अहद-ए-मायूसी जहाँ तक साज़गार आता गया
अहद-ए-मायूसी जहाँ तक साज़गार आता गया
अपने-आप में दिल-ए-बे-इख़्तियार आता गया
कुछ सुकूँ कुछ ज़ब्त कुछ रंग-ए-करार आता गया
अल-ग़रज़ इख़्फा-ए-राज-ए-कुर्ब-ए-यार आता गया
उड़ते उड़ते उस के आने की ख़बर मिलती रही
बाल खोले मुज़्दा-ए-गेसू-ए-यार आता गया
रफ़्ता रफ़्ता मेरी अल-ग़रज़ी असर करती रही
मेरी बे-परवाइयों पर उसे का प्यार आता गया
जस्ता जस्ता लहलहाया गुलशन-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर
रफ़्ता रफ़्ता दस्ता-ए-गुल पर निखार आता गया
नींद आँखों में मगर आती गई उड़ती गई
दोश-ए-निकहत पर पयाम-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार आता गया
उस ने जिस हद तक भी हम से दास्तान-ए-ग़म सुनी
हम को इस निस्बत से फ़न-ए-इख़्तिसार आता गया
गा़लिबन ये भी है मेरी कामयाबी का सबब
अपनी नाकामी पे गुस्सा बार बार आता गया
उन में शामिल मुस्कुराते फूल भी तारे भी हैं
जिन दरीचों से शुऊर-ए-हुस्न-ए-यार आता गया
आगे आगे आशियाने ख़ार-ओ-ख़स चुनते चले
पीछे पीछे तख़्त-ए-ताऊस-ए-बहार आता गया
इस क़दर नज़दीक-तर आती रही क़दमों की चाप
जिस क़दर ख़दशा ख़िलाफ़-ए-इंतिजार आता गया
उस के रूज्हान-ए-नज़र में दिलकशी पाते हुए
ए‘तिबार-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार आता गया
रंग लाएगी हमारी तंग-दस्ती एक दिन
मिस्ल-ए-ग़ालिब ‘शाद’ गर सब कुछ उधार आता गया
जज़्बा-ए-मोहब्बत को तीर-ए-बे-ख़ता पाया
जज़्बा-ए-मोहब्बत को तीर-ए-बे-ख़ता पाया
मैं ने जब उसे देखा देखता हुआ पाया
जानते हो क्या पाया पूछते हो क्या पाया
सुब्ह-दम दरीचे में एक ख़त पड़ा पाया
देर में पहुँचने पर बहस तो हुई लेकिन
उस की बे-क़रारी को हस्ब-ए-मुद्दआ पाया
सुब्ह तक मिरे हम-राम आँख भी न झपकाई
मैं ने हर सितारे को दर्द आश्ना पाया
गिर्या-ए-जुदाई को सहल जानने वालो
दिल से आँख की जानिब ख़ून दौड़ता पाया
एहतिमाम-ए-पर्दा ने खोल दीं नई राहें
वो जहाँ छुपा जा कर मेरा सामना पाया
दिल को मोह लेती है दिल-कशी-ए-नज़्जारा
आँख की ख़ताओ में दिल को मुब्तला पाया
रंग लाई ना आख़िर तर्क-ए-नाज़-बरदारी
हाथ जोड़ कर उस को महव-ए-इल्तिजा पाया
‘शाद’ गैर-मुमकिन है शिकवा-ए-बुताँ मुझ से
मैं ने जिस से उल्फ़त की उस को बा-वफ़ा पाया
ब-पास-ए-एहतियात-ए-आरज़ू ये बार-हा हुआ
ब-पास-ए-एहतियात-ए-आरज़ू ये बार-हा हुआ
निकल गया क़रीब से वो हाल पूछता हुआ
हिजाब-ए-रूख़ लहक उठा अगर बहुत ख़फ़ा हुआ
जभी तो हम से पय-ब-पय कुसूर-ए-मुद्दआ हुआ
शिकायत-ए-अदम-ए-तवज्जोही बजा सही मगर
नसीब-ए-अहल-ए-अंजुमन नहीं है दिल दुखा हुआ
अमीन-ए-राज़-ए-ग़म नहीं हैं दर-ख़ुर-ए-सितम नहीं
पलट रहे हैं आप ही पे आप का कहा हुआ
उठेंगी मेरी वजह से जब आप पर भी उँगलियाँ
कहेंगे फिर तो आप भी वाक़ई बुरा हुआ
हुजूम-ए-मा-सिवा से बच के मंज़िल-ए-मुराद तक
पहुँच गया हूँ रहज़नों से राह पूछता हुआ
कभी कभी ख़ुलूस-ए-बे-तअल्लुक़ी भी चाहिए
निगाह मैं ने फेर ली तो उस का सामना हुआ
ज़माना-ए-उबूर-ए-इंक़लाब की भी उम्र है
न शाख़-ए-आशियाँ रही न आशियाँ जला हुआ
नहीं कुछ इस से मुख़्तलिफ गिरोह-ए-बज़्म-ए-रक्स-ओ-मय
निकल गया जो गुलिस्ताँ में ख़्वाब देखता हुआ
ये काविश-ए-उम्मीद-ओ-बीम भी है लज़्ज़त-आफ़रीं
नज़र उधर जीम हुई नक़ाब-ए-रूख उठा हुआ
ग़लत-बयानियों के अहद-ए-नौ में ‘शाद’ आरफ़ी
मिरा कमाल-ए-फ़न ये है कि सिर्फ़ माजरा हुआ
हुदूद-ए-अक्ल-ओ-शर्ब का सवाल ही नहीं रहा
हुदूद-ए-अक्ल-ओ-शर्ब का सवाल ही नहीं रहा
दिलों में ख़ौफ़-ए-रब्ब-ए-ज़ुल-जलाल ही नहीं रहा
मआल-ए-अर्ज़-ए-हाल का मलाल ही नहीं रहा
वो बज़्म-ए-ग़ैर थी मुझे ख़याल ही नहीं रहा
जभी तो बाग़बाँ की गुफ़्तुगू में झोल देखते
कभी किसी तरह का एहतिमाल ही नहीं रहा
ये वसवसे की बात अपने मुँह से मत निकालिए
कोई शरीक-ए-हाल-ए-पुर-मलाल ही नहीं रहा
जलाल को भी वक़्त ने समो दिया है शेर में
ग़ज़ल का मत्मह-ए-नज़र जमाल ही नहीं रहा
तसल्लियों के ज़ैल में दिला रहे हो याद क्यूँ
तबाहियों का जब मुझे ख़याल ही नहीं रहा
मिरे बयान-ए-हाल-ए-दर्द-ए-दिल में चारा-कार ने
वो रंग भर दिया कि मेरा हाल ही नहीं रहा
जहाँ शबाब-ओ-शग़्ल-ए-मय ने खो दिए थे होश तक
मैं बिन-पिए उठा तो कुछ कमाल ही नहीं रहा
ख़ुदा-ए-कार-साज़ के करम से ‘शाद’-आरफ़ी
कभी मुझे सलीक़ा-ए-सवाल ही नहीं रहा