पेड़ होने का मतलब
समझते हैं लोग क्या
पेड़ से
होने से,उसके न होने से
पेड़ का मतलब छाया,
हवा,लकड़ी,
हरियाली
पेड़ जब सनसनाते
सन्नाटे को तोड़ते
कभी खुद टूट जाते
तूफ़ान से लड़कर
देखते लोग पेड़ वे
आंधी में टूटे हुए
होते हैं कितने लाभदायक
नहीं टूटते तब
टूटने पर
आते हैं अनगिनत काम
घरद्वार, हलमूँठ और बैलगाड़ी
नाव घाट,मोटर,रेल,
बक्सा-संदूक,कुर्सी-मेज़
न जाने कहाँ-कहाँ
सोचते हैं क्या हम कभी ?
पेड़ों के स्पंदन
उनके जीवन और मृत्यु की बात
हरी-पीली पत्तियों एवं शिराओं में
बहते जीवन रस के बारे में
क्या आदमी के साथ
पेड़ों का संबंध
है मात्र पूजा और उपयोग का
प्रतीक होते हैं पेड़
सतत जीवंतता,उत्साह
और प्रेम के
विवशता
एक लंबी सुरंग
खड़ी प्रेत-छाया
द्वार पर उसके
निकलने का रास्ता नहीं कोई
प्रारंभ में चले थे जहाँ से
धसक कर टूट चुकी
अब सुरंग वहाँ
मुश्किल है पहचानना अंधेरे में
था उसका कैसा और
किस स्थिति में रचाव
छिन्न-भिन्न रास्ता पीछे
सामने विकट स्थितियाँ
भयावह आकृति वह
डर पैठा अंतर में सघन
मन और मति दोनों
कर गया अस्थिर
चेतना है शेष इतनी
निकल सकता है रास्ता
सकुशल बच निकलने का
कुछ क्षणों के लिए यदि
हट जाए वह भयंकर आकृति
डरती है प्रेत-छाया
जिस आग और लोहे से
दोनों नहीं हैं पास अपने!
परिवर्तन
कई बार
झुंझलाया हूँ मैं
सड़क के किनारे खड़ा हो
न रुकने पर बस
गिड़गिड़ाया हूँ कई बार
बस कंडक्टर से
चलने को गाँव तक
हर बार
कचोटता मेरा मन
कसमसाता
आहत दर्प से गुज़रता मैं
तेज़ गति वाहनों से
देखता इंतज़ार करते
ग्रामवासियों को
किनारे सड़क के
नहीं कचोटता मन
न आहत होता दर्प
सोचता
नहीं मेरे हाथ में लगाम
न पैरों के नीचे ब्रेक
नहीं
अब कोई अपराध बोध भी नहीं
मेरे मन में
कामना
कितनी गहरी रही ये खाई
मन काँपता डर से
अतल गहराइयाँ मन की
झाँकने का साहस कहाँ
दूर विजन एकांत में
सरिता कूल सुहाना दृश्य कैसा
नीम का वृक्ष
चारों ओर से गहरी खाई
काली सिंध बह रही मंथर
बीहड़ खाइयाँ
परिंदे पी पानी तलहटी का
आ बैठते नीम की टहनियों पर
बड़ी मुश्किल से
हम खाइयों के भय से पीछा छुड़ाते
किलोल करते ये परिंदे
हम को चिढ़ाते
चींटियाँ रेंगती भू-भाग पर
समझतीं प्राणियों को भी पेड़-पौधे
चढ़ती और गुदगुदा जिस्म पा
काट लेतीं त्वचा को
किनारे नदी के
भेड़ बकरियों का झुंड
साथ चरवाहा
नहाता नदी में निश्छल भाव से
निचोड़ पानी कपड़ों से
होता साथ बकरियों के
बादल घिर रहे आकाश में
अतृप्त हैं ये खाइयाँ
पावस में गहन ताप से
सूखी हैं ये, संतप्त हैं,
जल विहीना हैं
बादलों तुम बरसो यहाँ इतना
इस धारा को तृप्त कर दो
नदी काली सिंध पानी से लहलहाए
और ये ढूह
जिसके किनारे बैठा हूँ
आज मैं यहाँ
इस नदी में डूब जाए
होंगे प्रफुल्लित ग्रामवासी
आऊंगा मैं यहाँ फिर
शिशिर और हेमंत में
हरित वृक्ष और पौधों से भरी
देखना चाहता हूँ मैं
“यह धरा”
लघु कविताएँ
एक
काव्य सृजन
कंसीव्ह हुआ
कोख में पला
बन विकसित हुआ
नियत समय बाद
तेज़ हुई
प्रसव वेदना
जन्म हुआ
कविता का
दो
सामने पहाड़ का टुकड़ा
जैसे गोवर्धन पर्वत
होगी जब अतिवृष्टि
नाराज़ होने पर इन्द्र के
उठा लेंगे कृ़ष्ण इसे
एक उँगली पर
शरण पाएँगे समस्त मरुवासी
इसके तले
इस मरुभूमि पर
ऐसा भी होगा कभी
बहुत रोमाँचक है यह कल्पना
तीन
न क़लम हिली
न अमलतास
न बादल हटे
न सूरज उदास
हवा चली
घूमने लगा
एक्झॉस्ट फैन
कुछ हिले पत्ते
कुछ हिली डालियाँ
गाने बजे
गज़लें चलीं
सड़क पर
आवारा गायें चलीं
बुझी-बुझी निगाहें चलीं
चार
दूर-दूर तक
रँग हुए बेरँग
अच्छे न रहे
बिजली भी है
टेलीफ़ोन भी
मोटर भी, गाड़ी भी
अनजान रस्ता
अनजान डेरा
दूर है मँज़िल
पाँच
अफ़सोस भी है
आक्रोश भी
असफलता भी है
असमर्थता भी
जो भी है
नीले आसमान पर
बादलों का
पैच वर्क है
छह
यही नर्क है
निर्मल बहती कोई
सरिता नहीं है
ये ज़िन्दगी एक जँग है
कविता नहीं है
हायब्रीड
खिले हैं गुलाब
बड़े-बड़े
सुर्ख़ लाल
फिरोज़ी
हल्के नीले
सुगन्ध नहीं इनमें
जैसे भावनाविहीन
सुन्दर शरीर
उदासीनता
क्या मुझे पसंद है व उदासीनता
क्या तटस्थता और
विरक्ति ही है
उपयुक्त जीवन शैली
क्या निष्क्रियता है
मेरा आदर्श ?
थमी हुई है हवा
निर्जन एकांत में
ध्वनि,
नहीं महत्वहीन
न नगण्य और
असंगत
ग्रीष्म : एक कविता
झंकृत होती हैं
नाड़ियाँ
शिराओं का बढ़ जाता है चाप
तापमापी करता दर्ज़
तापमान
अड़तालीस डिग्री सैलसियस
कविताऍ होती वाष्पित जल-सी
उत्सर्जित होती
स्वेद-सी
फूटती मन और शरीर से
फैल जाती हैं
ब्रह्मांड में
आतप
फिर फूले हैं
सेमल, टेसू, अमलतास
हुआ ग़ुलमोहर
सुर्ख़ लाल
ताप बहुत है
अलसाई है दोपहरी
साँझ ढले
मेघ घिरे
धीरे-धीरे खग, मृग
दृग से ओट हुए
दुबके वनवासी
ईंधन की लकड़ी पर
रोक लगी जंगल में
वन-वन भटकें मूलनिवासी
जल बिन
बहुत बुरा है हाल
तेवर ग्रीष्म के हैं आक्रामक
कैसे कट पाएंगे ये दिन
जन-मन,पशु-पक्षी
हुए हैं बेहाल
विरक्ति
कदापि उचित नहीं
दिगंत के उच्छिष्ट पर
फैलाना पर
शमन कर भावनाओं का
मनुष्य मन पर
प्राप्त कर विजय
उड़ भी तो नहीं सकते
अबाबीलों के झुंड में
ठहरी हुई हवा
बेपनाह ताप
बहुत सुंदर हैं
नीम की हरी-हरी
पत्तों भरी ये टहनियाँ
अर्थ क्या है
पत्तों वाली टहनियों का
न हिलें यदि
उमस भरी शाम
विरक्त मन,
फैल गई है विरक्ति
बोगनवेलिया के गुलाबी फूल
करते नहीं आनंदित
यद्यपि खूबसूरत हैं वे
गीत बहुत बन जाएंगे
यूँ गीत बहुत
बन जाएंगे
लेकिन कुछ ही
गाए जाएंगे
कहीं सुगंध
और सुमन होंगे
कहीं भक्त
और भजन होंगे
रीती आँखों में
टूटे हुए सपने होंगे
बिगड़ेगी बात कभी तो
उसे बनाने के
लाख जतन होंगे
न जाने इस जीवन में
क्या कुछ देखेंगे
कितना कुछ पाएंगे
सपना बन
अपने ही छल जाएंगे
यूँ गीत बहुत
बन जाएंगे
लेकिन कुछ ही
गाए जाएंगे
जग के व्यापार से समभाव हुए हैं
भाव बहुत बेभाव हुए हैं
दिन तो दिन रातों के भी अभाव हुए हैं
कितने अँधियारे कष्टों में काटे
उजियारे कितने अलगाव हुए हैं
अपने-अपने किस्से हर कोई जीता है
औरों के किस्से किससे समभाव हुए हैं
दूर निकल आए जब तक भ्रम टूटे
वक़्त बहुत बीता बेहद ठहराव जिए हैं
नहीं कहूंगा दुख मैं इसको
सुख ने भी कितने घाव दिए हैं
भाव बहुत बेभाव हुए हैं
बदलते परिदृश्य
अब
बहार जाने को है
और टूटने को है भ्रम
याद आने लगी हैं
बीती बातें मधुर
छड़े लोग स्नेहिल
प्रकृति सुन्दर अनंत
बहुत बरसे मेघ
उपहार तुमने दिया
उर्वरता का धरा को
दुख है पावस बीतने का
बीतनी ही थी रुत
आख़िर यह कोई
कांगो (ज़ेर) का भूमध्यसागरीय
भू-भाग तो नहीं
कि बरसते रहें
बारहों मास मेघ
धुआँ उगलती रहेंगी चिमनियाँ
सड़कों पर अनगिनत मोटर गाड़ियाँ
रसायनों का लगातार बहना नालियों में
भाँति-भाँति के कचरे के ढ़ेर हर जगह
विषैली गैसें, जहरीला जल, दूषित भूमि
आएँगे अब शरद,
शिशिर फिर हेमंत
सघन ताप और
चिलचिलाहट से भरी ग्रीष्म
न रुका यदि विनाश यह
बदलती ऋतुओं के
साथ-साथ
बदल जाएँगे परिदृश्य भी !
पहाड़ के नीचे
पहाड़ के नीचे
मालवा की काली माटी
सोंधी-सोंधी गंध
खेत में बागड़ काँटों की
चनों के हरे-हरे चमोने
बड़े भी रोक नहीं पाते
मन को
बालक तो बालक ही ठहरे
हिमालय आज पास है
कल था विंध्याचल
समय सांप्रदायिक
यदि बड़ी उर्वर ज़मीन थी वह
युगों तक
तब आज रेगिस्तान यह
रेंगता सा
कहाँ से आया
कुएँ का पानी
नालियों में बहता
पहुँचता खेत गेहूँ के
होली के रंग
पकी बालियों के संग
महक भुने दानों की
होरी आई, होरी आई, होरी आई रे
खचाखच भर गई चौपाल
मन का मृदंग बजता मद भरा
कबिरा ने छेड़ी फागुन में
बिरहा की तान
झूम उठा विहान
कितना विस्तृत मन का मान
भूल गए सब
मेहनत, मार और लगान
दूर हुआ शैतान
पर आज हर घर में
हाँडी के चावल
फुदक-फुदक फैले
मन भी रेगिस्तान हुआ
छवि खो गई जो
हो गई रात
स्याह काली
नीरव हो गया
वितान खग, मृग सब
निश्चेष्ट
दृग ढूंढ़ते वह
छवि खो गई जो
बढ़ रहा
अवसाद तम सा
साथ रजनी के
छोड़ तुमने दिया साथ
कुछ दूर चल के
रह गया खग
फड़फड़ाता पंख
नील अंबर में
भटकता चहुँ ओर
वह
लौटेगा धरा पर
होकर थकन से चूर
अनमना बैठा रहेगा
निर्जन भूखण्ड पर
अप्रभावित,अलक्ष
छवि खो गई जो
हो गई रात
स्याह काली
नीरव हो गया
वितान
खग, मृग सब
निचेष्ट
दृग ढूँढते वह
छवि खो गई जो
बढ़ रहा
अवसाद तम सा
साथ रजनी के
छोड़ तुमने दिया साथ
कुछ दूर चल के
रह गया खग
फड़फड़ाता पंख
नील अंबर में
भटकता चहुँ ओर
वह
लौटेगा धरा पर
होकर थकन से चूर
अनमना बैठा रहेगा
निर्जन भूखण्ड पर
अप्रभावित, अलक्ष
जग के व्यापार से
पुनर्वास
मन होता जब क्लांत
बनती प्रकृति सहचरी
यह तो है सौभाग्य
हिमालय श्रृंग और चीड़
निकट पा जाता
निहारता उत्कंठा, कौतूहल
और ललक से
स्मृतियों के पहाड़ पीछे
बहुत घने
पहुँचते जंगलों में
सागौन
स्काउट बन सीखता
पहचानता जंगल के रास्ते
संकेत से
झरने का बहता
स्वच्छ पानी,
बीच जंगल
मिल बैठ कर खाना
मन में कितना मीठापन !
थोड़ी सी ऊष्मा
प्रक्रिया मे पेड़ बनने की
कोई पौधा चाहता है
थोड़ी सी ऊष्मा, थोड़ा सा जल
और थीड़ी ईमानदारी
परवरिश में
ठीक यही
यही सब कुछ
ऊष्मा थोड़ी सी, स्नेह
थोड़ी ईमानदारी
होती है ज़रूरी
संबंधों में भी
आदमी और आदमी के
बढ़ते जाते हैं पग
अनुभूति बनी रहती है
आनंद की मन में
बना रहता है प्रवाह
जीवन में
सनक जाने की ख़बर
मुड़ जाते हैं पैर
अर्धचंद्र की तरह
जैसे हो गया हो
नारू रोग
बोझिल होती ज़िंदगी
पनपती कुंठाएँ
टपकने लगता बुढ़ापा असमय
मन और शरीर से
कभी याद आती
बेतरतीब बातें
कभी भूलती
सुबह शाम की स्मृतियाँ भी
मन नही होता
कुछ करने का ठीक से
घर, बाहर अक्सर
हो जाती तकरार
खीझता है आत्मविश्वास
जब नही होती
सहजता संबंधों में
कभी किसी बात का
सहज कर लेता यकीन
कभी बात-बात मे टटोलता
कि सही क्या है
झिड़कता साथियों को
खीझता असमर्थता पर अपनी
कोसता ज़माने को
सनक गया है
कहते लोग अक्सर
चल देते मुँह फेरकर
अब भी
सभी माएँ
होती हैं प्रसन्न
अपने बच्चों के प्रति प्रदर्शित
स्नेह से
बहुत अलग थी प्रतिक्रिया
उस बालक की माँ की
असहज हुई वह
संशय था, कुछ भय भी
आँखों में उसकी
देख अजनबी चेहरे
अक्सर तो नन्हे बालक
रोने-रोने को होते हैं
कभी-कभी जब
बच्चे होते हैं प्रसन्न
माएँ होने लगती हैं भयभीत
अजानी आशंकाओँ से
अपघट से
अब भी होता है
ऐसा क्यों?
क्या हम नहीं कर सकते कुछ भी
कभी गवास्कर
कभी पी०टी० ऊषा
बनना चाहती
मेरी बिटिया
खेलों के प्रति उसका आकर्षण
निश्चित है घनात्मक
प्रसारित होता जब टी.वी. पर
खेलों का आँखों देखा हाल
दिन-भर बैठी रहती
टी०वी० के आगे
स्कूल की टीचरों से प्रभावित
बन जाती टीचर खेल-खेल में
ब्लैक बोर्ड पर लिखती प्रश्न
और पूछती उत्तर
नकल उतारती
खेलती बहन के साथ
डॉक्टर या इंजीनियर बनने की
इच्छा भी जगी है उसकी
कुछ बनने की इच्छा
निश्चित ही है अच्छी
इधर कुछ दिनों से
कर दिया है बन्द उसने
करना महत्वाकांक्षी बातें
पूछती है अब
क्यों मरते हैं इतने लोग
कौन होते हैं मारने वाले
कहाँ से आता है इतना
गोला-बारूद?
क्या करती है पुलिस, सेना
क्या करते हैं ये मंत्री
और हम नहीं कर सकते क्या
कुछ भी ?
गारुण मंत्र का कवि
स्व. कवि अनिल कुमार के लिए
मौत का सैलाब
ख़ून से लथपथ लाशें
और उसमें पका हुआ भात
लाशें सात…!
सात हजार…!
रोज़ के रोज़
यही होता है
ये सत्ता के भूखे गीदड़
रचते हैं रोज़
नई-नई व्यूह-रचना
इन्सानों के ख़ून से
पका भात खाने को
गारुण-मंत्र के कवि
तुम इन तांत्रिकों की
चपेट में आने से
नहीं बच सके
अब तुम्हारी याद शेष है
लिली टाकीज के पास
रेलिंग पकड़े
ताल को निहारते हुए!
तालाब में मछलियाँ
तैरती हैं बेआवाज़
ठहरे हुए पानी में
उठ रही है सड़ांध
तड़पता है बेआवाज़
मछलियों की तरह
आदमी बेजान
सत्ता का ज्वर
अब भी चढ़ा है वैसा ही
मनौतियां मांगी हैं
लोगों ने
पीपल के पेड़ में
कीलें ठोंक कर
आएगा एक दिन
बसंत का मौसम
चिड़ियों की बीट से
गंदला गए हैं पत्ते
भूल गए हैं
हम अपना अस्तित्व
दक्षिण की यात्रा
चलो कर ही आएँ
देशाटन अब वशिष्ठजी के
फ़्री रेलवे पास पर
रेलकर्मी सेवा-निवृत्त
नौकरी बढ़िया रेल की
रिटायर होने पर भी
मिलता फ़्री पास
वशिष्ठजी भले आदमी बेचारे
नहीं जाते स्वयं
दे देते पास तब
किसी मित्र, पड़ोसी,
रिश्तेदार को
बढ़ाते उनका भौगोलिक
सांस्कृतिक ज्ञान
यात्रा कर दक्षिण की मुफ़्त
सुनाते यात्रा-वृत्तांत
पड़ोसी रामगोपाल
मन्दिर रामेश्वर के
कन्याकुमारी का सूर्यास्त
महाबलीपुरम की कला, रथापत्य
तिरुपति मंदिर का
बेहिसाब चढ़ावा, स्पेशल दर्शन
हैदराबाद का
सालारजंग म्यूज़ियम विचित्र
मैसूर का वृंदावन गार्डेन भव्य
अजंता एलोरा की गुफ़ाएँ ऐतिहासिक
और न जाने क्या-क्या…?
आदमी वहां के
नहीं अधिक उद्दंड
हाँ नहीं बोलते
जानबूझकर हिन्दी
रामगोपाल की बातें
देतीं उजली तस्वीर
दक्षिण के पर्यटन-स्थलों की
पर वहाँ
कैसे हैं गाँव, किसान, मज़दूर
नहीं देख पाते वे
उन्हें नहीं नज़र आती उनकी बेरोज़गारी
ग़रीबी
होते वे मुग्ध
उनके शांत और शिक्षित होने पर
गंगा-जमना, तीरथ काशी
अयोध्या वृंदावन
जहाँ धर्म की पूरी ठेकेदारी
वहाँ सुरक्षा की
नहीं कोई गारंटी
न कोई नियम-कानून
न खौफ़ ख़ुदा का
दक्षिण इस मामले में
है काबिले तारीफ़
रामगोपाल की यात्रा
देती गवाही इस बात की
अतीत
इतने डरावने भी नहीं थे
सब दिन
ललमुनिया नाचती थी
पहन कर लाल लहंगा,
लाल चूनर
चिडि़या सी फुदकती
लचकती बेल सी
बच्ची सी चहकती
जवान ललमुनिया
(किशोरी भी हो सकती है)
मजा ला देती
किसी ने उसका
हाथ नहीं पकड़ा
पैसे नहीं फैंके
किसी ने नहीं कहा
’हाय मेरी जान !’
नहीं कहा किसीने रात रुकने को
उल्टे भूरे काका ने
सर पर हाथ रखकर
ढेरों आशीर्वाद दिए
बहू की एक धोती दी
डेढ़ मन अनाज दिया
कसे हुए जवान,पट्ठे बैलों को
छकड़े में जोतकर
चारों तरफ कपड़ा लगा
बेटी की तरह ललमुनिया को
बिदा किया
ललमुनिया की आँख से
बह निकला समुँदर
दो बूँदें उँगली से झटक
काका ने लगाई
एड़ बैलों को
अदेह
आँखों में
धुँआ
जैसे अन्धा कुआँ
सूरदास की आँखें
बगुला की पाँखें
तुमने मुझे छुआ
अंधेरे में
अदेह !
मैं उड़ा
झपटा मछली की
आँख पर
सूखे पोखर का
रहस्य
न मछली
न मछली की आँख
बस
सूखे कठोर
मिट्टी के ढेले
उपसंहार
टल गया है निर्णय
कहीं जाने का
और जाकर भी
होता क्या
कॉफी-हाउस में बैठ
कुछ अखबारी बातें
कॉफी की चुस्कियाँ
और
सिगरेट के धुएं के साथ
समय काटने का शग़ल
यह समय भी
कुछ है अजीब
काटा नहीं जाता
कट जाता है
अपनी तमाम
बुराइयों, अच्छाइयों
के साथ
कुछ ही देर पहले
बरसी है एक बदली
अभी ही बंद हुए हैं
मर्म से भरे
टेपित गीत
सूर के पद
मीरा के भजन
और पति-पत्नी के बीच
चलता अनवरत
एक व्यर्थ संवाद
सोच ही नहीं सकता पति
जिस ढंग से सोच सकती है पत्नी
इतने दिनों में
क्या से क्या हो गया
ग्रीष्म की तपती लू से
बचा लिया
बरखा की
शीतल फ़ुहारों ने
नहीं बचा सका कोई
पृथ्वी के गर्भ में पलते
ज्वालामुखी से
अपराध कैसा
किसने किया
कौन करेगा प्रायश्चित
लेर्मोंन्तेव का नायक
डोरियनग्रे की तस्वीर
मैं नहीं
कोई और ही है
इन प्रसंगों के पीछे
विवश है मानव मन
अपराधी वो नहीं
जो ताक रहे हैं
निर्जन द्वार
अपराधी है भीनी-भीनी महक
मोहक पुष्पपराग
झीने बादलों के
आवरण से
भुवन भास्कर की श्लथ किरणें
हो चुकी हैं ओझल
शीतल आर्द्र पवन
पुनः हो उठी है चंचल
बरसेगी फिर
बदली एक
ये क्षण
निर्णायक भी नहीं हैं
इतिहास की वर्तुल गति
बदला हुआ न्यूक्लियस
बाहरी आर्बिट में
घूमता इलेक्ट्रॉन
बाह्य उर्जास्त्रोत से
किया जाना है विलग
बहुत शुभ दिखते हैं
विलग होने का
आभास देने वाले दिवस
दिख जाते हैं
जल से भरे पात्र प्रात:
कल्याणकारी नीलकंठ
उड़-उड़ बैठते हैं
टेलीफोन के तारों पर
अपना पहला आर्बिट
छोड़ देता है इलेक्ट्रॉन
परमाणु विखंडन की
अनचाही प्रतीक्षा
रेडियोधर्मिता रोकने का प्रयास
विशद ऊर्जा का स्वप्न
निरर्थक !
वर्तुल गति का
कलुषित सत्य
साक्षी है इतिहास
टीसता है व्यग्र मन
सज़ा तो मिलेगी
आतताइयों को
यदि चला यह चक्र
युगों तक
बिखरने लगे हैं मेघ
सूर्य रश्मियाँ हो गई हैं
अनावरत
तल्ख नहीं हैं ग्रीष्म की भाँति
यही उपसंहार है
यही भविष्य का इन्गित
छुटता है मुटि्ठयों से
कैद किया हुआ
अनंत आसमान
छुटते हैं कनक कण
बिखर जाता है
पुष्प पराग
फटने लगती हैं
परमाणु भटि्ठयाँ
फैल जाती है दूर तक
धरा पर रेडियोधर्मिता
क्षत-विक्षत
स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया
की बनी स्टील की
भारी चादरें
टिस्को की बनी
और
आयातित चादरें
प्रौद्योगिकी, भवन निर्माण,
आधुनिक तकनीक
संतुष्ट हैं बहुत
विज्ञन की प्रगति से
मध्यवर्गीय जन
रोज़गार की है गारन्टी
समझौतापरस्त
अवसरवादियों को
कारख़ाने के श्रमिकों को,
यूनियन के दम पर
हैं सुविधाएँ
आनंदित हैं चतुर बुद्धिजीवी
राजनीति, विज्ञान और
कला के व्यवसाय से
समाज का ढाँचा खड़ा हो गया है
आर सी सी फाउंडेशन पर
अनेक परीक्षणों के बाद
आश्वस्त हैं आधुनिक जन
अपने सुरक्षित भविष्य
और सुविधाजनक
वर्तमान के प्रति
कोई अचंभा नहीं
बरसात और तूफान में
गिरते कच्चे मकानों से
आश्चर्यजनक नहीं
झुग्गी-झोपड़ियों का
स्वाहा हो जाना गर्मियों में
है बहुत सामान्य
सर्दियों में मर जाना
फूटने से नकसीर
वस्त्रहीन मनुष्यों का
है सहज क्रंदन
अव्यवहारिक, सरल,
संवेदनशील मनुष्यों का
शरीर के अनावश्यक
अवयवों का
नहीं होता कोई महत्व
नष्ट भी हो जाएँ
यदि वे
सुंदर नहीं दिखेगा
क्षत-विक्षत यह शरीर
जो हो चुके हैं
विकृतियों को
सुंदर कहने के आदी
उनके लिए बेजायका है
शरीर का संपुष्ट
सुगठित और सुंदर होना
तड़ित रश्मियाँ
पेड़ पर टंगी उदासी
पूर्णिमा के चाँद की तरह
झाँकती है स्पष्ट
-
- कोहरे में छुपी
-
- धूल में लिपटी
-
- बारिश में भीगी
-
- मेघ गर्जन सी
-
-
-
- तड़ित रश्मियाँ
-
-
-
-
-
- एकाएक छिटक जाती हैं
-
-
-
-
-
- देश-प्रदेश के
-
-
-
-
-
- सीले भू-भाग पर
-
-
-
-
-
- कौंधती हैं स्मृतियाँ
-
-
-
-
-
- बीते युगों की
-
धूप रात माटी
बहुत सारे दर्द को अहसासती
तुम साथ मेरे चल रही हो
- जुड़ गई हर मुस्कान
- मुझसे तुम्हारी
- नींद में अलसाती मदमाती
- बेखबर
-
- फिर भी जुड़ी हो इस तरह
-
- जैसे फूलों में महक
-
- चमक तारों में
-
- आहिस्ता-आहिस्ता
-
- पाँव घिसटाती चल रही हो
-
-
- तुम —
-
-
-
-
- धूप,रात,माटी
-
-
-
-
- और मौसम
-
-
-
- कितने सलौने
-
-
-
-
- सब ठुकराती चल रही हो
-
-
-
-
-
- तुम साथ मेरे चल रही हो
-
बड़ी बात
तुम हो
एक अच्छे इंसान
डिब्बे में बन्द रखो
अपनी कविताएँ
मुश्किल है थोड़ा
अच्छा कवि बन पाना
कुछ तिकड़म
चमचागिरी थोड़ी और
अच्छा पी. आर.
नहीं तुम्हारे बस का
कविताएँ अपनी
डिब्बे में बंद रखो
आलोचकों को देनी होती
सादर केसर-कस्तूरी
संपादक को
मिलना होता कई बार
बाँधो झूठी तारीफ़ों के पुल पहले
फिर जी हुजूरी और सलाम
लाना दूर की कौड़ी कविताओं में
असहज बातें,
कुछ उलटबासियाँ
प्रगतिशीलता का छद्म
घर पर मौज-मजे, दारू-खोरी
निर्बल के श्रम सामर्थ्य का
बुनना गहन संजाल
न कर पाओगे यह सब
तो कैसे छप पाओगे
महत्वपूर्ण, प्रतिष्ठित
पत्र-पत्रिकाओं में?
क्योंकर कोई, बेमतलब
तुम्हें चढ़ाएगा ऊपर?
अब
बिता रहा समय
लिख कर कुछ
अण्डबण्ड
काम बड़ी चीज है
खाली दिमाग
शैतान का घर
लेकिन चाहता है आदमी
हर रोज
कुछ खाली समय
मारे गए हैं वे
एक
कबूतर की तरह
तड़पता – फड़फड़ाता
गिरा वह गली में
छत से ठाँय – – –
बेधती हुई सीना
थ्री-नॉट-थ्री रायफल से
निकली गोलीवह दंगाई नहीं
तमाशबीन था
भरा-पूरा जिस्म , कद्दावर काठी
आँखों में तैरते सपने लिए
चला गया , यद्यपि
नहीं जाना चाहता था वहदो
हस्पताल आने तक
यकीन था उसे
नहीं मरेगा
बच जाएगा क्योंकि वह
नहीं था कुसूरवारभतीजी की चिंता में परेशान
चल पड़ा था
विद्या मंदिर की तरफ
नहीं पहुँच सकाघंटे भर लहू बहने के बाद
पहुँचाया गया हस्पताल
सांप्रदायिक नहीं था वह
फिर भी मरा
पुलिस की गोली सेतीन
उमंग और खुशी से
जीवन में चाहता था
भरना चमकदार,
आकर्षक रंगप्रियतमा सुंदर उसकी
छिड़कती रही उस पर
अपनी जानब्याह दी गई
सजातीय, उच्च वर्ग के
वर के साथसपनों को साकार
करने के लिए
कर दिए एक दिन-रात
बेफिक्र था इस
कार्य-व्यापार से वह
तड़पता-छटपटाता रह गया
पाकर सूचना शुभ !सपने टूटने की
अनगिनत घटनाएँ
किस्से, पुराकथाएँगवाह है इतिहास
गवाह हैं चाँद-सितारे
गवाह हैं धर्मग्रन्थ
गवाह हैं कविहादसे यूँ ही
घटते रहे हैं अक्सर
निर्दोष, भोले-भाले
अव्यवहारिक
व्यक्तियों के साथ
मारे गए हैं सदैव वेयह है कितने प्रकाश वर्षों की दूरी
समय
किसी टेढ़ी-मेढ़ी पगडन्डी सा चला
नदी की धार सा बहा
युगों, शताब्दियों, दशकों
कितने तूफान
कितने चक्रवात
धर्म, अधर्म-युद्ध
वर्ण, जाति, वस्त्रों तक
वैभव की अट्टालिकाओं से
अभावों की पगडन्डियों तक
स्वर्ण झूलों में झूलते राजकुमारों
और कंकडीली, कटीली भूमि के
भूमिपुत्रों तक
पाखंड, ढोंग, चमत्कारों से
अंधश्रद्धालुओं की दयनीयता तक
वेद, उपनिषद, मनुस्मृति, गीता से
जासूसी उपन्यासों तक
अट्टहासों से कराहों
बैलगाड़ियों से वायुयानों तक
नि:शब्द एकांत वन प्रांतर से लेकर
सूचना प्रौद्योगिकी की धूम तक
निर्बाध बढ़ता रहा आगे
क्यों नहीं किसी के अहंकार से
सहमा
किसी की वेदना से ठहरा
न फूलों की
अकलुष मुस्कान में बिंधा,
चंद्रयात्राओं से झिझका
न सूर्य-उल्काओं से हुआ विचलित,
वनचरों के तीरों से घायल
प्रत्युत
किसानों की क्षीण देह का
दाय ही बना ।
लोकतंत्र
चीत्कार ! हाहाकार !
भयातुर आँखें !
-
- सिसकती सभ्यता
-
- संस्कृति है कराहती
-
-
- प्रसन्न और संतुष्ट हैं
-
-
-
- चिकने धूर्त राजनयिक
-
-
-
- तुंदियल, भ्रष्ट,
-
-
-
- व्याभिचारी राजनेता
-
इसीलिए
लोकतंत्र स्वस्थ है ?
वह प्रगतिशील कवि
अन्याय, असमानता, शोषण
क्रूरता, छद्म और झूठ पर
लिखीं ढेरों कविताएँ
करते हुए सब अन्याय
परिजनों, सहकर्मियों, सहयोगियों
और मित्रों पर
निर्बल मनुष्यों का
बेहिचक शोषण कर
खीसें निपोरते हुए जिया वह सर्वथा
प्रगतिशीलता और सज्जनता का
नकाब पहन
क्रूर आततयियों के सम्मुख
दैन्य से दोहरे हो
झूठ और प्रपंचों के सहारे
हथियाए उसने
अनेकों सम्मान,
पुरस्कार और प्रशंसापत्र
लगातार अवसरपरस्ती और
चाटुकारिता को अंदर से
पूजते-पोषते
विरोध, विद्रोह और विसंगतियों से
ले प्रेरणा वह भद्र कवि–
मूल्यों की जुगाली करता
कविताओं की विद्रूप भंगिमाओं में
प्रतिष्ठा को चूमता-चाटता
धूर्त और कुटिल
मुस्कान से
भोले और ईमानदार कवियों को
बहलाता रहा
विकास अभी रुका तो नहीं है
एक गहरा आलोड़न
मन में, हृदय में
रक्त में, शिराओं में
इतना बुरा तो नहीं है
यह वक्ततुमुलनाद करती घंट-ध्वनियाँ
थिरकती नृत्याँगनाएँ
शास्त्रीय-नृत्य, संगीत
विलासिता, उपभोग की
अगणित वस्तुएँचाहा था यही तो
पितर-पूर्वजों ने
धन-धान्य से लबालब
भोग विलासपूर्ण जीवन हो
संतानों कासंतानें वे नहीं
जिन्होंने उपजाया धान्य
संतानें वे नहीं
जिन्होंने बनाए भवनवे भी नहीं
जिन्होंने नहीं कमाया
अकूत धन
बिना श्रम के
बे-ईमान होसंतानें तो वही
जिन्होंने पिया हो
दूध चाँदी के चम्मचों से
जिन्होंने खाई हों
स्वर्ण भस्में
या जिन्होंने जन्मते ही
देखकर रुधिर और माँस
मारी हों किलकारियाँसंतानें वे
जिनके पास सारे सूत्र हैं
वैभव-विलास
सँजो पाने केजिनके पास है फन
एक को सौ में बदलने का
कला है जिनके पास
औरों के जिस्म की खाल
अपने जिस्म पर चढ़ा लेने की’यानी’ का कंसर्ट
’माईकल जेक्सन’ का रॉक
सुष्मिता सेन, ऐश्वर्या राय की
सुंदर देहयष्टिमदिरा के अगणित प्रकार
विकृतियों के विभिन्न आकार
वाहनों की अनेकों किस्में
आभूषणों की सहस्त्रों डिजाइनेंभाँति-भाँति के
माँस और रुधिर से बने पकवानवक्त इतना तो
बुरा नहीं
विकास
अभी रुका तो नहीं
और क्या है
जो अभी होना है
जंगल नहीं,
जानवर भी नहींजंगलीपन बचा है अभी
है शेष पशुता,
बर्बरता अभीविरासत
गाँव में हुआ जब
पहला खून,
पहली डकैती,
पहला बलात्कारयद्यपि कुछ भी
पहली बार नहीं हुआ था
उनकी याददाश्त की
समय सीमा ही थी वहसन्न थे सब
अवाक !
लगा था उन्हें आघात
भय से पीले पड़ने की
हद तकधीरे-धीरे वे सहज हुए
फिर बाद को
उनकी संतानें
अभ्यस्त हो गईं
ऐसी वारदातों कीविवश पशु
चरागाह सूखा है
निश्चिंत हैं हाकिम-हुक्काम
नियति मान
चुप हैं चरवाहे
मेघ नहीं घिरे
बरखा आई, गई
पशु विवश हैं
मुँह मारने को
किसी की खड़ी फसल में
हँस रहे हैं
आकाश में इन्द्र देव
समय
गाँव की गलियों से गुजरता
महानगरों की धमनियों में तिरता
मनुष्यों की साँसों में
चढ़ता-उतरता
विशालकाय समुद्रों और
उन्नत शैलगिरि शिखरों को
चूमता-चाटता बढ़ता चला
किसी ने कहा यह समय मेरा नहीं
कोई दर्प से बोला समय मेरा है
गो समय नहीं किसी का
बीतता निर्बाध वह
देश और परिस्थितियों पर
छोड़ता अपनी छाप
जानता हूँ
उन अरबों, खरबों मनुष्यों को
जिन्होंने घास नहीं डाली
समय को
अपने कर्म में रत
वे उद्दमी मनुष्य
पहुँचा गए हमें यहाँ तक
जहाँ समय का रथ
अपनी बाँकी चाल से बढ़ा जा रहा है
कहते हुए कि, चेतो —
वरना, विस्मृति के गर्त में
दफ़्न हो जाओगे नि:शब्द
आओ
मुझसे होड़ लो
जूझो टकराओ
और अपना देय पा जाओ
समय-सांप्रदायिक
यदि बड़ी उर्वर ज़मीन थी वह
युगों तक
तब आज रेगिस्तान यह
रेंगता सा
कहाँ से आया ?
कुएँ का पानी
नालियों में बहता
पहुँचता खेत गेहूँ के,
होली के रंग
पकी बालियों के संग
महक भुने दानों की
होरी आई, होरी आई, होरी आई रे
खचाखच भर गई चौपाल
मन का मृदंग बजता मद भरा
कबिरा ने छेड़ी फागुन में
बिरहा की तान
झूम उठा विहान
कितना विस्तृत मन का मान
भूल गए सब
मेहनत, मार और लगान
दूर हुआ शैतान
पर आज हर घर में
हाँडी के चावल
फुदक-फुदक फैले
मन भी रेगिस्तान हुआ
स्वप्निल द्वीप
अच्छा होता
विस्मृत हो जातीं
सारी परिकथाएँ,
चमचम मनोहर वे
स्वप्निल द्वीप !
-
- यथार्थ चीर देता
-
- तलवार की धार से
-
- विगत और वर्तमान को
-
- दो भागों में
-
- ठहर जाती हवा
-
- छुप जाता चाँद
-
- हँसते रहते हम
-
सूत न कपास
हमारे कस्बे के
दशहरा मैदान में
ऐन दशहरे के दिन
जब रात के नौ बजे
भड़-भड़ की ध्वनि के साथ
जला रावणतब कस्बे के एक साधारण,
पर होशियार कवि ने
सोचा लिखने को
सेंसेशनल कविता एक
रावण परछोड़ रावण को अधजला
रामलीला के दर्शकों को
विस्मय और आनंद से दबा
वह स्कूटर स्टार्ट कर
लौटा सीधा घररावण के भीतर छुटते पटाखों
रंगबिरंगी रोशनी, चाट-पकौड़ी
सजे-धजे लोग, लुगाइयाँ और बच्चे
समाए थे उसके चित्त मेंपर वह बहुत चतुरता से
पलटना चाहता था
फाइल का पन्नानहीं था रावण अधम
दुराचारी, कपटी,
यही बात हो कविता में अगरचे
तो बनेगी सेंसेशनल कविता
बन जाएगी बात
मीडिया की मेहरबानी से
हो जाए जो चर्चित
आख़िर सलमान रश्दी
’सेटेनिक वर्सेज’ लिखकर
करता है यही और
रातों-रात हो जाता है पॉपुलरअयातुल्लाह खोमैनी
जारी करता है फतवा
रश्दी को मारने का
जाना पड़ता है तस्लीमा नसरीन को
स्विटजरलैण्डहिंदी के लेखक बेचारे
कुछ नहीं लिख पाते ऐसा
कि रातों-रात बन सकें अंतर्राष्ट्रीय
उन्हें तो चर्चा करनी पड़ती है
कभी रश्दी, कभी देरिदा, कभी गिंसबर्ग कीबहुत सी जानकारियाँ दे रहे हैं वे
रश्दी के बारे में, साम्राज्यवाद और
उसकी कूटनीति के बारे मेंमीडिया की मेहरबानी से
उनका धंधा चल रहा है चौकस
भाँज रहे हैं वे अपने तेल से सने लट्ठ
हिंदी में
( रश्दी को जवाब देने के लिए
जरूरी नहीं जाना अमेरिका या योरोप,
और लिखना अंग्रेज़ी में )कस्बे का कवि
बेचारा अटका है अभी तक
राम चरित मानस पर
वह सेंसेशनल असाहित्यिक बहस
चलाना चाहता है रावण से
उसके इस छोटे से कस्बे में
न प्रेस है,न टीवी
न रिकार्डिंग के अवसर
न मण्डी हाउस
न पुरुस्कार, सम्मानभला एक-दो
साहित्य, कला अकादमियाँ
संस्कृति भवन, संस्कृति सचिव
क्यों नहीं हैं उसके
शहर में ?कबीर बड़
बड़ी
तुम्हारी आत्मा की पहचान
ताँत, तुम्हारी रगें
तन, रबाब
अभिन्न
परमात्मा और तुम
हम कैसे पहचानें
नर्मदा इस पार
धान, कबीर बड
हैं मंदिर में विराजे
राम
पार धार
हनुमान
नाव, नदी बीच
बड का पेड़ मुस्तैद
छाता ताने मंदिर पर
भक्त, गाते-नाचते
मौज में
खाते खूब
पिकनिक का आनंद बहुत
लहरों के साथ
झिलमिलाती है
कबीर दास की आकृति
नर्मदा प्रवाह में
कोई कैसे सुने
विरहा
और तुम्हारे व
साईं बीच
अकथ संवाद।लोअर परेल
धागे पर धागे
धागे पर धागे
कौन सा स्पूल
कोई करघा
वो चरखा
क्या है
न
बुना
न
उलझा,
ताना
न
बाना,
सूत गिरणी कहाँ
झाँकती ईंट-दीवारों से
धुएँदार पस्ती
दशकों से बंद
हलचल
थम चुके चर्चे
बेरोजगारी के
साजिशें फली-फूलीं बहुत
अरबों की सम्पत्ति
धुआँती आकृतियाँ
खो चुकीं वजूद
रेशमी सफेद कुरते में
देवदूत विराजे हैं, अब
यहाँ ।जघन्यतम
हवा में
चित्राकृतियाँ विचित्र
तीव्र
ध्वनि तरंगें
मस्तिष्क में
समरूपी रसायन वह
मनुष्य!
हवा…
हवा!
मनुष्य…
हवा!
प्रहारी…
हवा!
शिकारी…
हवा!
कटारी
चित्राकृतियाँ
नराधम नरपिशाचों की
अबोध वध
कितने बाल कंकाल
विरूपी रसायन
लीपा पोती इंटेलीजेंस
निठारी !
निठारी !
निठारी !काँपते हुए
रोज मिल जाते
कहीं भी
किसी भी स्थान
दौड़ती राज्य परिवहन की
बस के पीछे
मुस्कराते
अनेक रंगरूपों में
कभी बाँध का महत्व
कहीं धरती का निजत्व
वनवासी तो कहीं किसान
विकास और प्रगति की
धनी चिता झाँकती
हल्की सफेद दाढ़ी से
इधर विकास
प्रगति उधर
राजपथ पर सदा
झूमती गाती
कितनी उत्तेजना
कितना भावातिरेक
लोकार्पण चौदह सौ पचास मेगावाट
पावर हाऊस का
एक सौ बाईस मीटर
ऊँचे बाँध का
बहुत कुछ है प्रदोलित
और कंपित
इतिहास में झाँकता, नरोडा,
भुज, गोधरा, बड़ौदा, जूनागढ़
निर्मल, निरामय इश्तहारों के भीतर।नहीं कहा गया वह
न नदी हुई कामधेनु
न नीर हुआ निर्मल
न शिला हुई अहल्या
न गिरि-शिखर स्वर्गकुछ भी तो नहीं हुआ
विगत चार दशकों में जैसा वर्णित है
महाकाव्यों, पोथियों और पुराणों में।हुआ जो अकर्म, वह छपा
सत्यकथायें बन अखबारों में।नहीं कहा गया वह तो घटा मन में
सहज जीवन में,
नहीं बनी पुराकथा
नहीं बना समाचार सनसनीखेज
व्यर्थ ही गया यौवन।सुगन्ध
पानी का बुलबुला था प्यार, कब बरसा
पानी, कब बन गया बुलबुला
कैसे भरी हवा, कैसे गया फूट!
सारा खेल क्या मौसम का था?
या प्रकृति का वायुमंडलीय दबाव,
निर्वात, डिप्रेशन, किस्मत और संयोग ही
था यह, रोज भर जाती हवा,
रोज उठते बुलबुले, रोज जाते फूट
क्या सचमुच, बुलबुला ही था प्यार?क्यों मौसम-दर-मौसम घट रहा है
वायुमंडलीय दबाव, बढ़ रहा है निर्वात
फूटते जा रहे हैं बुलबले नित्य निरंतर
बढ़ता जा रहा बुलबुलों का आकार,
फैलती जा रही है कसमसाहट
बढ़ती जा रही है टीस,
ईर्ष्या की आग फैल रही विषबेल-सी,
खत्म भी होगी अन्ततः यह प्रक्रिया,
मुरझा जायेंगे खूबसूरत मौसमी फूल।कितने दिन होता है फूलों का जीवन भी!
अभी रच-बस गयी है सुगन्ध जो मन में
नहीं रहेगी जब, याद आयेंगे तब वे
फूल, बिखरने तक बिखेरते रहे
जो पावन-रस-भीनी सुगन्ध।पीरी-पीरी जुनहिआ
सम्भर कहाए भगत!
काए को कहाए
उनने का भगतई करी?
दिन भर तो कत्त मजूरी
और संझा को बैठ जात जाय के
चमरटोला में
जने कहा कत्त हैं
हुंअई से कछु सीखि लओ
झार-फूंक थोरी कछु
अरे ससुरऊ हुंआ झार फूंक सीखत हैं
कै परे रहत समला के उसारे में
बीड़ी पिअत
तकत रहत वा छिनार तारा कों।वा तारऊ भइया कमाल की औरत है
ऐसी मेहरिआ पूरे इलाका में नायं पइहौ
जाने कित्ते खसम खाए बाने
जू तीसरो है।कैसी पिअरी देह धरी है जैसे हद्दी लगी होय
जबानी छरकी परि रही ससुरी में
जानि का जादू डारो कै जो देखौ सोई
लपलपाय रहो है।
गांव तौ बिगारई दओ
आसपास के दोचार गांउन मेऊं सोर है
कै तारा बड़ी खबसूरत है
रूप चुभ रहौ बाकै
हिन्नी सी बड़-बड़ी आंखें!
अरे! का बड़ी-बड़ी आंखे
लाज न सरम कछु
आदमी तो पगलाए गए हैं
जाने कित्ते गुलाम बनि गए बाके
अरे गोरी चमड़ी पहलें नायं देखी कभऊं
घर में जो मेहरिआं बैठी है
सो का सबई करिआ और कुलच्छिनी हैं?अब सम्भरऊ बौराय गए हैं
घर छोड़ि कै दिन भर हुंअई परे रहत हैंघर में तो नायं दाने
अम्मां चली भुनाने
मेहंत मजूरी करिकै तो चार जनन को
पेट पाल्त है, अब जेउ करम करन लगे
मरिहैं भूखन तब परिहै पता
कैसी बेसरमी की बातें करन लगे हैं
कह रए हते हुआं कुआं की मेड़ पै
‘बौहत बुरो होता है जू इसक
शहन्न में तो लौंडा लौंडिया भीत कन्न लगे हैं
सनीमां देखि देखि कै’
अब गांउन मेंई कसर रह गई हती
सो इनने पूरी कद्दई
अब तो गांउन मेंऊं तोता कैना को किस्सा
हुआ रओ, और वू का कहत है मजनूं को
अरे बिकि जइहै सब लटिआ कमरिआ
तब समझ परिहै।
अभै तों आंखिन में सुरमा डारि कै
परे रहत है समला के खटोला पै
और मोहिनी बिद्या की अजमाइश कर रए हैं
तारा पै!
ताई सै तो भगत गए
अब जई तो बची भगतई!
जब परिहैं जूता तौ सब उतरि जइहै भगतई
जुई बाकी बचो है होन कौ
बिना भए जा लीला उतरिहै नायं उनको
इसक को भूत।दृश्य: दिन ढरि गयो है
संझा हुई गई है
गाय गोरू सब लौटि आए हैं चरि कै
धीरे-धीरे पीरी-पीरी जुनहिआ
दिखाई देन लगी है आसमान में
अंधेरे में ताल के किनारै
संझा की तान सुनाई दै रही है-
मेरो…तन-डोरे…
मेरो…मन-डोरे
दिल-कौ…गयो…करारि रे…
कौन…बजाए…बांसुरिआ रे…
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