गुफ़ा
शुरू होता है यहाँ से
भय और अँधेरा
भय और अँधेरे को
भेदने की इच्छा भी
शुरू होती है
यहीं से।
(1987 में रचित)
किवाड़ (कविता)
किवाड़
ये सिर्फ़ किवाड़ नहीं हैं
जब ये हिलते हैं
माँ हिल जाती है
और चौकस आँखों से
देखती है -‘क्या हुआ?’
मोटी साँकल की
चार कड़ियों में
एक पूरी उमर और स्मृतियाँ
बँधी हुई हैं
जब साँकल बजती है
बहुत कुछ बज जाता है घर में
इन किवाड़ों पर
चंदा सूरज
और नाग देवता बने हैं
एक विश्वास और सुरक्षा
खुदी हुई है इन पर
इन्हे देखकर हमें
पिता की याद आती है
भैया जब इन्हें
बदलवाने कहते हैं
माँ दहल जाती है
और कई रातों तक पिता
उसके सपनों में आते हैं
ये पुराने हैं
लेकिन कमज़ोर नहीं
इनके दोलन में
एक वज़नदारी है
ये जब खुलते हैं
एक पूरी दुनिया
हमारी तरफ़ खुलती है
जब ये नहीं होंगे
घर
घर नहीं रहेगा।
(1987)
दुनियादार आदमी
उसके पास वक़्त होता है
कि वह सबसे नमस्कार करता हुआ पूछ सके-
‘कहो, कैसे हो?’
पड़ोसी के दुख के बारे में
वह मुस्कराकर जानकारी लेता है
उसके पास सुन्दर उजले शब्द होते हैं
कुछ खाते होते हैं बैंक में उसके
और कुछ बीमा-पाॅलिसी
कभी-कभी वह संगीत के बारे में बात करता है
नृत्य में जाहिर करता है अपनी रुचि
रामलीला दुर्गापूजा के लिए देता है चंदा
वह तपाक से हाथ मिलाता है कहता है-
‘आपसे मिलकर ख़ुशी हुई !’
हिसाब लगाकर वह जमीन खरीदता है
फिर थोड़े-से शेयर्स
बनवाता है आभूषण
कुछ पैसा वह घर की अलमारी में बचा रखता है
लाॅकर के लिए लगाता है बैंक में दरख़्वास्त
कार खरीदते हुए
पत्नी की तरफ़ देखकर मुस्कराता है
सोचता है ज़िन्दगी ठीक जा रही है
सफल हो रहा है मानव-जीवन
और इस सब कुछ ठीक-ठाक में
एक दिन दर्पण देखते हुए दुनियादार आदमी
अपनी मृत्यु के बारे में सोचता है
और रोने लगता है
डर सबसे पहले
दुनियादार आदमी के हृदय में
प्रवेश करता है।
(1988)
काली लड़की
अपने सामाजिक अंधकार से निकलकर
एक काली लड़की
मेरे स्वप्न के उजास में प्रवेश करती है
उजास में रात की कालिमा घुल जाती है
दमकती है काली लड़की की देह
सप्त-धातु की बेजोड़ मूर्ति की तरह
चमकता है काली लड़की का शिल्प
बारिश में बिजली की तरह मुस्कराती है वह
हंसों की एक पंक्ति काले आसमान से गुज़र जाती है
काली लड़की की आँखें गहरी काली हैं
वे मेरे स्वप्न की सुरक्षा से बाहर नहीं आना चाहतीं
उन आँखों में गौर-वर्ण के अनुभवों का
ठोस अँधेरा है
जो लड़की के उजले सपनों में टूट-टूटकर गिरता है
एटलस की तरह घूमती हुई रात्रि हर बार
मेरे स्वप्न के अफ्रीका पर आकर
ठहर जाती है।
(1990)
सुबह के लिए
चौका-बर्तन के बाद
माँ ने ढँक दिये हैं कुछ अंगारे
राख से
थोड़ी-सी आग
कल सुबह के लिए भी तो
चाहिए !
(1988)
त्योहार और स्त्रियाँ
त्योहार लाते हैं
रेशम-गोटे की कढ़ी हुई साड़ियाँ
और बक्से में रखे आभूषण
स्त्रियों की देह पर
त्योहार जगाते हैं रात भर
कथा-कीर्तन के साथ उपवास कराते हैं
दिन भर काम करनेवाली स्त्रियों से
त्योहार कपड़े लाते हैं बच्चों को
मिठाइयाँ भी
और लाते हैं पुरुषों के लिए असीम प्रार्थनाएँ
स्त्रियों के रोम-रोम से
त्योहार की अन्तिम-वेला में
जोड़-जोड़ से तड़की हुई स्त्रियाँ
पोर-पोर में उल्लास लिए
बिस्तर पर जा गिरती हैं-
जैसे गिरती हैं
अगले त्योहार की थकान में !
(1985)
उपकार
मुसकराकर मिलता है एक अजनबी
हवा चलती है उमस की छाती चीरती हुई
एक रुपये में जूते चमका जाता है एक छोटा सा बच्चा
रिक्शेवाला चढ़ाई पर भी नहीं उतरने देता रिक्शे से
एक स्त्री अपनी गोद में रखने देती है उदास और थका हुआ सिर
फकीर गाता है सुबह का राग और भिक्षा नहीं देने पर भी
गाता रहता है
अकेली भीगी कपास की तरह की रात में
एक अदृश्य पतवार डूबने नहीं देती जवानी में ही जर्जर हो गए हृदय को
देर रात तक मेरे साथ जागता रहता है एक अनजान पक्षी
बीमार सा देखकर अपनी बर्थ पर सुला लेता है सहयात्री
भूखा जानकर कोई खिला देता है अपने हिस्से का खाना
और कहता है वह खा चुका है
जब धमका रहा होता है चैराहे पर पुलिसवाला
एक न जाने कौन आदमी आता है कहता है
इन्हें कुछ न कहें ये ठीक आदमी हैं
बहुत तेजी से आ रही कार से बचाते हुए
एक तरफ खींच लेता है कोई राहगीर
जिससे कभी बहुत नाराज हुआ था वह मित्र
यकायक चला आता है घर
सड़क पर फिसलने के बाद सब हँसते हैं नहीं हँसती एक बच्ची
जब सूख रहा होता है निर्जर झरना
सारे समुद्रों, नदियों, तालाबों, झीलों और जलप्रपातों के
जल को छूता हुआ आता है कोई कहता है मुझे छुओ
बुखार के अँधेरे दर्रे में मोमबत्ती जलाये मिलती है बचपन की दोस्त
एक खटका होता है और जगा देता है ठीक उसी वक्त
जब दबोच रहा होता है नींद में कोई अपना ही
रुलाई जब कंठ से फूटने को ही होती है
अंतर के सुदूर कोने से आती है ढाढ़स देती हुई एक आवाज
और सोख लेती है कातर कर देनेवाली भर्राहट
इस जीवन में जीवन की ओर वापस लौटने के
इतने दृश्य हैं चमकदार
कि उनकी स्मृति भी देती है एक नया जीवन।
क्रूरता (कविता)
धीरे धीरे क्षमाभाव समाप्त हो जाएगा
प्रेम की आकांक्षा तो होगी मगर जरूरत न रह जाएगी
झर जाएगी पाने की बेचैनी और खो देने की पीड़ा
क्रोध अकेला न होगा वह संगठित हो जाएगा
एक अनंत प्रतियोगिता होगी जिसमें लोग
पराजित न होने के लिए नहीं
अपनी श्रेष्ठता के लिए युद्धरत होंगे
तब आएगी क्रूरता
पहले हृदय में आएगी और चेहरे पर न दीखेगी
फिर घटित होगी धर्मग्रंथों की व्याख्या में
फिर इतिहास में और फिर भविष्यवाणियों में
फिर वह जनता का आदर्श हो जाएगी
निरर्थक हो जाएगा विलाप
दूसरी मृत्यु थाम लेगी पहली मृत्यु से उपजे आँसू
पड़ोसी सांत्वना नहीं एक हथियार देगा
तब आएगी क्रूरता और आहत नहीं करेगी हमारी आत्मा को
फिर वह चेहरे पर भी दिखेगी
लेकिन अलग से पहचानी न जाएगी
सब तरफ होंगे एक जैसे चेहरे
सब अपनी-अपनी तरह से कर रहे होंगे क्रूरता
और सभी में गौरव भाव होगा
वह संस्कृति की तरह आएगी
उसका कोई विरोधी न होगा
कोशिश सिर्फ यह होगी कि किस तरह वह अधिक सभ्य
और अधिक ऐतिहासिक हो
वह भावी इतिहास की लज्जा की तरह आएगी
और सोख लेगी हमारी सारी करुणा
हमारा सारा ऋंगार
यही ज्यादा संभव है कि वह आए
और लंबे समय तक हमें पता ही न चले उसका आना।
एक स्त्री पर कीजिए विश्वास
जब ढह रही हों आस्थाएँ
जब भटक रहे हों रास्ता
तो इस संसार में एक स्त्री पर कीजिए विश्वास
वह बताएगी सबसे छिपाकर रखा गया अनुभव
अपने अँधेरों में से निकालकर देगी वही एक कंदील
कितने निर्वासित, कितने शरणार्थी,
कितने टूटे हुए दुखों से, कितने गर्वीले
कितने पक्षी, कितने शिकारी
सब करते रहे हैं एक स्त्री की गोद पर भरोसा
जो पराजित हुए उन्हें एक स्त्री के स्पर्श ने ही बना दिया विजेता
जो कहते हैं कि छले गए हम स्त्रियों से
वे छले गए हैं अपनी ही कामनाओं से
अभी सब कुछ गुजर नहीं गया है
यह जो अमृत है यह जो अथाह है
यह जो अलभ्य दिखता है
उसे पा सकने के लिए एक स्त्री की उपस्थिति
उसकी हँसी, उसकी गंध
और उसके उफान पर कीजिए विश्वास
वह सबसे नयी कोंपल है
और वही धूल चट्टानों के बीच दबी हुए एक जीवाश्म की परछाईं।
अमीरी रेखा (कविता)
मनुष्य होने की परंपरा है कि वह किसी कंधे पर सिर रख देता है
और अपनी पीठ पर टिकने देता है कोई दूसरी पीठ
ऐसा होता आया है, बावजूद इसके
कि कई चीजें इस बात को हमेशा कठिन बनाती रही हैं
और कई बार आदमी होने की शुरुआत
एक आधी अधूरी दीवार हो जाने से, पतंगा, ग्वारपाठा
या एक पोखर बन जाने से भी होती है
या जब सब रफ्तार में हों तब पीछे छूट जाना भी एक शुरुआत है
बशर्ते मनुष्यता में तुम्हारा विश्वास बाकी रह गया हो
नमस्कार, हाथ मिलाना, मुसकराना,
कहना कि मैं आपके क्या काम आ सकता हूँ –
ये अभिनय की सहज भंगिमाएँ हैं और इनसे अब
किसी को कोई खुशी नहीं मिलती
शब्दों के मानी इस तरह भी खत्म किए जाते हैं
तब अपने को और अपनी भाषा को बचाने के लिए
हो सकता है तुम्हें उस आदमी के पास जाना पड़े
जो इस वक्त नमक भी नहीं खरीद पा रहा है
या घर की ही उस स्त्री के पास
जो दिन रात काम करती है
और जिसे आज भी मजदूरी नहीं मिलती
बाजार में तो तुम्हारी छाया भी नजर नहीं आ सकती
उसे दूसरी तरफ से आती रोशनी दबोच लेती है
वसंत में तुम्हारी पत्तियाँ नहीं झरतीं
एक दिन तुम्हारी मुश्किल यह हो सकती है
कि तुम नश्वर नहीं रहे
तुम्हें यह देखने के लिए जीवित रहना पड़ सकता है
कि सिर्फ अपनी जान बचाने की खातिर
तुम कितनी तरह का जीवन जी सकते हो
जब लोगों को रोटी भी नसीब नहीं
और इसी वजह से साठ-सत्तर रुपए रोज पर तुम एक आदमी को
और सौ डेढ़ सौ रुपए रोज पर एक पूरे परिवार को गुलाम बनाते हो
और फिर रात की अगवानी में कुछ मदहोशी में सोचते हो
कभी-कभी घोषणा भी करते हो-
मैं अपनी मेहनत और काबलियत से ही यहाँ तक पहुँचा हूँ।
दिक्क़त की शुरुआत
सोचो तो आख़िर आदमी के जीवन में रखा ही क्या है
वह मुश्किल से रोता-तड़पता जन्म लेता है
फिर रोज़-रोज़ बढ़ती ही जाती हैं उसकी मुश्किलें
उन्हीं सबके बीच वह हंसता-गाता है, लड़ता-झगड़ता है
और होता ही रहता है इस दुनिया से असहमत
कभी-कभी बीच में दखल देकर वह कह देता है
कि आदमी का जीवन ऐसा नहीं बल्कि ऐसा होना चाहिए
नहीं तो आदमी ज़िन्दा रहते हुए भी मर जाता है
यह कहते ही वह घिर जाता है चारों तरफ़ से
घिरे हुए आदमी की फिर कभी कम नहीं होतीं मुसीबतें
आदमी के जीवन में रखा ही क्या है आख़िर
वह मरता तो है ही एक दिन
लेकिन दिक्क़त यहाँ से शुरू होती है कि उसे हमेशा
उस एक दिन से पहले ही मार दिया जाता है यह कह कर
कि आख़िर आदमी के जीवन में रखा ही क्या है—
एक धायँ के अलावा ।
अन्त का जीवन
खिड़की से दिखती एक रेल गुज़रती है, भागती हैं जिसकी रोशनियाँ
उजाला नहीं करतीं, भागती हैं मानो पीछा छुड़ाना चाहती हैं अन्धेरे से
उसकी आवाज़ थरथराहट भरती है लेकिन वह लोहे की आवाज़ है
उसकी सीटी की आवाज़ बाक़ी सबको ध्वस्त करती
आबादी में से रेल गुज़रती है रेगिस्तान पार करने के लिए
लोग जीवन में से गुज़रते हैं प्रेमविहीन आयु पार करने के लिए
आख़िर एक दिन प्रेम के बिना भी लोग ज़िन्दा रहने लगते हैं
बल्कि ख़ुश रहकर, नाचते-गाते ज़िन्दा रहने लगते हैं
पीछे छूट गई बारीक़, मटमैली रेत में
मरीचिका जैसा भी कुछ नहीं चमकता
प्रेम की कोई प्रागैतिहासिक तस्वीर टँगी रहती है दीवार पर
तस्वीर पर गिरती है बारिश, धूल और शीत गिरता है,
रात और दिन गिरते हैं, उसे ढक लेता है कुहासा,
उसकी ओट में मकड़ियाँ, छिपकलियाँ रहने लगती हैं
फिर डॉक्टर कहता है इन दिनों आंसुओं का सूखना आम बात है
इसके लिए तो कोई आजकल दवा भी नहीं लिखता
एक दिन सब जान ही लेते हैं : प्रेम के बिना कोई मर नहीं जाता
धीरे-धीरे इस बात की आपसी समझ बन जाती है
कि रोज़-रोज़ मेल-मुलाक़ात मुमकिन नहीं
सारे विस्थापित जान चुके हैं
अब वे किसी गाँव-क़स्बे के निवासी नहीं
कुछ ही दूरी पर जो एक बहुत बड़ा कॉम्पलेक्स है
गूगल-अर्थ में शहर के नाम पर दिखती है इसी इमारत की तस्वीर
अब यही गगनचुम्बी इमारत है इस शहर का पर्यायवाची
लाँग शॉट में हज़ारों प्रकाशमान खिड़कियों से आलोकित
यह किसी उज्ज्वल द्वीप की तरह दिखाई देती है
अलबत्ता इसी शहर में ऐसी भी खिड़कियाँ हैं असँख्य
जिनके भीतर भी रहे चले आते हैं जीवित मनुष्य
लेकिन उधर से कोई रोशनी नहीं आती
बस, दिखता हुआ खिड़कियों के आकार का अन्धेरा है
जिसे आसपास की रोशनियाँ और ज़्यादा गाढ़ा करती हैं ।
यदि तुम नहीं माँगोगे न्याय
यह विषयों का अकाल नहीं है
यह उन बुनियादी चीज़ों के बारे में है जिन्हें
थककर या खीझकर रद्दी की टोकरी में नहीं डाला जा सकता
जैसे कि न्याय —
जो बार-बार माँगने से ही मिल पाता है थोड़ा-बहुत
और न माँगने से कुछ नहीं, सिर्फ अन्याय मिलता है
मुश्किल यह भी है कि यदि तुम नहीं माँगोगे
तो वह समर्थ आदमी अपने लिए माँगेगा न्याय
और तब सब मजलूमों पर होगा ही अन्याय
कि जब कोई शक्तिशाली या अमीर या सत्ताधारी
लगाता है न्याय की गुहार तो दरअसल वह
एक वृहत्, ग्लोबल और विराट अन्याय के लिए ही
याचिका लगा रहा होता है ।
नमकहराम
जिस थाली में खाता है उसी को मारता है ठोकर
जिस घर में रहता है उसी में लगाता है सेन्ध
तुम याद करो,
तुमने उसकी थाली में वर्षों तक कितना कम खाना दिया
याद करो, तुमने उसे घर में उतनी जगह भी नहीं दी
जितनी तिलचट्टे, चूहे, छिपकलियाँ या कुत्ते घेर लेते हैं ।
आश्वस्ति
इतने बान्धों और परियोजनाओं पर
सड़कों, पुलों और इमारतों पर
कारख़ानों, संस्थानों और सितारों पर भी
लिख दिए गए हैं उनके नाम
जैसे वे आश्वस्त रहे हों कि उन्हें
उनके कामों से याद नहीं रखा जा सकता ।
मध्यवर्गीय विजयवर्गीय
उनका सपना यही था कि तनख़्वाह से चला लूँगा घर-बार
कभी सुन लूँगा संगीत, घूमूँगा-फिरूँगा, मिलूँगा-जुलूँगा सबसे
लेकिन नामाकूल पैकेज देकर चलवाए जा रहे हैं उनसे
तमाम बैंक, शो-रूम, मॉल, सुपर बाज़ार
जहाँ बजता ही रहता है वह लोकप्रिय संगीत
जो परिवार में भर देता है अटपटी रफ़्तार
एक गजब का ज्वार
इस तरह विजयवर्गीय हैं एक मध्यवर्गीय बेकरार
एक अधूरे नागरिक, एक अधूरे ख़रीददार
पूरा होने के लिए आज़ाद लेकिन चाकरी है चौदह घण्टे की
वे आज़ाद हैं मगर उन्हें ऑफ़िस में ही मिलती है रोटी और चाय
वे आज़ाद हैं लेकिन इन्द्रधनुष देखे गुज़र गए ग्यारह साल
उधर बढ़ते ही जाते हैं अजीबो-ग़रीब सामान बनानेवाले कारख़ाने
इधर खिड़की से ग़ायब हो जाते हैं खेत, नदियाँ, पेड़ और पहाड़
दिखने लगता है अट्टालिकाओं का कबाड़
उनके घर में भी जुटता चला जाता है सामान-दर-सामान
इतना कि वे समझ जाते हैं यदि एक शब्द भी बोले ख़िलाफ़
तो उनके पास खोने के लिए कितना कुछ है एक साथ ।
यह ज़्यादा बहुत ज़्यादा है
कुछ लोगों के पास हर चीज़ ज़रूरत से बहुत ज़्यादा है
वे लोग ही जगह-जगह दिखते हैं बार-बार
उनमें बार-बार दिखने की सामर्थ्य ज़्यादा है
वे लोग दिन-रात बने रहते हैं अख़बारों में,
टेलिविजन में, हमारी बातचीत में, सरकारी चिन्ताओं में
अनेक रहने लगे हैं पाठ्य-पुस्तकों में और विद्यार्थियों की इच्छाओं में
घर से बाहर निकलने पर भी वे दिखते हैं
चौराहों पर, अस्पतालों में, रेस्तराँ में,
और सुलभ कॉम्पलेक्स के पोस्टरों में भी
सार्वजनिक जगहें अब उनकी हैं
पार्क में उनके क्लब की मीटिंग चलती है
सड़कों पर गड़ जाते हैं उनके तम्बू
बचे हुए पेड़ों की छाया उनकी है
सूखती नदियों का पानी उनका
बच्चों के खिलौनों पर उन्हीं की तसवीरें
सस्ती से सस्ती टी-शर्ट पर भी लिखा है उनका नाम
हर विज्ञापन में उनके परफ़्यूम की ख़ुशबू
ये वे ही हैं जिनके पास सब कुछ ज़रूरत से बहुत ज़्यादा है
कपड़े ज़्यादा हैं, गहने और क्रॉकरी ज़्यादा,
घड़ियों-चश्मों की भरमार, जूतों की अलग अलमारियाँ,
अण्डरवियर्स और एअर कण्डीशनर्स ज़्यादा हैं
बँगले-मकान, ज़मीनें, कार-मोटर, फ़र्नीचर ज़्यादा,
शेयर्स, कम्पनियाँ, शो-रूम्स, बैंक बैलेंस ज़्यादा,
नगदी ज़्यादा, एलेडी, कम्प्यूटर, मोबाइल ज़्यादा,
मुश्किल यह नहीं कि बहुत ज़्यादा लगनेवाला यह विवरण ज़्यादा है
मुश्किल यह है कि उनका यह बहुत ज़्यादा, कानून के मुताबिक है
मुश्किल यह है कि यह नियमों के अनुसार है और बहुत ज़्यादा है ।
उत्तर-कथा
नौदुर्गों की साँझ में गली के छोर से आती थी
विह्नल करती चौपाई-गायन की आवाज़
सोरठे तक आते-आते गहराने लगती थी रात
जीवन खड़ा हो जाता था रँगमँच के आगे
रास्तों में मिलते थे झरे हुए फूल
चितवनें, वाटिकाएँ, छली, बली, मूर्च्छाएँ
और उन्हीं के बीच उठती पुत्र-मोह की अन्तिम पुकार
नावों, जँगलों, गांवों और पुलों से होकर गुज़रते थे
राग-विराग, ब्रह्मास्त्र और वरदान के बाद के विलाप
लेकिन नहीं खेली जाती थी अश्वमेध की लीला
जो अब उत्तर-कथा में खेली जा रही है दिन-रात
जिसे कलाकार नहीं, बार-बार खेलते हैं वानर-दल
गठित हो रही हैं नई-नई सेनाएँं
रोज़ एक नाटक खड़ा हो जाता है जीवन के आगे ।
जिसे ढहाया नहीं जा सका
जिसे तुमने सचमुच गोली मार ही दी थी
वह अब भी मुसकराता है तुम्हारे सामने दीवार पर
तुम्हारे छापेख़ाने उसी की तस्वीर छापते हैं
तुम दूसरे द्वीप में भी जाते हो तो लोग तुमसे पहले
उसके समाचार पूछते हैं तब लगता है तुम्हें
कि दरअसल तुम मरे हुए हो और वह ज़िन्दा है
बुदबुदाते हुए हो सकता है तुम ग़ाली देते हो मन में
लेकिन हाथ जोड़कर फूल चढ़ाते हो और फोटू खिंचाते हो
तुम शपथ लेते हो वह सामने हाथ उठाए दिखता है
तुम झूठ बोलते हो वह तुम्हारे आड़े आ जाता है
घोषणापत्र में तुम विवश दोहराते हो उसी की घोषणाएँ
अब तुमने ढहा दी है उसकी मूर्ति तो देखो
सब तरफ़ सारे सवाल उसी मूर्ति के बारे में हो रहे हैं
बार-बार दिखाई जा रही हैं उसी मूर्ति की तस्वीरें
उसी चौराहे पर इकट्ठा होने लगे हैं तमाम पर्यटक
जिन्हें बताया जाता है कि यहाँ, यहीं, हाँ, इसी जगह,
वह मूर्ति थी ।
कुशलता की हद
यायावरी और आजीविका के रास्तों से गुज़रना ही होता है
और जैसा कि कहा गया है इसमें कोई सावधानी काम नहीं आती
बल्कि अकुशलता ही देती है कुछ दूर तक साथ
जो कहते हैं: हमने यह रास्ता कौशल से चुना
वे याद कर सकते हैं :
उन्हें इस राह पर धकेला गया था
जीवन रीतता चला जाता है और भरी बोतल का
ढक्कन ठीक से खोलना किसी को नहीं आता
अकसर द्रव छलक जाता है कमीज़ और पैण्ट की सन्धि पर
छोटी सी बात है लेकिन गिलास से पानी पिए लम्बा वक़्त गुज़र जाता है
हर जगह बोतल मिलती है जिससे पानी पीना भी है एक कुशलता
जो निपुण हैं अनेक क्रियाओं में वे जानते ही हैं
कि विशेषज्ञ होना नए सिरे से नौसिखिया होना है
कुशलता की हद है कि एक दिन एक फूल को
क्रेन से उठाया जाता है ।
इसलिए आशा
सख़्त सर्दियाँ धीरे-धीरे दाख़िल हो ही जाती हैं फाल्गुन में
शनिवार मुण्डेर पकड़कर कूद जाता है इतवार के मैदान में
एक दृश्य की धुन्ध में से प्रकट होता है एक कम धुन्धला दृश्य
कभी विस्मय की तरह, कभी महज विषयान्तर
अनुभव का आसरा यह है कि धूल और लू भी
आखिर बारिश में घुल जाती है
और बारिश शरद की तारों भरी रात में
नेत्रहीन कहता है मैं ध्वनि से
और स्मृति से देखने की कोशिश करता हूँ
और पत्तों में हवा गुज़रने की आवाज़ से
पुकार लेता हूँ वृक्षों के नाम ।
इस सदी में जीवन अब विशाल शहरों में ही सम्भव है
अब यह अनन्त संसार एक दस बाई दस का कमरा
जीवित रहने की मुश्किल और गन्ध से भरा
खिड़की से दिखती एक रेल गुज़रती है, भागती हैं जिसकी रोशनियाँ
उजाला नहीं करतीं, भागती हैं मानो पीछा छुड़ाती हैं अॅंधेरे से
उसकी आवाज़ थरथराहट भरती है लेकिन वह लोहे की आवाज़ है
उसकी सीटी की आवाज़ बाक़ी सबको ध्वस्त करती
आबादी में से रेल गुज़रती है रेगिस्तान पार करने के लिए
लोग जीवन में से गुज़रते हैं प्रेमविहीन आयु पार करने के लिए
आख़िर एक दिन प्रेम के बिना भी लोग ज़िन्दा रहने लगते हैं
बल्कि ख़ुश रह कर, नाचते-गाते ज़िन्दा रहने लगते हैं
बचपन का गाँव अब शहर का उपनगर है
जहाँ बैलगाड़ी से भी जाने में दुश्वारी थी अब मैट्रो चलती है
प्रेम की कोई प्रागैतिहासिक तस्वीर टॅंगी रहती है दीवार पर
तस्वीर पर गिरती है बारिश, धूल और शीत गिरता है,
रात और दिन गिरते हैं, उसे ढॅंक लेता है कुहासा
उसके पीछे मकडि़याँ, छिपकलियाँ रहने लगती हैं
फिर चिकित्सक कहता है इन दिनों आँसुओं का सूखना आम बात है
इसके लिए तो कोई डॉक्टर दवा भी नहीं लिखता
एक दिन सब जान ही लेते हैं: प्रेम के बिना कोई मर नहीं जाता
खिड़की से गुज़रती रेल दिखती है
और देर तक के लिए उसकी आवाज़ फिर आधिपत्य जमा लेती है
अनवरत निर्माणाधीन शहर की इस बारीक, मटमैली रेत में
मरीचिका जैसा भी कुछ नहीं चमकता
लेकिन जीवन चलता है ।
मृत्युलोक और कुछ पंक्तियाँ
इसी संसार की भीड़ में दिखा वह एक चेहरा, जिसे भूला नहीं जा सकता ।
तमाम मुखौटों के बीच सचमुच का चेहरा ।
या हो सकता है कि वह इतने चेहरों के बीच एक शानदार मुखौटा रहा हो ।
उस चेहरे पर विषाद नहीं था जबकि वह इसी दुनिया में रह रहा था ।
वहाँ प्रसन्नता जैसा कुछ भाव था लेकिन वह दुख का ठीक विलोम नहीं था ।
लगता था कि वह ऐसा चेहरा है जो प्रस्तुत दुनिया के लिए उतना उपयुक्त नहीं है ।
लेकिन उसे इस चेहरे के साथ ही जीवन जीना होगा । वह इसके लिए विवश था ।
उसके चेहरे पर कोई विवशता नहीं थी, वह देखने वाले के चेहरे पर आ जाती थी ।
वह बहुत से चेहरों से मिल कर बना था ।
उसे देख कर एक साथ अनेक चेहरे याद आते थे ।
वह भूले हुए लोगों की याद दिलाता था ।
वह अतीत से मिलकर बना था, वर्तमान में स्पंदित था
और तत्क्षण भविष्य की स्मृति का हिस्सा हो गया था ।
वह हर काल का समकालीन था ।
वह मुझे अब कभी नहीं दिखेगा । कहीं नहीं दिखेगा ।
उसके न दिखने की व्यग्रता और फिर उत्सुकता यह सम्भव करेगी
कि वह मेरे लिए हमेशा उपस्थित रहे ।
उसका ग़ुम हो जाना याद रहेगा ।
यदि वह कभी असम्भव से संयोग से दिखेगा भी तो उसका इतना जल बह चुका होगा
और उसमें इतनी चीज़ें मिल चुकी होंगी कि वह चेहरा कभी नहीं दिखेगा ।
हर चीज़ का निर्जलीकरण होता रहता है, नदियों का, पृथ्वी का और चन्द्रमा का भी ।
फिर वह तो एक कत्थई-भूरा चेहरा ही ठहरा ।
उसे देख कर कुछ अजीवित चीज़ें और भूदृश्य याद आए। एक ही क्षण में:
लैम्पपोस्टों वाली रात के दूसरे पहर की सड़क ।
कमलगट्टों से भरा तालाब ।
एक चारख़ाने की फ्रॉक ।
ब्लैक एंड व्हाईट तसवीरों का एलबम ।
बचपन का मियादी बुख़ार ।
स्टूल पर काँच की प्लेट और उसमें एक सेब ।
एक छोटा-सा चाकू ।
छोटी-सी खिड़की ।
और फूलदान ।
उस स्वप्न की तरह जिसे कभी नहीं पाया गया ।
जिसे देखा गया लेकिन जिसमें रहकर कोई जीवन सम्भव नहीं ।
कुछ सपनों का केवल स्वप्न ही सम्भव है ।
वह किसी को भी एक साथ अव्यावहारिक, अराजक,
व्यथित और शान्त बना सकता था ।
वह कहीं न कहीं प्रत्यक्ष है लेकिन मेरे लिए हमेशा के लिए ओझल ।
कई चीज़ें सिर्फ़ स्मृति में ही रहती हैं ।
जैसे वही उनका मृत्युलोक है ।
रास्ते की मुश्किल
आप मेज़ को मेज़ तरह और घास को घास की तरह देखते हैं
इस दुनिया में से निकल जाना चाहते हैं चमचमाते तीर की तरह
तो मुश्किल यहाँ से शुरू होती है कि फिर भी आप होना चाहते हैं कवि
कुछ पुलिस-अधीक्षक होकर, कुछ किराना व्यापारी संघ अध्यक्ष होकर
और कुछ तो मुख्यमन्त्री होकर, कुछ घर-गृहस्थी से निबट कर
बच्चों के शादी-ब्याह से फ़ारिग होकर होना चाहते हैं कवि
कि जीवन में कवि न होना चुन कर भी वे सब हो जाना चाहते हैं कवि
कवि होना या वैसी आकांक्षा रखना कोई बुरी बात नहीं
लेकिन तब मुमकिन है कि वे वाणिज्यिक कर अधिकारी या फ़ूड इंस्पेक्टर नहीं हो पाते
जैसे तमाम कवि तमाम योग्यता के बावजूद तहसीलदार भी नहीं हुए
जो हो गए वे नौकरी से निबाह नहीं पाए
और कभी किसी कवि ने इच्छा नहीं की और न अफ़सोस जताया
कि वह जिलाधीश क्यों नहीं हो पाया
और कुछ कवियों ने तो इतनी ज़ोर से लात मारी कि कुर्सियाँ कोसों दूर जाकर गिरीं
यह सब पढ़-लिख कर, और जान कर भी, हिन्दी में एम० ए० करके, विभागाध्यक्ष हो कर
या फिर पत्रकार से सम्पादक बन कर कुछ लोग तय करते हैं
कि चलो, अब कवि हुआ जाए
और जल्दी ही फैलने लगती है उनकी ख्याति
कविताओं के साथ छपने लगती हैं तस्वीरें
फिर भी अपने एकान्त में वे जानते हैं और बाक़ी सब तो समझते ही हैं
कि जिन्हें होना होता है कवि, चित्रकार, सितारवादक या कलाकार
उन्होंने ग़लती से भी नहीं सोचा होता है कि वे विधायक हो जाएँ या कोई ओहदेदार
या उनकी भी एक दुकान हो महाराणा प्रताप नगर में सरेबाज़ार
तो आकांक्षा करना बुरा नहीं है
यह न समझना बड़ी मुश्किल है कि जिस रास्ते से आप चले ही नहीं
उस रास्ते की मंज़िल तक पहुँच कैसे सकते हैं ।
अकुशल
बटमारी, प्रेम और आजीविका के रास्तों से भी गुज़रना होता है
और जैसा कि कहा गया है इसमें कोई सावधानी काम नहीं आती
अकुशलता ही देती है कुछ दूर तक साथ
जहाँ पैर काँपते हैं और चला नहीं जाता
चलना पड़ता है उन रास्तों पर भी
जो कहते है: हमने यह रास्ता कौशल से चुना
वे याद कर सकते हैं: उन्हें इस राह पर धकेला गया था
जीवन रीतता जाता है और भरी हुई बोतल का
ढक्कन ठीक से खोलना किसी को नहीं आता
अकसर द्रव छलकता है कमीज़ और पेंट की सन्धि पर गिरता हुआ
छोटी सी बात है लेकिन
गिलास से पानी पिए लम्बा वक़्त गुज़र जाता है
हर जगह बोतल मिलती है जिससे पानी पीना भी एक कुशलता है
जो निपुण हैं अनेक क्रियाओं में वे जानते ही हैं
कि विशेषज्ञ होना नए सिरे से नौसिखिया होना है
कुशलता की हद है कि फिर एक दिन एक फूल को
क्रेन से उठाया जाता है ।
आकस्मिक मृत्यु
बच्चे साँप-सीढ़ी खेल रहे हैं
जब उन्हें भूख लगेगी वे रोटी मांगेंगे
उन्हें तुम्हारे भीतर से उठती रुलाई का पता नहीं
वे मृत्यु को उस तरह नहीं जानते जैसे वयस्क जानते हैं
जब वे जानेंगे इसे तो दुख की तरह नहीं
किसी टूटी-फूटी स्मृति की तरह ही
अभी तो उन्हें खेलना होगा, खेलेंगे
रोना होगा, रोयेंगे
अचानक खिलखिला उठेंगे या ज़िद करेंगे
तुम हर हाल में अपना रोना रोकोगे
और कभी-कभी नहीं रोक पाओगे
संगीत है
यह संगीत है जो अविराम है
यह भीड़ में है
जो अकेलेपन के कक्ष में
गूँजता है अलग बंदिश में
शब्द में
निःशब्द में हवा में
निर्वात में
संगीत है
यह जिजीविषा जो कभी सितार है
कभी बाँसुरी
कभी अनसुना वाद्ययंत्र
और यह दुःख के साथ-साथ
जो कातरता बज रही है शहनाई में
और यह दुराचारी का दर्प
जो भर गया है नगाड़े में
यह संगीत है
जो छिप नहीं सकता
यह है भीतर से बाहर आता हुआ
यह है बाहर से
भरता हुआ भीतर
यह संगीत है
कभी टिमटिमाता हुआ एक तार पर
कभी गुँजाता हुआ पूरी कायनात का सभागार ।
बीज
जो पराजित है वह धन है संसार का
यह हवा बहेगी
एक हारे हुए का जीवन सँभालने के लिए ही
जो जानती है कि पराजित होना जिंदगी से बाहर होना नहीं
दाखिल होना है एक विशाल दुनिया में
जिंदगी में दाखिल हो गए इस व्यक्ति को
ईर्ष्या और प्रशंसा और अचरज से
देखता है जीवन से बाहर खड़ा आदमी
वह समझ ही नहीं पाता है कि वह तो
फ्रेम से बाहर खड़ा हुआ प्रेक्षक है एक
जो पराजित है और टूट नहीं गया है
वह
नए संसार के होने के लिए
एक नया बीज है !
आकस्मिक मृत्यु-2
रोज़-रोज़ की अनुपस्थिति आख़िर उसे विश्वसनीय बना देगी
आदमी कई बार उस तरह नहीं गलता
जैसे अपनी ही आँच में धीरे-धीरे पिघलती है मोमबत्ती
वह यकायक उस तरह से हो जाता है ओझल
जैसे जादू के खेल में आँखों के ऐन सामने ग़ायब होता है हाथी
फिर पता चलता है कि यह कोई जादू नहीं था, जीवन है
अब सिर्फ़ साहस चाहिए
जो एक-दूसरे का मुँह देखने से कुछ-कुछ आता है
और इसी वजह से कभी-कभी टूट भी जाता है ।
एक सुबह की डायरी
वह अपनी धुन में किसी पक्षी के साथ नापता हुआ आकाश
उसकी आँखों में आसमान का रंग चमकता विस्तृत नीला
उसकी चाल को धरती का घर्षण जैसे रोकता-सा
काँच के टुकड़ों की आपसी रगड़ का रंगीन संगीत
उठता हुआ निक्कर की जेबों में से
गूँजता हुआ इस दिक् के सन्नाटे में
आँखों के आगे चाकलेट की पारदर्शी पन्नी लगाए
कूदता चलता वह करता खेल अनेक
दूध की लाइन में खड़े व्याकुल अधीर लोगों के बीच
वही था जो बेपरवाह था वह जो असीम था
और तैर रहा था अथाह बचपन की झील में
वही था जो आसपास को देखता हुआ इस तरह
मानो हर चीज़ पर उसका ही अधिकार
जो दूध वाले के मजाक पर देखता उसे क्षमा करता हुआ
थैली को निक्कर की दूसरी जेब में घुसाने के
एक बड़े नाट्य में व्यस्त
वह जो ट्रक की तेजी को परास्त करता
पार करता हुआ सड़क
गली के छोर पर दिखता चपल
एक कौंध
एक झोंका गायब होता हुआ हवाओं के साथ
वह जो इस पुरातन दुनिया को करता हुआ नवीन
और अद्यतन !
वह जो मेरे आज के दिन का प्रारंभ !
कहीं भी कोई कस्बा
अभी वसंत नहीं आया है
पेड़ों पर डोलते हैं पुराने पत्ते
लगातार उड़ती धूल वहाँ कुछ आराम फरमाती है
एक लम्बी दुबली सड़क जिसके किनारे
जब-तब जम्हाइयाँ लेती दुकानें
यह बाज़ार है
आगे दो चौराहे
एक पर मूर्ति के लिए विवाद हुआ था
दूसरी किसी योद्धा की है
नहीं डाली जा सकती जिस पर टेढ़ी निगाह
नाई की दुकान पर चौदह घंटे बजता है रेडियो
पोस्ट-मास्टर और बैंक-मैनेजर के घर का पता चलता-फिरता आदमी भी बता देगा
उधर पेशाब से गलती हुई लोकप्रिय दीवार
जिसके पार खंडहर, गुम्बद और मीनारें
ए.टी.एम. ने मंदिर के करीब बढ़ा दी है रौनक
आठ-दस ऑटो हैं रिेक्शेवालों को लतियाते
तांगेवालों की यूनियन फेल हुई
ट्रैक्टरों, लारियों से बचकर पैदल गुज़रते हैं आदमी खाँसते-खँखारते
अभी-अभी ख़तम हुए हैं चुनाव
दीवारों पर लिखत और फटे पोस्टर बाक़ी
गठित हुई हैं तीन नई धार्मिक सेनाएँ
जिनकी धमक है बेरोज़गार लड़कों में
चिप्स, नमकीन और शीतल पेय की बहार है
पुस्तकालय तोड़कर निकाली हैं तीन दुकानें
अस्पताल और थाने में पुरानी दृश्यावलियाँ हैं
रात के ग्यारह बजने को हैं
आखिरी बस आ चुकी
चाय मिल सकती है टाकीज़ के पास
पुराना तालाब, बस स्टैंड, कान्वेंट स्कूल, नया पंचायत भवन,
एक किलोमीटर दूर ढाबा
और हनुमान जी की टेकरी दर्शनीय स्थल हैं।
एक कम है
अब एक कम है तो एक की आवाज कम है
एक का अस्तित्व एक का प्रकाश
एक का विरोध
एक का उठा हुआ हाथ कम है
उसके मौसमों के वसंत कम हैं
एक रंग के कम होने से
अधूरी रह जाती है एक तस्वीर
एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश
एक फूल के कम होने से फैलता है उजाड़ सपनों के बागीचे में
एक के कम होने से कई चीजों पर फर्क पड़ता है एक साथ
उसके होने से हो सकनेवाली हजार बातें
यकायक हो जाती हैं कम
और जो चीजें पहले से ही कम हों
हादसा है उनमें से एक का भी कम हो जाना
मैं इस एक के लिए
मैं इस एक के विश्वास से
लड़ता हूँ हजारों से
खुश रह सकता हूँ कठिन दुःखों के बीच भी
मैं इस एक की परवाह करता हूँ
इतनी-सी कथा
वह स्त्री स्टेशन के बाहर खड़ी थी आधी रात
घर लौटने के इंतज़ार में
अचानक हवा चली विषैली
लिखा जाने लगा त्रासदी का एक और अध्याय
प्रश्न यह नहीं था कि वह वापस कैसे लौटेगी,
सही-सलामत लौटेगी इतिहास को पारकर ?
खुल जाएगा किवाड़ ?
बेचैन दस्तकों और दरवाज़ा खुलने के युग के बीच
किन सवालों से जूझेगी ?
जो जली-सी गंध आएगी
सोचेगी क्षमा और प्रेम और करुणा के बारे में
गुस्से में तोहमतें लगाएगी ?
जो कुछ हुआ
वह उसका साक्ष्य है या विषय
पता नहीं धर्मसंसद के निष्कर्ष
कुल जमा इतनी-सी थी यह कथा
पीढ़ियों के सामने
पहला-ईसापूर्व छठी शती का एक भिखु
दूसरा-प्रचारक नवजागरण काल का
तीसरा-सफाई अभियान से बच निकला किशोर
तीनों के सामने विचित्र अंतर्विरोध
ज्ञान की निरीह उजास से बाहर जाकर
चुनौती बनने और खड़े होने का
मृतकों की याद
क्षमा करें, यहाँ इस बैठक में मैं कुछ नहीं कह पाऊँगा
मृतकों को याद करने के मेरे पास कुछ दूसरे तरीके हैं
यों भी साँवला पत्थर, बारिश, रेस्तराँ की टेबुल, आलिंगन,
संगीत का टुकड़ा, साँझ की गुफ़ा और एक मुस्कराहट
ये कुछ चीज़ें हैं जो मृतक को कभी विस्मृत होने नहीं देतीं
विज्ञापन, तस्वीरें, लेख और सभाएँ साक्षी हैं
कि हम मृतकों के साथ नए तरीकों से मज़ाक कर सकते हैं
या इस तरह याद करते हैं ख़ुद का बचे रहना
धीमी रोशनियों में ज्यादा साफ़ दिखाई देता है
ओस और कोहरा हमारे भीतर पैदा करते हैं नए रसायन, नई इच्छाएँ
जब धूप खिलती है तो मृतकों की परछाइयाँ साथ में चलती हैं
कोई उस तरह नहीं मरता है कि हमारे भीतर से भी वह मर जाए
जान ही जाते हैं कि समय किसी दुख को दूर नहीं करता
वह किसी मुहावरे की सांत्वना भर है
जबकि स्मृति अधिक ठोस पत्थर की तरह
शरीर में कहीं न कहीं पड़ी ही रहती है
जब शिराएँ कठोर होने लगती हैं
यकृत और हृदय वजनी हो जाता है
किडनी की तस्वीर में पाए जाते हैं पत्थर
और हम देखते हैं कि गुज़र गए लोगों की स्मृतियाँ अन्तरंग हैं
धीरे-धीरे फिर हर चीज़ पर धूल जमने लगती है
कुम्हला जाते हैं प्लास्टिक के फूल भी
शब्द चले जाते हैं विस्मृति में
और सार्वजनिक जीवन में आपाधापी, दार्शनिकता,
चमक और हँसी भर जाती है
तब स्मृति एकान्त की माँग करती है जैसे कोई अन्तरंग प्रेम ।
अब हम गीत नहीं बनाते
हम बहुत दूर निकल आए हैं
सूर्योदयों, सूर्यास्तों, श्रम भरी दुपहरियों से
खेतों-खलिहानों से, नदियों से, पहाड़ों से
अलाव से और रात में चमकते सितारों से
अब हम गीत नहीं बनाते
अब कुछ दूसरे लोग हैं जो बाक़ी काम नहीं करते
सिर्फ़ गीत बनाते हैं
वे दूसरे अलग हैं जो उसे ढालते हैं संगीत में
कुछ और लोग भी हैं जो सिर्फ़ गाते हैं गीत
और फिर ढोल-ढमाके के साथ
आता है दुनिया में वह गीत
हम तो यहाँ सुदूर परदेस में
खोजते हैं रोजी-रोटी
भूल गए हैं अपना जीवन-संगीत
अब हम गीत नहीं बनाते।
आदिवासी
यदि मैं पत्थर हूँ तो अपने आप में एक शिल्प भी हूँ
जैसा मैं हूँ वैसा बनने में मुझे युग लगे हैं
हटाओ, अपनी सभ्यता की छैनी
हटाओ ये विकास के हथौड़े
मैं पत्थर हूँ, पत्थर की तरह मेरी कद्र करो
ठोकर जरा सँभलकर मारना
पत्थर हूँ ।
तसवीरें
आधी शताब्दी पुराने इस चित्र में
दिख रहे हैं जो ये तीन लोग
ये ही थे अपनी प्रजाति के आख़िरी जन
1963 के बाद ये फिर नहीं दिखे
और यह उस तितली की तसवीर है
जो लायब्रेरी की रद्दी में मिली अचानक
लेकिन अब वह कहीं नहीं है इस संसार में
जो प्रजातियाँ इधर-उधर लुक-छिपकर
बिता रही है अपना गुरिल्ला जीवन
जारी है उनका भी सफ़ाया
विचारों का भी किया ही जा रहा है शिकार
अब तो किसी विचार की तसवीर देखकर
उसे पहचानना भी मुश्किल
कि किस विचार की है यह तसवीर आखिर !
कवि की अकड़
अपनी राह चलनेवाले कुछ कवियों के बारे में सोचते हुए
यों तो हर हाल में ही
कवियों को ज़िन्दा मारने की परम्परा है
हाथी तक से कुचलवाने की निर्दयता है
और समकाल में तो यह कहकर भी कि क्या पता वह ज़िन्दा है भी या नहीं
ख़बर नहीं मिली कई महीनों से और मोबाइल भी है ‘नॉट रीचेबल’
किसी कार्यक्रम में वह दिखता नहीं और दिख जाए तो
अचानक बीच में ही हो जाता है ग़ायब
जब वह ख़ुद ही रहना चाहता है मरा हुआ
तो कोई दूसरा उसे कैसे रख सकता है जीवित
और वह है कि हर किसी विषय पर लिखता है कविता
हर चीज़ को बदल देना चाहता है प्रतिरोध में
और कहता है यही है हमारे समय का सच्चा विलाप
वह विलाप को कहता है यथार्थ
वह इतिहास लिखता है, भविष्य लिखता है और कहता है वर्तमान
वह लिंक रोड पर भी फुटपाथ पर नहीं चलता
और हाशिए पर भी चलता है तो ऐसे जैसे चल रहा हो केन्द्र में
कि हम आई० ए० एस० या एस० पी० या गुण्डे की
और पार्टी जिलाध्यक्ष और रिपोर्टर की अकड़ सहन करते ही आए हैं
लेकिन एक कवि की अकड़ की आदत रही नहीं
और फिर क्यों करें उसे बर्दाश्त
क्या मिलेगा या उससे क्या होगा बिगाड़
और वह कभी लिखने लगता है कहानी कभी उपन्यास
फिर अचानक निबन्ध या कुछ डायरीनुमा
कभी पाया जाता है कला-दीर्घाओं में, भटकता है गलियों में
और न जाने कहाँ से क्या कमाता है जबकि करता कुछ नहीं
किसी से माँगता भी नहीं
इसी से सन्दिग्ध है वह और उसका रोज़गार
सन्दिग्ध नहीं है सेबी और शेयर बाज़ार
सन्दिग्ध नहीं बिल्डर, विधायक और ठेकेदार
सन्दिग्ध नहीं मालिक, सम्पादक और पत्रकार
सन्दिग्ध नहीं आलोचक, निर्णायक और पुरस्कार
सन्दिग्ध नहीं पटवारी, न्यायाधीश और थानेदार
सन्दिग्ध नहीं कार्पोरेट, प्रमुख सचिव और सरकार
सन्दिग्ध है बस कवि की ठसक और उसका कविता-संसार
जबकि एक वही है जो इस वक़्त में भी अकड़ रहा है
जब चुम्मियों की तरह दिए जा रहे हैं पुरस्कार
जैसे देती हैं अकादेमियाँ और पिताओं के स्मृति-न्यास नाना-प्रकार
जैसे देते हैं वे लोग जिनका कविता से न कोई लेना-देना न कोई प्यार
तो परिषदों, संयोजकों, जलसाघरों के नहीं है कोई नियम
और मुसीबजदा होते जाते कवियों का भी नहीं कोई नियम
लेकिन वही है जो कहता है कि आपके देने के हैं कुछ नियम
तो जनाब, मेरे लेने के भी हैं कुछ नियम
वह ऐसे वक़्त में अकड़ में रहता है जब चाहते हैं सब
कि कवि चुपचाप लिखे कविता और रिरियाए
जहाँ बुलाया जाए वहाँ तपाक से पहुँच जाए
न किराया माँगे, न भत्ता, न रॉयल्टी, न सवाल उठाए
बस सौ-डेढ़ सौ एम० एलओ में दोहरा हो जाए
वह दुनिया भर से करे सवाल
लेकिन अपनी बिरादरी में उसकी ताक़त कम हो जाए
आख़िर में कहना चाहता हूँ कि यदि उसकी कविता में
हम सबकी कविता मिलाने से कुछ बेहतरी हो तो मिला दी जाए
यदि बदतरी होती हो तो हम सबकी कविता मिटा दी जाए
लेकिन एक कवि की ठसक को रहने दिया जाए
कि वही तो है जो बिलकुल ठीक अकड़ता है
कि वही तो है जिसके पास कोई अध्यादेश लाने की ताक़त नहीं
कोई वर्दी या कुर्सी नहीं और मौक़े-बेमौक़े के लिए लाठी तक नहीं
फिर भी एक वही तो है जो बता रहा है
कि अकड़ना चाहिए कवियों को भी
इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि वह
कविता की बची-खुची अकड़ है
जीवन पर निर्बल की सच्ची पकड़ है ।