काग़ज़ पे दिल के तेरी यादों का दस्तखत है
काग़ज़ पे दिल के तेरी यादों का दस्तखत है
चेहरे की सब उदासी इसके ही मारिफत है
मेरे कहे न ठहरे, मेरे कहे न छलके
आंसू की सारी पूँजी आँखों की मातहत है
किस शख्स में है हिम्मत जो मेरा घर जलाये
पैरों तले ज़मीं है सर पर खुदाई छत है
दिन-रात एक करके जो कुछ कमाया मैंने
अब गिन रहा हूँ उसमे क्या खर्च क्या बचत है
आँखों को मींचने से कैसे मिटे धुंधलका
फैली फ़ज़ाओं में ही जब धुंध की परत है
शादी के कार्ड में क्या कुछ ख़ास है ‘सिकंदर’
यूं पढ़ रहे हो जैसे पैगामे-आखिरत है
ज़मीनें आसमां छूने लगी हैं
ज़मीनें आसमां छूने लगी हैं
हमारी क़ीमतें अब भी वही हैं
शराफ़त इन्तेहा तक दब गई तब
सिमट कर उँगलियाँ मुठ्ठी बनी हैं
तुम्हारे वार ओछे पड़ रहे हैं
मिरी साँसें अभी तक चल रही हैं
बचे फिरते हैं बारिश की नज़र से
बदन इनके भी शायद काग़ज़ी हैं
तिरी यादेँ बहुत भाती हैं लेकिन
हमारी जान लेने पर तुली हैं
कितना अच्छा था
कितना अच्छा था
जब मैं छोटा था
चोट भी लगती थी
दर्द भी होता था
शेर तो ताज़े थे
लहजा कच्चा था
ख़ामोशी की बर्फ़ पिघल भी सकती है
ख़ामोशी की बर्फ़ पिघल भी सकती है
पल भर में तस्वीर बदल भी सकती है
तुम जिनसे उम्मीद लगाये बैठे हो
उन खुशियों की साअत टल भी सकती है
यादों की तलवार है मेरी गर्दन पर
ऐसे में तो जान निकल भी सकती है
लड़ते वक्त कहाँ हमने ये सोचा था
तेरी फुर्क़त हमको खल भी सकती है
मुमकिन है आ जाये मुर्दादिल में जाँ
तुम आओ तो धडकन चल भी सकती है
बन्द दरवाज़े खुले रूह में दाख़िल हुआ मैं
बन्द दरवाज़े खुले रूह में दाख़िल हुआ मैं
चन्द सज्दों से तिरी ज़ात में शामिल हुआ मैं
खींच लायी है मुहब्बत तिरे दर पर मुझको
इतनी आसानी से वर्ना किसे हासिल हुआ मैं
मुद्दतों आँखें वज़ू करती रहीं अश्कों से
तब कहीं जाके तिरी दीद के क़ाबिल हुआ मैं
जब तिरे पाँव की आहट मिरी जानिब आई
सर से पा तक मुझे उस वक़्त लगा दिल हुआ मैं
जब मैं आया था जहाँ में तो बहुत आलिम था
जितनी तालीम मिली उतना ही जाहिल हुआ मैं
फूल से ज़ख़्म की ख़ुशबू से मुअत्तर ग़ज़लें
लुत्फ़ देने लगीं और दर्द से ग़ाफ़िल हुआ मैं
मोजिज़े इश्क़ दिखाता है ’सिकंदर’ साहब
चोट तो उसको लगी देखिये चोटिल हुआ मैं
सर पे बादल की तरह घिर मेरे
सर पे बादल की तरह घिर मेरे
धूप हालात हुए फिर मेरे
मेरे महबूब गले से लग जा
आके क़दमों पे न यूँ गिर मेरे
रात गुज़रे तो सफ़र पर निकलें
मुझमें सोये हैं मुसाफ़िर मेरे
दिल में झाँके ये किसे फ़ुर्सत है
ज़ख्म ग़ायब हैं बज़ाहिर मेरे
एक दिन फूट के बस रोया था
धुल गये सारे अनासिर मेरे
उसकी आँखों में नहीं देखता मैं
ख़्वाब हो जाते हैं ज़ाहिर मेरे
मुझको ईमां की तरफ़ लाए हैं
कुफ़्र बकते हुए काफ़िर मेरे
घर की दहलीज़ अंधेरों से सजा देती है
घर की दहलीज़ अंधेरों से सजा देती है
शाम जलते हुए सूरज को बुझा देती है
मैं भी कुछ दूर तलक जाके ठहर जाता हूँ
तू भी हँसते हुए बच्चे को रुला देती है
ज़ख़्म जब तुमने दिये हों तो भले लगते हैं
चोट जब दिल पे लगी हो तो मज़ा देती है
दिन तो पलकों पे कई ख़्वाब सजा देता है
रात आँखों को समंदर का पता देती है
कहीं मिल जाय ‘सिकंदर’ तो ये कहना उससे
घर की चौखट तुझे दिन रात सदा देती है
सबके दिल में ग़म होता है
सबके दिल में ग़म होता है
सिर्फ़ ज़ियादा कम होता है
चोट लगे तो रोकर देखो
आंसू भी मरहम होता है
ख़त लिखता हूँ जब जब उसको
तब तब काग़ज़ नम होता है
ख़ामोशी के अंदर देखो
शोर सा इक हरदम होता है
गहराई से सोच के देखो
शोला भी शबनम होता है
ज़ख़्म सारे ही गये
ज़ख़्म सारे ही गये
तुम जो आकर सी गये
आस थी जितनी हमें
उससे बढ़कर जी गये
आज के बच्चे तमाम
शर्म धोकर पी गये
मसअला था इश्क़ का
हम वहाँ तक भी गये
तुमने पूछा ही नहीं
कब ‘सिकंदर’ जी गये
करम है, दायरा दिल का बढ़ा तो
करम है, दायरा दिल का बढ़ा तो
मुझे भी इश्क़ ने आकर छुआ तो
मिरे अल्लाह मैं तो खुश हूँ लेकिन
कोई मेहमान घर पर आ गया तो ?
तुम्हारी हेकड़ी भी देख लेंगे
करो तुम ज़िंदगी का सामना तो
मियाँ अंजाम अबके सोच लेना
हमारे सर पे फोड़ा ठीकरा तो !
न मेले जा सका इस ख़ौफ़ से मैं
मिरा बच्चा खिलौना माँगता तो ?
तख़य्युल के वरक़ पलटो सँभलकर
हुआ गर ज़ख्मे-दिल फिर से हरा तो ?
चलो आदाबे-ग़म भी सीख ही लें
अगर खुशियों ने धोका दे दिया तो ?
हरे पत्तों से तुम धोका न खाना
शजर अंदर से निकला खोखला तो ?
अभी ये शाम को क्या हो गया है
अभी मैं दिन में था अच्छा-भला तो
ये तय कर लो अभी ही क्या करेंगे
हमारे बीच आया तीसरा तो ?
हुई थी एक बस परवीन शाकिर
नदारद है ग़ज़ल से शायरा तो
कहाँ से बाज़ुओं में लाऊँ ताक़त
मैं अपना नाम रख लूँ सूरमा तो
तुम्हें देखा सो क्यों कुछ और देखूँ
मज़ा हो जाय पल में किरकिरा तो
उखड़ जायेंगे ग़म के पाँव फ़ौरन
तबीयत से तू पल भर मुस्कुरा तो
मगर हस्सास दिल है तू “सिकंदर”
ज़रा लहजा है तेरा खुरदुरा तो
चीख़ रहे हैं सन्नाटे
चीख़ रहे हैं सन्नाटे
कोई कैसे शब काटे
नफ़रत ऐसा पेशा है
जिसमें घाटे ही घाटे
खुश होंगे वो उससे ही
जो उनके तलवे चाटे
ऐसी मिट्टी दे मौला
जो दिल की खाई पाटे
अपना घर है तो फिर क्यों
रात कोई बाहर काटे
बेख़ुदी कुछ इस क़दर तारी हुई
बेख़ुदी कुछ इस क़दर तारी हुई
सांस तक लेने में दुश्वारी हुई
ख़्वाब सारे रेज़ा-रेज़ा हो गये
सब उमीदें हैं थकी-हारी हुई
हम हैं आदत के मुताबिक़ मुन्तज़र
आपकी इमदाद सरकारी हुई
हाल क्या पूछा किसी हमदर्द ने
आँसुओं की नह्र सी जारी हुई
होश भी उनकी गली में रह गया
अक़्ल की तो अक़्ल है मारी हुई
तुमने मुझको समझा क्या
तुमने मुझको समझा क्या
मै हूँ ऐसा वैसा क्या
बस इतना ही जानू मैं
टूट गया जो रिश्ता क्या
अच्छी-खासी सूरत है
दिल भी होगा अच्छा क्या
आँखों में अंगारे थे
होटों पर भी कुछ था क्या
बरसों बाद मिले हो तुम
देखो मै हूँ जिंदा क्या
हाथों में कुरआन लिए
जो बोला वो सच था क्या
पेड़ है क्यों इतना गुमसुम
टूट गया फिर पत्ता क्या
वगरना उँगलियों पर नाचता क्या
वगरना उँगलियों पर नाचता क्या
कोई चारा बचा था दूसरा क्या
हमारी जेब में पैसे नहीं हैं
सो, हम क्या और हमारी आस्था क्या
उसी के दम से साँसें चल रही हैं
मैं उससे हटके आखिर सोचता क्या
जवाबन वो,फफककर रो पड़ा क्यों
सवालन तेरी आँखों ने कहा क्या
हमारे दिल के सादा से वरक़ पर
लिखोगे तुम ही कोई वाकेआ क्या
तुम्हारा तज़्करा और वो भी खुद से
है कोई इससे बेहतर मशग़ला क्या
सफ़र के सौ पते बदले हैं लेकिन
कभी बदला है मंज़िल का पता क्या
मुक़ाबिल धूप जब आकर खड़ी हो
पलट जाता है साया, आपका क्या
करेगा क्या कोई लुकमान आकर
मरीज़े इश्क़ की है कुछ दवा क्या
हुए आबाद हम आवारगी में
ज़माने से हमारा वास्ता क्या
जिसे जाना था वो तो जा चुका है
तिरी इमदाद से अब फ़ायदा क्या
ग़ज़ल अच्छी लगे तो दाद दीजे
वगरना खाली-पीली वाह वा क्या
सुबूतों को मिटाया जा रहा है
है,गहरी नींद में अब मीडिया क्या
फ़क़त होती रहेगी गुफ्तगू ही
न होगा हल कभी ये मसअला क्या
अगर अपनी पे आयें तो “सिकंदर”
कोई हमसे बड़ा है सूरमा क्या
जिस्म दरिया का थरथराया है
जिस्म दरिया का थरथराया है
हमने पानी से सर उठाया है
शाम की सांवली हथेली पर
इक दिया भी तो मुस्कुराया है
अब मैं ज़ख़्मों को फूल कहता हूँ
फ़न ये मुश्किल से हाथ आया है
जिन दिनों आपसे तवक़्को थी
आपने भी मज़ाक़ उड़ाया है
हाले दिल उसको क्या सुनाएँ हम
सब उसी का किया-कराया है