यारो मैने खूब ठगा है
यारो मैने खूब ठगा है
खुद को भी तो खूब ठगा है
पहले ठगता था औरों को
कुछ भी हाथ नहीं तब आया
जबसे लगा स्वयं को ठगने
क्या बतलाऊं,क्या-क्या पाया
पहले थी हर खुशी पराई
अब तो हर इक दर्द सगा है
किस-किस को फांसा था मैने
कैसे-कैसे ज़ाल रचे थे
अपनी अय्यारी से यारो
अपने बेगाने कौन बचे थे
औरों के मधुरिम-रंगो में
मन का कपड़ा आज रंगा है
जबसे अपने भीतर झांका
क्या बेगाने या क्या अपने
इक नाटक के पात्र सभी हैं
झूठे हैं जीवन के सपने
दुश्मन भी प्यारे अब लगते
इतना मन में प्रेम-पगा है
ऋषियो-मुनियों ने फरमाया है
माया धूर्त,महा ठगनी है
उनका हाल न पूछो हमसे
जिनको लगती यह सजनी है
जिसके मन में बसती है यह
उसके दिल में दर्द जगा है
जग की हैं बातें अलबेली
जन्म-मृत्यु की ये अठखेली
जिसने औढ़ा,प्रीत का पल्ला
पीर-विरह की उसने झेली
जीवन तो है सफर साँस का
मौत साँस के साथ दगा है
मौसम की रग-रग दुख रही है
मौसम की रग-रग दुख रही है
अपनी ये धरती सूख रही है
पेड़ों से टूट गया है
धरती का नाता
झिंगुर भी चौमासे
का गीत नहीं गाता
बरखा रानी भी रूठ गई है
जबसे बादल ने है
अपना मुख मोड़ लिया
निर्झर ने भी है
नित झरना छोड़ दिया
मोर-पपीहे की वाणी देखो
देखो तो कैसी मूक हुई है
हरियाली का दामन
है झीना-झीना सा
पुरवाई का आँचल
भी छीना-छीना सा
मानवता खुद क्यों अपनी अगली
पीढ़ी को ही यूँ लूट रही है
दिल पे हिन्दुस्तान लिखना
फूल लिखना कि पान लिखना
गेहूँ लिखना कि धान लिखना
कागद पे चाहे जो भी लिखना
दिल पे मगर हिन्दुस्तान लिखना
वेद लिखना कि पुरान लिखना
सबद लिखना कि कुरान लिखना
कागद पे चाहे जो भी लिखना
दिल पे मगर हिन्दुस्तान लिखना
सुबह लिखना कि शाम लिखना
रहीम लिखना राम लिखना
कागद पे चाहे जो भी लिखना
दिल पे मगर हिन्दुस्तान लिखना
मजूर लिखना कि किसान लिखना
बच्चे-बूढ़े या तुम जवान लिखना
कागद पे चाहे जो भी लिखना
दिल पे मगर हिन्दुस्तान लिखना
गीत गज़ल का उनवान लिखना
तमिल उड़िया जुबान लिखना
कागद पे चाहे जो भी लिखना
दिल पे मगर हिन्दुस्तान लिखना
धरती सोई थी
धरती सोई थी
अम्बर गरजा
सुन कोलाहल
सहमी गलियां
शाखों में जा
दुबकी कलियां
बिजली ने उसको
डांटा बरजा
राजा गूंगा
बहरी रानी
कौन सुने
पीर-कहानी
सहमी सी गुम-सुम
बैठी परजा[प्रजा]
घीसू पागल
सेठ-सयाना
दोनो का है
बैर पुराना
कौन भरेगा
सारा कर्ज़ा
गाँव नही अब
गाँव नही अब
हमको जाना
कहकर हैं,चुप
बैठे नाना
प्रीत-प्यार की
बात कहाँ
कौन पूछता
जात वहाँ
ख़त्म हुआ सब
ताना-बाना
कोयल कागा
मौन हुए
संबंध सभी तो
गौण हुए
और सुनोगे
मेरा गाना
बूआ-काका
नहीं-वहां
गीदड़-भभकी
हुआं-हुआं
खूब-भला है
पहचाना
वो तो जब भी खत लिखता है
वो तो जब भी खत लिखता है
उल्फ़त ही उल्फ़त लिखता है
मौसम फूलों के दामन पर
ख़ुशबू वाले ख़त लिखता है
है कैसा दस्तूर शहर का
हर कोई नफ़रत लिखता है
बादल का ख़त पढ़कर देखो
छप्पर की आफ़त लिखता है
अख़बारों से है डर लगता
हर पन्ना दहशत लगता है
रास नहीं आता आईना
वो सबकी फ़ितरत लिखता है
मन हरदम अपनी तख़्ती पर
मिलने की हसरत लिखता है
उसकी किस्मत किसने लिक्खी
जो सबकी क़िस्मत लिखता है
”श्याम’अपने हर अफ़साने में
बस, उसकी बाबत लिखता है
कुछ भी कहना पाप हुआ
कुछ भी कहना पाप हुआ
जीना भी अभिशाप हुआ
मेरे वश में था क्या कुछ ?
सब कुछ अपने आप हुआ
तुमको देखा सपने में
मन ढोलक की थाप हुआ
कह कर कड़वी बात मुझे
उसको भी संताप हुआ
दर्द सुना जिसने मेरा
जब तक ना आलाप हुआ
शीश झुकाया ना जिसने
वो राना प्रताप हुआ
पैसा-पैसा-पैसा ही
सम्बन्धों का माप हुआ
इतना पढ़-लिखकर भी ‘श्याम’
सिर्फ अगूंठा-छाप हुआ
हम जैसों से यारी मत कर
हम जैसों से यारी मत कर
ख़ुद से यह गद्दारी मत कर
तेरे अपने भी रहते हैं
इस घर पर बमबारी मत कर
रोक छ्लकती इन आँखों को
मीठी यादें ख़ारी मत कर
हुक्म-उदूली का ख़तरा है
फ़रमाँ कोई जारी मत कर
आना-जाना साथ लगा है
मन अपना तू भारी मत कर
ख़ुद आकर ले जाएगा वो
जाने की तैयारी मत कर
सच कहने की ठानी है तो
कविता को दरबारी मत कर
‘श्याम’निभानी है गर यारी
तो फिर दुनियादारी मत कर
घर से बेघर था, क्या करता
घर से बेघर था, क्या करता
दुनिया का डर था, क्या करता
जर्जर कश्ती टूटे चप्पू
चंचल सागर था, क्या करता
सच कहकर भी मैं पछताया
खोया आदर था, क्या करता
चन्दा डूबा, तारे गायब
चलना शब भर था, क्या करता
ठूंठ कहा था सबने मुझको
मौसम पतझर था, क्या करता
ख़ुद से भी तो छुप न सका वो
चर्चा घर-घर था, क्या करता
आख़िर दिल मैं दे ही बैठा
बाँका दिलबर था, क्या करता
ना थी धरती पाँव तले, ना
सर पर अम्बर था, क्या करता
मेरा जीना मेरा मरना
तुम पर निर्भर था, क्या करता
सारी उम्र पड़ा पछताना
भटका पल भर था, क्या करता
बादल बिजली बरखा पानी
टूटा छप्पर था, क्या करता
सब कुछ छोड़ चला आया मैं
रहना दूभर था, क्या करता
थक कर लुट कर वापिस लौटा
घर आख़िर घर था, क्या करता
ज़ख्म था ज़ख्म का निशान भी था
ज़ख्म था ज़ख्म का निशान भी था
दर्द का अपना इक मकान भी था
दोस्त था और मेहरबान भी था
ले रहा मेरा इम्तिहान भी था
शेयरों में गज़ब़ उफान भी था
कर्ज़ में डूबता किसान भी था
आस थी जीने की अभी बाकी
रास्ते में मगर मसान भी था
कोई काम आया कब मुसीबत में
कहने को अपना ख़ानदान भी था
मर के दोज़ख मिला तो समझे हम
वाकई दूसरा जहान भी था
उम्र भर साथ था निभाना जिन्हें
फ़ासिला उनके दरमियान भी था
ख़ुदकुशी ‘श्याम’कर ली क्यों तूने
तेरी क़िस्मत में आसमान भी था
सखी लौट फिर फागुन आया
सखी लौट फिर फागुन आया
संदली सपने आँगन लाया
उपवन की कलियां खिलकर
हँसतीं भौरों से मिलकर
मस्त हुई हूँ मैं भी
साथ खड़े हैं मेरे दिलबर
नयनो का काजल बौराया
भर-भर बैरन पिचकारी
अंग-अंग साजन ने मारी
नयनो से जब मिले नयन
मै अपना सब-कुछ हारी
उनका हर अन्दाज मुझे भाया
सखी लौट फिर फागुन आया
यूं तो कुछ कमी नहीं
यूं तो कुछ कमी नहीं
बात लेकिन बनी नहीं
ढूंढते हैं सभी जिसे
वो तो मिलता कभी नही
प्यार धोखा लगा तुम्हें
क्या मुहब्बत हुई नहीं
दोस्त मेरा है वो मगर
छोड़ता दुश्मनी नही
व्यर्थ सब कोशिशें हुईं
याद दिल से गई नहीं
बेचकर ख्वाब सो गई
मेरी किस्मत जगी नहीं
‘श्याम जैसा सिरफ़िरा
कोई भी आदमी नहीं
सफर में तुम चले हो
सफर में तुम चले हो
ठीक अपना सामान कर लो
अपने थैले में प्रिय
यादों के मेहमान धर लो
जब कभी अकुलाये मन
याद हो आये सघन
धड़कन के साथ-साथ
साँसों का हो विचलन
तोड़ दर्पंण तब प्रिये तुम
मेरे नयनो में सँवर लो
टूटती हर आस हो
एक अबुझ से प्यास हो
आग बरसाता हुआ
बेरहम आकाश हो
मधुपान हेतु प्रिय तुम
छोड़कर चषक मेरे अधर लो
घर जला,रोशनी हुई साहिब
घर जला,रोशनी हुई साहिब
ये भी क्या जिन्दगी हुई साहिब
तू नहीं और ही सही साहिब
ये भी क्या आशिकी हुई साहिब
है न मुझको हुनर इबादत का
सर झुका, बन्दगी हुई साहिब
भूलकर खुद को जब चले हम ,तब
दोस्ती आपसे हुई साहिब
खुद से चलकर तो ये नहीं आई
दिल दुखा,शायरी हुई साहिब
जीतकर वो मजा नहीं आया
हारकर जो खुशी हुई साहिब
तुम पे मरकर दिखा दिया हमने
मौत की बानगी हुई साहिब
‘श्याम’ से दोस्ती हुई ऐसी
सब से ही दुश्मनी हुई साहिब
वो मेरा रकी़ब था यारो
वो मेरा रकी़ब था यारो
दिल के पर करीब था यारो
चाहतों की चाह थी जिससे
वो लिये ज़रीब था यारो
पागलों सी बातें थी उसकी
फिर जरूर अदीब था यारो
गुम हुआ रकीब जब मेरा
मैं हुआ गरीब था यारो
दोस्त दुश्मनों सा ही तो था
मामला अजीब था यारो
अपने ही हुए थे बेगाने
‘श्याम’बदनसीब था यारो
बने फिरते थे जो जमाने में शातिर
बने फिरते थे जो जमाने में शातिर
पहाड़ो तले आये वे ऊंट आखिर
छुपाना है मुश्किल इसे मत छुपा तू
हमेशा मुहब्बत हुई यार जाहिर
बना कैस रांझा बना था कभी मैं
मेरी जान सचमुच मैं तेरी ही खातिर
खुदा को भुलाकर तुझे जब से चाहा
हुआ है खिताब़ अपना तब से काफ़िर
बनी को बिगाड़े, बनाये जो बिगड़ी
कहें लोग उसी को तो हरफन में माहिर
मुझे छोड़ कर तुम कहां जा रहे हो
हमीं दो तो हैं इस सफर के मुसाफिर
छुपाने में जिसको थे मशगूल सारे
वही बात कैसे हुई यार जाहिर
तेरी खूबियाँ ‘श्याम’ सब ही तो जाने
खुशी हो के हो ग़म तू हरदम है शाकिर
कैसा वो किरदार था
कैसा वो किरदार था
तेग था तलवार था
आग दोनो ओर थी
पर मिलन दुश्वार था
कहने को थे दिल मिले
पर लुटा घर-बार था
खुशनुमा खबरें पढीं
कब का वो अखबार था
कश्ती मौजों में पहुंची
छुट गया पतवार था
थी जवानी बिक रही
हुस्न का बाजार था
बेवफा थी वो मगर
दिल से मैं लाचार था
इक हमीं तो हैं नही बरबाद तेरे शहर में
इक हमीं तो हैं नही बरबाद तेरे शहर में
हैं परिन्दे भी नहीं आजाद तेरे शहर में
हर तरफ बौने ही दिख रहें हैं हमको तो
क्या नही कोई भी शमशाद तेरे शहर में
गीत कोई गाये या कोई सुनाये अब ग़ज़ल
अब नहीं कहता कोई इरशाद तेरे शहर में
यूं भुलाना तुमने चाहा है हमें जब भी कभी
क्या नही ग़म की बढ़ी तादाद तेरे शहर में
झुग्गियां तक भी हमारी तो जलादीं हैं गई
बस मिली हमको यही इमदाद तेरे शहर में
गूँगे बहरे हाकिमों की बज़्म में है क्या कोई
बस मिली हमको यही इमदाद तेरे शहर में
हैं सभी लुटते सरेबाजार अक्सर इस जगह
हम अकेले तो नहीं अपवाद तेरे शहर में
ढूंढ़्ने पर भी मिला कोई ठिकाना जब न ‘श्याम’
आगये तब करने दिल आबाद तेरे शहर में
जब मैं छोटा बच्चा था
जब मैं छोटा बच्चा था
सपनो का गुलदस्ता था
आज नुमाइश भर हूं मैं
पहले जाने क्या-क्या था
अब तो यह भी याद नहीं
कोई कितना अपना था
आज खड़े हैं महल जहां
कल जंगल का रस्ता था
नाजुक कन्धो पर लटका
भारी भरकम बस्ता था
वो पगंडड़ी गई कहां
जिस पर आदम चलता था
तुझको पाने की खातिर
उफ़ दर-दर मैं भटका था
उसको अगर परखा नहीं होता सखा
उसको अगर परखा नहीं होता सखा
घर आपका टूटा नहीं होता नहीं सखा
मैने तुझे देखा नहीं होता सखा
फिर चाँद का धोखा नहीं होता सखा
हर रोज ही तो है सफर करता मगर
सूरज कभी बूढ़ा नहीं होता सखा
इजहार है इक दोस्ताना प्यार तो
इसका कभी सौदा नहीं होता सखा
उगने की खातिर धूप भी है लाजमी
बरगद तले पौधा नहीं होता सखा
कच्चे धागे से बंधे रिश्ते
रिश्ते
हाँ दोस्तो
रिश्ते कई तरह के होते हैं
एक तरह के रिश्ते
तो हमारे साथ-साथ पैदा हो जाते हैं
हाँ
हमारे पैदा होते ही
जुड़ जाते हैं
क्विक-फ़िक्स से
हमारे वजूद के संग
जैसे
माता-पिता
भाई-बहन
मामा-नाना
दादा-दादी
बूआ-मौसी आदि
ये रिश्ते
मकड़ जाल की तरह उलझे होते हैं
हमारे वजूद से
हम इन्हे नकार तो सकते हैं
तोड़ नहीं सकते
ये जुड़े रहते हैं हमारे साथ
जन्म भर
और मौत के बाद भीदूसरी तरह
के रिश्ते
ये रिश्ते
होते हैं
दोस्ती के
प्यार के
मान के-मनुहार के
बड़े प्यारे
सजीले
अलबेले-मस्ताने
रिश्ते होते हैं
और सभी रिश्तों
से अधिक मजबूत
होते हैं ये रिश्ते
पर ये रिश्ते
बन्धे होते हैं
कच्चे धागे से
बड़े नाजुक
होते हैं ये धागे
और इसी वजह से
ये रिश्ते
वाकई नाजुक होते हैं
सोहनी के कच्चे घड़े
जैसे नाजुक
ठेस लगी और दरके
इन्हे सँभाल कर
रखना होता है
सँभालकर रखना चाहिये
क्योंकि ये नाजुक रिश्ते
जब टूटते हैं
तो
बड़े गहरे जख्म छोड़ जाते हैं
दिल पर-दिमाग पर
‘अश्वथामा के माथे के
कभी न भरने वाले घाव की तरह’
और इन
रिश्तों के ये जख्म
रिसते रहते हैं
सुलगते रहते हैं
धुआंते रहते हैं ताउम्र
इन्हे सँभाल कर
रखें
दरकने न दें
आज नहीं तो कल होगा
आज नहीं तो कल होगा
हर मुश्किल का हल होगा
जंगल गर औझल होगा
नभ भी बिन बादल होगा
नभ गर बिन बाद्ल होगा
दोस्त कहां फ़िर जल होगा
आज बहुत रोया है दिल
भीग गया काजल होगा
आँगन बीच अकेला है
बूढ़ा सा पीपल होगा
दर्द भरे हैं अफ़साने
दिल कितना घायल होगा
छोड़ सभी जब जाएंगे
‘तेरा ही संबल होगा
झूठ अगर बोलोगे तुम
यह तो खुद से छल होगा
रोज कलह होती घर में
रिश्तों मे दल-दल होगा
आत्म-विश्लेषण
भला
लगता है
आंगन में बैठना
धूप सेंकना
पर
इसके लिये
वक़्त कहां ?
वक़्त तो बिक गया
सहूलियतों की तलाश में
और अधिक-और अधिक
संचय की आस में
बीत गये
बचपन जवानी
जीवन के अन्तिम दिनों में
हमने
वक़्त की कीमत जानी
तब तक तो
खत्म हो चुकी थी
नीलामी
हम जैसों ने
खरीदे
जमीन के टुकड़े
इक्ट्ठा किया धन
देख सके न
जरा आँख उठा
विस्तरित नभ
लपकती तड़ित
घनघोर गरजते घन
रहे पीते
धुएं से भरी हवा
कभी
देखा नहीं
बाजू मे बसा
हरित वन
पत्नी ने लगाए
गमलों में कैक्टस
उन पर भी
डाली उचटती सी नज़र
खा गया
हमें तो यारो
दावानल सा बढ़ता
अपना नगर
नगर का
भी, क्या दोष
उसे भी तो हमने गढ़ा
देखते रहे
औरों के हाथ
बताते रहे भविष्य
पर
अपनी
हथेली को
कभी नहीं पढ़ा
आत्म-विश्लेषण
भला
लगता है
आंगन में बैठना
धूप सेंकना
पर
इसके लिये
वक़्त कहां ?
वक़्त तो बिक गया
सहूलियतों की तलाश में
और अधिक-और अधिक
संचय की आस में
बीत गये
बचपन जवानी
जीवन के अन्तिम दिनों में
हमने
वक़्त की कीमत जानी
तब तक तो
खत्म हो चुकी थी
नीलामी
हम जैसों ने
खरीदे
जमीन के टुकड़े
इक्ट्ठा किया धन
देख सके न
जरा आँख उठा
विस्तरित नभ
लपकती तड़ित
घनघोर गरजते घन
रहे पीते
धुएं से भरी हवा
कभी
देखा नहीं
बाजू मे बसा
हरित वन
पत्नी ने लगाए
गमलों में कैक्टस
उन पर भी
डाली उचटती सी नज़र
खा गया
हमें तो यारो
दावानल सा बढ़ता
अपना नगर
नगर का
भी, क्या दोष
उसे भी तो हमने गढ़ा
देखते रहे
औरों के हाथ
बताते रहे भविष्य
पर
अपनी
हथेली को
कभी नहीं पढ़ा
भजन
सखी री,
मोहे नीको लागे श्याम.
मोल मिल्यै तो खरीद लेउं मैं,दैके दूनो दाम
मोहिनी मूरत नन्दलला की,दरस्न ललित ललाम
राह मिल्यो वो छैल-छबीलो,लई कलाई थाम
मौं सों कहत री मस्त गुजरिया,चली कौन सों गाम
मीरां को वो गिरधर नागर,मेरो सुन्दर श्याम
सखी री मोहे नीको लागै श्याम
राह मिल्यो वो छैल छबीलो
जब तैं प्रीत श्याम सौं कीनी
तब तैं मीरां भई बांवरी,प्रेम रंग रस भीनी
तन इकतारा,मन मृदंग पै,ध्यान ताल धर दीनी
अघ औगुण सब भये पराये भांग श्याम की पीनी
राह मिल्यो वो छैल-छ्बीलो,पकड़ कलाई लीनी
मोंसो कहत री मस्त गुजरिया तू तो कला प्रवीनी
लगन लगी नन्दलाल तौं सांची हम कह दीनी
जनम-जनम की पाप चुनरिया,नाम सुमर धोय लीनी
सिमरत श्याम नाम थी सोई,जगी तैं नई नवीनी
जब तैं प्रीत श्याम तैं कीनी