है समंदर को सफीना कर लिया
है समंदर को सफ़ीना कर लिया
हमने यूँ आसान जीना कर लिया
अब नहीं है दूर मंजिल सोचकर
साफ़ माथे का पसीना कर लिया
जीस्त के तपते झुलसते जेठ को
रो के सावन का महीना कर लिया
आपने अपना बनाकर हमसफ़र
एक कंकर को नगीना कर लिया
हँस के नादानों के पत्थर खा लिए
घर को ही मक्का मदीना कर लिया
निकला करो इधर से भी होकर कभी कभी
निकला करो इधर से भी होकर कभी कभी
आया करो हमारे भी घर पर कभी कभी
माना कि रूठ जाना यूँ आदत है आप की
लगते मगर है ये अच्छे ये तेवर कभी कभी
साये की है तमन्ना दरख्तो को भी
प्यासा रहा है खुद भी समन्दर कभी कभी
गर सारे परिंदों को
गर सारे परिंदों को पिंजरों में बसा लोगे
सहरा में समंदर का फिर किससे पता लोगे
ये सोच के हम भीगे पहरों तक बारिश में
तुम अपनी छतरी में हमको भी बुला लोगे
इज़हारे-मुहब्बत की कुछ और भी रस्में हैं
कब तक मेरे पांवों के कांटे ही निकालोगे
सूरज हो, रहो सूरज,सूरज न रहोगे गर
सजदे में सितारों के सर अपना झुका लोगे
रूठों को मनाने में है देर लगे कितनी
दिल भी मिल जायेंगे गर हाथ मिला लोगे
आसां हो जायेगी हर मुश्किल पल-भर में
गर अपने बुजुर्गों की तुम दिल से दुआ लोगे
अजनबी अपना ही साया हो गया है
अजनबी अपना ही साया हो गया है
खून अपना ही पराया हो गया है
मांगता है फूल डाली से हिसाब
मुझपे क्या तेरा बकाया हो गया है
बीज बरगद में हुआ तब्दील तो
सेर भी बढ़कर सवाया हो गया है
बूँद ने सागर को शर्मिंदा किया
फिर धरा का सृजन जाया हो गया है
बात घर की घर में थी अब तक ‘किरण’
राज़ अब जग पर नुमायाँ हो गया है
ग़ैर को ही पर सुनाये तो सही
ग़ैर को ही पर सुनाए तो सही
शेर मेरे गुनगुनाए तो सही
हाँ, नहीं हमसे, रकीबों से सही
आपने रिश्ते निभाए तो सही
किन ख़ताओं की मिली हमको सज़ा
ये कोई हमको बताए तो सही
आँख बेशक हो गई नम फिर भी हम
ज़ख़्म खाकर मुस्कुराए तो सही
याद आए हर घड़ी अल्लाह हमें
इस क़दर कोई सताए तो सही
ज़िन्दगी के तो नहीं पर मौत के
हम किसी के काम आए तो सही
नए साल की तरह
गुज़रो न बस क़रीब से ख़याल की तरह
आ जाओ ज़िंदगी में नए साल की तरह
कब तक तने रहोगे यूँ ही पेड़ की तरह
झुक कर गले मिलो कभी तो डाल की तरह
आँसू छलक पड़ें न फिर किसी की बात पर
लग जाओ मेरी आँख से रूमाल की तरह
ग़म ने निभाया जैसे आप भी निभाइए
मत साथ छोड़ जाओ अच्छे हाल की तरह
बैठो भी अब ज़हन में सीधी बात की तरह
उठते हो बार-बार क्यों सवाल की तरह
अचरज करूँ ‘किरण’ मैं जिसको देख उम्र-भर
हो जाओ ज़िंदगी में उस कमाल की तरह
व्यर्थ नहीं हूँ मैं
व्यर्थ नहीं हूँ मैं!
जो तुम सिद्ध करने में लगे हो
बल्कि मेरे कारण ही हो तुम अर्थवान
अन्यथा अनर्थ का पर्यायवाची होकर रह जाते तुम।
मैं स्त्री हूँ!
सहती हूँ
तभी तो तुम कर पाते हो गर्व अपने पुरूष होने पर
मैं झुकती हूँ!
तभी तो ऊँचा उठ पाता है
तुम्हारे अंहकार का आकाश।
मैं सिसकती हूँ!
तभी तुम कर पाते हो खुलकर अट्टहास
हूँ व्यवस्थित मैं
इसलिए तुम रहते हो अस्त व्यस्त।
मैं मर्यादित हूँ
इसीलिए तुम लाँघ जाते हो सारी सीमायें।
स्त्री हूँ मैं!
हो सकती हूँ पुरूष
पर नहीं होती
रहती हूँ स्त्री इसलिए
ताकि जीवित रहे तुम्हारा पुरूष
मेरी नम्रता, से ही पलता है तुम्हारा पौरुष
मैं समर्पित हूँ!
इसीलिए हूँ उपेक्षित, तिरस्कृत।
त्यागती हूँ अपना स्वाभिमान
ताकि आहत न हो तुम्हारा अभिमान
जीती हूँ असुरक्षा में
ताकि सुरक्षित रह सके
तुम्हारा दंभ।
सुनो!
व्यर्थ नहीं हूँ मैं!
जो तुम सिद्ध करने में लगे हो
बल्कि मेरे कारण ही हो तुम अर्थवान
अन्यथा अनर्थ का पर्यायवाची होकर रह जाते तुम।
दिल पे कोई नशा न तारी हो
दिल पे कोई नशा न तारी हो,
रूह तक होश में हमारी हो।
चंद फकीरों के संग यारी हो,
मुट्ठी में कायनात सारी हो।
हैं सभी हुस्न की इबादत में,
कौन अख़लाक़ का पुजारी हो।
ज़ख्म भी दे लगाए मरहम भी,
इस कदर नर्म-दिल शिकारी हो।
चाहती हूँ मेरे ख़ुदा मुझ पर
बस तेरे नाम की खुमारी हो।
मौत आए तो बेझिझक चल दें
इतनी पुख़्ता ‘किरण’ तयारी हो।
चांद धरती पे उतरता कब है
आईना रोज़ सँवरता कब है
अक्स पानी पे ठहरता कब है?
हमसे कायम ये भरम है वरना
चाँद धरती पे उतरता कब है?
न पड़े इश्क की नज़र जब तक
हुस्न का रंग निखरता कब है?
हो न मर्ज़ी अगर हवाओं की
रेत पर नाम उभरता कब है?
लाख चाहे ऐ ‘किरण’ दिल फ़िर भी
दर्द वादे से मुकरता कब है?
ये सोच के हम भीगे
गर सारे परिंदों को पिंजरों में बसा लोगे
सहरा में समंदर का फ़िर किससे पता लोगे?
ये सोच के हम भीगे पहरों तक बारिश में
तुम अपनी छतरी में हमको भी बुला लोगे।
इज़हारे-मुहब्बत की कुछ और भी रस्में हैं
कब तक मेरे पाँवों के काँटे ही निकालोगे।
सूरज हो, रहो सूरज, सूरज न रहोगे ग़र
सजदे में सितारों के सर अपना झुका लोगे।
रूठों को मनाने में है देर लगे कितनी
दिल भी मिल जाएंगे ग़र हाथ मिला लोगे।
आसाँ हो जाएगी हर मुश्किल पल-भर में
गर अपने बुज़ुर्गों की तुम दिल से दुआ लोगे।
रेत पर घर बना लिया मैंने
दिल में अरमाँ जगा लिया मैंने,
दिन ख़ुशी से बिता लिया मैंने।
इक समंदर को मुँह चिढ़ाना था,
रेत पर घर बना लिया मैंने।
अपने दिल को सुकून देने को,
इक परिन्दा उड़ा लिया मैंने।
आईने ढूंढ़ते फिरे मुझको,
ख़ुद को तुझ में छुपा लिया मैंने।
ओढ़कर मुस्कुराहटें लब पर,
आँसुओं का मज़ा लिया मैंने।
ऐ ‘किरण’ चल समेट ले दामन
जो भी पाना था पा लिया मैंने।
नामुमकिन को मुमकिन करने निकले हैं
नामुमकिन को मुमकिन करने निकले हैं,
हम छलनी में पानी भरने निकले हैं।
आँसू पोंछ न पाए अपनी आँखों के
और जगत की पीड़ा हरने निकले हैं।
पानी बरस रहा है जंगल गीला है,
हम ऐसे मौसम में मरने निकले हैं।
होंठो पर तो कर पाए साकार नहीं,
चित्रों पर मुस्कानें धरने निकले हैं।
पाँव पड़े न जिन पर अब तक सावन के
ऐसी चट्टानों से झरने निकले हैं।
मैं नहीं हिमकण हूँ जो गल जाऊंगी
वत्सला से
वज्र में
ढल जाऊंगी,
मैं
नहीं हिमकण हूँ
जो गल जाऊंगी।
दंभ के
आकाश को
छल जाऊंगी,
मैं
नहीं हिमकण हूँ
जो गल जाऊंगी।
पतझरों की पीर की
पाती सही,
वेदना के वंश की
थाती सही।
कल मेरा
स्वागत करेगा सूर्योदय,
आज दीपक की
बुझी बाती सही।
फिर
स्वयं के ताप से
जल जाऊंगी
मैं
नही हिमकण हूँ
जो गल जाऊंगी
दोस्ती किस तरह निभाते हैं
दोस्ती किस तरह निभाते हैं,
मेरे दुश्मन मुझे सिखाते हैं।
नापना चाहते हैं दरिया को,
वो जो बरसात में नहाते हैं।
ख़ुद से नज़रें मिला नही पाते,
वो मुझे जब भी आजमाते हैं।
ज़िन्दगी क्या डराएगी उनको,
मौत का जश्न जो मनाते हैं।
ख़्वाब भूले हैं रास्ता दिन में,
रात जाने कहाँ बिताते हैं।
ज़िन्दगी को इक नया-सा मोड़ दे
ज़िन्दगी को इक नया-सा मोड़ दे,
अपनी कश्ती को भंवर में छोड़ दे।
हौसले की इक नई तहरीर लिख,
खौफ़ की सारी हदों को तोड़ दे।
फ़िर किसी इज़हार को स्वीकार कर,
इक नए रिश्ते से रिश्ता जोड़ दे।
जिसका हासिल हार केवल हार है,
क्यों भला जीवन को ऐसी होड़ दे।
सब्र के प्याले की मानिंद जा छलक,
अपनी सोई रूह को झिंझोड़ दे।
ज़िन्दगी के मसअलों का ऐ ‘किरण’
दे कोई अब हल मगर बेजोड़ दे।
आँख मेरी फिर सजल होने को है
आँख मेरी फिर सजल होने को है,
लग रहा है इक ग़ज़ल होने को है।
फिर नज़र मेरी तरल होने को है,
फिर मेरा दुश्मन सफल होने को है।
आज फिर गम की पहल होने को है,
दर्द का दिल में दख़ल होने को है।
मौत का वादा अमल होने को है,
उम्र पूरी आजकल होने को है।
नींद में सबकी खलल होने को है,
इक कली खिलकर कमल होने को है।
आज हर मुश्किल सरल होने को है,
आज अल्लाह का फ़ज़ल होने को है।
गुज़रो न बस क़रीब से ख़याल की तरह
गुज़रो न बस क़रीब से ख़याल की तरह
आ जाओ जिंदगी में नए साल की तरह
कब तक तने रहोगे यूँ ही पेड़ की तरह
झुक कर गले मिलो कभी तो डाल की तरह
आंसू छलक पड़ें न फिर किसी की बात पर
लग जाओ मेरी आँख से रूमाल की तरह
ग़म ने निभाया जैसे आप भी निभाइए
मत साथ छोड़ जाओ अच्छे हाल की तरह
बैठो भी अब ज़हन में सीधी बात की तरह
उठते हो बार बार क्यों सवाल की तरह
अचरज करूँ “किरण” मैं जिसको देख उम्र-भर
हो जाओ जिंदगी में उस कमाल की तरह
मोम के जिस्म जब पिघलते हैं
मोम के जिस्म जब पिघलते हैं
तो पतंगो के दिल भी जलते हैं
जिनको ख़ुद पर नहीं भरोसा है
भीड़ के साथ-साथ चलते हैं
दिन में तारों को किसने देखा है
चोर रातों में ही निकलते हैं
कैसे पहचान लेंगे चेहरे से
लोग गिरगिट हैं रंग बदलते हैं
सख़्तियाँ मुज़रिमों पे होती है
तब कहीं जाके सच उगलते हैं
प्यार से सींचकर ’किरण‘ देखो
पतझड़ों में भी पेड़ फलते हैं
बहुत है ख़ामोशी तुम्ही कुछ कहो ना
बहुत है ख़ामोशी तुम्ही कुछ कहो ना
है हरसू उदासी तुम्ही कुछ कहो ना
मैं पतझड़ का मौसम हूँ चुप ही रहा हूँ
ओ गुलशन के वासी! तुम्ही कुछ कहो ना
कि ढलने को आई शबे-गम ये आधी
है बाकी ज़रा-सी तुम्ही कुछ कहो ना
समाकर समंदर में भी रह गयी है
लहर एक प्यासी तुम्ही कुछ कहो ना
मेरे दिल में तुम हो कहीं ये ज़माना
न ले ले तलाशी तुम्ही कुछ कहो ना
‘किरण’ बुझ न जाना,गमो की फिजा में
चली है हवा-सी तुम्ही कुछ कहो ना
अब के रख लो लाज हमारी बाबूजी
अबके तनख्वा दे दो सारी बाबूजी
अब के रख लो लाज हमारी बाबूजी
इक तो मार गरीबी की लाचारी है
उस पर टी.बी.की बीमारी बाबूजी
भूखे बच्चों का मुरझाया चेहरा देख
दिल पर चलती रोज़ कटारी बाबूजी
नून-मिरच मिल जाएँ तो बडभाग हैं
हमने देखी ना तरकारी बाबूजी
दूधमुंहे बच्चे को रोता छोड़ हुई
घरवाली भगवान को प्यारी बाबूजी
आधा पेट काट ले जाता है बनिया
खाके आधा पेट गुजारी बाबूजी
पीढ़ी-पीढ़ी खप गयी ब्याज चुकाने में
फिर भी कायम रही उधारी बाबूजी
दिन-भर मेनत करके खांसें रात-भर
बीत रहा है पल-पल भारी बाबूजी
ना जीने की ताकत ना आती है मौत
जिंदगानी तलवार दुधारी बाबूजी
मजबूरी में हक भी डर के मांगे हैं
बने शौक से कौन भिखारी बाबूजी
पूरे पैसे दे दो पूरा खा लें आज
बच्चे मांग रहे त्यौहारी बाबूजी
जिंदगी को जुबान दे देंगे
जिंदगी को जुबान दे देंगे
धडकनों की कमान दे देंगे
हम तो मालिक हैं अपनी मर्ज़ी के
जी में आया तो जान दे देंगे
रखते हैं वो असर दुआओं में
हौसले को उड़ान दे देंगे
जो है सहमी पड़ी समंदर में
उस लहर को उफान दे देंगे
जिनको ज़र्रा नही मयस्सर है
उनको पूरा जहान दे देंगे
करके मस्जिद में आरती-पूजा
मंदिरों से अजान दे देंगे
मौत आती ‘किरण’ है आ जाए
तेरे हक में बयान दे देंगे
वापस न लौटने की ख़बर छोड़ गए हो
वापस न लौटने की ख़बर छोड़ गए हो
मैंने सुना है तुम ये शहर छोड़ गए हो
दीवाने लोग मेरी कलम चूम रहे हैं
तुम मेरी ग़ज़ल में वो असर छोड़ गए हो
सारा ज़माना तुमको मुझ में ढूंढ रहा है
तुम हो की ख़ुद को जाने किधर छोड़ गए हो
दामन चुरानेवाले मुझको ये तो दे बता
क्यों मेरे पीछे अपनी नज़र छोड़ गए हो
मंजिल की है ख़बर न रास्तों का है पता
ये मेरे लिए कैसा सफर छोड़ गए हो
ले तो गए हो जान-जिगर साथ ऐ ‘किरण’
ले जाओ अपना दिल भी अगर छोड़ गए हो
धूप है, बरसात है, और हाथ में छाता नहीं
धूप है, बरसात है, और हाथ में छाता नहीं
दिल मेरा इस हाल में भी अब तो घबराता नहीं
मुश्किलें जिसमें न हों वो जिंदगी क्या जिंदगी
राह हो आसां तो चलने का मज़ा आता नहीं
चाहनेवालों में शिद्दत की मुहब्बत थी मगर
जिस्म से रिश्ता रहा, था रूह से नाता नहीं
मांगते देखा है सबको आस्मां से कुछ न कुछ
दीन हैं सारे यहाँ, कोई भी तो दाता नहीं
पा लिया वो सब कतई जिसकी नहीं उम्मीद थी
दिल जो पाना चाहता है बस वही पाता नहीं
जिंदगी अपनी तरह कब कौन जी पाया ‘किरण’
वक्त लिखता है वो नगमें दिल जिसे गाता नहीं
आईना रोज़ संवरता कब है
आईना रोज़ संवरता कब है
अक्स पानी पे ठहरता कब है
हमसे कायम ये भरम है वरना
चाँद धरती पे उतरता कब है
न पड़े इश्क की नज़र जब तक
हुस्न का रंग निखरता कब है
हो न मर्ज़ी अगर हवाओं की
रेत पर नाम उभरता कब है
लाख चाहे ऐ ‘किरण’ दिल फ़िर भी
दर्द वादे से मुकरता कब है
ज़ख्म ऐसा जिसे खाने को मचल जाओगे
ज़ख्म ऐसा जिसे खाने को मचल जाओगे
इश्क की राहगुज़र पे न संभल पाओगे
मैं अँधेरा सही सूरज को है देखा बरसों
मेरी आँखों में अगर झांकोगे जल जाओगे
मैंने माना कि हो पहुंचे हुए फनकार मगर
एक दिन मेरी किताबों से ग़ज़ल गाओगे
इतना कमसिन है मेरे नगमों का ये ताजमहल
तुम भी देखोगे तो ऐ दोस्त! मचल जाओगे
ऐ ‘किरण’ चाँद से कह दो कि न इतरो इतना
रात-भर चमकोगे कल सुबह तो ढल जाओगे
डूबना तेरे ख्यालों में भला लगता है
डूबना तेरे ख्यालों में भला लगता है
तेरी यादों से बिछड़ना भी सजा लगता है
क्यों क़दम मेरे तेरी और खिंचे आते हैं
तेरे घर का कोई दरवाज़ा खुला लगता है
जब तेरा ख्वाब हो आबाद मेरी पलकों में
दिल भी धडके तो निगाहों को बुरा लगता है
लड़खड़ा जाएँ क़दम साँस भी हो बेकाबू
जब शहर में तेरे आने का पता लगता है
आँख अंगूरी हुई होंठ हुए अंगारे
तूने कानों में कोई शेर कहा लगता है
ऐ ‘किरण’ बहुत जहाँ में हैं ग़ज़ल गो लेकिन
तेरा अंदाज़ ज़माने से जुदा लगता है
बात छोटी है मगर सादा नहीं
बात छोटी है मगर सादा नहीं
प्यार में हो कोई समझौता नहीं
तुम पे हक हो या फलक पे चाँद हो
चाहिए पूरा मुझे आधा नहीं
दिल के बदले दांव पर दिल ही लगे
इससे कुछ भी कम नहीं ज्यादा नहीं
मर मिटे हैं जो मेरी मुस्कान पर
उनको मेरे ग़म का अंदाज़ा नहीं
इक न इक दिन टूट जाना है ‘किरण’
इसलिए करना कोई वादा नहीं
मेरी बातों में इक अदा तो है
मुझमें जादू कोई जगा तो है
मेरी बातों में इक अदा तो है
नज़रें मिलते ही लडखडाया वो
मेरी आँखों में इक नशा तो है
आईने रास आ गये मुझको
कोई मुझ पे भी मर मिटा तो है
धूप की आंच कम हुई तो क्या
सर्दियों का बदन तपा तो है
नाम उसने मेरा शमां रक्खा
इस पिघलने में इक मज़ा तो है
देखकर मुझको कह रहा है वो
दर्दे-दिल की कोई दवा तो है
उसकी हर राह है मेरे घर तक
पास उसके मेरा पता तो है
वो ‘किरण’ मुझको मुझसे मांगे है
मेरे लब पे भी इक दुआ तो है
मुहब्बत का ज़माना आ गया
मुहब्बत का ज़माना आ गया है
गुलों को मुस्कुराना आ गया है।
नयी शाखों पे देखो आज फिर वो
नज़र पंछी पुराना आ गया है।
जुनूं को मिल गयी है इक तसल्ली
वफाओं का खज़ाना आ गया है।
उन्हें भी आ गया नींदे उडाना
हमें भी दिल चुराना आ गया है।
छुपाया था जिसे हमने हमी से
लबों पर वो फ़साना आ गया है।
नज़र से पी रहे हैं नूर उसका
संभलकर लडखडाना आ गया है।
मुहब्बत तो सभी करते हैं लेकिन
हमें करके निभाना आ गया है।
हमें तो मिल गया महबूब का दर
हमारा तो ठिकाना आ गया है।
हम अपने आईने के रु-ब-रु हैं
निशाने पर निशान आ गया है।
अँधेरा है घना हर और तो क्या
“किरण”को झिलमिलाना आ गया है।
बेवफा बावफा हुआ कैसे
बेवफा बावफा हुआ कैसे
ये करिश्मा हुआ भला कैसे।
वो जो खुद का सगा न हो पाया
हो गया है मेरा सगा कैसे।
जब नज़रिए में नुक्स हो साहिब
तो नज़र आएगा ख़ुदा कैसे।
सो गया हो ज़मीर ही जिसका
वो किसी का करे भला कैसे।
तूने बख्शा नहीं किसी को जब
माफ़ होगी तेरी ख़ता कैसे।
जब कफस में नहीं था दरवाज़ा
फिर परिंदा हुआ रिहा कैसे।
कितने हैरान हैं महल वाले
कोई मुफ़लिस यहाँ हंसा कैसे।
चाँद मेहमान है अंधेरों का
चुप रहेगी ‘किरण’ बता कैसे।
मुकद्दर से न अब शिकवा करेंगे
मुक़द्दर से न अब शिकवा करेंगे
न छुप छुपके सनम रोया करेंगे।
दयारे-यार में लेंगे पनाहें
दरे-मह्बूब पर सजदा करेंगे।
हमीं ने ग़र शुरू की है कहानी
हमीं फिर ख़त्म ये किस्सा करेंगे।
जिसे ढूँढा ज़माने भर में हमने
कहीं वो मिल गया तो क्या करेंगे।
कहा किसने ये तुमसे उम्र-भर हम
तुम्हारी याद में तडपा करेंगे।
न होगा हमसे अब ज़िक्रे-मुहब्बत
वफ़ा के नाम से तौबा करेंगे।
खता हमसे हुयी आखिर ये कैसे
अकेले बैठकर सोचा करेंगे।
कि इस तर्के-तआलुक़ का सितमगर
किसी से भी नहीं चर्चा करेंगे।
हयाते- राह में सोचा नहीं था
हमारे पाँव भी धोखा करेंगे।
ज़माना दे’किरण’जिसकी मिसालें
क़लम में वो हुनर पैदा करेंगे।
सितारे टूटकर गिरना हमें अच्छा नहीं लगता
सितारे टूटकर गिरना हमें अच्छा नहीं लगता
गुलों का शाख से झरना हमें अच्छा नहीं लगता।
सफ़र इस जिंदगी का यूँ तो है अँधा सफ़र लेकिन
उमीदें साथ हैं वरना हमें अच्छा नहीं लगता।
थे ताज़ा जब तलक हमको किसी की याद आती थी
पुराने ज़ख्म का भरना हमें अच्छा नहीं लगता।
हमारा नाम भी शामिल हो अब बेखौफ बन्दों में
जहाँ से इस कदर डरना हमें अच्छा नहीं लगता।
मुहब्बत हम करें तेरी इबादत सोचना भी मत
तुम्हारा ज़िक्र भी करना हमें अच्छा नहीं लगता।
भला हो या बुरा अब चाहे जो होना है हो जाये
किरण” ये रोज़ का मरना हमें अच्छा नहीं लगता।
मिलता नहीं है कोई भी गमख्वार की तरह
मिलता नहीं है कोई भी गमख्वार की तरह
पेश आ रहे हैं यार भी अय्यार की तरह।
मुजरिम तुम्ही नहीं हो फ़क़त जुर्म-ए-इश्क के
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह।
वादों का लेन-देन है, सौदा है, शर्त है
मिलता कहाँ है प्यार भी अब प्यार की तरह।
ता-उम्र मुन्तज़िर ही रहे हम बहार के
इस बार भी न आई वो हर बार कीतरह।
अहले-जुनूं कहें के उन्हें संग-दिल कहें
मातम मना रहे हैं जो त्यौहार की तरह।
यादों के रोज़गार से जब से मिली निजात
हर रोज़ हमको लगता है इतवार की तरह।
पैकर ग़ज़ल का अब तो ‘किरण’ हम को कर अता
बिखरे हैं तेरे जेहन में अश’आर की तरह।
उस दिन के लिए तैयार रहना
तुम पूरी कोशिश करते हो
मेरे दिल को दुखाने की
मुझे सताने की
रुलाने की
और इसमें पूरी तरह कामयाब भी होते हो—
सुनो!
मेरे आंसू तुम्हे
बहुत सुकून देते हैं ना!
तो लो..
आज जी भर के सता लो मुझे
देखना चाहते हो ना मेरी सहनशक्ति की सीमा
तो लो..
आज जी भर के
आजमा लो मुझे
और मेरे सब्र को
पर हाँ!
फिर उस दिन के लिए तैयार रहना
कि जिस दिन मेरे सब्र का बाँध टूटेगा
और बहा ले जायेगा तुम्हे
तुम्हारे अहंकार सहित इतनी दूर तक
कि जहाँ तुम
शेष नहीं बचोगे मुझे सताने के लिए
मेरा दिल दुखाने के लिए
मुझे आजमाने के लिए
पड़े होंगे पछतावे और शर्मिंदगी की रेत पर
अपने झूठे दम्भ्साहित
कहीं अकेले–
उस दिन के लिए
तैयार रहना–
तुम!