार करो उसको।
देखो, यह आ गया विमान है,
बैठो अब इसमें!“
कवि ने गिरिराज के
ओजस्वी भाषण को
सुन कर ध्यान से,
ग्रहण किया मन में,
और नयी शक्ति लेकर
आये हुए विमान के
अन्दर प्रवेश किया
शीघ्र ही आकाश में
विमान उड़ने लगा।
ज्यों ज्यांे विमान बढ़ा यात्रा में
इच्छा शक्ति कवि की भी
त्यों त्यों दृढ़ होती गयी।
आशंकित विघ्न
अनेक रूप धारण कर
सुन्दर से सुन्दर
रमणियों का
आने लगे,
लालच बढ़ाने लगे
कवि के हृदय में,
थोड़ी देर रुक कर
आनन्द लूट लेने का।
किन्तु कवि मानस था
अचल हिमालय सा
ज्वालामुखी पर्वत की सीख ने
किया था उसे वज्र सा।
एक एक कर
सब विघ्न लगे भागने,
आया वह भी समय
ऐसा जान पड़ा जैसे
कवि में
थकावट सी आ गयी।
मिलकर एक साथ
कई निशाचरियों ने
यौवन का
रूप का
करके उग्र संगठन
कविवर के हृदय पर
किया क्रूर आक्रमण।
कवि ने तब होकर के कातर
की पुकार-”अग्निदेव!अब
आखिरी परीक्षा में
मत गिर जाने दो,
रक्षा करो,
लो संभाल,
अब बल मेरे पास बाकी नहीं,
तुम्हीं स्वयं आकर
इन विघ्नों से युद्ध करो।“
और, यह चमत्कार देखो
कवि वाणी का
क्षण में उपद्रव सब
शांत हुए सहसा
बाधाएँ हटीं,
विमान बढ़ा आगे
शीघ्र ही वह, पहुँचा
उस लोक में,
जहाँ विराज रहे
अग्निदेव,
मुसकाते
ज्वाला में निमग्न उच्च आसन पर।
चेहरे पर
उत्कंठा भाव लिए
मिलने का
पीड़ित, परीक्षित
निज भक्त से।
सामने ही उनके
विमान रुका,
उसमें से
आया कवि बाहर।
लेटकर आठो अंग
धरती पर
उसने प्रणाम किया,
अग्नि देव ने
प्रसन्न होकर
दिया आशीर्वाद।
”वत्स, किस आशा,
किस लोभ से
इतने संकटों को झेल
मेरे पास आये हो?
वस्तुएं लुभावनी
मिली थी तुम्हें राह में
उनसे भी फेर मन
एक मात्र मेरे
ध्यान में लगाये
आये तुम।
मांगो वर,
दूँगा तुम्हें जो कुछ भी माँगोगे।“
बोला कवि, “देव!
मुझे चाहिए न कोई वर
आप का प्रसाद
मेरे लिए सभी कुछ है।
बड़े-बड़े मुनि जिसे
स्वप्न में न देख पाते
और बेद ”नेति-नेति“
कह कर ही
जिसके गुण गाते हैं
उसके ही पास
आज आया मैं।
शक्ति पायी नेत्रों में
आप का प्रचंड ज्वालल्यमान
रूप देख पाने की,
इससे भी बड़ा भाग्य
होगा किस मानव का?
फिर भी यह कैसे कहूं,
श्री चरणों में भेंट के लिए
कुछ लाया नहीं,
मैं हूँ कवि
मानव समाज का
उसकी ही वेदना
सुनानी है मुझ को।“
अग्नि देव बोले-
”तुम मानव की वेदना
सुनाने यहाँ आये हो।
कैसे उसे वेदना।
उसको तो
मैंने अनमोल उपहार दिये।
आग्नेय अस्त्र दिये
एक बढ़ एक से
राज्य दिया पृथ्वी पर
शासन आकाश का भी
दे दिया
मेरे सहयोग से ही
अधिकार मिला उसे
सागर की लहरों पर
उसका प्रताप, तेज
हमेशा बढ़ता चलता है।
अणु बम का दान कर
मैंने उसे शक्ति दी है
जिससे वह चाहे तो
ब्रह्मा की सारी सृष्टि
नष्ट कर डाले
एक ही मिनट भीतर।
इतने साधनों के
मिल जाने पर
मानव यदि आज भी
दया का पात्र हो रहा है
और तुम्हें अपना पड़ा
मेरे पास
झेल कर हजारों कठिनाइयाँ।
तो अब यही कहूँगा
मेरा खजाना खाली है
और कुछ बाकी
मेरे पास है नहीं
कि उसको अब
देकर सन्तुष्ट करूँ मानव को।
मेरा सन्देश यही
जाकर सुनाओ वहां
मेरे पास बाकी
केवल अब क्रोध है;
मुझको उत्तेजित बनाने की
भूल करेगा तो अब
उसको दिये अस्त्र सब
पानी बना डालूंगा
और उसे भूंज कर
अपने विकराल क्रोध ज्वाला में
हा्रस कर डालूँगा।“
अन्तिम अग्निवाणी के
उच्चारण साथ ही
अग्निदेव भौंहे टेढ़ी हो गयीं
लाल चेहरा
अचानक ही और लाल हो गया।
खून सा उतर आया
लाल पड़े नेत्रों में
देख कर बदली
अचानक ही
भाव भंगी
सहमा कवि, चिन्ता ग्रस्त, दुखी और
भयभीत भी हुआ।
आकर सन्नाटे में
कुछ देर मौन रहा,
क्रमशः भावों में
देख परिवर्तन कुछ
उसने यह कहने की
हिम्मत की।
”देव! शक्ति मानव को
आप ने अपार दे दी,
शब्द बेधी बाण दिये
आप ने बंदूक दी
तोप दी और
मोटर, जलयान,
व्योमयान सब देकर के
उसको अतुलनीय
बल का निधान किया।
यह भी आप जानते हैं-
मानव ने आप की कृपा का
उपयोग नहीं ठीक किया।
बंदूकें मार मार
प्राण लिए पक्षियों के,
पशुओं के जीवन की
साँसें भी गिन लीं।
अच्छे बुरे शासन में
अन्तर न कोई किया,
जनता को होता है दुख तो
हुआ करे,
तोपें चला
उसने अनेक राज्य जीत लिये।
लाखों व्यक्तियों को
भून डाला बारूद में
केवल इस इरादे से-
एक व्यक्ति अथवा
अनेक व्यक्तियों की
असम्भावना तृप्त होवे,
एक व्यक्ति अथवा कुछ
उसके अनुयामी व्यक्ति
अपनी कामुकता को
अपनी विलासिता को
खूब चरितार्थ करें।
सबसे बड़ा पक्षपात
मानव के साथ
किया आपने
देकर उसे अणु बम,
मृत्युकिरण, हाईड्रोजन बम आदि
जिसके हो
भाई और बन्धु हैं।
देकर ये अस्त्र
मानो आपने
पट्टा लिखा मानव के नाम
इस सृष्टि का
मनमानी संहार कर
भूतल को एक विकराल
मरघट सा बना डालने के लिए।
लाड़ प्यार आपने
बढ़ाया जिस मानव से
उसके आतंक से
चर और अचर
सब त्राहि त्राहि कर रहे
उसका मैं प्रतिनिधि
नहीं हूँ, यह जान लें।
मैं तो उस मानव का
प्रतिनिधि हूँ,
जिसने हमेशा यह चाहा है
कि एक प्राणी जिये
और दूसरे को जीने दे।
विश्व विधाता ने
विश्व यदि रचा है
तो उसकी रचना का
उद्देश्य यह होगा नहीं-
एक प्राणी जीवन विकास से भी
वंचित हो, और
दूसरा प्राणी करे उसका कलेवा।
अणु बम का दान
आप वापस लें
भय का, आतंक का
चोरी और डाके का
दूसरे का मांस खा कर
खुद मजबूत होने का
शासन समाप्त हो।
ठगों और डाकुओं की
कमी पहले भी न थी,
किन्तु आया जब से
साम्राज्य अणु बम का
नगर नहीं है कोई
गांव एक भी है नहीं
जहां वृद्धि लाखों गुना
हुई हो न उसकी।
चिन्ता की शेष बात
यह है, देव।
धरती पर बाकी नहीं रहा अब
विश्वास सत्य में, ईमान में
जहरीला हो गया है
मानव का प्रतिदिन का जीवन।
कुटिया बना कर
एक संत आज
उसमें विश्राम करता है,
किन्तु निश्चय नहीं है उसे
कल भी उसे
बची रह जायेगी।
संत वही, नेता वही
गुरु वही, छात्र वही
व्यापारी वही, ग्राहक वही
साहित्यिक वही, कवि वही,
शासित और शासक वही
आंखों में धूल डालने में
जो माहिर हो।
छल का, कपट का,
झूठ मक्कारी का
कब तक चलेगा राज्य
कब तक जनता
जायेगी पीसी इस ढंग से?
मेरी यह प्रार्थना है आप से
अणु बल के शासन का
आप अब अंत करें।
राज्य आये प्रेम का, अहिंसा का।
कोई व्यक्ति,
कोई राष्ट्र,
चोरी का धोखे का
कर्म नहीं अपनावे।
हर एक मानव हो
दूसरे को
अपने हक में से
कुछ त्याग देने के लिए अधीर।
मानव के शासन में
जीव, जंतु, लता, पुष्प-
सभी का विकास हो
पंचशील का प्रचार
ज्ञानी और मूर्ख
बलवान और निर्बल
धनी और निर्धन
समान भाव से करें,
जिससे यह जीवन
सुख पूर्ण बने सबका।
पीड़ित मानवता की
यही है पुकार
जिसे आप तक
मुझको पहुँचानी थी
कहने में, संभव है,
कहीं भूल हो गयी हो,
किन्तु मेरा भाव
छिपा होगा नहीं आप से।“
कवि की यह वाणी सुन
अग्निदेव ने कहा-
”जान पड़ता है,
तुम मानवों में
कवि हो।
तुमने कही जो बात
भायी मुझे सुन्दर।
मैंने एकांगी
उपहार दिया मानव को
उससे हो पतन यह
हो रहा है उसका।
जहाँ आग बहुत
इकट्ठी हो जायेगी
वहां फूस झोपड़े
जलेंगे यह निश्चय है।
आग से भी अधिक
आवश्यक है पानी।
हिंसा से भी अधिक
आवश्यक अहिंसा है
जाओ, कहो मानवों से
मैंने उन्हें उष्णता दी
जीवन उत्साह दिया,
इसलिए नहीं कि
वे विषाक्त कर दें
भूतल पर जीवों का रहना ही।
उनका तरीका
यदि अब भी बदलेगा नहीं
मेरे ही अस्त्र
गति अपनी उलट कर
अनायास उनका ही
अंत कर डालेंगे।
अच्छा, अब जाओ तुम
आशीर्वाद मेरा तुम्हें,
मार्ग में सहायक हो
नई शक्ति नया ज्ञान
तुम्हें दिव्य ज्योति दें।”
बारम्बार कवि ने
प्रणाम किया,
और गति फेर दी
ज्वालामुखी पर्वत-विमान की।
दसवाँ पुष्प / कवि मारुत लोक में
अग्नि देव, आशीर्वाद प्राप्त कर
उनके समीप से
कवि जब कुछ दूर आ गया
आरूढ़ होकर
तेजस्वी यान में
लौट चलने की बात
आयी तब मन में।
ज्वालामुखी पर्वत का
विमान यह
मेरी आगे की यात्रा
के लायक नहीं हो सकेगा
इसलिए, भूतल की ओर ही
गमन हो।
चला कुछ दूर यान,
परिस्थिति परिवर्तित
होने लगी चारों ओर
तपन की अधिकता में
कमी हुई क्रमशः
अनुभव होने लगा
उसको सुख छिपा हुआ
जान सकता है जिसे
वही जो कि
कड़ी धूप, लू की आग
झेल कर
पाये घने पड़ों की
ठंडी छांह सहसा।
झोंका एक आया
मनमोहक सुगंध का
यान के झरोखे से
झांक कर देखा
एक रमणी
नव यौवन उन्माद से
फूली हुई माधवी लता सी
खड़ी
लगी हुई
बौरे आम पेड़ से।
कौन यह मुग्धा है?
जान क्यों न लूं यह
विमान थोड़ा रोक कर-
सोचा यह कवि ने
ओर वहीं पास ही
उतार दिया यान को।
बाला वह देख कर
यान को उतरते
उसकी ओर आकर्षित हो गयी, और
चल पड़ी
उसी ओर को
जानने के लिए
यह कैसा यान? और
यहां क्यों यह उतरता है?
तब तक विमान नीचे
आकर के ठहरा
तब तक वह युवती
सुगंध की सुघरता की
सरिता में स्नान कर
निकली सी,
यान पास पहुँची!
किया प्रश्न उसने-
कौन तुम अग्नि लोक के
महान देवता से
आये इस देश में?
कारण है कोई,
कठिनाई कुछ आ गयी है
जिससे विमान यहां
रोकने की लाचारी
हुई है तुमको।
या
इस देश के निवासियों को
अपनी कृपा से
आभारी करने के लिए
आपने कुछ देर
विश्राम करने का
विचार यहां है किया?
कुछ भी
सहायता मैं कर पाऊं आप की
तो अपने को बड़ी
सौभाग्यशाली मानूंगी।
उत्तर में कवि ने कहा-
”देवि, मैं हूँ
मानवों का कवि और
घूम रहा हूँ
साधनों की खोज में, जिससे
मानवों का लोक
सुख शान्तिपूर्ण हो।
फूलों के देश में
पहले गया था मैं,
संदेश लेने को
किन्तु वहां
कमजोरी विजय हुई
बेवसी में
हो गया प्रसाद भारी
जिसके परिणाम में
सिर पर अभिशाप लिया
उससे उद्धार पाने और
असली जो कार्य था,
उसकी भी सफलता के लिए
पहले गया वरुण लोक
और अब अग्नि लोक होकर के
आ रहा हूँ।
नहीं है विमान में
कहीं भी खराबी कोई
बस देख कर आप को ही
उसे रोक उतरा हूँ
अब मुझे
मारुत लोक को जाना है।
मुझे यह जान पड़ा
आप से मिलेगी कुछ
मुझको सहायता।
क्षमा यदि ध्रष्टता हो,
मैं बड़ा कृतज्ञ हूँगा
यदि कृपा करके
बतायें मुझे
शुभ नाम अपना।
युवती के पतले से
लाल लाल होठों पर
झलकी एक
हलकी सी
मंद मुसकराहट,
जिससे दिखलायी पड़े
दाड़िम के दाने से
दाँत कई।
फैल गयी अनायास
छवि भरी, शांति भरी
चांदनी सी सुन्दर।
बोली वह-
मेरा देश,
मेरा क्षेत्र
यहाँ से आरम्भ होता
नीचे का रास्ता
मैं दिखा सकूँगी आपको।
किन्तु मेरा
ऊपर प्रवेश है नहीं।
लेकर के आपको
नीचे चल सकती हूँ
और वहीं
आपको
मिलेगा वह साधन भी
जिसकी सहायता से
मारुत लोक को
आप पहुँच जायेंगे।
यदि ठीक समझें तो
मौका दीजिए
बनूँ मैं सहयोगिनी।
पूछते हैं नाम मेरा,
वाणी पुत्र।
मुझे कहते हैं हवा।
बातें सुन हवा की
प्रसन्न हुआ कवि और
बोला फिर
”देवि, वह
साधन है कौन
कामयाब जो करेगा मुझे?”
उत्तर में बोली हवा-
”मारुत के पुत्र
वीर हनुमान के पास मैं
ले चलूँगी आपको।
हनुमान की गदा में
शक्ति ऐसी है भरी
हनुमान द्वारा जब
फेंकी वह जाती है
ठीक पास मारुत के
गति होती उसकी।
वही गदा मारुत भी
फेंकते हैं,
और हनुमान पास
सीधी वह
बिना विघ्न चली आती है।
स्वीकार यह साधन हो
तो चली चलूँगी मैं
साथ साथ आपके।
कवि ने प्रसन्न होकर कहा-
देवि, मंजूर यह मुझको है,
यही नहीं,
सहयोग पाकर यह आप से
आभार मानता रहूँगा
हमेशा जीवन में।
आइए विमान में,
साधक की साधना के
फल के समान ही
मुझको कृपा कर के
बाधित बनाइए।
कवि के साथ
बैठी हवा
और फिर शीघ्र ही
गति शील हो गया
विमान वह।
सरिता में उठती
सुंदर लहरों की भांति
कमल के फूल
खिले तालाब बीच,
जिन पर रस लेने को
मंडराते भौंरों की भीड़ लगी।
मधुमास स्वागत में
कोयल की कूक
बौरे आमों की डालियों
का मौन होकर और कभी
हिल हिल कर
पागल बनाने वाली
महक की मादकता
चांचर मचाना
पक्षियों का घोंसलों के बीच
सहज ही कम्पित
जो कभी-कभी होते थे-
इन सबकी ओर ध्यान
कविवर का खींच कर
उसका मनोरंजन
कराहती हुई
वह चली।
कहीं अरुणोदय का
आगमन जान कर
तारे भगे जा रहे थे,
कुम्हला रहे थे फूल
कुई के
कहीं दृश्य संध्या का
दिखलायी पड़ा
ऊँचे पहाड़ों के
सिर पर सोने का
मुकुट पहनाता हुआ
आधी घड़ी ही में जो
न जाने कहाँ चला गया
देकर अँधेरा घोर!
उसको ही नहीं
कमलों को, भ्रमरों को
और चक्रवाक मंडल को-
कवि को दिखला कर सब
उसके रिक्त मानस में
आनंद संचार करती ही
वह चली।
कुछ समय बीतने पर
पहुँचा विमान
जहाँ ज्वालामुखी पर्वत ने
उसको उड़ाया था।
सारा समाचार सुना कर
पर्वत को, बारम्बार
धन्यवाद दे करके उसको
कवि साथ हवा के
पहुँचा हनुमान के
निवास पास
जो वहाँ से बहुत करीब
देख पड़ता था।
दरवाजे तक पहुँचा कर
बोली वह, हनुमान ब्रह्मचारी
योगी और त्यागी हैं
लेकर रूप यह
जाऊँगी नहीं मैं कभी
देव! आगे उनके।
आप जाकर सविनय
अपना मनोरथ कहिए,
वे दयालु आप पूरा
करने लग जायेंगे।“
यह कह करके हवा ने
विदा मांग ली
कवि से।
मन की सब शक्तियों को
कवि ने जगाया
और थेड़ी देर में
श्री हनुमान सामने
स्वयं को किया प्रस्तुत।
जागे थे अभी ही हनुमान
योगनिद्रा से
देख कर कवि को
बोले, ”तुम कौन?
यहाँ मेरे पास आये क्यों?
”देव मैं तो सेवक हूँ,
मानवों का कवि
मुझे यात्रा करनी है
अब श्री मारुन के लोक की।
वरुण लोक,
अग्निलोक भ्रमण कर
आ रहा हूँ,
साधन नहीं है
मेरे पास कुछ
मारुत लोक बीच जाने का।
इसीलिए आया हूँ शरण में
मेरे लिए आप ही
निकाल दें उपाय कोई समुचित।“
”हे कवि!
तुमने कठोर तप ठाना है,
तुमसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ।
लक्षण तुम्हारे चेहरे का
मैं देखकर समझता हूँ,
जीवन में पानी
और आग की
अभिन्नता को
तुमने पहचाना है।
जैसे पानी और आग
एक तत्व से बने हैं
वैसे ही
आग और मारुत में
अन्तर नहीं है कुछ
इसको भी तुम्हें
जान लेना है;
आगे जब और कुछ
अनुभव पा जाओगे,
तुममें विकास
पूरी मानवता पायेगी
उद्यमी जो ऐसा है
उसकी सहायता
करूँगा यदि मैं नहीं
हानि होगी धर्म की
धरती पर सत्य का
नाम फिर कौन लेगा?
अच्छा अब आओ
बैठ जाओ मेरी गदा पर
वाण ही की तरह तुम
पूज्य पिताजी के पास
पहुंचोगे और
तुम्हें देख कर
बैठे मेरी गदा पर
जान तुम्हें मेरा भक्त
तुमको वे मान देंगे।“
हनुमान वाणी सुन
गदा पर आसन निज
कविवर ने लगाया
और महावीर ने
फेंका उसे वेग साथ
मारुत के लोक को।
मारुत के पास वह
गदा ठीक पहुँची
और साथ उसके ही
कवि ने प्रवेश पाया
मारुत के कक्ष में,
और शीघ्र
मारुत के सामने।
मारुत ने गदा साथ
आये हुए कवि को जब देखा
विस्मित वे बहुत हुए
क्योंकि ऐसी बात
कभी देखी नहीं गयी थी।
कभी कोई मानव
इस ढंग से
पहुँचा नहीं था
पास उनके।
समझ कर आगंतुक को
प्रिय सुत का प्यारा भक्त
प्रेम का संचार हुआ
उनके हृदय में।
प्रेम भरी वाणी में बोले वे-
‘प्रियवर! यह जानता हूँ
भक्त हनुमान के हो
मेरे प्रेम के भी
अधिकारी हुए
तुम इस सम्बन्ध से।
जानना मुझे है अब
तुम किस कार्य से
साधना अपार कर
मेरे पास आये हो?
कौन कार्य ऐसा था
हनुमान द्वारा भी
पूरा जो न हो सका
आना पड़ा
मुसीबत भरी यात्रा कर।“
आश्वासित होकर तब
बोला कवि
”देव, कवि हूँ मैं,
नर लोक में निवास मेरा।
मानवों में फैली देख
घातक विषमता
पंचशील भावना का
असली रूप
देखने को
पहले पुष्प नगर में गया,
वहाँ अभिशाप हुआ
उसके बाद
वरुण लोक, अग्नि लोक में
अनेक ज्ञान तत्व
लेकर अब आया हूँ मैं
आप की शरण में।
आप के आदेशों को
सुनना है,
कहना है, मानवों के लोक में
पांव तोड़ बैठी हुई
दुर्दशा का हाल कुछ
प्रभु का आदेश हो तो
आवेदन करूँ मैं।
”हां, हां, कहो सुनूँगा मैं
जो कुछ सुनाओगे।
मारुत की उच्च स्वर
वाणी सुन
कवि ने आरम्भ किया-
”देव! आप चाहते हैं
पूर्णता का रूप
अधिकाधिक
विकसित हो
विश्व बीच।
किन्तु जो अधीन
अधिकारी हैं आप के
फैला रहे हैं
उलटी ही बात
मानवों के लोक में।
कभी वे करते हैं
पक्ष अग्निदेव का
और कभी वरुण का,
यों ही बढ़ाते चलते हैं रोग
प्रजा बीच,
कम आयु पाकर जो
मरते हैं,
निष्फलता देकर जो
प्रकृति के विधान को।
आप गति शील हैं और
चाहते हैं सारा
विश्व गति शील हो,
मानव प्रगति करे
यह भी आप चाहते हैं।
तो फिर
व्यवस्था आप ऐसी करें
अग्नि और वरुण देव के
तमाम झगड़ों का
होवे खातमा
मानव यह मान सके
दोनों तत्व एक हैं
और दोनों आप के आधीन हैं।
कहीं यह संशय न
हो जावे आपकी
वरुण और अग्नि का
विरोध मुझे करना है;
नहीं, उनके ही कृपा से तो
मैं यहाँ आया हूँ।
सच बात यह जान पड़ती है,
ऊपर की गति में
नहीं कहीं भेद है
किन्तु नीचे शाखाएँ
फूट कर
अपना मन माना प्रचार किया करती हैं
और वही नहीं होता
आप को जो प्रिय है।“
कवि के निवेदन को
मारुतेश्वर ने
बड़े ध्यान से सुना।
और तब मुसकाते हुए
बोले मिठास भरी वाणी में-
हे कवि! कही जो बात तुमने
वह है यथार्थ
किन्तु तुम कविता की बात
कुछ भूले से जा रहे हो।
जब तक तना है पेड़
तब तक वह एक है
डालियों के फूटने पर
वही फैल जाता है
अनेकता को
चारों ओर
जहाँ तक फैल सके
फैला देने के लिए
किन्तु उन्हीं डालियों में
लगता जब फल है
वही गिर नीचे आता
और सैकड़ों ही
पौधों को फिर उगाता है।
विश्व में अनेकता जो
फैली तुम देखते हो
उसमें बुराई कहीं है नहीं
यह जान लो
और यह सत्य है कि
उसकी भी एक सीमा है
डालियाँ भी सीमित
रहेंगी निज पेड़ से।
फिर भी कहता हूँ
मैं तुमसे प्रसन्न हूँ कि
तुमको बुराई दिखी,
एकता की प्यास जगा
और खली बढ़ती अनेकता।
यही तो वह शुभ लक्षण है
जिससे हम जानेंगे कि
डालियों में फल लगने में
कितनी अब देर है?
दुश्मन पर बाण हम फेकते हैं
चाहते हैं,
उसके कलेजे में वह गड़े
किन्तु चाहते हैं हम यह भी कि
काम पूरा करके
वह लौट आवे तरकस में।
भेद भाव पैदा कर
सृष्टि को बनाते हम,
फिर भी चाहते हैं यह
भेद भाव दूर हो
सृष्टि चकनाचूर हो।
इसीलिए तुमको
सांत्वना दे रहा हूँ मैं
जाओ, अब
शासन बढ़ेगा उन लोगों पर
एकता मिटाते
जो अनेकता बढ़ाते हैं!
आग और पानी का
भेद दिखा दिखा कर
कभी पक्ष आग का ले
और कभी पानी का
मेरे कर्मचारी
जो विषमता बढ़ाते हैं
उसका खातमा
बड़े वेग से तो नहीं,
किन्तु धीमी गति से
अवश्य होगा अब।
सत्य और न्याय का
प्रेम का, उदारता का
गला घोंटा जा रहा था
जहाँ जहाँ विश्व में
वहाँ वहाँ अब
झूठ, बेईमानी, अन्याय आदि को
दंडित करेंगे हम
पंचशील का प्रचार
तुमको अभीष्ट है तो
उसको भी हमसे
मदद काफी मिलेगी अब।
जाओ, दिलासा दो मानव को
शांति का पदार्पण
अब हमको अभीष्ट है
आवेगी स्थिरता
अब मानव के जीवन में
पायेंगी सफलता अब
साधनाएँ, कामनाएँ उसकी।
पंचशील को सभी युगों में
और सभी देशों में विश्व के
मिलता रहा है सम्मान
लेकिन अब देंगे हम
आदर उसे विशेष
चोरों की, डाकुओं लुटेरों की
ताकत अब बढ़ने नहीं देंगे हम।
एक ही पोशाक पहने
भले और बुरे लोग
अभी पहचाने नहीं जाते थे
किन्तु अब ऐसी पहचान
मिल सकेगी मानव को
वह जान लेगा
कौन ठग और कौन सज्जन है।
हाँ, अब बताओ
तुम जाओगे कहाँ?
मानवों के लोक को? था कि
अभी और कहीं जाना है?
जहाँ कहीं इच्छा हो
तुम्हें भेज दूँगा मैं
मेरी मति विश्व में है
एक-एक कोने में।
श्री मारुत के उपदेश से
कवि को संतोष मिला
बोला वह-
”देव, जब आप को
कृपा मिली है मुझको
क्यों न मेरा मार्ग होगा
सुविधामय, सुखमय?
एक ही जगह अब
जाना मुझे बाकी है-
मूल तत्व ब्रह्म जिन्हें
कुछ लोग शून्य और
कुछ लोग विष्णु बतलाते हैं।
आप की कृपा से
वहाँ तक पहुँचू तो
मेरा कार्य सिद्ध हो।“
मारुत ने कवि का
निवेदन स्वीकार किया
देकर आदेश
मंगा लिया वह दिव्य यान
पुष्पक विमान जिसे कहते।
श्री मारुतेश्वर को
कर के प्रणाम
कवि बैठ गया उसमें।
यान जब उड़ने को हो गया
मारुत ने कवि से
फिर यों कहा-
”देखो जब काम
पूरा हो ले तुम्हारा सब,
तब इसे मेरे पास ही भेज देना
संचालक के बिना ही
आप यह यहाँ चला आवेगा।
जाओ, वत्स।
जगत में सुख का
विस्तार करो।
”जैसी प्रभु आज्ञा“
कवि ने प्रणाम किया फिर फिर।
पुष्पक विमान शीघ्र
नभ गामी हो गया।
ग्यारहवाँ पुष्प / कवि शून्य लोक में
मारुत के लोक से
कविवर की यात्रा
आरम्भ हुई पुष्पक विमान पर।
पिछले सबस जन्मों के
और इस जन्म के
संचित शुभ कर्मों के
फल का उदय हुआ
आज इस
पुष्पक विमान पर की गयी
आनन्दमयी यात्रा के रूप में।
विमान चलता था
मानों नहीं चलता था
सुन्दर सुख देने वाली
उसकी गति मंद मंद
पहुँच गयी थी
पास गति शून्यता के
छोटे छोटे कितने ही
उसमें झरोखे थे
पड़ते दिखलायी थे
दृश्य बड़े सुन्दर
करके शृंगार कहीं
दिव्य देवांगना कोई
चली जा रही थी
आकुलता की
उमंग लिये चेहरे पर।
कहीं कोई कामिनी
दिखलायी पड़ी
सुंदर पेड़ों की डाल पर-
पड़े हुए
झूले में झूलती।
आंखें पड़ी
ऐसी मुग्धाओं पर
दल बाँध बाँध
जो फूल बाण मारने की
सीखती थी कला।
कहीं कोई देव दिखा
विरह की वेदना से व्याकुल हो
प्रेमिका की तसवीर खींच
बार बार
आँसुओं से गीली कर
उसको मिटाता हुआ
और किस बाधा से
वह मिट जाती है
इसको भी
जान नहीं पाता हुआ।
कितने ही किन्नर, गंधर्व, यक्ष
अपनी प्रेमिकाओं साथ
रास, नृत्य, वाद्य और
संगीत की क्रीड़ा में
मस्त दिखलायी पड़े।
संध्या, निशा
उषा, प्रात के
अनेक फेरे हुए
चंद्रलोक आया तब
चाँदनी जहाँ से
सारे विश्व बीच छिटकी।
तीव्र गामी क्रमशः
हो चला विमान और
आया सूर्य लोक जहाँ
अधिपति संसार के
श्री सूर्य थे विराजते।
देव लोक में प्रवेश करने से
दिव्य दृष्टि प्राप्त कवि
देख सका दूर ही से
गौरव से, कांति से,
तेजस्विता भरा रूप
आग में तपाये हुए
सोने के पहाड़ सा
या कि एक गोला सा
प्रचंड ज्वाल-माल बीच
तप्त आभा फैला कर
किरणों के रूप में
किसी को विकास और
किसी को विनाश भी
देता हुआ
जीवन के प्यार से
सात जुते घोड़ों से
खींचे हुए रथ पर
चलता भी अचल सा
शोभा वह पा रहा था।
कवि का मन मुग्ध हुआ
देख कर उसको
जैसे देख दीपक की शिखा का
मोह बढ़ जाता है
पतंग के हृदय में।
इधर आनन्द में
मग्न कवि हो रहा था
उधर सूर्य भवन में
ऐसी परिस्थिति
तैयार होती जा रही थी
जिसका विकास
कवि कष्ट को बढ़ाने की-
ओर हुआ अग्रसर।
किसी पहरेदार ने
सूर्य को दी सूचना-
”हे प्रभो?
कौन नहीं जानता है
पुष्पक विमान को-
देवों की अमोल निधि,
गौरव कुबेर का,
उसी को कोई दैन्य-
राज लिए, हमको
चुनौती सा देता हुआ
भागा चला जा रहा है।
उचित न होगा यह कि
हमारे राज्य भीतर से
कोई चोरी करके
इस ढंग से निकल जाय।
सूर्यदेव क्रोधित हो
बोल उठे,
जाओ, सूचना दो
समस्त अधिकारियों को
पुष्पक विमान सहित
उस तस्कर को रोक लो।
पुष्पक विमान जब
गतिशील होता है
गति अवरुद्ध कभी
होती नहीं उसकी।
तभी रुक सकता है वह,
उच्चारण होवे जब
धनेश्वर के मंत्र का
सामने उसके।
जाओ अविलम्ब करो
इसकी व्यवस्था।
पहरेदार ने समस्त
अधिकारियों को
इसकी दी सूचना,
और लोग दौड़ पड़े
पुष्पक विमान को
रोक लेने के लिए,
धनपति के मंत्रोच्चार
का भी प्रबंध हुआ।
एक गया विमान
आश्चर्य हुआ कवि को
और घबड़ाया
यह देख कर कि
उसे जेल खाने बीच
डालने को
शक्ति शाली दिनपति के
सिपाही घेरे खड़े हैं।
बेबसी में पडऋ कर के कवि ने
मंजूर किया करावास।
अकस्मात् कैसी यह
मुसीबत यहाँ आ गयी।
सोचता था
शीघ्र पहुँचूगा शून्य लोक में,
और कार्य अपना
समाप्त कर पूरा
मानवों के लोक में
सुनाऊँगा अनुभव।
किन्तु कांच के समान
सपना सब मेरा
चूर चूर हो गया।
अब जो अँधेरा
घिर आया है अचानक
कब तक और घना
होता चला जायेगा
और कब रोशनी के सामने
दम तोड़ आँखों से
ओझल हो जायेगा-
मग्न होकर
इसी भाव की तरंग में
कवि का क्षण एक-एक
बीतता था
युग के समान
असहनीय होकर।
आता था सवेरा,
फिर शाम आती,
रात आती-
चक्कर चला करता था
हर एक फेरे में
ऊब और बेकली का
वरदान देकर
बढ़ती ही जा रही थी
उसकी निराशा।
और, जब आशा
साथ छोड़ कर
दूर चली जा रही थी
छोटे से झरोखे से
देख पड़ी सुन्दरी, नवयुवती एक
चेहरे पर जिसके
आश्वासन था बरसता।
आंखों में भरोसा
लावणय मुसकान में था,
लता से भी कोमल शरीर पर
लाल साड़ी शोभित थी।
गुलाब कली सी
कमनीय बाला वह
कोयल की वाणी
मिठास भरी बोल उठी-
”कौन तुम बद्ध
यहां कारागार मध्य हो?
पुष्पक विमान
तुम लेकर
क्यों भागते थे,
देखने में दानव तो
जान पड़ते नहीं,
किन्तु सब लोग तुम्हें
दानव बताते हैं।
मुझको बताओ सत्य सत्य
तुम कौन हो?“
”देवि! मैं मानव हूँ
दानव जो समझते हैं
धोखा वे खा रहे हैं
मानवों में कवि हूँ मैं
अपने बन्धुओं की
देख काम, क्रोध, लोभमयी वृत्तियां
खोजने को निकला मैं
कोई मार्ग
जिससे मिल जाये उन्हें शांति।
पहले गया मैं पुष्प-नगर में
उसके बाद
वरुण लोक-अग्निलोक को भी गया।
अग्निलोक से मैं गया
मारुत के लोक को
मारुत ने मुझ पर प्रसन्न हो
मेरे लिए
पुष्पक विमान मंगवा दिया।
उस पर आरूढ़ होकर
जा रहा था शून्य लोक
तब तक यह आ गयी
विपत्ति मेरे सिर पर।
तुम हो पधारी तो
प्रकाश यहाँ आया कुछ
पहले तो यहाँ
अंधकार धुआँ छाया था।“
”मानव कवि!
जान गयी मैं कि
भूल हुई पहिचानने में
धोखा हुआ उनको
जिन्होंने तुम्हें दैत्य जान
कैद किया व्यर्थ ही।
इस अन्याय का
निवारण करूँगी मैं
छुटकारा तुम्हें देकर ही
शांति पा सकूँगी मैं।“
”किन्तु देवि!
वाणी में तुम्हारी
अधिकार जो भरा हुआ है
उससे क्या मान लूँ मैं
तुम्हीं इस लोक की हो मालकिन!
तो क्या दिवाकर का
यहाँ अधिकार
कुछ भी नहीं है?
क्या वे इस लोक के
नहीं है एक छत्रपति?
संदेह यह दूर करो
कृपा कर मेरा तुम।“
”हे कवि! तुम
सत्य कहते हो
सूर्यदेव ही मालिक
इस लोक के हैं।
किन्तु सूर्यदेव को
मैं रखती हूँ
अपने कलेजे में।
और इसी प्यार के आधार
अधिकार मेरा इतना तो
है अवश्य ही कि
जिस अन्याय से
सूर्यदेव की अकीर्ति सम्भव हो
उसका निवारण
मैं पूछे बिना किसी से
आप कर सकती हूँ।
खोलती हूँ ताला मैं
आओ तुम बाहर।“
यह कह सुकुमारी ने
खोल दिया ताला और काली कोठरी में से
निकला कवि बाहर।
श्रद्धा से गद्गद हो
उसने प्रणाम किया देवी को
और पूछा-
”माता! शुभ नाम क्या है आपका?“
”ऊषा है मेरा नाम
मैं ही सब जीवों की
आशा का स्रोत हूँ।
चलो अब पुष्पक विमान में
बैठ कर तुम्हें जहाँ जाना है
वहाँ को प्रस्थान करो।“
”किन्तु देवि! सूर्य देव को तो
वह ज्ञात हो जाय कि
कैदी मुक्त हो गया
और उसे जेल में डालना
सरासर अन्याय था।“
”हे कवि!
भावुकता में पड़ते क्यों इतना?
चलो, हुई देरी है जितनी,
महान दुख मिलने में भला
वही कौन कम है,
अब तुम तेजी से
कार्य करो अपना।“
यह कह उषा ने लिया
कविवर को साथ और
पुष्पक विमान पास
पहुंचाया उसको।
कवि ने प्रवेश किया यान में
और किया गतिशील उसको।
बार बार ऊषा को प्रणाम कर
उड़ चला वह व्योम मार्ग में।
बीते दिन रात कई
पुष्पक विमान उड़ता ही चला
आया तब वह समय
जब मिली एक झलक
अभीष्ट शून्य लोक की।
शीघ्र ही यान ने प्रवेश वहाँ,
और उस लोक के अधीश्वर
श्री विष्णु और लक्ष्मी-
विश्राम मग्न थे हुए
अचानक उन्हें मिली
जागरण प्रेरणा
और हुआ अनुभव कि
कोई व्यक्ति बाहर से
मिलने को आया है।
इसी बीच द्वारपाल
आया और बोला-
”देव, मर्त्यलोक से
आया एक मानव कवि
दर्शन की चाह ले।“
आज्ञा हुई-”लाओ उसे शीघ्र ही।“
द्वारपाल गया और लौटा जब
उसके ही पीछे चल
कवि ने प्रवेश पाया
श्री विष्णु के भवन में।
दिव्य ज्योति आभा से
भवन था प्रकाशित वह
जिसमें प्रिया के साथ
प्रभु थे विराज रहे शेष पर।
”कौन तुम,
क्या अभिप्राय है तुम्हारा
यहाँ आने का
यह तो है शून्य लोक
यहाँ वही मानव
आ सकता है
जिसकी सब इच्छाएं पूर्ण हों।
शून्य हो गये हों भाव,
शून्य सब वासना
शून्य ही प्रयोजन हो
शून्य कर्म धारण।
कौन अभिलाषा तुम्हें
मेरे पास लायी है?
”भगवान कौन परिचय दूँ
अपना मैं आप से
आप ही का भक्त मैं
मानव कवि एक हूँ।
वरुण लोक, अग्नि लोक और
लोक मारुत का
पार कर
आया हूँ आप की शरण में।
मानव दुर्बलता का
किया मैंने प्रायश्चित
पानी में गलाया
तन आग में तपाया
मारुत के झोंके बहुतेरे भी
झेल लिए
आज पानी
रूप ले ले
भीषण से भीषण,
ओला बन आये
बर्फ, पाला कहलाये
तो भी
मेरी आँख देखेगी
उसमें जिस रूप को
उसे सिद्ध मैंने किया
अपना बना लिया।
आग कभी धूप सी
मुलायम बन जाती है,
कभी जल चूल्हे में
भोजन पकाती है
कभी बड़े नगरों को
जंगलों को
ज्वालामय, फैले हुए मुँह में
अनायास निगल जाती है।
इन अलग रूपों में आग को
मेरी आंखे देखेगी
तत्व जो, उसे मैंने
अपने तन मन में रमा लिया
प्राणों में धंसा लिया।
मारुत कभी हल्की हवा का;
कभी ठंडे या कि गर्म झोंकों का
और कभी
प्रलयंकारी महा उग्र आंधी का
रूप धर
आता है जीवन सम्पर्क में
मेरी आंख
इन सब रूपों में
पायेगी जिसको
हर हालत में उपस्थित
उसे मैंने समझ लिया
उससे प्रेम लगा लिया।
दुनिया के लोगों को
अलग देख पड़ते हैं,
पानी, आग, मारुत के
रूप जो अनेक हैं।
किन्तु मैंने
इतना पहचान लिया
पानी वही, आग वही,
मारुत पराग वही
मारुत ही कभी आग बनता है
और आग पानी की शक्ल में
कभी चली आती है सामने
मैं अब इनमें से किसी से
कभी धोखा खाता नहीं।
इतनी तैयारी कर
आया हूँ, अब इस लोक में
यह जान लेने को कि
मिट्टी, पानी, आग, हवा
अपना गंवा के रूप
शून्य ही में
सब मिल जाते हैं।
कोई शून्य को ही
आसमान बतलाता है,
कोई निराकार ब्रह्म
उसमें ही पाता है,
कोई उसे नारायण लोक
कह लेता है।
जो हो, सभी तत्व यहाँ
आकर के शान्ति से
विश्राम देते हैं
अपने ही भीतर के
प्राण रूप तत्व को
जिसमें विश्राम
स्वयं उनको भी मिलता है
यह सब जानने को
यहाँ चला आया हूँ।
प्रभो! अब आप की कृपा का
एक कण भी जो मिल जाय,
सहारा महान पाकर
कृतकृत्य होऊ मैं
मुक्त मेरा मानव समाज भी हो
कष्टों के जाल से!“
विष्णु बोले,
”वत्स, तुम साहसी हो, उद्यमी हो
इतनी दूर यात्रा की,
संकट अपार झेले
लक्ष्य यह लेकर कि
मानव समाज सुख पाये
देख कर तुम्हारा कार्य
बहुत प्रसन्न हूँ मैं।
इससे दो बातें कर लेने को तुमसे
इच्छा हो रही है, सुनो।
कहता नहीं हूँ अधिक
करके दिखाता हूँ,
देख लो शयन मेरा
शेष पर है सर्वदा।
सुत, दारा, धन सम्पत्ति
जो कुछ तुम्हारे पास होवे
उसमें लगा दो आग
अंतर विश्वास की,
जिससे जल जाय सब
और शेष रह जाय राख मात्र,
उस पर ही जीवन विश्राम
करो आश्रित।
ममता और अहंकार के-
सारे साधनों में
आग जो लगायी नहीं जायगी,
शेष कहाँ मिलेगा?
मानव के मन का फूल
कैसे खिल पायेगा?
समाचार मिलते हैं
मानवों के लोक के
चारों ओर चोरियों की
बाढ़ चली आ रही है।
पद प्राप्ति, यश प्राप्ति
के लिए अनर्थ
करने को लोग तत्पर हैं।
मानव यदि चाहता है
सोवे नींद सुख की
इन सब वस्तुओं को
मन की अग्नि ज्वाला में
भस्म करे
और तब राख में ही
खोज करे रस की।
मानव जो मिट्टी
अपनी पीठ पर
लादे चला जा रहा है,
सावधान होकर
उस बोझ को उतार दे
नहीं तो, गिरेगा वह
खाकर के ठोकर
बोझ की अधिकता से
रीढ़ हड्डी टूटेगी।
थोड़े में, यही मेरी शिक्षा है,
इसके अनुसार ही
मानव व्यवहार करे।“
कवि ने कहा,
”देव, सिर माथे मैं लेता हूँ,
शिक्षा यह आप की।
किन्तु एक और भी निवेदन है
आप से।
वरुण, अग्नि, मारुत सब से ही
को मैंने यह प्रार्थना है
सम्मिलित भाव से
सफलता के चाव से
मानव के जीवन में
अपना अंश दान दें।
पृथ्वी का, वरुण, अग्नि मारुत का
तत्व उतना ही मिले
मानव को
जितने से देह, मन और बुद्धि में
विकार आये नहीं।
और काम, क्रोध, लोभ को
न मिले अवसर
मानव समाज को
वर्षों में बांटने का।
वर्गहीन मानव समाज
जब होगा तभी
युद्धों के विष से
यह विश्व बच पायेगा।
पृथ्वी, वरुण, अग्नि और मारुत
के तत्व का
अनमेल तभी रुक सकता है,
जब आप इनको दें प्रेरणा।
मुझ पर यदि आपकी
प्रसन्नता है,
मानव के विकास अभिप्राय से
यह कार्य करने की कृपा करें।
कृपा मनुष्य को
मिलेगी यदि आपकी
पंचशील के प्रचार में
वह लग जायगा।
उसकी समस्याएँ
हल होंगी आपही।
शस्त्र युग नष्ट होगा
शांति युग आयेगा
मानव की बुद्धि में भी
स्थिरता आ जायेगी
मरता हुआ मर्त्यलोक
जिन्दा हो जायेगा।
हरा भरा होकर जग
आकर्षण भर देगा
देवों के चित्त में।“
विष्णु बोले,
”हे कवि! तुम्हारी यह प्रार्थना
प्रशंसनीय है।
जाओ तुम होकर सन्तुष्ट उसे
स्वीकृत मैं देता हूँ
आशीर्वाद मेरा
हमेशा रहेगा तुम्हारे साथ।“
प्रेममयी वाणी यह सुन कर
कवि को संतोष हुआ
और बारम्बार कर देवाधिदेव-
विष्णु को प्रणाम
वह पुष्पक विमान में
बैठ कर
पुष्पनगर की ओर
उड़ चला उमंग से
बारहवाँ पुष्प / कवि मानव लोक में
पुष्पनगर से जब कवि
बाहर को निकला था
तभी से वहाँ के अधिकारी
राह जोहते थे उसकी।
राष्ट्र कवि और राष्ट्रपति तो
विशेष कर उत्सुक थे
जानने को
प्रायश्चित अपने प्रमाद का
कैसे किया उसने।
बीते दिन और रातें
बीत गयीं कितनी
कविवर को देखने की
उत्सुकता दिनों दिन
बढ़ती ही जा रही थी।
भेजे राष्ट्र कवि ने
दूत कितने समुद्र पास,
भौरों की भीड़
कितनी ही अन्य जगहों में निकली,
लक्ष्य एक सिर्फ
या कविवर को ढूंढ़ना।
कहीं भी पता न लगा
हार मान बैठे सब,
पछताने लगे, व्यर्थ
कवि को हैरान किया,
भेज दिया,
विश्व भटकने को।
कवि का प्रमाद अब
हलका सा लगता था
अपनी ही भूल
थी पहाड़ जैसी लगती।
जब थे निराश
राष्ट्र कवि और राष्ट्रपति,
दूतों की मेहनत सब
हो गयी थी निष्फल
तभी एक दिन
दिखलायी पड़ी
चिड़िया सी कोई चीज सुन्दर,
विचित्र बड़ी
जो लगी उतरने आकाश से
क्रम क्रम से वहीं
पुष्पनगर की जमीन पर।
शीघ्र रूप चिड़िया का
ओझल हुआ आँखों से,
सुन्दर विमान एक
ज्योति निराकार और
साकार दोनों लिये
सामने हुआ उनके।
”साधारण सवारी नहीं
पुष्पक विमान यह!
चिल्लाये राष्ट्र कवि
गुन गुन के स्वर में
और गर्व गौरव के भाव से
पुलकित हो गये।
पुष्पक विमान आज
पुष्पनगर भूमि पर
उतर रहा है
धन्य भाग्य हम लोगों का।“
कहते हुए आगे बढ़े
राष्ट्र कवि, राष्ट्रपति
और जिस समय तक
पुष्पक विमान ने
टिकाव पाया धरती पर
दोनों मालाएँ लिये हाथों में
थे पहुँच गये
प्रेममय स्वागत के रूप में
पहनाने को उसको।
पुष्पक विमान से
आकर के बाहर
लाखों हृदयों का
उल्लासपूर्ण स्वागत
देख कर
और राष्ट्र कवि को ही
अपनी सफलता का
अधिकारी मान कर
पैरों पर उनके
नवाया सीस।
उसे राष्ट्र कवि ने उठाया
और गले से लगाया
फिर भाव की अधिकता से
कवि के ही कदमों पर
वे गिरे।
”देव, यह आप ही का गौरव है
आप ही की प्रेरणा से
मैंने प्रयास किया,
जिसके योग्य शक्ति
थी कभी नहीं मुझमें।
वरुण, अग्नि, मारुत ने,
तथा विष्णु आदि सब देवों ने
अनुग्रह किया मुझ पर
जिसका प्रमाण यहां
पुष्पक विमान है,
मारुत ने मेरे लिए
मंगवाया इसको
श्री कुबेर के भवन से
गदगद हो यह कहा
कवि ने राष्ट्र कवि से।
बोलता था जब वो
मुँह और उसके
बेशुमार आँखें
थीं लगी हुई
मुग्ध होकर वहाँ पर
खेलती अनंत दिव्य आभा से।
पलकें झंपती नहीं थीं
मन था हटता नहीं
पुष्प नगर के लिए था
कवि परदेशी सा
पुष्प जाति का भी नहीं,
मानव था।
किनतु बढ़ी
इतनी उमंग सहृदयता की
घुली मिली भावना की,
उस समय
अंतर रहा न बाकी
पुष्प और मानव में
मिटा वह
जैसे मिट मिट बनती है
मोम आग सामने।
यह भाव देख कर
डूब गया
कवि आत्म विस्मृति में।
कुछ देर बाद
जब जागा
वह अपनी समाधि से,
पुष्पनगर वासियों को
सम्बोधित उसने किया-
”आदरणीय, राष्ट्र कवि,
राष्ट्रपति महोदय,
तथा पुष्पनगर वासियों,
आप के इस
प्रेम भरे स्वागत की
कीमत कम करूँगा नहीं
धन्यवाद देकर,
आप ही ने मुझको बढ़ाया है
आप ही ने
राह वह दिखलायी है
जिस पर मैं यात्री बना
लेकर के
लगन, उमंग और साहस।
आपने जो
मुझको इशारे दिए
साधना, संघर्ष के
दामन में
पकड़े रहा उनका
कभी नहीं उसने किनारा किया।
मूल मंत्र
दिया मुझे आपने
उसको ही दुहराता,
धोखता मैं
आगे चला गया।
इतने के लिए
आप मुझको सराहते हैं
तो फिर सराहें आप
अपने को और भी।
जो हो, दो बातें
मुझे, आप से कर लेनी हैं,
उसके बाद
शीघ्र ही जाना है
मानवों के लोक को
जहाँ मेरी राह
अब जोह रहे होंगे
प्यारे बन्धु मेरे।
आप में अब
ऐसे बन्धु थोड़े हैं,
जिनमें है विचार अभी लड़ने का
लेकर हथियार
क्रूर कांटों का।
मेरा यह निवेदन है
इन हथियारों के प्रयोग की
नहीं है अब जरूरत।
आप में अहिंसा के भावना की
है जो विशेषता
जिससे ही
होकर के आकर्षित
आना पड़ा मुझको
उसको बढ़ाये चलें
कांटों को घटाये चलें
या यों कहें,
काँटों को घटाये चलें
या यों कहें,
काँटों को मिटाये चलें,
तभी आप
ठीक राह पायेंगे
अपनी प्रगति की।
माना यह
काँटे जब होंगे नहीं
क्रूर काले कीड़ों का जुल्म
ज्यादा बढ़ जायगा,
आप के घरों में वे
मनमाने आयेंगे
ऊधम मचायेंगे,
बुरा नहीं मानता हूँ,
मैं यह उपद्रव जो
थोड़े दिनों बाद
दम तोड़ देगा आप ही।
आप में ही
मानते हैं
जो अहिंसा, प्रेम का
और अस्त्र काँटों का
पास नहीं रखते
उन पर क्यों जुल्म
ढाता नहीं कोई है?
कीड़ा जाता है पास उनके,
थोड़ी देर बैठता है
और शीघ्र तृप्ति पाकर
और कहीं जाता है
उसकी भी प्रगति
बेरोक चली चलती है।
किन्तु जहाँ काँटों का किला
तोड़ना पड़ता है उसे,
व्यर्थ काट छाँट में
शक्ति नष्ट होती है
जिसे लगना चाहिये था
रचना के कार्य में।
डालों से लोग तोड़ लेते हैं आपको
आप हंसते ही
उनके भी
साथ चले जाते हैं
देवियों के
केशों में बंध कर
गले की माला में गुंथ कर
उनकी ही
शोभा, सुन्दरता को बढ़ाते हैं।
आप में अहिंसा प्रेम
देख इस ढंग का
मानव सब दाँत तले
उँगली दबाते हैं।
आचरण आप का
मानव के लिए तो है
अनुकरणीय सब ढंग से
केवल जो थोड़ी सी
कसर है
उसको भी आप लोग
दूर कर दीजिये।
ऐसा हो जावे तो
मानव सब आप ही की
पूजा करने लगे।
शक्ति आप में है
आप बुद्ध और गांधी की अहिंसा को
सृष्टि के समस्त
प्राणियों के मन, प्राण में
पल्लवित, पुष्पित और
फलीभूत कर दें।
बुद्ध ने सिखलाये जो
पंचशील मानव को
स्वाभाविक ढंग से
आप में सभी वे मौजूद हैं।
मानव तो
सीख सीख भूलता है।
प्रकृति प्रेम पालने में
आपको निरंतर ही
सबक है सिखाती
व्यवहार भी कराती है।
बुद्धदेव हार जहां जायेंगे
प्रकृति वहां जीतेगी
आप की प्रशंसा में
मेरे दूसरे कवि मित्र
बड़े बड़े काव्य लिख
गुणानुवाद आप का
करेंगे देश देश में।
आप से
लेकर शुभकामना अब
चाहता हूँ जाना मैं
मानवों के लोक में
जहां द्वंद मचा है
द्वेष का, आसक्ति का
सीखा है मैंने जो आप से
उनको बताऊँगा।
सीखा है
जो कुछ इस यात्रा में
वरुण, अग्नि, मारुत से
और श्री विष्णु से
वह भी सब उनको समझाऊँगा।
मेरी भूलों को
आप क्षमा करें
मेरा यहां आगमन
अंतिम नहीं होगा
आऊँगा, फिर फिर
अपने हृदय में
शक्ति का संचार करने के लिए।
नमस्कार मेरा
स्वीकार सब कीजिए।
यह कह कर
बैठा कवि
पुष्पक विमान में।
देवताओं, गंधर्वों और किन्नरों ने
फूल बरसाये
भर गया विमान सारा
फूलों से,
या यह कहें,
पुष्पनगर के वे पुष्प ही
पा गये प्रवेश
जैसे तैसे पास कवि के
और नहीं चाहते थे
किसी तरह
उसका साथ छोड़ना।
पुष्पक विमान को भी
शायद भय हो गया कि कहीं
पुष्पनगर ही न आतुर हो जाय सारा
चलने को कवि के साथ।
उठा वह, ऊँचे चढ़ा क्रमशः
और चल पड़ा उस तरफ
जिधर चलना था कवि को।
व्याकुल से, अधीर से
पुष्पनगर के पुष्प
देखते ही रह गये।
कवि के परिवार वाले,
मित्र और
परिचित सब
मानवों के लोक के
नहीं जानते थे
कवि कहां और किधर को
अचानक चला गया।
बीते थे
महीने से भी अधिक दिन
कवि के सम्बन्ध में
चिन्ता बढ़ती ही
चली जा रही थी।
अकस्मात् आसमान में
दिखलायी पड़ा विमान जब
उनको आश्चर्य हुआ।
किन्तु जब विमान वही
क्रम क्रम से नीचे वहीं आने लगा
सामने ही उनके,
बढ़ा आश्चर्य तब
ज्यादा से ज्यादा।
और यह आश्चर्य
शीघ्र ही महान हर्ष साथ
कर संगम
खोयी हुई सम्पदा को
पाकर ज्यों कोई सूम
खुशी की अधिकता से
पागल सा होता है
त्यों ही
जब पुष्पक विमान आया
पृथ्वी पर और
कवि उसमें से निकला
व्याकुल मानवों की भीड़ दौड़ कर-
अपनी अधीरता
प्रगट करने लगी।
कोई चाहता था
गले लग कर लिपट जायें
कोई चाहता था
गिर पैरों पर
आंसुओं से उनको धो डालें और
उनकी थकावट सब दें मिटा।
श्रद्धा और प्रेम का स्वागत
यह देख कर
कवि पुलकित हो गया।
स्नेह भरी वाणी में
बोला कवि विमान से-
”प्यारे देव यान!
तुमने मुझे जो सुविधा दी
उसके लिए किस तरह
तुमको धन्यवाद दूँ।
मेरा कार्य पूरा अब हो गया।
जड़ वस्तुओं से बने
फिर भी तुम चेतन हो
जाओ चले अब
श्री कुबेर के भवन को
उनसे प्रणाम मेरा
लाख लाख कहना।“
कवि की यह वाणी सुन
पुष्पक विमान उठा
और पलक झांपते ही
ऊँचे जा उड़ने लगा
विस्तृत आकश में।
उसकी ही ओर लगी
सैकड़ों, हजारों आंखें
एक टक देखती थीं
विस्मय से डूब कर।
शीघ्र हुआ
आँखों से ओझल वह।
और तब कहने लगा यों
कवि जनता से-
इस बीच जो थी
ऐसी उमड़ आयी
जैसी उमड़ पड़ती हैं
सावन में नदियाँ।
”बहनों और बन्धुओं!
यह भावुकता ठीक नहीं,
प्रेम का प्रदर्शन
जो किया आप सब ने
जितने के लायक मैं हूँ
बहुत बढ़ा
उससे भी आगे।
काबू में अपने को लाओ और
प्रश्न करो-
तुमने इतने दिन बिताये कहाँ?
और इस बीच
कौन काम कर लाये हो?
लोग हुए शान्त और संयमित
और बोले एक साथ-
”प्यारे कवि!
जिज्ञासा हमको है,
कहाँ कहाँ घूमते
फिरे हो तुम इतने दिन
और स्वजनों के लिए
काम कर लाये हो कौन सा?
पाया यह पुष्पक विमान कहाँ?
-उत्तर में कवि ने कहा-
”आपस में घृणा, द्वेष,
वैमनस्य देख कर मानवों का,
मुझे हुई चिन्ता
और मैं इस खोज में लगा कि
कैसे शांति मिले लोगों को।
पुष्पनगर में मैं गया
वहाँ यह देख कर
मुझको अचम्भा हुआ,
विद्या बुद्धिहीन
जड़ पुष्पों में
एक दूसरे के प्रति
कोई द्वेष भाव नहीं।
सुखमय वहाँ
सबका है जीवन।
बुद्धदेव ने जो रास्ता
शांतिमय खोजा था
आपस में पंचशील का-
निर्वाह करने का
उसका भव्य, सुन्दर स्वरूप मुझे
वहाँ दिखलायी पड़ा।
मुझसे प्रमाद कुछ
हो गया अचानक,
तब प्रायश्चित करने को
जाना पड़ा
वरुण, अग्नि,
मारुत के लोकों को।
जल तत्व जीवन में
सब से महान है
वरुण ने बताया मुझे
सब प्रश्न जीवन के
शांति से ही
हल होने चाहिए।
दौड़-धूप, हाहाकार,
व्याकुलता, प्यास-
ये जीवन के लक्ष्य नहीं है,
ये हैं बतलाते बस
जगह कहीं एक है
जहां शोर गुल सारा
थक कर के
आप ही सो जायगा।
झींगुर की झनकार भी नहीं
सुनायी पड़ती है जहां
ऐसा सन्नाटा है
वरुण के महल में।
देखा मैंने
शांति वहीं बैठी है
चंवर डुलाती उसे
वरुण, अहिंसा दो सखियाँ।
वरुण देव दर्शन के बाद
अग्नि पास गया,
देखी वहाँ जीवन में
ताप की भी महिमा।
लहरें महासागर की
लगती हैं सुन्दर,
सूरज की गरमी भी
आवश्यक है हमें।
खड़ा नहीं रहना है
एक ही जगह पर,
हमको संसार में-
मारुत के लोक में
शिक्षा यह प्राप्त की।
पुष्पनगर में
प्यार पृथ्वी का पुष्प रूप,
शीतलता जल की
दाहकता आग की,
मारुत की गति-
कहीं यह सब न साथ
एक दूसरे का छोड़ देवें
और अपनी शक्ति की
निरंकुशता लें बढ़ा-
चिन्ता मुझको हुई।
मुझको बताया गया-
जब कोई मानव
खा ले इतना कि
उसे होवे बदहज़मी
और पास ही खड़ा हो
दूसरा भाई उसका
पेट को खलाये
अति आतुर क्षुधा से।
कर्म जब मानव का
इतना विषमतामय
पंचतत्व होकर के-
भीषण उसे
क्यों न करें दंडित?
इसीलिए मारुत ने,
अग्नि ने, वरुण ने
अस्त्र दिये मानव को
भिन्न भिन्न,
मारे अपने भाई को
और आप भी मरे।
किन्तु यदि मानव के
कर्म शुद्ध हों तो
सब शक्तियाँ प्रकृति की
सन्तुलित होकर के
देती है उसको
जीवन में शांति सुख।
तो फिर सुधारना है
कर्म हमें अपना,
दूसरे की दौलत, अधिकार
छान लेवें नहीं
चोरी नहीं करें,
झूठ बोले नहीं,
निंदा, अपशब्द
कभी जबान पर लावें नहीं
अपना नुकसान कर
दूसरों का लाभ करें।
ऐसी आदत लगाने से
हिंसा का अभाव होगा
हममें सहज ही।
शून्य लोक में भी
मैं गया था, वहाँ जाकर के
जाना यह मैंने
शून्य होने में
त्याग करने ही में
निवास सब शक्ति का है
इसीलिए विष्णु
सारे देवों में प्रधान हैं।
उनसे भी मैंने
निवेदन किया है यह-
प्रेरित करें वे
विचार समता का आवे
उन तत्वों में
मानव के जीवन पर
शासन है जिनका।
समझाया मैंने
सभी ने यह माना है
मानव की दुर्गति
है हो गयी अधिक अब।
मूल शक्ति जिससे
प्रवाह सदा पाती है
मानव विकास और
होगी अब उन्मुख।
मानव शुभ कर्म करे
प्रकृति भी साथ दे-
दोनों में समान भाव बढ़ने से
मानव का काम, क्रोध, लोभ
होगा सीमित,
संतुलित होकर
ये मानव की वृत्तियाँ
उसकी सुख-सुविधा की बाढ़
आप लायेंगी।
क्लेश सब जगत के
दूर अनायास होंगे
धरती पर
स्वर्ग बिना रोक चला आयेगा।
आज मुझे चाह नहीं बाकी
किसी बात की
अनुभव करता हूँ
मुझे सारे ब्रह्मांड पर
आज अधिकार मिला।
हवा की सी हरकत मिली
तेज मिला अग्नि का
हरकत, तेज दोनों में
शीतलता भी भरी।
मिलीं ये विभूतियाँ तो
धरती ने भी दिया
फूलों की
सुन्दर महक मनहारिणी।
इतने दिन
आप से रहा हूँ दूर
किन्तु मैंने नष्ट नहीं
किया है समय को,
पहचाना अपना प्रमाद मैंने पहले
और तब साधना की
जीवन की शक्तियों की।
मुझे कहना है
अपने देशवासियों से
विश्व के निवासियों से
इस विश्व बीच
जहाँ कहीं बसा मानव
वहाँ संदेश यही
भेजना है मुझको।
शीघ्रता से या कुछ देरी से
पंचशील ही के आदर्श पर
चारों ओर
घूम भटक लेने पर
मानव को उसी तरह
आना पड़ेगा, जैसे
कुतुबनुमा सुई को
उत्तर की तरफ
मुँह करना ही पड़ता है।
मानव की बुद्धि
शुद्ध होवे, वह ठीक
रास्ता अपना पहचान कर
पंचशील निर्वाह ओर
दत्त चित्त हो-
आशा ही नहीं है
मुझे पूरा विश्वास है,
मेरी यह मानव शुभकामना
कभी नकभी निश्चय ही
सफलता को पायेगी।“
यों ही कह
कवि ने समाप्त किया
व्याख्यान अपना,
सुनने वाले मुग्ध हुए
वाणी सुन अमृतभरी
देख छवि साधक की
कविवर के चेहरे पर
मन ही मन
सब ने प्रतिज्ञा की
पंचशील पालन की
और जब अन्दर का भाव
व्यक्त किये बिना
रह नहीं पाये वे
ऊँची आवाज में
की प्रतिज्ञा वही घोषित।
साथ साथ
जय जयकार महाकवि का
गूँज गया, धरती पर
और आसमान पर
भौंरे लगे घूमने
बाँध बाँध टोलियाँ,
गुन गुन कर मानो वे
कोयल के ”कू कू“ स्वर बीच
यही गाते थे-
बीत गयी रात,
नया प्रात अब आयेगा।”