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शुभम श्रीवास्तव ओम की रचनाएँ

मैं अपना वो ही चेहरा ढूढ़ता हूँ 

मैं अपना वो ही चेहरा ढूढ़ता हूँ,
कि-खुद को मुस्कुराता ढूढ़ता हूँ।

बहुत भारी अभी माहौल लेकिन-
मैं इक उड़ता परिन्दा ढूढ़ता हूँ।

निशाने पर न रक्खूँगा किसी को,
न शीशा हूँ,न शीशा ढूढ़ता हूँ।

मुझे काफिर कहा जिसने उसी में-
खुदा-भगवान-ईशा ढूढ़ता हूँ।

ग़ज़ब! अब ज़िन्दगी से दूर होकर,
मैं जीने का सलीका ढूढ़ता हूँ।

कभी इस फ्रेम से बाहर कभी कोलाज से बाहर 

कभी इस फ्रेम से बाहर कभी कोलाज से बाहर,
हमारा कल हमें करने लगा है आज से बाहर।

कभी पिंजरे,कभी फंदे,कभी नारे,कभी फतवे,
परिन्दे खुद ब खुद होने लगे परवाज़ से बाहर।

खुली मुट्ठी,झुके कंधे,ये उफ! संदेह वाले दिन-
कि हम गूँगे हैं या फिर हो गये आवाज़ से बाहर।

कलम,काग़ज,सुखनवर सबके सब में एक सी उलझन,
करें क्या?-दौर होता जा रहा अल्फाज़ से बाहर।

किसी के पाँव से दहलीज दफ्तर तक लिपट आए
कोई दहलीज के भीतर भी दिखता लाज से बाहर।

हमारी आपकी इस सर्वहारा सोच का हो क्या
बटन आना हुआ आसान कितान काज से बाहर।

आपने मुझको जो यूँ रुस्वा किया है 

आपने मुझको जो यूँ रुस्वा किया है,
शुक्रिया! जो भी किया,अच्छा किया है।

आपके अश्कों को हमने भी सहा है,
और कहते हो बड़ा धोका किया है।

भूख को कब तक वो पर्दे में छुपाती,
टूटकर किस्मत से समझौता किया है।

झोपड़ी से सिसकियाँ आने लगी हैं,
आज लगता है कि फिर फाँका किया है।

पीठ पर पर्वत के जितना बोझ लेकिन-
देखिये जज़्बा कि सर ऊँचा किया है।

आपकी सम्भावनाएँ हैं हमेशा-
वक्त कब? किसके लिए? ठहरा किया है।

हर घड़ी एक सूर्य का अवसान है

हर घड़ी एक सूर्य का अवसान है,
आजकल दिन की यही पहचान है।

क्यों किसी के होंठ पर मुस्कान है,
एक तबका इसलिए हैरान है।

खुदकुशी होगी मुकम्मल आईए तो-
घाट पर सरकार मेहरबान है।

आँकड़े सच बोलने से डर रहे,
आँकड़ों पर भी लगा इल्ज़ाम है।

आईना सच कह गया फिर आदतन-
आईना होना कहाँ आसान है?

जाम लगा 

ट्रैक्टर-ट्रक टकराये
लम्बा जाम लगा।

आसमान के ऊपर-नीचे
भारीपन की एक परत है
बहती हुई हवा क्या जाने
कौन सही है कौन गलत है

घिरा भीड़ से दोषी
मौका देख भगा।

धुआँ, सुलगते इंजन, साँसें
ट्रैफिक हवलदार की ऊबन
तारकोल में खूनी थक्के
चिपटी लाशें, मटमैलापन

कौन रुका है
हुआ सड़क का कौन सगा!

तंत्र-साधनाओं के उपक्रम
सुबह-शाम की ये नरबलियाँ
कटी गर्दनें, त्वचा-हड्डियाँ
खून, लोथड़े और अँतड़ियाँ

सबमें एक अजीब
औघड़ी भाव जगा।

कौन कहता है 

यह समय सबसे कठिन है
कौन कहता है।

है अभी आकाश खाली
हां अभी धरती फटी है
क्रूर स्थिति का तमाचा
सुन्न अपनी कनपटी है

होंठ पर साजिश भरा
पल मौन धरता है।

रच रही भूगर्भ में हलचल
खिसकती प्लेट कोई
दूधिया नन्ही छुअन से
जी उठी है स्लेट कोई

द्वीप कोई फिर वलित
होकर उभरता है।

देर तक जागी हुईं आंखे
गले दिन से मिलेंगी
तिलमिलायेंगी विसंगतियाँ
सड़क खुल कर हँसेगी

एक डैना फिर उमड़
आकाश गहता है।

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