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वह चेहरा 

आज फिर दिखीं वे आँखें
किसी और माथे के नीचे
वैसी ही गहरी काली उदास

फिर कहीं दिखे वे सांवले होंठ
अपनी ख़ामोशी में अकेले
किन्हीं और आँखों के तले

झलकी पार्श्व से वही ठोड़ी
दौड़कर बस पकड़ते हुए
देखे वे केश
लाल बत्ती पर रुके-रुके

अब कभी नहीं दिखेगा
वह पूरा चेहरा?

चौराहे पर लड़की 

रोज़ दिखती है उसी चौराहे पर
सर्दी, गरमी, बरसात, ओले, आँधी, लू
कुछ भी नहीं रोक पाता उसे

बंदरिया की तरह एक नन्हें से बच्चे को सीने से चिपकाए
वह हर कार के पास जाकर हाथ फैलाती है
पक्का रंग है उसका, साँवले से कुछ गहरा ही
चेहरा खुरदरा है पर एक अजीब से सौंदर्य से दीप्त
आँखें वैसी ही सूनी
जैसा उसका घर
स्थगित यौवन
सूखे झरने सा

मैं अक्सर दूर से ही उसे देख लेता हूँ और
कार ऐसी जगह रोकने की कोशिश करता हूँ
जहाँ वह हरी बत्ती होने तक पहुँच न पाए
दुविधा में रहता हूँ हरदम ऐसा करते हुए
क्या मैं पैसे बचाने के लिए ऐसा कर रहा हूँ
या ख़ुद को बचाने के लिए?

कभी-कभी दिए भी हैं मैंने उसे पैसे
जब वह आ ही गयी ठीक खिड़की के सामने
उसे तो क्या पता चला होगा
कि पैसे उसकी हथेलियों में गिरे
और आँसू मेरी जेब में

कभी-कभार उसका बच्चा कुनमुना कर
अपने जीवन का सबूत देता है
और मैं सोचता रह जाता हूँ
क्या इसका जीवन कभी शुरू भी होगा?

यह सब भी मैं लाल बत्ती पर रुके हुए ही सोचता हूँ
वरना हमें अब कुछ भी सोचने का
शऊर कहाँ रहा?

प्यार में चिड़िया 

एक चिड़िया
अपने नन्हे पंखों में
भरना चाहती है
आसमान

वह प्यार करती है

आसमान से नहीं
अपने पंखों से

एक दिन उसके पंख झड़ जायेंगे
और
वह प्यार करना भूल जायेगी
भूल जायेगी वह
अन्धड़ में घोंसले को बचाने के जतन
बच्चों को उड़ना सिखाने की कोशिशें

याद रहेगा सिर्फ़
पंखों के साथ झड़ा आसमान

माँ – 1

माँ नींद में कराहती है

रात में न जाने कब उठकर
खाट से गिरी रज़ाई वह मुझे
धीरे से ओढ़ाती है
और बरसों टकटकी लगाकर देखती है

वह अँधेरे में कुछ फुसफुसाती है
और चुप हो रहती है
रात ने उसकी कभी नहीं सुनी

अब उसके पास मौसम नहीं आते
तारीख़ें आती हैं –
पिता के मरने की तारीख़
मकान के दुतरफ़ा मुक़दमा बनने की तारीख़
घर की नींव में गर्दन में धँस जाने की तारीख़
और शहर के एकाएक तिरछा हो जाने की तारीख़
वह घर को पहने हुए भी
ख़ुद को बेघर पाती है
वह रंग उखड़े पुराने सन्दूक को देखती है
और उसी में बन्द हो जाती है

दर्द उसके पाँव दाबता है
साँस कमज़ोर छत की तरह गिरती है

और
आँखें बदहवासी के रंगों की मार झेलती हैं

त्योहार लम्बी फ़ेहरिस्त की याद बनकर आते हैं
खाली रसोई में वह
चूल्हे पर लगी कलौंस की तरह बैठी रहती है
और रसोई के किलकने का सपना देखते-देखते
बाहर निकल आती है

एक विशाल बंजर मुँह फाड़े उसकी ओर खिसकता है
वह उसका आना अपनी नसों में महसूस करती है
जहाँ खून कत्थे की तरह जम रहा है
आँधी आने पर वह हवा के साथ-साथ दौड़ती है
वह सभी को छूना चाहती है – उन सभी को
जिनके कन्धों पर चढ़कर आँधी आ रही है
उसकी झुर्रियाँ पिघलती हैं
और सड़कों पर बहने लगती हैं

उसकी हथेलियों के बीचोंबीच एक गहरा कुआँ है
जिसमें दो आँखें रोज़ गिरती हैं
और बीते समय के शान्त जल में डूब जाती हैं

वह चाहकर भी पीछे नहीं लौट पाती
फूलों और रंगों का साथ कुछ ऐसा ही होता है

घर उसके लिए दुनिया की खिड़की है
जिससे वह कभी-कभी झाँक लेती है
वह बरसात में सूख रही धोती की तरह
धूप के इन्तज़ार में है
वह सपने में भौंह पर उगता सूरज देखती है
और उसकी काँपती उँगलियाँ
अन्दाज़ से वक़्त टटोलती हुई
बालों में खो जाती हैं

माँ नींद में कराहती है
और करवट बदल कर सोने की कोशिश में
जनम काट देती है

सुबह 

आँख खुली
तो नहीं दिखा
तुम्हारा नींद से लहूलुहान चेहरा
नहीं सुनाई दी
उठती-गिरती साँसों की चुप्पा आहट

दोनों तकिये थे मेरे ही सिर के नीचे
रज़ाई भी नहीं गिरी थी पलँग के उस पार
एक भी ग़ायब नहीं
पाँचों अख़बार बालकनी में पड़े थे
गले में भी नहीं चुभ रही थीं
रात में गिलास के साथ तोड़ी हुई बातें
रसोई में पड़ी थी ख़ाली केतली उलटी

लो
हो ही गयी
एक और सुबह
तुम्हारे बिना

सुबह और सपने 

मेरी तरह

मेरी सुबह भी काफ़ी अजीब है
कभी भी हो जाती है
रात के दो बजे
तो दिन के दो बजे भी
जब आँख खुले तभी सवेरा
यह कहावत शायद मेरे लिए ही बनी थी

सुबह तो सोने के बाद होती है
लेकिन सोना होता ही कहाँ है?

नींद की बस लपटें-सी उठती हैं
और सब कुछ राख कर चुकने के बाद
मेरी पलकों पर ठहर जाती हैं
तभी मुझे नींद आ जाती है
थोड़ी-सी देर
लेकिन सपने नहीं आते

उन्हें मैं जागते हुए देखता हूँ

देखता हूँ कि एक आदमी
लगातार झूठ बोलता जा रहा है
लोगों की जेब से नोट निकाल कर
रद्दी काग़ज़ भर रहा है
और लोग ख़ुशी से नाच रहे हैं
भेड़ियों की भीड़ चौराहों पर जमा है
और बकरियाँ उन्हें हार पहना रही हैं

भूखों के आगे गाय का गोबर और गौमूत्र परोसा जा रहा है
और वे कृतज्ञ होकर थालियों को ढोलक की तरह बजा रहे हैं

अच्छा है ऐसे सपने मुझे सोते में नहीं आते
वरना जो रही-सही नींद आती है
वह भी चली जाती

जाग कर जो चेहरा देखता था हमेशा
वह तो चला ही गया है

यही जीवन 

यूँ तो यह जीना भी कोई जीना है
फिर भी
अगर मृत्यु के बाद
दुबारा यहाँ आ गया
तो जीना चाहूँगा एक बार
फिर
यही जीवन

शायद तब पढ़ सकें वे सब किताबें
जो मैंने कई घटिया-सी नौकरियाँ करते हुए
पैसे बचा-बचाकर ख़रीदी थीं
बल्कि कुछ के लिए तो उधार भी लिया था

शायद लिख पाऊँ वे सभी कविताएँ
जो स्वप्न में तो दिखाई दे जाती हैं
पर आँख खुलते ही
फुर्र हो जाती हैं

दुबारा यही जीवन मिले अगर
तो शायद उन सभी दोस्तों से मिल सकूँ
जिनके अब नाम भी याद नहीं
लेकिन
जिनकी शक्लें अब भी आँखों के आगे आ जाती हैं
अनानास
और हाँ,

शायद उन सभी शहरों में भी जा सकूँ
जहाँ बढ़िया खुरचन मिलती है
और
जिनसे प्रेम करने के बावजूद कभी कह नहीं पाया
उनसे कहने की हिम्मत जुटा सकूँ

इन सबसे भी ज़्यादा ज़रूरी एक और काम है
जो मैं करना चाहूँगा
बड़ा भाई जो बाँह छुड़ाकर चला गया हमेशा के लिए
उससे कहूँगा
मुझे वहाँ याद रखे
जैसे मैं उसे यहाँ रखता हूँ

मल्लिकार्जुन मंसूर

चौहत्तर साल की वह निष्कम्प लौ
एकाएक काँपी
और
उसने चश्मा लगा लिया

जरा देखें

सुरों के बाहर भी है
क्या कोई दुनिया?

टूटना

प्रेम अन्धा नहीं होता
प्रेम में हम अन्धे होते हैं

जो नहीं भी होता आस-पास
हमें उसकी भी आवाज़ आने लगती है
जिसके आने की कोई उम्मीद नहीं
उसके क़दमों की आहट भी सुनाई देने लगती है
झलक दिख जाती है उसकी भी
जो कभी यहाँ आया ही नहीं

जिसने कभी सोचा तक नहीं हमारे बारे में
हम अचानक उसकी बातें करने लगते हैं
उससे बातें करने लगते हैं
देर-देर तक
खामोश बैठे हुए

जिन दीवारों से कोई आवाज़ टकरा कर नहीं लौटती
हम उन दीवारों से ही टकराने लगते हैं
मुस्कुराते-मुस्कुराते सुबकने लगते हैं बात-बेबात

प्रेम पागल नहीं होता
प्रेम में हम पागल होते हैं
बेवकूफ़ियां करते हैं जानते-बूझते
शर्मिन्दा हो जाते हैं बिना ग़लती जाने ही
जानकर भी गिर पड़ते हैं मोह के अंगारों भरे कुएँ में

स्मृतियाँ भी धोखा देने लगती हैं
याद नहीं रहता दो मिनट पहले क्या कहा था
और हमेशा याद रहता है
जो कभी नहीं कहा

आँखें किसी भी दिशा में ताकने लगती हैं
कान कोई भी आवाज़ सुनने लगते हैं
चारों ओर कितना भी शोर मचा हो
मन में घुप्प सन्नाटा छाया रहता है

टूटते हैं न जाने कितने आईने
दरकती हैं न जाने कितनी शक्लें
बरसते हैं न जाने कितने बादल
तरसते हैं न जाने कितने मरुस्थल

प्रेम नहीं टूटता
न किसी को तोड़ता है

हम ही टूटते हैं
हम ही तोड़ते हैं प्रेम को

जाना 

वह जो चला गया
क्या वह
वाकई चला गया ?

उनींदी आँखों की सारी नींद पीछे छोड़कर
गाते-गाते अचानक उठकर
अधूरे गीत के सुर गले में भरकर
चला गया?

जाते वक़्त क्या उसने नहीं छोड़ी कोई भी ख़ुशबू
नहीं की कुछ भी बातें
क्या कुछ भी नहीं बोला
उन चीज़ों के बारे में जिन्हें वह भूलना चाहता था
क्या वह इतना बेज़ुबान हो गया था
जाते वक़्त?

वह
जिसके आते ही घर की दीवारें काँपने लगती थीं
जिसके होने से
घर का होना साबित होता था
जो जहाँ था
वहीं घर था
लेकिन यह भी तो सच है
कि

अमलतास के फूल उसके कहने से नहीं खिलते थे
उसके कहने से नहीं होती थी रात की रानी सुहागन
न ही उसके कहने से
कभी तारों ने अपनी दिशा बदली

तो फिर
वह क्या था?

वह जो चला गया
और
नहीं छोड़ गया अपनी ख़ुशबू भी

लालटेन की चिमनी के चटखने की आवाज़ करते हुए
जब चन्द्रमा तरेड़ खाता है
जब तारे बिलबिलाते हैं और
चाँदनी निर्लज्ज अट्टहास करती है
तब
दसों दिशाओं से यही सवाल गूँजता हुआ लौट कर आता है
कौन था जो चला गया?

कोई नहीं
बस एक ख़याल
एक स्वप्न
एक शबीह

जानना 

रोज़ जीते हैं
रोज़ मरते हैं
लेकिन न ठीक से जीना जानते हैं
न मरना

सदियों तक पतियों के साथ रहने के बाद भी
पत्नियों को नहीं लगता कि
उन्हें जानने की कोई ज़रूरत थी
भूल जाती हैं
कि कभी उन्हें जाना भी था

वे जानना ही भूल जाती हैं

पहचानती भी नहीं हैं उनकी शक्लें
सिर्फ स्पर्श याद रहता है

और पतियों को
कभी यह अहसास भी नहीं होता
कि वे पत्नियों के साथ रह रहे हैं
उन्हें जानना तो बहुत दूर की बात है

जिस शरीर को हम अपना समझते हैं
रहते हैं जिसमें ज़िन्दगी भर
उसे ही कितना जानते हैं?
दिन भर देश और देशप्रेम और वसुधैव कुटुम्बकम् की बातें करते हैं
लेकिन
अपने क़स्बे तक को ठीक से जानते नहीं

मेरा छोटा-सा क़स्बा नजीबाबाद

क्या मुझे पता है वह कितने किलोमीटर में फैला है
कितने नये मुहल्ले बस गये हैं बाबरी मस्जिद के बाद
कितने जने रोज़ रात में सोते हैं खाली पेट ?

क्या मुझे भनक भी है कि वह दुकान कहाँ चली गयी
जहाँ से ख़रीदते थे पतंग
उन बड़े मियाँ पतंगसाज़ के घर का क्या हुआ
जो जल गया था पिछले दंगे में
कहाँ गये सारे के सारे रफ़ूग़र
उनका एक पूरा मुहल्ला ही था

ये सब बड़ी बातें हैं
मुझे तो यह तक नहीं मालूम कि
अब वहाँ पहले जैसी रबड़ी क्यों नहीं बनती
और क्यों सोनपापड़ी अब वैसी सोनी नहीं रही
कभी-कभी लगता है
साथर्क है उन्हीं का जीवन
जिन्होंने कुछ नहीं जाना
किसी को नहीं जाना
और ज़िन्दा रहे

रेलवे स्टेशन का पुल 

मुझे उससे बात करनी है
बेहद ज़रूरी बात
इसीलिए तो यहाँ आया हूँ
रेलवे स्टेशन के इस पुल पर

हम रोज़ शाम को हवाखोरी के लिए आया करते थे
किशोर थे हम
और थे एकदम बेफ़िक्र
किशोरों की तरह
रेलगाड़ियों को देखते रहते थे
और सोचते थे
किसी दिन ये हमें भी कहीं पहुँचाएँगी

आज तो वह सब कुछ सपना लगता है
यह शाम भी तो सपना ही है
जिससे बात करनी है वह तो मेरे साथ-साथ ही आया है
उसके साथ तो कहीं भी बात हो सकती थी
यहाँ आने की क्या ज़रूरत थी

आज भी रेलगाड़ियाँ आ-जा रही हैं
पर पुल पर खड़े-खड़े लग ही नहीं रहा
कि पैंतालीस साल बाद यहाँ आया हूँ
लग रहा है
तब से यहीं तो खड़ा हूँ
बिना हिले-डुले

वह अचानक चला गया
एक गाड़ी को दौड़ कर पकड़ लिया था उसने
जो बोल रहा था वह वाक्य भी
बीच ही में छोड़ दिया था
‘शास्त्री, मैं अभी आया’
कह कर चला गया था दौड़ता हुआ

मैं अभी तक उसके इन्तज़ार में हूँ
हालाँकि मुझे अच्छी तरह मालूम है
इस तरह से गाड़ी पकड़कर छूमन्तर हो जाने वाले
कभी वापस नहीं आते

अपना अधूरा वाक्य पूरा करने
वह ज़रूरी बात कहने
जिसे करने मैं आज यहाँ चला आया
इस पुल पर
जिस पर से होकर हज़ारों मुसाफ़िर रोज़ गुज़रते हैं
लेकिन
जो किसी से किसी को नहीं जोड़ता

एक शाम को दूसरी शाम से भी नहीं

रागदर्शन 

मालकौंस में कलौंस न हो
दरबारी अख़बारी न लगे
यमन में वमन न हो
और,
मारवा में खारवा न हो
तो मैं कहूँगा

मैं सुखी हूँ

मैं सुखी हूँ
क्योंकि मैंने गौड़ सारंग का रंग उड़ते नहीं देखा
जब-जब भी मल्लिकार्जुन मंसूर को गाते सुना
अल्हैया बिलावल की बिलबिलाहट नहीं सुनी
जब अलाउद्दीन ख़ाँ ने सरोद पर उसे उकेरा
तोड़ी का तोड़ना नहीं देखा
कृष्णराव शंकर पण्डित को सुनते हुए

मैं सुखी हूँ
क्योंकि आज भी रोशनआरा बेगम का शुद्ध कल्याण शुद्ध है
अब्दुल करीम खाँ के सुर सारंगी को मात दे रहे हैं
फैयाज ख़ाँ की जयजयवन्ती की जयजयकार है

केसरबाई की तान की तरह
आज
मैं सुखी हूँ

राग की आग
वही जानता है जो इसमें जला है
ढला है जिसकी शिराओं में अनेक श्मशानों का भस्म कुण्ड
जिसने विद्ध किया है जीवित और मृत सबको
राग के देवसिद्ध शर से

बिहाग के नाग
जब लिपटते हैं
और निखिल बैनर्जी जब अल्हड़ प्रेमी की तरह
उनकी आँखों में आँखें डालकर
सितार को बीन की तरह बजाते हैं
तब
मुझे लगता है
मुझसे अधिक सुखी कोई नहीं

मैंने आज
राग देख लिया

तिलक कामोद 

रात में कभी-कभी
बाँसुरी बजती है
चन्द्रमा की नाभि से झरता है
अजस्त्र जीवन रस
और
ठीक उसी समय
छतों पर टहलती हैं
कुछ परछाइयाँ
एक-दूसरे से बिल्कुल विलग
विकल

सकल जड़-जंगम से लोहा लेती हुई
बादलों के इक्का-दुक्का पोरों से
एकाएक उठती है
केसरबाई की तान
भिगो देती है अन्धकार की चादर

यह तिलक कामोद है

मालूम नहीं कहाँ हो रहा है यह रास
भीतर या बाहर
बाहर या भीतर
या समस्त ब्रह्माण्ड में
सुर-संगत रागविद्या संगीत प्रमाण
चीते की चमत्कार जैसी तान की छलाँग
राग-रहस्य की ढीली लाँग

गहन-गह्वर में सबसे इतर
इतराई हुई
धुरी यही है जीवन की

यही बांसुरी है
जो
जब बजती है तो
चन्द्रमा की नाभि से
तिलक कामोद झरता है

मिलना 

(यूँ ही कोई मिल गया था
सरे-राह चलते-चलते…)

चाँद जब रात की शिला पर
सर पटक-पटक कर जान दे रहा था

दु:ख के मारे तारे
एक-दूसरे के साथ खुसर-फुसर
करना भी बन्द कर चुके थे
जब अँधेरे का तारकोल
आत्माओं पर फैल कर चिमट गया था
उस समय तुमसे अचानक मिलना
एक चमत्कार ही तो था

हम मिले
जैसे
एक उल्का दूसरी उल्का से मिलती है
लाखों वर्षों में कभी एक बार
अंतरिक्ष की विराट को और अधिक विराट बनाते हुए

एक उल्का क्यों मिलती है दूसरी उल्का से?
उसका तो मार्ग अनिश्चित है
किसी को पता नहीं
कहाँ जाकर गिरेगी
गिरेगी भी या
नष्ट हो जायेगी
अपने अनिर्दिष्ट पथ पर

भीषण वेग से अन्धाधुन्ध दौड़ते हुए

जब निर्जीव उल्का के बारे में कुछ नहीं मालूम
तो हम जीते-जागते स्वाधीन इच्छा वाले मनुष्य हैं
हमारे टकराने का किसे पता रहा होगा?

शायद प्रारब्ध को भी नहीं

यदि ऐसी ही बनी रहे सृष्टि
सूर्य इसी तरह करता रहे
कथकलि आकाश में
तो
हम भी
किसी दिन
अपने-अपने अनिर्धारित पथ पर
निकल जायें
और फिर
कभी न हो मिलना

(ये चिराग़ बुझ रहे हैं
मेरे साथ जलते-जलते…)

बिछोह 

मिलना और बिछुड़ना
संयोग की बात है

जैसे अन्धड़ में उड़ता हुआ कोई पत्ता
अचानक किसी दूसरे पत्ते से
टकरा जाये
ऐसे ही हम भी
लोगों से
टकरा जाते हैं

न मिलने पर
अख्तियार है
न बिछुड़ने पर

वह फिर भी निर्जीव
पत्ता है
पर हम तो इनसान हैं
हमारा ही कितना अख्तियार है
मिलन या
बिछोह पर
फ़र्क इतना भर है कि
पत्ते को पता भी नहीं चलता
और हम पूरा जीवन
बिछोह के आलिंगन में गुज़ारते हैं

न बोलना वह शब्द

एक शब्द भी न बोलना कभी
प्रेम का
पूरा शब्द तो क्या
एक आखर भी हमारे लिए नहीं हैं

प्रेम आता तो है वसन्त की तरह
लेकिन जाता है पतझड़ बनकर

मुझे नहीं चुननी हैं पतझड़ में गिरी पीली पत्तियाँ
मुझे नहीं भूलना है
पुष्पों की अर्ध-स्मित को
मुझे नहीं याद रखनी हैं वे लताएँ
जो किसी सहारे के बिना
लड़खड़ा कर गिर गयीं

प्रेम वह फूल है।
जिसके सड़ने का पता
उसके सड़ने के बाद भी
बरसों तक नहीं चलता
जब उसके अस्तित्व की दुर्गन्ध
असह्य हो उठती है
तभी आत्मा पर से उसका जाला हटता है

इसलिए
कभी मेरे सामने न बोलना
प्रेम का एक भी शब्द
यूँ
प्रेम भी तो
मात्र एक शब्द ही है

माधवी

स्वयंवर के पाखण्ड को तोड़कर
अन्त में मैंने
स्वयं का ही वरण किया
और तब मुझे लगा
कि
दूसरों की तरह ही
मैं भी जीवित हूँ

स्वयंवर छोड़कर
मैं चल पड़ी हूँ अनजान-अबूझ पथ पर
पहली बार मुझे
मुक्त पवन के झकोरे लग रहे हैं
रोम-रोम में पुलक है
मैं भी आज एक स्वत्वशालिनी
व्यक्ति हूँ
मात्र
देवों के भी स्वप्नों पर झपट्टा मारने वाली
कामिनी
भोग्या स्त्री नहीं
वरना
मैं तो उसी दिन पाषाणवत हो गयी थी
जब पिता ययाति ने
मुझे गालव को सौंप कर कहा था
‘मेरी पुत्री अनिन्द्य सुन्दरी है
इसे कोई भी राजा अपने पास रखने को तैयार हो जायेगा
इसका शुल्क प्राप्त कर
तुम गुरु-दक्षिणा चुकाओ’

और इस तरह
मुझे बलि किया गया
पुरुषों की प्रतिज्ञा के यूप पर
मेरे अपने ही पिता ने
एक प्रतापी राजा ने
अपना वचन रखने के लिए
मुझे वेश्या बना डाला
जिसे कोई भी पुरुष शुल्क देकर
भोग सकता था

मैंने देखा
गुरु-शिष्य परम्परा का
असली घिनौना चेहरा
जब अन्त में
गालव मुझे
अपने गुरु विश्वामित्र के पास ले गया
क्योंकि अब भी दो सौ श्यामकर्णी अश्व कम पड़ रहे थे
आज भी भूली नहीं हूँ
उस ऋषि कहे जाने वाले वृद्ध की कामुक दृष्टि
जब उसने गालव से कहा
‘ऐसी सुन्दरी को तुम पहले ही मेरे पास ले आते
तो मैं तुम्हारी पूरी गुरु-दक्षिणा चुकी हुई मान लेता’

इसके पहले मुझसे
हर्यश्व, दिवोदास और उशीनर
इन तीन राजाओं ने दो-दो सौ श्यामकर्णी अश्व का शुल्क
चुकाकर
पुत्र उत्पन्न किये

और यही
विश्वामित्र ने भी किया

इस सबके बाद भी
मेरे पिता मेरा स्वयंवर रचाने का ढोंग और दुस्साहस करेंगे
मुझे विश्वास नहीं था

अपनी झूठी शान के लिए जीने वाले
और अन्य सभी की उसके लिए बलि देने वाले
मेरे प्रतापी पिता ने
वह भी किया

पर्वत जैसे शरीर
और शिला जैसे हृदय को ढोने वाली मैं
कैसे किसी पुरुष की आँखों में आँखें डाल कर
उसकी ग्रीवा में वरमाला डाल सकती थी?
यदि डाल भी देती
तो क्या अपने आप से कभी
आँखें मिला सकती थी?
ऐसे जीवन के बाद
क्या किसी को भी दे सकती थी मैं
एक निष्ठावान पत्नी का प्यार ?

इसलिए मैंने तपोवन को ही
अपना वर चुना
अब मेरे सामने है
एकाकी पथ
एक अन्तहीन यात्रा
एक गरिमापूरित जीवन
जहाँ केवल मैं हूँ
और मेरा स्वत्व है

इन पुरुषों के पाखण्ड की यहाँ
छाया भी नहीं

मत्स्यगंधा 

हस्तिनापुर आज भी
मछली की तेज गंध में डूबा हुआ है।

लोग कहते हैं कि चाँदनी रात हो या अँधेरी
अक्सर मत्स्यगन्धा की आत्मा यहाँ डोलती है
और पूरे नगर पर तीखी बास की एक मोटी चादर
पड़ जाती है

लोक में प्रचलित हुआ कि सत्यवती वन में
अम्बिका और अम्बिालिका के साथ
मर गयी
पर मैं जीवित रही
क्योंकि मैं
हस्तिनापुर की राजमाता
हस्तिनापुर का ध्वंस देखने के लिए
तड़प रही थी

अब मेरी आत्मा तृप्त है

कौन है इस ध्वंस का उत्तरदायी?
द्रौपदी की दुर्योधन पर फ़ब्ती ?
कौरव राज्यसभा में द्रौपदी का चीरहरण?
युधिष्ठिर की जुए की लत?
दुर्योधन की ईर्ष्या?
मर्यादा का क्षरण?

नहीं

बहुत पहले ही
मर्यादा टूट चुकी थी और
सत्ता पर सवार हो चुके थे
निरंकुश वासना, अतृप्त लालसा, निर्वसन लोभ

ध्वंस के बीज तो तभी पड़ गये थे
जब
ऋषि पराशर ने मुझ नाव चलाने वाली पर
नदी के बीचोंबीच
बलात्कार किया था
अनाघ्रात पुष्प थी मैं
नवागत यौवन के झूले में झूलती हुई
इतनी भोली कि यह भी पता नहीं चला
मेरी देह के साथ क्या घटित हो रहा है
चीरहरण की सभी चर्चा करते हैं
मेरे कौमार्यहरण की कोई भी नहीं!

राजा शांतनु की दुर्दमनीय कामेच्छा
मेरे मल्लाह पिता का अपार लालच
भावी सम्राट का नाना बनकर
ऐश्वर्य भोगने की उसकी निर्लज्ज लालसा
देवव्रत का
कभी विवाह न करने और सिंहासन को त्यागने की
भीषण प्रतिज्ञा लेकर
भीष्म के रूप में लोकोत्तर पुरुष बनना
और फिर
परिणाम की सोचे बिना
उस पर हठपूर्वक जमे रहना

लोक में
बस इसी की चर्चा है

क्या कभी किसी ने सोचा
कि
उस बूढ़े राजा से मेरे विवाह के लिए
मेरी सहमति आवश्यक नहीं थी क्या?
किसी भी स्त्री की सहमति क्या
कभी आवश्यक समझी गयी है?

देवव्रत ने विवाह न करने का हठ
नहीं छोड़ा
लेकिन बलपूर्वक अनेक विवाह कराये
विचित्रवीर्य के लिए काशिनरेश की तीन कन्याओं का अपहरण किया
अम्बा का जीवन नष्ट किया
और अम्बिका और अम्बालिका को ज़बरदस्ती विचित्रवीर्य और चित्रांगद के साथ विवाह के बन्धन में बाँधा

अगर यह न हुआ होता
और अम्बा ने फिर से जन्म लेकर
भीष्म और उसके कुल के नाश की प्रतिज्ञा न की होती
तो क्या यह महायुद्ध होता?
और मैं?

क्या हर सास की तरह
मैंने भी प्रतिहिंसा में
अपनी बहुओं के साथ वही नहीं किया
जो मेरे साथ हुआ था?
नियोग के बहाने अपने पहले पुत्र कृष्ण द्वैपायन से
क्या मैंने अम्बिका और अम्बालिका पर
बलात्कार नहीं करवाया?
इस अन्धे, विवेकहीन और रुग्ण कृत्य के फलस्वरूप यदि
दृष्टिहीन धृतराष्ट्र और रोगी पाण्डु पैदा न होते
तो और क्या पैदा होता?

अन्धे धृतराष्ट्र के लिए भीष्म गान्धारी
और रोगी पाण्डु के लिए
पृथा एवं माद्री लाये

कैसा लगा होगा गान्धारी को
विचित्रवीर्य के अन्धे पुत्र से सौ-सौ पुत्र पैदा करते हुए?
क्या अपनी आँखों पर पट्टी
उसने इसलिए नहीं बाँधी थी
ताकि वह पूरे संसार को दिखा सके
वह अदृश्य पट्टी
जो हम सबकी आँखों पर बँधी थी?

और
क्या चार पुरुषों के साथ सहवास करके
कर्ण, युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन को जन्म देने वाली कुन्ती ने
सास वाला बदला लेने के लिए ही
द्रौपदी को
पाँचों पाण्डवों की पत्नी नहीं बनाया?
क्या माद्री को उसने इसलिए वह मन्त्र नहीं दिया ताकि वही सती-सावित्री क्यों बनी रहे?

वरना नियोग के द्वारा तो
केवल एक पुत्र की प्राप्ति ही अभीष्ट होती है

न किसी ने मेरी सहमति ली थी,
न अम्बालिका और अम्बिका की
न पृथा और माद्री की
और न ही द्रौपदी की

और यह स्वयंवर का ढकोसला!

स्वयंवर क्या वास्तव में स्वयंवर है?
क्या द्रौपदी ने कामना की थी कि वह
उसी से विवाह करेगी
जो घूमती हुई मछली की आँख

बाण से बींधेगा?
नहीं
यह शर्त उसके पिता ने निर्धारित की थी
फिर स्वयंवर में
द्रौपदी का ‘स्वयं’ कहाँ था?
क्या महाभारत युद्ध के मूल में
बलात्कार नहीं है?
क्या देवव्रत ने अपनी प्रतिज्ञा की
मूल भावना के साथ बलात्कार नहीं किया था?

तब तो मेरे पिता की ज़िद भी शेष नहीं रही थी
अगर वह विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद विवाह कर लेता
तो अनेक अन्य
बलात्कार होने से बच जाते
और तब सम्भवतः
यह महाविनाश भी न होता
और वह भी
हस्तिनापुर के राज्य का एकमात्र
वास्तविक उत्तराधिकारी होने के बावजूद
दुर्योधन के सिंहासन का पाया बनने की
ज़िल्लत ढोने से बच जाता

मैं मत्स्यगन्धा सत्यवती
भुजा उठाकर कहती हूँ
जहाँ ज़बरदस्ती की जायेगी
जहाँ बलात्कार होगा
उस राज्य का नाश अवश्यम्भावी है

माद्री

पति चले गये
अपने पितरों से मिलने
अब मुझे भी उनकी देह के साथ
चिता की लकड़ी की तरह जल जाना है

जलती ही तो रही हूँ अब तक
अन्तर केवल इतना ही है
कि
आज मेरे मन के बजाय
मेरी देह से
लपटें निकलेंगी
मेरा पीताभ मुख पति
महान योद्धा
दशार्ण, मगध, विदेह, काशी, सुह्य और पांडू देशों का विजेता
उसकी वीरता के वर्णन सुनकर ही
मोहित हो गयी थी मैं
जब पता चला कि मेरे पिता को अनेक अमूल्य उपहार
और प्रचुर धन देकर
भीष्म मुझे पांडु के लिए प्राप्त करने आये हैं

तब क्या पता था कि
इस अमरबेल के भीतर
जीवनरस चूसने वाला
काल का कीड़ा छुपा हुआ है

राजमहल के भोग-विलास ने
उसे बचपन में ही ऐसी असमर्थ कामेच्छा से भर दिया था
जो न स्वयं तृप्त हो सकती थी
न किसी को तृप्त कर सकती थी
वह तो एक व्याधि थी
जिसने व्याध की तरह
कामना के शर से
उसका जीवन हर लिया

इतना बड़ा शूरवीर
और
पुंसत्वहीन!

कुन्ती मेरी जेठानी
कैसी मीठी कैसी चतुर
पति को समझाया
धृतराष्ट्र पुत्र पर पुत्र हुए जा रहे हैं
और तुम्हारा एक भी नहीं
तो क्या तुम्हारा वंशवृक्ष यहीं सूख जायेगा?

दुर्वासा ऋषि के मन्त्र की बात बताकर
मना ही लिया उसे
नियोग के लिए

तभी तो हम हिमालय के एक वन-प्रान्तर में आये ताकि किसी को भी पता न चल सके
कि यहाँ क्या घटित हो रहा है

और फिर,
पैदा किये तीन-तीन पुत्र
भोगा देवताओं के साथ सहवास का सुख
पर क्या मजाल जो कभी
मेरी चिन्ता की हो

जब भी मैंने मनुहार की
मुझे भी दिला दो अनुमति
मुझे झिड़क दिया उसने एक कुटिल मुस्कान के साथ सौतिया डाह उसमें कम नहीं है

उसे हर समय यह भान रहता है
कि वह एक बड़ा पहाड़ वाली हृष्ट-पुष्ट औरत है जबकि मैं कवि की कोमलकान्त पदावली जैसी सौन्दर्यरस से भरी हुई
कामिनी

पांडु काम के वशीभूत हो
मँडराता तो मेरे आस-पास रहता था
लेकिन
पति पर शासन तो सदैव उसी का रहा

एक बार एकांत में अवसर मिला तो
मैंने पाण्डु से कहा
मुझे आपसे ही पुत्र चाहिए
वह समझ गया मेरे मन की बात
सामर्थ्यरहित था तो क्या
हृदय तो उसने प्रेमी-पति का पाया था

उसने कुन्ती को आदेश दिया
हाँ, आदेश ही दिया
कि वह मुझे भी
देवताओं को बुलाने का मन्त्र दे

कुंती के मुखमण्डल पर किन-किन रंगों के बादल छाये मैं आज तक नहीं भूली हूं

और जब मेरे दो पुत्र हो गये
तो कुन्ती को चिन्ता होने लगी
उसके तो तीन ही हैं
यदि मेरे चार हो गये

तो उसकी महत्ता घट जायेगी
बस
अगली बार उसने मुझे मन्त्र देने से
साफ़ इनकार कर दिया

पाण्डु यदि स्वयं पर नियन्त्रण नहीं रख पाया
तो मेरा क्या दोष
मेरा पति था वह आख़िर
कैसे मना कर सकती थी उसे
लेकिन कुन्ती ने एकमात्र मुझे ही दोषी ठहरा दिया

अब मेरे पास क्या विकल्प है
सिवाय पाण्डु के शव के साथ जल जाने के
यहाँ भी रहकर क्या करूँगी
जली-कटी सुनते हुए जेठानी की जीवन भर सेवा?
न…न…
ऐसी जेठानी की सेवा करने से अधिक श्रेयस्कर है चितारोहण
कम-से-कम
सती तो कहलाऊँगी

इस गर्वोन्मत्त कुरुवंश
का नाश तो होना ही है पर
मुझे नहीं देखना पड़ेगा

नकुल-सहदेव को कुन्ती ही पाल लेगी
इस मामले में वह विशाल हृदय वाली है
पृथा है
पृथ्वी की तरह
बहुत बोझ सँभाल सकती है

हिमालय की इस उपत्यका में
जहाँ चारों ओर सौन्दर्य ही सौन्दर्य है
जीवन से विदा ले रही हूँ

जलते समय होने वाले कष्ट का अनुमान लगाकर
काँप रही हूँ
लेकिन प्रारब्ध से कौन बच सका है
जो मैं बचूँगी
विदा

द्रौपदी 

अन्तिम यात्रा है

हिमालय की पीठ पर चलते-चलते
न जाने कितनी चोटियाँ नीचे रह गयीं
चलना दुश्वार हो गया है
घिसटने के अलावा कोई
चारा भी तो नहीं
यूँ भी जीवन भर
घिसटती ही तो रही हूँ
यदि कभी चली भी हूँ तो
दूसरों ही के पैरों पर
सबसे आगे मेरा ज्येष्ठ पति
सारी विपत्तियों की जड़
निर्लज्ज युधिष्ठिर
चला जा रहा है
अपने कुत्ते को साथ लिए
बिना किसी की ओर देखे
पहले ही कब इसने किसी और की चिन्ता की
जो अब करेगा?

कभी समझ नहीं पाई
ऐसे आत्मकेन्द्रित, निकम्मे और ढुलमुल स्वभाव के आदमी को
लोग धमर्राज क्यों कहते हैं
मैंने तो इसे कभी कोई धर्म का काम करते नहीं देखा
हाँ, धर्म की जुमलेबाज़ी

इससे चाहे जितनी करवा लो

अगर जुआ खेलना
और अपनी सारी सम्पत्ति, भाइयों और पत्नी को
दाँव पर लगाकर हार जाना
धर्म का काम है
तब यह जरूर
धमर्राज कहलाने का अधिकारी है

एक यही काम तो इसने अपने बलबूते पर किया
वरना तो सारे काम भीम और अर्जुन के ही हिस्से में आते थे
और यह बड़े भाई के अधिकार से
उनका फल भोगता था

मुझे भी तो सबसे पहले इसी ने भोगा
मुझे स्वयंवर में जीतने वाले अर्जुन की बारी
तो भीम के भी बाद आयी

यह जीवन भर धर्म की व्याख्या करता रहा
उस पर चला एक दिन भी नहीं

और मैं?

पूरा जीवन मेरा
अंगारों पर ही गुज़रा

गुज़रता भी क्यों नहीं
मेरा तो जन्म ही
यज्ञकुंड की अग्नि के गर्भ से हुआ था
और तभी से मेरी अग्निपरीक्षा शुरू हो गयी थी

हर क्षण यही सोचती रही हूँ
मैं पैदा ही क्यों हुई?
क्या सार रहा मेरे इस जीवन का
क्या मिला मुझे?

पाँच-पाँच पुरुषों की कामाग्नि का सन्ताप, दुस्सह अपमान

अर्जुन जैसे प्रेमी-पति की उपेक्षा

स्वयंवर में विजयी होने के बाद
कैसी प्रेमसिक्त दृष्टि से देखा था
अर्जुन ने मुझे
वह सुदर्शन चेहरा मुझसे मिलने की आस में
कैसा दिपदिपा रहा था
उसकी आँखों में
प्यार का महासागर था

और मेरी सास कुन्ती ने
कितनी चालाक निष्ठुरता के साथ
मुझे पाँचों भाइयों की सामूहिक पत्नी बना डाला
कुलवधू की ऐसी परिभाषा
न कभी देखी गयी, न सुनी गयी
उस क्षण से अर्जुन के चेहरे की कान्ति जो लुप्त हुई
तो फिर कभी नहीं लौटी
उसकी आँखें हमेशा शून्य में किसी को
ढूँढ़ती रहती थीं
शायद घूमती हुई मछली की आँख को
जिसके भेदन के बाद उसने
मुझे
प्राप्त किया था

बस वही तो एक क्षण था
जब मैं
उसकी थी-
केवल उसकी

टूटे हुए हृदय के साथ
उसने सुभद्रा और उलूपी के साथ विवाह किया
जो प्रेम उसे मुझसे नहीं मिला
शायद उसी की तलाश में
लेकिन यहाँ भी वह निराश ही हुआ

उसके मुख पर कभी वह उल्लास और आनन्द दिखा ही नहीं
जो स्वयंवर के समय दिखा था

महाभारत के युद्ध का
सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर प्रेम में
निराश
विफल
विकल
जिसके हृदय में इतने बाण धँसे
कि वह उसका तूणीर ही बन गया

अन्तिम समय में
लग रहा है
जीवन कभी शुरू ही नहीं हुआ
कभी साँस ली ही नहीं,
सूर्योदय और सूर्यास्त का अनुभव ही नहीं किया
चाँदनी की रहस्यमय शीतल हथेली ने
मुझे कभी स्पर्श ही नहीं किया
मुझे आज तक समझ में नहीं आया
कि स्थिर स्वभाव वाली गरिमामयी कुन्ती ने
मेरे साथ ऐसा हृदयहीन व्यवहार क्यों किया
क्या वही मेरे जीवन के नरक से भी बदतर बनने की एकमात्र ज़िम्मेदार नहीं है?
न उसने मुझे पाँचों भाइयों के साथ बाँधा होता
और न यह क्लीव युधिष्ठर मेरा सर्वसत्तावाद
पति बनकर
मुझे जुए में दाँव पर लगा पाता
और न कर्ण, दुर्योधन और दुशासन की हिम्मत होती कि मुझे भरी राज्यसभा में निर्वसन करने की कोशिश कर सकें
जहाँ भीष्म और विदुर जैसे ढोंगी नीतिज्ञ बैठे थे

केवल एक विकर्ण था
जिसने मेरे पक्ष की बात की थी

दुर्योधन का भाई, गान्धारी का पुत्र
विकर्ण
उसने मनुष्यता में मेरे विश्वास को
नष्ट होने से बचाया था

कुन्ती कभी अच्छी सास तो बन ही नहीं सकी
क्या वह अच्छी माँ बन पायी?
नहीं

कर्ण के साथ उसने हमेशा अन्याय किया
वरना ऐसा उदार, ऐसा पानी, ऐसा वीर
क्या कभी ऐसा दुष्टता का बर्ताव कर सकता था
जैसा उसने मेरे साथ किया
कुरुओं की राजसभा में

कुन्ती ने उसे स्वीकार किया
केवल अपने स्वार्थ के लिए
ममता के कारण नहीं
फिर भी उसने उस निष्ठुर माँ को
पूरी तरह निराश नहीं किया
और कहा कि वह केवल अर्जुन के साथ ही युद्ध करेगा

उसने तो अर्जुन के साथ भी ऐसा अन्याय किया
कि संभवत: कभी किसी माँ ने नहीं किया होगा स्वयंवर में मुझे प्राप्त किया अर्जुन ने
और पाँचों भाइयों से बाँध दिया मुझे कुन्ती ने
क्या उसे अर्जुन के मुख पर छायी वेदना नज़र नहीं आयी?

स्वयंवर में अर्जुन की जीत के बाद
मुझे कभी उस पर प्यार नहीं आया
हमेशा मन में तिक्तता
ही बनी रही

क्या वह कुन्ती से नहीं कह सकता था
कि वह मुझे भिक्षा में नहीं

स्वयंवर में जीत कर लाया है
और मुझ पर केवल उसी का अधिकार है
क्या वह मुझे इस भीषण अपमान और जीवन भर के दुःख से
नहीं बचा सकता था?
क्या माँ की मतिहीन आज्ञा का पालन करना
मेरे पूरे जीवन से अधिक महत्वपूर्ण था?

किससे था मुझे सच्चा प्रेम?
और, किसे था मुझसे सच्चा प्रेम?

शायद कृष्ण से
शायद कृष्ण को
सखा-सखी का
शुद्ध वासना रहित प्रेम

अधिकांश मनुष्य
ऐसे प्रेम को असम्भव समझते हैं
मानते हैं कि
स्त्री-पुरुष के बीच कामरहित प्रेम
हो ही नहीं सकता
लेकिन इससे बड़ा झूठ कोई नहीं है

मेरा सखा कृष्ण
जाने कैसे मेरी बात
बिना कहे ही समझ जाता था
घण्टों-घण्टों मुझसे बातें करता था
दुनिया-जहान की बातें
अपनी और राधा की बातें
ब्रज की बातें
रुक्मिणी और सत्यभामा के झगड़े
सब मुझे ही तो बताकर जाता था

कृष्णा का कृष्ण
जिसने मेरी लज्जा को

अपनी लज्जा समझा

दुर्योधन को मैंने
केवल उसी के तेज़ के सामने सहमते देखा
कितनी कोशिश की उसे बन्दी बनाने की
लेकिन वह तो
कारागृह में जन्मा था
उसे कौन बंदी बना सकता था!

आगे अब कोई राह नहीं है
कभी थी भी नहीं
जिसने चाहा उसी ने किसी भी राह पर धकेल दिया

अब हिमालय मुझे अपनी गोद में ले ले
तो मेरी यात्रा पूरी हो
अग्निकुण्ड से
हिमशिखर तक की
अर्थहीन यात्रा…

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