इल्म ओ फ़न के राज़-ए-सर-बस्ता को वा करता हुआ
इल्म ओ फ़न के राज़-ए-सर-बस्ता को वा करता हुआ
वो मुझे जब भी मिला है तर्जुमा करता हुआ
सिर्फ़ एहसास-ए-नदामत के सिवा कुछ भी नहीं
और ऐसा भी मगर वो बार-हा करता हुआ
जाने किन हैरानियों में है कि इक मुद्दत से वो
आईना-दर-आईना-दर-आईना करता हुआ
क्या क़यामत-ख़ेज़ है उस का सुकूत-ए-नाज़ भी
एक आलम को मगर वो लब-कुशा करता हुआ
आगही आसेब की मानिंद रक़्साँ हर तरफ़
मैं कि हर दाम शुनीदन को सदा करता हुआ
एक मेरी जान को अंदेशे सौ सौ तरह के
एक वो अपने लिए सब कुछ रवा करता हुआ
हाल क्या पूछो हो ‘मंज़र’ का वो देखो उस तरफ़
सारी दुनिया से अलग अपनी सना करता हुआ
ख़ुद को हर रोज़ इम्तिहान में रख
ख़ुद को हर रोज़ इम्तिहान में रख
बाल ओ पर काट कर उड़ान में रख
सुन के दुश्मन भी दोस्त हो जाए
शहद से लफ़्ज़ भी ज़बान में रख
ये तो सच है कि वो सितमगर है
दर पर आया है तो अमान में रख
मरहले और आने वाले हैं
तीर अपना अभी कमान में रख
वक़्त सब से बड़ा मुहासिब है
बात इतनी मिरी ध्यान में रख
तजि़्करा हो तिरा ज़माने में
ऐसा पहलू कोई बयान में रख
तुझ को नस्लें ख़ुदा न कह बैठें
अपनी तस्वीर मत मकान में रख
जिस की क़िस्मत है बेघरी ‘मंज़र’
उन को तो अपने साएबान में रख
बना के वहम ओ गुमाँ की दुनिया हक़ीक़तों के सराब देखूँ
बना के वहम ओ गुमाँ की दुनिया हक़ीक़तों के सराब देखूँ
मैं अपने ही आपईन में ख़ुद को जहाँ भी देखूँ ख़राब देखूँ
ये किस के साए ने रफ़्ता रफ़्ता इक अक्स मौहूम कर दिया है
अदम अगर है वजूद मेरा तो रोज़ ओ शब क्यूँ अज़ाब देखूँ
बदल बदल के हर एक पहलू फ़साना क्या क्या बना रहा है
बहुत से किरदार आए होंगे मगर कोई इंतिख़ाब देखूँ
ये मेरी साथ हैं प्यारे साथी मगर इन्हें भी नहीं गवारा
मैं अपनी वहषत के मक़बरे से नई तमन्ना के ख़्वाब देखूँ
मैं चाहता हूँ बदल दूँ ‘मंज़र’ पुराने नक़्ष ओ निगार सारे
कि सरहद-ए-जिस्म-ओ-जाँ से आगे नया कोई इजि़्तराब देखूँ
जब इंसान को अपना कुछ इदराक हुआ
जब इंसान को अपना कुछ इदराक हुआ
सारा आलम उस की नज़र में ख़ाक हुआ
इस महफ़िल में मैं भी क्या बेबाक हुआ
ऐब ओ हुनर का सारा पर्दा चाक हुआ
तिरी गली से शायद हो कर आ गया है
बाद-ए-सबा का झोंका जो सफ़्फ़ाक हुआ
ज़ब्त-ए-मोहब्बत की पाबंद ख़त्म हुई
शौक़-ए-बदन का सारा क़िस्सा पाक हुआ
उस बस्ती से अपना रिष्ता-ए-जाँ ‘मंज़र’
आते जाते मौसम की पोशाक हुआ
हर बार ही मैं जान से जाने में रह गया
हर बार ही मैं जान से जाने में रह गया
मैं रस्म-ए-ज़िंदगी जो निभाने में रह गया
आता है मेरी सम्त ग़मों का नया हुजूम
अल्लाह मैं ये कैसे ज़माने में रह गया
वो मौसम-ए-बहार में आ कर चले गए
फूलों के मैं चराग़ जलाने में रह गया
साथी मेरे कहाँ से कहाँ तक पहुँच गए
मैं ज़िंदगी के नाज़ उठाने में रह गया
दार ओ रसन सजाए गए जिस के वास्ते
इक ऐसा शख़्स मेरे ज़माने में रह गया
बढ़ते चले गए जो वो मंज़िल को पा गए
मैं पत्थरों से पाँव बचाने में रह गया
कभी इक़रार होना था कभी इंकार होना था
कभी इक़रार होना था कभी इंकार होना था
उसे किस किस तरह से दर पिए आज़ार होना था
सुना ये था बहुत आसूदा हैं साहिल के बाशिंदे
मगर टूटी हुई कश्त में दरिया पार होना था
सदा-ए-अल-अमाँ दीवार-ए-गिर्या से पलट आई
मुक़द्दर कूफ़ा ओ काबुल का जो मिस्मार होना था
अलावा एक मुश्त-ए-ख़ाक के क्या है बिसात अपनी
ख़यालों में तो लेकिन दिरहम ओ दीनार होना था
मुक़द्दर के नविश्ते में जो लिखा है वही होगा
ये मत सोचो कि किस पर किस तरह से वार होना था
यहाँ हम ने किसी से दिल लगाया ही नहीं ‘मंज़र’
कि इस दुनिया से आख़िर एक दिन बे-ज़ार होना था