प्राण
माचिस की डिब्बी
डिब्बी में तीली
बाहर-भीतर की यह
आदत ज़हरीली।
सिकुड़ी-सी
लगतीं है
इस घर में आँतें
चौखट के बाहर हैं
समता की बातें
मूल्यों का कैसे
निर्वाह करें बोलो
अब है उठान कम
पर आवक खर्चीली?
एक अदद प्राण और
छः-छः दीवारें
अफनाएँ अक्सर-हम
पर किसे पुकारें?
तेजी का झोंका औ’
मंदी का दौर
भर आईं फिर-फिर से
आँखें सपनीली।
सब इतिहास हुई
उड़ते-उड़ते ये दिन
मुँहजली निगोड़ी रातें,
पलिहर में ढेलवाँस
भाँजतीं मुलाक़ातें
सब इतिहास हुईं
रात-रात भर
धरन ताकना
और सोखना आँसू!
हर क़िताब के
हर पन्ने में
अक्स देखना धाँसू!
सत्य भूलकर
ढोते रहना
सपनों की सौगातें
विफल प्रयास हुईं!
साथ-साथ ही
बुनते रहना
कल के ताने-बाने!
बाबूजी पर दया
और
अपने टीचर को ताने!
बाहर आते ही
अफसर
होने की बातें
टूटी आस हुईं।
तुम्हारे इल्म की हाक़िम कोई तो थाह हो
तुम्हारे इल्म की हाक़िम कोई तो थाह हो ।
कोई एक तो बताओ, यह कि वह राह हो ।
जेब देखते हैं सब स्याह हो कि हो सफ़ेद,
कौन पूछता है अब चोर हो या साह हो ।
अँगूर क्या मकोय तक हो गए खट्टे यहाँ,
सोच में है कलुआ अब किस तरह निबाह हो ।
दर्द सिर्फ़ रिस रहा हो जिसके रोम-रोम से,
उस थके मजूर को क्या किसी की चाह हो ।
दिखो कुछ, कहो कुछ, सुनो कुछ, करो और कुछ,
तुम्हीं बताओ तुमसे किस तरह सलाह हो ।
की नहीं बारिशों से कभी मोहलत की गुज़ारिश,
निकले तो बस निकल पड़े भले पूस माह हो ।
मत बनो सुकरात कि सिर क़लम हो जाएगा,
अदा से फ़ालतू बातें करो, वाह-वाह हो ।