Skip to content

बेदाग़ चाँद

तुम कहते थे मुझे
चाँद, बेदाग़ चाँद
पहलू में रखते थे
सजा, छिपा हरदम

फिर एक दिन
चाँद को चुरा
सरेराह
कर दिया दाग़दार
चंद बेख़ौफ दरिंदो ने
और छिप गया चाँद
सदा के लिये
अपमान और कलंक
के अमावसी आकाश में

तुमनें, फेर ली नज़र
न कहा चाँद कभी
न बैठाया पहलू में
भूल गये वादे सभी

तिरस्कृत
अपमानित
लाचार चाँद
तोड़ आईने सब
जल उठा धुआँ धुआँ
और भस्म हो गया
मासूम बेदाग़ चाँद
पावन मन और
काया काली ले
चीख़ता, तड़पता
गल गया, घुल गया
चिरंतन में !

सिलवटें 

सिलवटें बिस्तर की
निकाल दी थी सुबह!

झूठी मुस्कान के साथ
नहीं देख सकती
तुम्हारी तरफ अब
हर सुबह….
चाय की गर्म प्याली
गर्म नाशता, और
मासूम इश्क़ मेरा
हो जाता है ठंडा
एक ही पल में
देख तुम्हारे
माथे की शिकन

वो दंभी लहजा
हिकारत भरी नज़र
वो तिरस्कार
वो तंज के
तीर ज़हरीले
और नहीं, और नहीं…

रात के अंधियारे में
ये खेल मुहब्बत का
अब बहुत हुआ,
नहीं स्वीकार
उजाले में पसरता
पल-पल का
यह अनादर !

सिलवटें, माथे की
या बिस्तर की तुम्हारे
बहुत की सीधी…
आज, उठा दर्पण
देखती हूँ स्वयं को
प्रेम से, विश्वास से!

उपालंभ

सुनो,
सखी कहती है
अभिमानी मुझे,
कि जाते समय
रोका नहीं तुम्हें

नहीं चाहती थी
कि टोक कर
डाल दूँ संशय में
या बोझिल कर दूँ
अंतस तुम्हारा
अपने उपालंभ से
इसलिए, केवल इसलिए
विरह पीड़ा सहती
खड़ी रही चुपचाप
अंतर्द्वंद्व से जूझती
कि पुकारूँ या नहीं

धीरे-धीरे, होते गये दूर…
तुम भी तो… ठहरे कहाँ
प्रेम बंधन नहीं, प्रतिज्ञा नहीं
प्रेम उपालंभों की
परिधि में क़ैद
विवशता भी नहीं,

यह प्रेमानुराग
जकड़े रहेगा मुझे…
हाँ, तुम स्वतंत्र हो
जाने के लिये, या फिर
लौट आने के लिये…

विनती

काश,
नीरव रात्रि में
दबे पाँव, यूँ
सब छोड़ जाना
होता सहज
मेरे भी लिये…
तब, हे प्रिय
हे गौतम,
त्याग पुत्र को
चल देती मैं
पीछे तुम्हारे!

नही बनती कभी
बाधा पथ की,
कर लेते विश्वास
तो, सहज ही
बीत जाते महल में
विरह के बरस पाँच

कृतार्थ हूँ, हे महामना
कर विनती स्वीकार
दिया दर्शन, अंततः
किया धन्य मुझे भी
हे गौतम, हे बुद्ध!

बिखरे मोती

अपनी लिखी
वो तीन क़िताबें
जो दी थी तुमने
पिछली मुलाक़ात में
रखी रहती हैं सिरहाने
कि पढ़ सकूँ फुर्सत से
जब जी चाहे इन्हें

कुछ पन्नों से
मिलती है ज़िन्दगी
मुस्कराती ऐसे
जैसे क़ैद तस्वीरों में
मुलाक़ातें अपनी
ज़हन को उलझाते
सवालों से झाँकते
नाकाफ़ी जवाब
चंद क़िस्से तीखे
हमारी नोंक-झोंक से

कुछ संजीदा कहानियाँ
कह गये थे जो
तुम सहजता से,
बर्फ सी जमीं
तन्हाईयाँ, तल्ख़ियाँ,
समंदर सी बहती
ख़्वाहिशें, ख़ुशियाँ,
आसमां सी विस्तृत
उड़ान जुनून भरी,
लम्हा लम्हा फिसलता
वक़्त रेत सा…
सालों का सफ़र
पल में तय कराते
सफ़हे ज़िन्दगी के

भाव तुम्हारे
प्रेम की माला के,
बिखरे मोती से
चुनती रहती हूँ, अक्सर…

अभिव्यंजना

मैं, सदा से चाहती थी
निर्भर होना, तुम पर
तुम्हारा संग, देता था संबल
तुम्हारी बाँहों में हमेशा
पाती थी सुरक्षित स्वयं को
लेकिन, प्रेमवश किये
इस समर्पण को
समझा तुमने दुर्बलता
और समय के साथ
साबित कर दी मेरी कमज़ोरी
कि मैं, थी सदा ही आश्रित
तुम पर,
तुम्हारे तन और धन पर !

सुनो,
तुम्हारे पौरुष से
कहीं नहीं कम
स्त्रीत्व मेरा
दैहिक निर्बलता
दोष नहीं, अस्त्र बना
मैंने पार की सब बाधायें
समय की गति के साथ
सार्थक कार्य मेरे
देंगे अभिव्यंजना
शुभ संकल्प को मेरे

सुनो, अब भी, चाहती हूँ कि तुम
बने रहो संरक्षक मेरे
लेकिन, पंख रखते हुए
परवाज़ अपनी न भूलूँगी
उन्मुक्त गगन में अब मैं
हे पुरुष, ख़ूब उडूँगी !

रंग इश्क़ का

रंग इश्क़ का प्रिय
देखा नही तुमने —
बेचैन, तड़पती
झुकी निगाह में,
मिलन को तरसते
हृदय की चाह में,
दुपट्टे के कोने से
लिपटी ऊँगलियों में,
तुम्हें देख लाल होते
गालों की सुर्ख़ियों में,
कस के पकड़ी
कलाई के निशान में
पर लगे पैरों की
बेबाक उड़ान में,
रुनझुन बजती
पायल की झंकार में,
मनुहार करते
टीके, बिछुए, हार में
भाल सजी
बिंदिया की चमक में
चुगली करती
चूड़ियों की खनक में —
रंग इश्क़ का प्रिय
क्यों देखा नहीं तुमने !

अफ़सोस 

मैं जानती थी
नहीं होंगे कभी तुम
सिर्फ मेरे…
जानते बूझते
बनाये रखा
एक भरम
कि तुम्हें
मुहब्बत है मुझसे
और सींचती रही
इसी भरम से
सच्चा प्रेम अपना

तिरस्कार तुम्हारा
सहा हिम्मत से
देख कर बच्चों को
जीती रही आस लिए
मुस्कान फीकी सी
रखी सजा होठों पर
और रोकती रही आँसू
स्वप्न विहीन
बेचैन आँखो में

मैं, जिसे दुनिया ने
ख़ूबसूरत कहा
खोजती रही
स्वीकृति
तुम्हारी नज़रों में

ये हीरे जवाहरात
बेशक़ीमती कपड़े
महंगी गाड़ियाँ
पीछा करते कैमरे,
इन सब की
चकाचौंध में
दबा दी सिसकियाँ
दफ़न कर दिया वजूद
उन्मुक्त पंछी सी
डायना ने
शाही पिंजरे की
कैदी हो कर!
अफ़सोस, न बन सकी
प्रिंसेस ऑफ वेल्स
प्रियतमा तुम्हारी !

प्रीति

मैं, सदा बंधी रही
रीति के दायरों में
मसोसती मन को,
अभिलाषा होती क्या
जान न पायी कभी

तुम, उन्मुक्त पंछी से
विचरते आशाओं के
आकाश में… फैलाते
पंख, भरते उड़ान ऊँची

तुम्हारा प्रणय
माँगता सामीप्य
चाहता निर्लज्जता,
ढूँढता प्रेयसी
मेनका रंभा सी

मेरा प्रेम, तत्पर केवल
सर्वस्व समर्पण को
मीरा सी प्रेम दीवानगी
राधा सी दर्शन पिपासा
लिये मैं, निकल चली
अब प्रीत निभाने को…

विछोह

हर उत्सव, हर पर्व
यज्ञ, अनुष्ठान
हर त्यौहार के
रंग आकर्षक
हो गये फीके…
बिंदी, बिछुए,
मेहंदी, आलता
श्रंगार सब
हो गया तुच्छ
महत्वहीन,
जब से, तुम
रूठ गये…

अब,
एकाकीपन से
मन घबराता है
स्वयं का
प्रतिबिंब तक
डराता है,
तोड़ दिया आज
आईना आख़िरी…
बस चाहत है
आलिंगन कर
मृत्यु का
देख पाऊँ तुम्हें
और सजा लूँ
तुम्हारे लिये
प्रेम की चमकती
बिंदिया माथे पर!

बहता पानी 

छपाक!
तुमने उछाला था
पानी नदी का
हथेलियों में भर
मुझ पर!
“क्या करते हो”
कहकर, फेर लिया था
तब मुँह मैने,
लहरों की हलचल
शांत हो गई…
तुम चुप क्यों थे,
पूछने को पलटी…
तुम कहीं नहीं थे!
प्रियतम मेरे,
डूब गया था
साथ तुम्हारे
मेरा सौभाग्य
सिंदूर और श्रंगार,
बहते पानी सी
छोड़ गए तुम
नयनों में अश्रु धार!

हाइकु-१ 

सघन वन
भटकते क़दम
नीरव मन

रात्रि उदास
मन में है विश्वास
होगा उजास

दृग छलके
देख रहे हैं हम
ख़्वाब कल के

संसार मेला
मिलन बिखराव
यात्री अकेला

प्रीत की डोर
सागर में हिलोर
ओर न छोर

हाइकु-२

बिछुड़ा मीत
नभ उड़ा विहग
जग की रीत

चैट औ मेल
चार दिन चाँदनी
प्यार है खेल

प्रेम अनोखा
कैमरे करे क़ैद
धोखा ही धोखा

सुख अनंत
मौसम अनुकूल
आया वसंत

माहिये-१

भारत हम को प्यारा
मिलजुल सब रहते
दुनिया में यह न्यारा

ख़ुद जान लुटा देते
वीर सपूतों तुम
यह देश बचा लेते

फौजी से कह बहना
आ जाओ भैया
कुछ माँग रखूँगी ना ⚘

सरहद पे जाना है
माँ कहती बेटे
ना दूध लजाना है

जब वीर चले घर से
नमन करे इनको
सदराह सुमन बरसे

ये देश पुकार रहा
चल मेरे फौजी
दुशमन ललकार रहा

फौजी मेरे भैया
याद करे भाभी
रोती रहती मैया

आज़ादी आई है
एक हुआ भारत
अति ख़ुशियाँ छाई हैं

भारत मेरा प्यारा
दुनिया के नक़्शे
पर लगता ये न्यारा

वीरों की गति न्यारी
शान तिरंगे की
देखे दुनिया सारी

तुम कहते तो

तुम कहते तो मैं बदल भी सकती थी
साथी बनकर साथ चल भी सकती थी
तुमने लेकिन मुझे ऐ दिल पुकारा नहीं
साथ मेरा था तुम को शायद गवारा नहीं
नहीं चाहते थे सफ़र जीवन भर का
मैंने भी नसीबा ख़ुद अपना संवारा नहीं
मुझे ये ज़िद थी हाथ तुम बढ़ाओगे
हूँ जैसी तुम वैसे ही गले लगाओगे
न बदलना चाहती थी मैं तुम्हें थोड़ा भी
तुम भी मुझे इसी तरह अपनाओगे
मेरे दिल में था जुनून पढ़ जाऊँ मैं
नाम रोशन इस जहां में कर जाऊँ मैं
नहीं परछाई सी बनकर रहूँ जीती सदा
पहचान अपनी अलग ही बनाऊँ मैं
तुम्हारे मन को शायद यही स्वीकार न था
वो बंधन कुछ भी हो मगर प्यार न था

प्यार करते तो तुम पंख भी खुलने देते
एक पंछी को कफ़स में न सिसकने देते
खोलते बाँहो सा आकाश मेरा लिये
क्षितिज तक तो जानां मुझे उड़ने देते

मेरे सपनों को तुम अपना बना सकते थे
दिल में रखा था जीवन में भी रख सकते थे
तुम कहते रुक जाओ तो रुक ही जाती मैं
नसीब हम दोनों का तुम ही बदल सकते थे

बन के नारी गुनाह क्या कोई मुझसे हुआ
हर बशर ने सवाल बस मुझ से किया
मुझी से हमेशा की उम्मीद कुर्बानी की
कि मैं खा लूँ क़सम बे-ज़ुबानी की
न सोचूँ, न बोलूँ, न कभी कुछ कहूँ
दूँ इजाज़त घर समाज को मनमानी की
तुम भी बस आम से एक पुरुष ही रहे
चाहते थे प्रिया कभी कुछ न कहे
तुमने बनाई थी तस्वीर इक दासी की
मैं हूँ समर्थ, निश्चयी औ विश्वासी सी
था समर्थन तुम्हारा तो प्यारा मुझे
नहीं वर्चस्व था मगर गवारा मुझे
तुम मिटाने यह भेद आगे बढ़ न पाये
अधिकार बराबरी का मुझे दे न पाये

पीछे हट एक राह तुमने दिखाई थी
अकेले चलने की हिम्मत मैं जुटा पाई थी
सफ़र अच्छा रहा हर क़दम मेरा
ढूंढ़ा नहीं कभी फिर कोई सहारा

सुनो, अकेले सफ़र अब कर रही हूँ मैं
साथ ख़ुद के औरों को बदल रही हूँ मैं
थी ललक परवाज़ की जिन पंखों में
उड़ान उनकी देख खिल रही हूँ मैं
दिखाया है विस्तार आकाश का उनको
था अपने सामर्थ्य पर विश्वास जिनको
तुम आते तो आनंद भी दुगना होता
साथ हंसना-रोना, कहना सुनना होता
कोई रंज नहीं और ग़म भी नहीं कोई
फसल उम्मीद की मैंने थी अकेले बोई

तुम कहते तो मैं बदल भी सकती थी
साथी बनकर साथ चल भी सकती थी
तुमने लेकिन मुझे ऐ दिल पुकारा नहीं
साथ मेरा था तुम को शायद गवारा नहीं

चोट खाते रहे मुस्कुराते रहे

चोट खाते रहे मुस्कुराते रहे
दर्दे दिल हम सभी से छुपाते रहे

अश्क़ बह न सकें बस यही सोचकर
बंद पलकें किये गुनगुनाते रहे

वो समझते रहे बेवफ़ा हम ही हैं
हम भी सच्चा उन्हें ही बताते रहे

लोगों ने तो दिये हम को ताने बहुत
चुप रहे और तोहमत उठाते रहे

वो सताते रहे हम को ख़ामोशी से
दे सदायें जिन्हें हम बुलाते रहे

वो रक़ीबों के पहलू में बैठे रहे
और दामन हमीं से बचाते रहे

रिश्तों का मर्म आख़िर बताते किसे
हम ही हालात से बस निभाते रहे

इक ख़ला सी रही दिल के वीराने में
फूल काग़ज़ के जिसमें खिलाते रहे

ज़ब्त करती रही मुस्कुराती रही 

ज़ब्त करती रही मुस्कुराती रही
और दुनिया मुझे आज़माती रही

वो बहारों के सपने दिखाते रहे
मैं वफा जानकर ज़हर खाती रही

उनके वादे भी उन जैसे बेशर्म थे
मैं ही पागल थी वादे निभाती रही

सारी दुनिया के ग़म आँखों में भर लिये
अपना दुख दर्द ही मैं भुलाती रही

कल यहाँ आँधियों का बहुत ज़ोर था
लौ दिये की मगर झिलमिलाती रही

वापसी का सफ़र ख़ुशनुमा हो गया
दूर तक तेरी आवाज़ आती रही

Leave a Reply

Your email address will not be published.