उभयचर-1
चेस्वाव मिवोश और विष्णु खरे के लिए
दुख भरा था तुममें दुख से भरा यह जग था
इस जग का तुम मानते नहीं थे ख़ुद को फिर भी दुख था जो तुम्हें अपना मानता था
और इस जग को क्या फिकिर कि तुम उसे अपना मानो न मानो
सो दुख था बस जिसे तुम्हें मानना था अपना दुख से भरे इस जग में
सुख को छूना दरअसल नष्ट होना था नष्ट होने का सुख भी इतना प्रतिबंधित था
कि कठोर दंडों का प्रावधान था कि किसी भी वस्तु को पाने की इच्छा जाती रहे
इससे हुआ यह कि जो पास था उसका मोल जान लिया इससे
अपमान जो झेले थे उनको भूल जाने का संकोच नष्ट हुआ
उभयचर-2
ऊँची कूदों तेज़ जिरहों दौड़ती गाडिय़ों के बीच मैं घुस न सका गोलियों और गालियों के बीच ना पहुँच पाया
बल को प्रदर्शन चाहिए होता है हमेशा भुजाओं की मछलियों ने बताया मुझको
मेरे युग में सुख पोर-भर की दूरी पर थे पोर-भर भी डूबे जो उनमें वो धन्य हुए
पंद्रह साल पहले मैं चुपचाप करता था प्रेम आज चुपचाप करने पर प्रेम छूटता जान पड़ता
अब मैं बोलता बहुत बहुत बोलता फिर भी उनकी शिकायत है ये के
जैसे-जैसे दिन चढ़ता है मुझ पर चुप्पी चढ़ती जाती है
इस तरह बहुत बोलने को बहुत चुप रहने का समार्थी ही जाना उनने
हर वक़्त जानना चाहा कि कौन हूं मैं जो कभी उनके तंबुओं की तरफ़ नहीं आया
जब कहा उन्होंने सत्य के बहुत क़रीब मत जाओ सूर्य के भी रहो उन जीवों की तरह जो जाने किस ब्रह्मांड में रहते आए
भूख भय ख़ुशी प्रेम आवश्यकता नहीं शौक़ हों जिनके लिए
मैं ख़ौफ़ज़दा उनसे भागता छिपता फिरता रहा
यूँ अपना क़बीला बचाया मैंने उनसे नूह की कश्ती में भरोसे की कहानी पढ़
सच कहूं क्या सच में बचा भी पाया कि यहां कोई आबादी नहीं दिखती मेरे पास
फिर भी जो बची वह निर्जनता है और जन की स्मृति भी जन को जनने में मददगार होगी ही
बस मैं डरता हूँ कि मेरी स्मृति कब तक रहेगी मेरी ही
यह जो भय का छाता है यही मुझे बचाता है
और इसे पहचाने बिना मैं तुम्हें धन्यवाद करता रहा भगवन!
उभयचर-3
जो जीवन में सहा वह कहां कहा जो नहीं सहा उसकी इच्छा कर ली
संसार का सारा दुख मैं झेलूं यह कामना ही
घृणित है वैसी ही विश्वविजयी होने की कामना-सी
मैं उभयचर प्रेम और घृणा में रहता बराबर घृणित कामनाओं का प्रकाशपिंड भी
वह आलू खाता हूं जिसमें केकड़ों के गुणसूत्र भरे
चौवन साल बाद मेरी नस्लों में केकड़े होंगे जाने कब से केकड़ों को अपना भाई कहता आया मैं
इसी उम्मीद में क्या?
जब कहता हूं अठारहवीं सदी में मनुष्य के आकार की एक लिपि हुई थी
पढऩे में माहिर अंग्रेज़ भी जिसे पढ़ ना पाए थे
मेरे पढ़े-लिखे यार-दोस्त समझते हैं कुछ नया पढ़ा रहा हूं इन दिनों
तुम्हारी पीड़ा की कल्पना करना तुम्हें पीड़ा देने से बेहतर है
सुख भले दोनों में एक-सा हो सुख की परिभाषा तो कभी भी एक ही रही नहीं
फिर भी मैं कहता हूं हमारी कल्पनाशक्ति की सबसे बड़ी असफलता
है कि हम युद्ध करते हैं जब भी हमारा इस या उस तरफ़ होना होता है सज़ा देने वाला बनना होता है
एक ऐसी फ़सल का बोना होता है जिसमें बालियां नहीं होतीं सुंडियां ही बस
एक दिन मैं भूल जाऊंगा क्योंकि यही मेरी प्रकृति है लेकिन मैं क्षमा नहीं दूंगा
क्षमा देने से सत्ता बनती है समभाव नहीं
उदात्तता नहीं क्षुद्रता की स्थापना की राजनीति है यह
सो हम दोनों ही ग़लतियां करेंगे उसके लिए न लड़ेंगे न माफ़ ही करेंगे
कुछ यूं करेंगे एक-दूसरे का परिष्कार हम
इसीलिए जब भी मैं पीड़ा की बात करता हूं उसमें कल्पना भी मिलाता हूं
कुछ तो कम हो ही जाती है इससे ख़ालिस वह मेरी अपनी नहीं रह जाती
किस गुरु से सीखा मैंने यह उद्घोष:
पीड़ाओं को उनकी औक़ात बता दूंगा एक बार लिखकर उनको ख़त्म कर दूंगा
उभयचर-4
बहुत टूटकर प्रेम किया था मैंने एक बार। बाहर आया प्रेम के दिनों से तो पाया मेरे सिवाय कुछ न टूटा था। ठीक ऐसा ही कहा था उसने जिससे मैंने प्रेम किया था। टूटना ही अंतिम सत्य है यह जीवन का फ़लसफ़ा रहा नहीं फिर भी टूटने के बाद हम दोनों ने ही प्रेम को क्यों बुहार फेंका? मेरे घर के पुराने एक संदूक़ में पुरानी एक बहुत माला था टूटी हुई धागे से अलग। नानी ने उसे क़रीने से संभाल रखा था। जब भी संदूक़ से वह कोई सामान निकालतीं, माला के कुछ दाने गिर पड़ते थे ज़मीन पर, किसी साड़ी दुपट्टे शॉल या पुराने काग़ज़ में अटके हुए। उन्हें बीनते हुए नानी याद करती थीं उस माला को जिसके टूटने की कहानी उन्होंने कभी नहीं बताई, लेकिन यह बताया बार-बार कई बार सैकड़ों बार कि अगली बार हाट से वह मोटा धागा ले आएंगी, फिर इस माला को उस नए धागे में पिरो देंगी। इस तरह, अपनी तरह, नकार देंगी कि टूटना ही अंतिम सत्य है। यह ज़बर्दस्ती की कल्पना ही होगी, नज़ाकत के स्वांग से भरपूर कि वह माला नानी के किसी प्रेम की टूटन रही होगी। उनके मरने के काफ़ी समय बाद हमें याद आई थी वह माला, जो संदूक़ में नहीं थी। कहीं भी नहीं थी ऐसा तो नहीं कह सकते क्योंकि हमारी स्मृतियों में तो थी ही, और नानी की भी मृत्योपरांत स्मृतियों में जो उनकी जल चुकी अस्थियों की बुझ चुकी राख में से झरती किसी डेल्टा प्रदेश में किसी पेड़ या फ़सल की जड़ में जल के तंतुओं से चिपकी होगी। उस दिन मुझे लगा था कि नानी ने वह धागा पा लिया होगा। न भी पाया तो क्या सारे दानों को साथ ले गईं होंगी और जो कहीं फिर से बिखर गए दाने, तो कहां-कहां बीनती फिरेंगी वह उन्हें? मैंने अपनी मालाओं के दाने कभी नहीं सहेजे, इसीलिए जो छिटके हुए दिखते हैं मुझको कपड़ों से आलमारी से किताबों के बीच बिखरते, मैं अक्सर ख़ुद से कहता हूं ये मेरी नानी की टूटी माला के दाने हैं
उभयचर-5
दुर्भाग्य के दिनों में सुंदरता की फि़क्र करना कला से ज़्यादा जिजीविषा है
हमारे जीवन में ज्ञान का सबसे बड़ा योगदान कि वह हमारे दुखों में अकल्पनीय इज़ाफ़ा करता है
मुझसे छीनी गई पहली चीज़ थी मेरा आध्यात्मिक विवेक उसके बाद छिनी चीज़ों की फ़ेहरिस्त ही न बना पाया
फिर ऐसा कुछ भी न बचा बची जिसकी मुझमें इच्छा हो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ करता था जिसकी मुझमें इच्छा न रही
इतने बरसों से मैं ठीक वैसा ही हूं अपने आप जैसा इसका कोई अफ़सोस न रहा
कितने दिनों से अंदाज़ा नहीं कि मेरी पिंडलियां शरीर के किसी काम भी आती हैं
मैं एक प्रतिध्वनि बना रहा जिसे अपने उत्स का भान नहीं दीवारों पहाड़ों घाटियों से टकराता और दोगुना होने के भरम में आधा होता जाता
आंख के भीतर पानी वैसे ही छटपटाता है जैसे कट गए बकरे के अंग
अत्याचार सहने में कोई तजुर्बा काम नहीं आता
मैं ऐसे बताता अपना नाम जैसे अर्थी के पीछे कोई मरने वाले का नाम बता रहा हो
उभयचर-6
उसी भीड में वे औरतें भी थीं जिन्हें चंगेज़ ख़ान अपने साथ भगा ले गया था जिन्हें इल्तुतमिश ने नगर की सीमाओं से बाहर खदेड़ दिया था जो अखाड़े में लड़ता देख कृष्ण को रीझी थीं जो बैबल की लाइब्रेरी से किताबें चुरा रोटी ख़रीदा करती थीं जो सड़कों पर नंगी थीं और शयनकक्षों में भी जिन्हें सड़क किनारे पा ट्रकवाले पैंट की जि़प खोलकर दिखाया करते थे पोलियो की शिकार वह किशोरी भी जिसे उसके एक परिजन ने ही गर्भवती कर दिया था। वहां रेल की पटरियों के किनारे बैठ निपट रही थीं औरतें। जब तेज़ी से गुज़रती कोई लोकल धड़ाधड़, वे उठ तुरंत खड़ी हो जातीं। सिग्नल न मिलने पर कोई लोकल अगर वहीं खड़ी हो जाए कुछ देर, तो वे औरतें भी उसी तरह इंतज़ार में खड़ी रहतीं। दूर बिना किसी ओट के बैठे पुरुष कभी खड़े नहीं होते थे। जिनके सामने लेडीज़ कोच आकर लग जाता, वे शर्माते, यहां-वहां देखते, तुरंत निपटकर चले जाते, तो कोई ऐसा भी होता, जो रगड़-रगड़कर तान लेता अपना लिंग। मेरी ट्रेन ऐसी जगहों से भी गुज़री, जहां पटरी के किनारे बने थे वेश्यालय। द्वार पर बैठी वेश्याएं लोकल से लटके लौंडों के इशारे पढ़ा करतीं। एक बूढ़ी हो रही वेश्या गोद में बैठी एक जवान लड़की के बाल काढ़ रही होती। हाफ़ पैंट पहना दो साल का एक बच्चा पीछे मिट्टी में खेल रहा होता, दूसरा रो रहा होता और तीसरा बार-बार लोकल के पहियों की तरफ़ बढ़ जाता, जिसे दौड़कर पकड़ती हमेशा एक ही औरत। एक स्त्री और पुरुष हिंसक तरीक़े से लडऩे लग जाते। एक नौजवान मग्गे से पानी उंड़ेल मोटरसाइकिल का टायर धोता। वाटर सप्लाई की टूटी पाइप से निकलते पानी से नहा रही होती एक औरत, पूरे कपड़े पहन। मेरी ट्रेन वीटी पर जाकर ख़त्म हो गई, जहां से मुझे बाहर सड़क पर निकल जाना था। वहां फोर्ट की दुकानों के सामने सुंदर लड़कियां किसी का इंतज़ार कर रही थीं। दुकानवाले एक बार माल देख जाने को बुला रहे थे। मेरी एक दोस्त एक बार बहुत रोई थी, मैंने उसे वीटी के सामने इंतज़ार करने के लिए कह दिया था। वह आधा घंटा वहां खड़ी थी और उतने में तीन बार उससे पूछा था अलग-अलग लोगों ने- चलती क्या? रोते हुए कहा था उसने मुझसे- तुम्हें इंतज़ार कराने की जगह चुनने की भी तमीज़ नहीं! मैं ट्रेनों से बहुत थका हुआ उतरता, बहुत थका हुआ ही चढ़ता था ट्रेनों में। घर आकर बिस्तर पर पसर जाता। टीवी में एक औरत कपड़े उतारती, एक खंभा पकड़कर नाचती, एक अपने वक्षों को इतनी तेज़ी से हिलाती कि उनके टूटकर गिर जाने का डर लगता। जेनेसिस ने बताया मुझे कि ईश्वर ने मिट्टी से बनाया आदम का पुतला, उसके नथुनों में हवा फूंक प्राण दिया उसे, फिर उसकी एक पसली तोड़ी और उससे बनाई दुनिया की पहली औरत। किसी ने नहीं बताया मुझे कि ईश्वर के पास मिट्टी कम पड़ गई थी क्या ईव को बनाने के लिए?
प्लेटफ़ॉर्म पर किताबों में सिर गड़ाए बैठी हैं कुछ। ये कवियों के प्रेम की शिकार महिलाएं हैं जो ख़ूब किताबें पढ़ती हैं और रोते-रोते कवियों को गालियां दिया करती हैं।
उभयचर-7
एक ही अर्थ है भय और इच्छा का
समय आने पर दोनों दग़ाबाज़ हो जाते हैं
बीस अक्षर तक ख़र्च नहीं हुए बीस सदियां बीतने में
यहां किसी ज्ञान को प्रवेश की अनुमति नहीं गूगल के ज्ञान को चुनौती की गुंजाइश नहीं
शब्दों पर उंगली रखें उनका उभार महसूस करने के लिए नहीं उनके अर्थ को देने दिशा
शरारती शब्दकोश हैं जो यह भाषा अपने पैरों पर नहीं चलती कितौ उनकी शरारत है जो हमेशा दूसरे के पैरों पर चलते
ओ मेरी भाषा, तू गए-गुज़रों की, घृणित तबक़ों की, लुच्चे-लंपटों की है
और वे अपनी किसी चीज़ से प्यार नहीं करते
वे भी नहीं जिन्हें नमक का निबंध कहता आया मैं अमूर्तन के अपने अनगिन क्षणों में असहाय बोली-बानी में
मिले को तजने और न मिले को भोगने की इच्छाओं से मजबूर मानता हुआ
उभयचर-8
मैं आपको 1810 की एक कहानी सुनाता हूं: इसे लंदन के पास एक गांव से हिंदुस्तान आए एक अंग्रेज़ पादरी ने 1838 में छपी एक किताब में लिखा है: वह पादरी यहां ईसाइयत का प्रचार करने और उससे पहले उसका एक रोडमैप बनाने आया था: पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गांव में एक पंडित जी सौ साल की उम्र पूरी कर मर गए: उनके गांव में शोक था: घर में नाती-पोते-परपोते तक थे: उनकी पत्नी बरसों पहले मर चुकी थी: उनकी चिता के साथ जलने वाला कोई न था: उनके बेटों ने, पड़ोसियों ने, गांव वालों ने, जवार वालों ने उनकी मौत की ख़बर दूर-दूर तक पहुंचाई: जाने कहां-कहां से औरतें घूंघट में आईं: अपना चेहरा तक न देखने दिया उनने किसी को: एक औरत कूद गई उनकी चिता में: जलती-तड़पती वह सती हो गई: फिर दूसरी: फिर तीसरी: चार दिन तक जलती रही पंडित जी की चिता: चार दिन में सती हुईं चालीस से ज़्यादा औरतें: वे सब उस बुज़ुर्ग मृतक की पत्नियां जो सौ साल के जीवन की उसकी गुप्त आय की मानिंद थीं: जिनके बारे में कोई जानता तक न था: वे ख़ुद भी एक-दूसरे से अनभिज्ञ थीं: शको-शुबहा तो यूं भी हुआ करता है: उन पर कोई बंदिश न थी सती हो जाने की: फिर भी जो जलकर अपना जीवन ख़त्म कर बैठीं: यह 19वीं सदी के शुरुआत के उत्तर प्रदेश में महिलाओं के मुक्त होने की गाथा है या स्थानीय भाषा न जानने की अंग्रेज़ पादरी की सीमा या जयदेव की गोपियां गीत-गोविंद की किसी जर्जर पांडुलिपि से निकल वहां दौड़ी आई थीं : आप यह न समझ लें कि मैं सती-प्रथा के समर्थन में हूं: पर चार दिन में चालीस महिलाएं जब एक साथ सती होती हैं तो मिलकर चालीस नहीं बस एक सवाल खड़ा करती हैं: वे चाहतीं तो कोई जान भी न पाता उनके और बुज़ुर्ग पंडित के संबंधों के बारे में: फिर क्या आया एक साथ उन सबके भीतर ऐसा: कि वे एक पल को भी न झिझकीं सार्वजनिक जल-मरकर पंडित के प्रति अपने प्रेम की इस तरह घोषणा करने से?
उभयचर-9
उसके मुख का तेज उसका नहीं है उसकी पतली कमर उसकी नहीं है उसकी लंबी टांगें उसकी नहीं हैं उसके देह की लोच भी उसकी नहीं वह ख़ुद नहीं जानती कि वह किसकी है फिर भी मदोन्मत्त कैसे चल रही है चली आ रही उसे नहीं पता वह खाई जाएगी या अधखाई फिंका जाएगी शोकेस में सजाई जाएगी या पताका-सी लहराई जाएगी उसको अपने मन का कर लेने दो क्योंकि उसे नहीं पता कि जिस मन को वह अपना मानती आ रही वह भी दरअसल उसका है नहीं और मानना तो सिर्फ़ एक अवधारणा होता है और अवधारणाओं की उत्पत्ति अनुपस्थितियों पर व्यापक ऐतबार के लिए होती हैं मसलन यही एक अवधारणा कि दुनिया बहुत ख़ूबसूरत है और मैं बहुत ख़ुश हूं और वह लेखक इसलिए महान है कि उसे पढ़कर दुनिया की ख़ूबसूरती पर यक़ीन हो जाता है
उभयचर-10
जो सहज है वही प्रकृति है जो अहसज वह ज्ञान
अच्छे-बुरे का ज्ञान ही हमारे जीवन का विष है
ईश्वर ने मेरे सबसे पुराने पुरखों को इसी दोष का दंड ही तो दिया था
मैं दंड से डरता हूं इस भेद को भूल चाने की चाह से भरा
भूलना ही सबसे प्राकृतिक क्रिया है याद रखने को कितने करतब करने पड़ते हैं
स्मृति का एक खंड इस काम के लिए सुरक्षित कि धीरे-धीरे सब कुछ भूल जाना है सज़ाएं ही क्यों मिलती हैं भूलने पर लेकिन
मैं हमेशा तुरपाइयों के पुल पर चलता रहा वस्त्रों के अंतरंग में प्रविष्ट होने का अरमानी
और ताउम्र खुले दरवाज़ों पर दस्तक देता रहा जिन मकानों को लोग छोडऩा नहीं चाहते थे लेकिन जान बचाने के लिए जो
बिना ताला लगाए भागे थे और फिर वहां कोई रहने नहीं आया
हम घर पहुंचने का जितना इंतज़ार करते हैं उससे कहीं ज़्यादा घर हमारा इंतज़ार करता है
तभी तो हमारी जगह कोई और आकर रहने लगे तो उसे अपनी उदास आवाज़ों से डराता है
दीवार और दरवाज़े और खिड़कियों के पल्लों में क्या बातें होती हैं कभी सुना है किसी ने
मेरे कुरते पर कलफ़ की तरह लगी हैं जीवन की दुर्घटनाएं
शर्ट का जो हिस्सा पैंट के भीतर रहता है उसके पास भी सुनाने को कई कहानियां हैं
मैं चेलो हूं वायलिन की भीड़ में अकेला रखा गया है मुझे
इसीलिए जब भी बोलता हूं बहुत गहरे से भर्रा कर बोलता हूं और संकोच में अपनी गूंज फैलने नहीं देता
बाख़ से लेकर विवाल्दी तक मोत्सार्ट से फिलिप ग्लास तक
जब भी मुझ पर उंगली रखी जाती है लगता है कोई छोटा बच्चा मेरे कपड़े खींचकर अपनी आवाज़ सुनाना चाहता है मुझे
नियति पर तो ख़ैर मुझे भी नहीं नीयत पर लेकिन सब ही को है संदेह
मैं जल में रहता हूं तो दुख की पूर्णता में और थल पर भी मैं वैसा ही हूं
रात को जिन पतंगों की आवाज़ आती है वे एक साथ मुझे दिलासा दे रहे होते हैं दरअसल
उभयचर-11
जो अमृत पिया उन्होंने उसका असर देह पर होता है और स्मृतियों पर
स्मृतियां बग़ीचों में रहती हैं और तहख़ानों में और नाबदानों में और दस्तानों में देह जबकि कहीं नहीं रहती सिवाय पिंड और ख़ुद-ख़ानों में
उनकी देह वैसी ही रही जैसी वे चाहते थे और स्मृतियां अक्षुण्ण
हर ब्रह्मांड में ग्यारह शिव होते हैं इतने ही विष्णु इतने ही ब्रह्मा
और छोटे देवी-देवता मिडिल मैनेजरों की तरह इफ़रात में
मृत्यु ब्रह्मा की बेटी है स्मृति भी दोनों ने क्षमा किया इन सबको फिर भी क्षमा न किया
कुछ अभिशाप छद्म-वर होते हैं जैसे कुछ वर होते हैं छद्म-अभिशाप
यानी मृत्यु इन सबकी होती रहती है कल्पांत में बस मरने के बाद ये फिर जी जाते हैं ठीक वही देह पाते हैं
और इनकी स्मृतियां भी विलुप्त नहीं होतीं पूर्वजन्मों की
इतने जन्मों के बाद भी शिव भूल पाते होंगे विष्णु के हाथों अपनी पराजय और मोहिनी के पीछे की अपनी लालसा से गतिवान दौड़
विष्णु अपने अवतारों के सभी कामों का स्पष्टीकरण ख़ुद से दे पाते होंगे या क्षीरसागर के दुर्लभ एकांत में शर्मिंदा होते होंगे
न भूल पाने के अभिशाप से ग्रस्त ये अमर देव रुआंसे कभी झुकते होंगे ब्रह्मा की बेटी स्मृति के चरणों में
और कहते होंगे- लौट जा ओ स्मृति, अब तो महापराक्रमी मेरे शारंग धनुष ने भी अपनी टंकारों को भूलना शुरू कर दिया
चेयरमैनों-मैनेजिंग डायरेक्टरों-राष्ट्राध्यक्षों की तरह काम से ज़्यादा मनोरंजनों में व्यस्त लगातार
अदना कर्मचारियों को उनके पहले नाम से पुकारते याद के ये धनवान
उन वादों को हमेशा भूल जाते जो उन कर्मचारियों से किए थे उन्होंने मंझोले देवों से निरीह भक्तों से आस में डूबी शाकों से
सुनसान में हज़ारों बरसों से खड़े पेड़ों से जो अपनी बेनूरी में भी हरे से भरे हैं
हिंदी के पो-बिज़ में हमेशा दुत्कारे जाने को अभिशप्त कुछ विषयों बिम्बों रेटरिक जैसे
उनके वादों को क़दमताल पर गुनगुनाना छोड़ो वे हारे हुए अपनी अमरता से
पेड़ो, सावधान हो जाओ तुम्हें हरा रखने की जि़म्मेदारी अब कॉर्पोरेट्स ने ले ली है
उभयचर-12
उसको इस तरह देखना कि फिर वह मुझे ही देखती रहे बार-बार
इस तरह पलटना हज़ार सफ़ों की किताब जैसे हज़ार परों वाला परिंदा उडऩे को टालता
बड़ी सावधानी से सीढिय़ां चढऩा उसे तरक़्क़ी मानना
पानी कहते ही ठंडक का आभास होना न ही अपनी-पराई प्यास का
ख़ुद को सीमित रखना एक ही ईश्वर एक ही साथी एक ही विश्वास एक ही विचार एक ही अवस्था तक
निष्ठा की एकरसता में बहुलता की ध्वनि नहीं होती
अभय-अरण्य में भय का अभिशाप
मुझमें अर्थ मत खोजना मैं किसी प्रतीक में प्रविष्ट हो नष्ट नहीं होना चाहता
यह भी एक ग़लती ही ऐसी कोई ग़लती बची नहीं जो मैंने न की हो
जीवन को फिर से जीने की शर्त बदी तो विशाल शुद्धिपत्रों को बांचते बर्बाद हो जाएंगे स्वर्ग के मुंशी
ऐसी दुनिया हो कम से कम वह जहां ज़रूरी हो किताबों को ख़र्रों को गट्ठरों को पुलिंदों को ईंटों की तरह एक-दूसरे पर लदे इंसानों को पूरा पूरा पढऩा
अंतरिक्ष के जिस हिस्से में रहता आया मैं वहां किताबों का और बाक़ी सब ही कु़छ का अधूरा होना उनके गौरव की महती शहतीर-सा रहा
पूरा होने का स्वप्न जो मिला मुझको उसे पूरा का पूरा स्थानांतरित कर दिया तुम सबमें
यह भी बस एक रिवायत के तहत
समस्त द्वीपों पर मैं ही रहता आया इस तरह अकेलापन ख़त्म हुआ द्वीपों का मेरा भी
मेरा नाम इतिहास है और इसी तरह लिखूंगा मैं आत्मकथा
उभयचर-13
वह देखो बैठा है अतीत का थॉमस रो अतीत के जहांगीर के दरबार में बैठा हो जैसे आज का आज के दरबार में
कैसे आंखें फाड़े देखता है बादशाह के कमर में सोने का पट्टा है गले में क़ीमती मालाएं और बांह पर बंधा याक़ूत
जो मुर्गी़ के अंडे से भी बड़ा है जिसकी चमक के आगे ओटोमान का सुल्तान भी शरमा जाए
कैसे शरमा रहा है जहांगीर इस तरह पराये एक मर्द को देखते अपनी ओर आंखें फाड़े लालसा में
कितना अमीर है यह बादशाह ख़ुद बादशाह को बादशाह से नीचे कुछ मंज़ूर नहीं
और हैरत है कि जो बादशाह नहीं वह भी कभी रिआया नहीं बनना चाहता
तू भी बादशाह मैं भी बादशाह आह रे बादशाह तेरी धन्य है उदारता
जब वह दुआ करता है हम सबका विनोद होता है
देखिए न, सारे लोग आईना हो गए हैं जिसको देखता हूं ख़ुद मेरे जैसा पाता हूं
यह मेरा भ्रम नहीं होमोजेनाइज़ेशन है यह कॉन्स्टीपेशन का ग्लोबलाइज़ेशन है
उभयचर-14
वह क्या अपराध था जो राजा बिक्रम से हो गया था जब वह लड़कपन में था जवानी में या प्रौढ़
किसी गुरुकुल में था जहां गुरु के प्रवचनों के बीच वह उठा था झपट मारा था उसने एक हाथ और
बग़ल से गुज़रते मेढक को दबोच निचोड़ दिया था
बित्ते-भर की मछली की पूंछ में ऐसा भारी कंकड़ बांध दिया था कि वह दस क़दम भी तैर न पाई तड़प तड़प डूब गई
या किसी सर्प की देह में कील ठोंक उल्टा टांग दिया था वृक्ष से और बेबसी भूल पक्षियों ने नोंचा था उसका मांस
क्या गुरु नाराज़ हुए थे इस पर दे दिया था शाप?
या जवानी में किसी युवती से किया था प्रेम तमाम वादों के बाद गया था भूल भूल को मानने से इंकार कर दिया था
बरसों करती रही वह युवती इंतज़ार भटकती रही जंगलों में वनों-उपवनों में नगरों में गुज़ारती दिन रात नगरपथ की धूल में लोट जाती अवसन्न
अंधेरे में किसी रथ के नीचे कुचला था उसका हाथ उसकी चोट से वह मरी थी तो क्या आह निकली थी उसके मुंह से
जो रथ चालक को न लगी सीधे बिक्रम को जा धंसी जबकि वह कहीं नहीं था चोट से मिली मृत्यु के विधान का साझीदार?
पड़ोसी राजाओं, अय्यारों, विषबालाओं, नगरवधुओं का किया टोना था या उसी युवती की आह या गुरु का शाप
कि अपने वैभव के वर्तमान में रहता राजा एक दिन सारा वर्तमान, सारा भविष्य तज देता है
और सिर्फ़ अतीत में रहने लगता है?
कौन था वह बेताल जो सिर्फ़ अतीत की बातें करता था?
क्या था बिक्रम का अतीत जो उसे हमेशा अपनी पीठ पर टांगे रहता?
क्या उन सारी कहानियों का नायक-दोषी ख़ुद बिक्रम था
या अतीत के उस समय में उसे नहीं सूझे थे उन सवालों के जवाब
जो वह एक सुदूर भविष्य में पीठ पर लदे अतीत को देता गुन लेता था
समय का पहिया सवालों के पहिए से धीमा चलता है
तो समय ख़ुद क्यों सवालों से जूझने को मचलता है?
उभयचर-15
मैं यहां बुद्धू जैसे एक शब्द के बारे में सोचता हूं : मैं यानी गीत चतुर्वेदी नहीं : मैं यानी तुम यानी वह यानी वे यानी हम यानी सब कुछ यानी कुछ नहीं यानी निरपेक्षता यानी सापेक्षता यानी काल यानी अ-काल यानी समय के हिसाब से बदलता अर्थ यानी अर्थ के हिसाब से बदलता समय : यानी बुद्धू : यानी बुद्धिमान : यानी यह शब्द जब बना था, तो उस आदमी का सिंगार था, जिसने बुद्ध की परंपरा में खड़े हो बुद्ध के शतांश से भी कम यानी बहुत कम यानी कम से कम बुद्धि के सम पर इतना तो ज्ञान पा लिया था कि पास-पड़ोस की दुनिया में बुद्धिमान कहलाया था : यानी बुद्धू उपनाम पाया था : और यह कोई नई रिवायत नहीं कि : उपहासों का सबसे आसान शिकार मूर्खताएं नहीं, ज्ञान हुआ करता है : तो जो बुद्धू था, उसे पास-पड़ोस वालों का उपहास झेलना पड़ा : और चूंकि ज्ञान में पलटवार करने की क्षमता नहीं होती, वह पहला बुद्धू चुप ही रहा : और भी लोग जो बुद्धू हुए तो पास-पड़ोस वाले डरने लगे उनसे : कि सारी दुनिया ही बुद्धू हो गई तो उस पवित्र धार्मिक ईश्वरीय संतुलन का क्या होगा : सो एक साथ कहा सबने : चलो जी हटो, बुद्धू न बनाओ : और इस तरह सदियों तक अलग-अलग अंदाज़ में कहा गया यह संवाद : जिससे बिल्कुल उलटा हो गया इसका अर्थ : यानी निरा बुद्धू : यानी काल यानी अ-काल यानी ख़तरों की सुंदरता को नष्ट कर दो यानी सुंदरता के ख़तरों को नष्ट कर दो यानी सुंदरता को नष्ट करके ख़तरनाक बना दो यानी ख़तरनाक को ऐसा सुंदर बना दो कि बुद्धू होकर उनमें घुसा व्यक्ति बुद्धू बनकर बाहर आए
उभयचर-16
बुरा भी था बहुत मैं कि चुप न रह पाता था सो भला न हो पाया किसी का वास्ते किसी के
जब भी टोकता था कि तुम ग़लत हो वे फ़ौरन वह नीतिकथा सुना देते
कि टोकने का अधिकार उसी को है जिसने कभी पाप न किया हो
इस तरह कोई टोक न पाता जो टोकता भी सो सुना न जाता इस तरह
अनवरत चलता रहा पाप का व्यवहार
मैं खोजता फिरता उस चतुर सुजान व्यापारी को जिसने बनाई होगी यह नीतिकथा
और रणनीति की तरह किसी संत के नाम पर बेच दी होगी
(यह खोजना भी तभी जायज़ जब मैंने कभी नीति की रणनीति बनाई न हो?)
मुझे यह देश बिल्कुल पसंद नहीं
और ऐसे किसी काम में मेरी साझेदारी नहीं जिससे रातोंरात मेरी पसंद का बनता जाए यह देश हो भी रहे हों ऐसे और संभव है कि मैं शामिल भी हूं
एक दिन इसे छोड़कर चला जाऊंगा ऐसा तो पता नहीं पता है यह ज़रूर मुझे छोड़ चुका है यह देश छोड़ता और हर रोज़ धीरे-धीरे तेज़तर
अगर मैं विरोधाभासों से भरा हूं तो भरा हूं
कम से कम भरा तो हूं
अपने में हूं और तुममें नहीं तो कम से कम हूं तो नहीं भी तो हूं ही
उभयचर-17
मुझे नहीं पता कौन गा रहा था
मैं सुरों आलाप ठेके और ताल के बीच अनियमित पदचाप सुन रहा था
जैसे काफ़्का को घबराहट होती थी प्राग की ज़मीन के नीचे कोई चलता रहता है लगातार
और चीज़ों से टकराता है उसका पैर तो ख़तरनाक आवाज़ होती है
मैं मेड़ों पर चुपचाप चल रहा था
गाने की आवाज़ सदियों पुराने एक अतीत से आ रही थी
यही अहसास क्या कम सुखद था कि अतीत में गाना भी था
यह एक दिन मेड़ों पर चुपचाप चलते हुए जाना मैंने
क्या फ़र्क़ पड़ता है कि कौन गा रहा था फ़र्क़ इससे है कि गाना था
उभयचर-18
पवित्रता का आग्रह हिंसा से भरा है सत्य और मौलिकता का आग्रह भी
अभिनय एक गुण-सा गुणसूत्रों में विकसित हुआ तो
हिंसा की संभावनाओं को न्यूनतम बनाने के वास्ते ही
मैं हिंदू हूं और अन्याय सहना मेरी ऐतिहासिक आदत है
जैसे 20वीं सदी में यहूदी होना पाप था 21वीं में मुसलमान
मध्ययुग की सदियों का पाप मैं इक़बालियों बयानों और तोहमत लगाने की अर्जी़ अग्रिम नामंज़ूर है जिसकी
एक अन्यमनस्क त्रिज्या अपने कोणों का बहिष्कार कर केंद्र से हटती है और अपने प्रतिरोध में गौरवान्वित जिस भी बिंदु पर टिकती है
उसे एक नए केंद्र में तब्दील कर देती है बजाए अपने त्रिज्या होने को तब्दील कर देने के
उभयचर-19
अभी-अभी सुबह हुई है यह समय सुबह से बहुत दूर है
अभी-अभी घर पहुंचा हूं यह जगह घर से बहुत दूर है
अभी जो सपना देख रहा हूं वह उन सपनों की संतान है जो अभी-अभी मरे हैं
सपनों के वैधव्य का विलाप है जिसमें रुंध जाती है कहीं पहुंचने की मेरी गति सुनने की शक्ति
जिसका शरीर 19वीं सदी के रूसी उपन्यासों की तरह था
वह औरत बरसों पहले मर चुकी है जिसे खोजता मैं यहां तक आया
वह अभी-अभी यहीं एक बच्चे की उंगली पकड़ सड़क पार करना सिखा रही थी
यह उस औरत ने बताया अभी-अभी जो यहां थी ही नहीं कभी
दूसरों से आदमी होने की उम्मीद वही करता है जो ख़ुद कभी आदमी नहीं हो पाया
लगातार इसके क्षोभ में रहता है
मनुष्य होने के लिए कलाओं की ज़रूरत नहीं जितनी अ-मनुष्य होने से बचने के लिए
उसने कहा तुम जैसे हो वैसे ही रहो मुझे आज तक समझ नहीं आया क्या और कैसा हूं मैं तो कैसे रहूं किस तरह
सिर्फ़ इतना कह सकता हूं
तुम्हारे लिए जो कविताएं नहीं लिखीं मैंने वे कविताओं से ज़्यादा हैं
जो संगीत नहीं रचा मैंने वह संगीत से ज़्यादा है
जो वचन मैंने नहीं निभाए सो इसलिए कि हमारे बीच सब कुछ ख़त्म न हो जाए
तुम तकाज़ा करती रहो और गुंजाइशें बची रहें
उभयचर-20
जब मैं कहता हूं कि अठारहवीं सदी में मनुष्य के आकार की एक लिपि हुई थी जिसे लोग तीतू मियां कहते थे : तो पढऩे-लिखने के शौक़ीन मेरे दोस्त मानते हैं : कि कुछ नया पढ़ा रहा हूं इन दिनों : मैं उसे नहीं जानता आप भी नहीं जानते और हद है कि साला गूगल भी नहीं जानता : इंटरनेट पर मैं जैसे बैठता हूं ठीक वैसे ही अपनी लाइब्रेरी में कभी बैठते होंगे बोर्हेस : और इसी तरह मनुष्य के आकार की लिपियों को पढऩे की कोशिश में खो दी होगी उन्होंने दृष्टि : बायोग्राफिए बताते हैं कि उनके पिता ने भी वैसे ही खोई थी : उनके पिता भी कुछ वैसी ही गुप्त कोशिश कर रहे थे शायद : कुछ कोशिशों की आनुवंशिकता मिटाए नहीं मिटती : जैसे मेरा एक पुरखा रीवा की रियासत में फ़ारसी में शेर पढ़ता था : मेरा परदादा संस्कृत में श्लोक बुना करता था : मेरा दादा फि़ल्मों में गीत लिखने के लिए भागकर मुंबई पहुंचा था : मेरे पिता फाउंटेन पेन से लिखी कविताओं की कापी में पानी से फैल गए अक्षरों को याद करने का प्रयास करते हैं : मैं अपनी कविताओं को खोने से बचाने के लिए हार्ड डिस्क पर नहीं रखता, ई-मेल पर अपलोड कर देता हूं : इस तरह हम सब कविता की एक आनुवंशिक कोशिश में रहे : और हम सब असफलता की आनुवंशिकता को प्रसारित करते रहे : और असफलता ही मात्र ऐसी वस्तु है जीवन में जिसे चुना नहीं जा सकता : तीतू मियां भी नहीं चुना करते थे : यह 1790 के आसपास का चरित्र है जो बंगाल का एक मशहूर पहलवान था : ज़मींदारों के बीच उठना-बैठना प्यारा शग़ल था : और ज़मींदारों में अक्सर झगड़े होते थे : जिस तरफ़ हो जाते तीतू मियां उसका जीतना तय था : तो जीत के लिए उन्हें अपनी ओर करने की भरपूर कोशिश की जाती और कई बार तो झगड़ा ही इसी कोशिश के कारण होता : ऐसे ही अदला-बदली के एक खेल में उन्हें जेल हो गई : जेल से छूटकर आए तो उन्होंने ख़ुद को बहुत बूढ़ा महसूस किया और हज पर चले गए : लौटते हुए वहाबियों से उनकी मुलाक़ात हो गई और 1857 से भी साठ साल पहले उन्होंने अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ विद्रोह कर दिया : वह चाहते थे कि उनके पुराने ज़मींदार साथी भी उनकी तरफ़ हो जाएं लेकिन उनका विद्रोह धीरे-धीरे किसान विद्रोह में परिवर्तित हो गया : और ज़मींदारों की संभावित दिलचस्पी जाती रही : सो वे ज़मींदार जो उनके इस या उस तरफ़ होने-भर से लड़ाइयां हार जाया करते थे : इस बार मिल-जुलकर उनके खि़लाफ़ हो गए और सिर्फ़ अपने इधर या उधर हो जाने-भर से लड़ाइयां जीत लेने वाले तीतू मियां जब किसानों की तरफ़ हुए तो लड़ाई हार गए : इतिहास हमेशा भाग्यवाद की उत्पत्ति करता है और इतिहास दरअसल ख़ुद भाग्यवाद के सिवाय कुछ नहीं होता : तो तीतू मियां की जीतें जिनका कोई ख़ास जि़क्र इतिहास में नहीं मिलता वे भाग्य की उत्पत्ति मानी जाती थीं : और जो उनकी हार थी जिसका कोई ख़ास जि़क्र इतिहास में नहीं मिलता वह उनकी भाग्यविधाता बन गई : हारने के बाद तीतू मियां किस ओर हुए : और जिस ओर हुए क्या उस ओर की जीत हुई थी : ऐसा कोई सवाल गूंजता ही नहीं क्योंकि उस आखि़री हार ने उनका मिथक तोड़ दिया था : जिस उम्र में यहां या वहां हो सकते थे उस उम्र को उन्होंने मौज में उड़ा दिया : और एक तरफ़ होने का उनका आखि़री फ़ैसला कितनी देर से आया उनके जीवन में : तीतू मियां ख़ुद किस आनुवंशिकता से आए यह नहीं पता : लेकिन वे सारे लोग जो देर से जागते हैं वे सब तीतू मियां की आनुवंशिकता के उत्तराधिकारी हैं यह बात शिद्दत से महसूस होती है मुझे : जो यह नहीं समझ पाते कि टूटना मिथ की नियति होती है : एक मिथ हज़ार दूसरे मिथों की रचना करता है :
उभयचर-21
मैं किसी प्रतिस्पर्धा में रहा नहीं इसीलिए सबसे आगे रहा
अकेला भी क्योंकि उन दिशाओं की ओर जाना नितांत अकेला होना था
मेरी भाषा में उत्साह का अर्थ हमेशा निद्रानिमग्न मुस्कान था
जागृत गतिशील हड़बड़ाहट को मैं उत्साह के नाम से कभी पहचान न पाया
मेरे सीने पर हाथ रख सांस को महसूस करने में धर्मभ्रष्ट होता था उनका
सो दूर से ही देखकर उन्होंने घोषणा कर दी
यह एक मुस्कराती लाश है जिसमें सोई हुई हड़बड़ी तक नहीं
भुरभुरी मिट्टी के नीचे दब जाने की या महीन जल की धारा में बह जाने की
रह जाने की इस रहनशील दुनिया में रहना है तो सहना है इसीलिए रहन-सहन जैसा युग्म बना
जहां जीने के लिए उत्साह ज़रूरी माना जाता असल में ज़रूरी क्या था
यह वे भी न बता पाए जिन्हें किताबों के ब्लर्ब में सबसे ज़रूरी कहा गया
जो कहा गया था उसमें यक़ीन किया भी नहीं मैंने मसलन बुज़ुर्गों का सम्मान करो
बार-बार कही गई यह बात
बात मानो उनकी जो तुमसे प्रेम करते हैं
गोकि यह शर्त थी न मानने पर जिसे प्रेम ख़त्म हो जाता
तो हो जाए वह प्रेम ही क्या जो तुला हो अपनी बात मनवाने पर
मैं मानता न मानता पर सब मुझे हतोत्साहित लाश मान चुके थे
मुझे गाड़ा गया तब भी मेरे चेहरे पर उत्साह थिरक रहा था
जब मैं नींद में होता हूं अपना चेहरा देख सकता हूं
उभयचर-22
अच्छी चीज़ों से जुड़ा सबसे बड़ा विकार है कि उन्हें इतनी बार दुहराया जाता है
कि उनका होना एक मामूली होना हो जाता है कि उनकी अच्छाई एक उबाऊ अच्छाई में बदल जाती है
इस तरह एक दिन उनके अच्छा होने को मानना इंकार कर दिया जाता है
जो बार-बार सुनना चाहते हैं कि मैं अच्छा आदमी हूं, वे दरअसल अच्छेपन की परिधि से बाहर बैठते हैं
मैं अपनी नींद के सिरहाने बैठ स्वप्न लिखता उनकी वर्तनियां दुरुस्त करता व्याकरण को जांचता खुला छोड़ता
और मुंह में फूंक मार उनमें जीवन भरता
सारे स्वप्न जीवन थे और सारा जीवन स्वप्न था
सारी प्रज्ञाएं दरअसल विशाल प्रकाशपिंडों से फूटती अंधेरे की किरणें थीं
मेरे स्वप्नों की मृत्यु हो गई है मेरी रातें विधवाओं-सा विलाप करती हैं
मेरी इच्छाओं को लगभग पंगु बनाते हुए
मेरे भीतर भय की पुस्तिकाएं हैं वायु का खंड-काव्य खंडित काव्य
जल का श्लोक निर्जलता का शोक
उस लाश की आंखें खुली थीं जैसे कोई कंप्यूटर को शटडाउन करना भूल गया हो
दुख का प्रपात अवसाद का बोगनवीलिया थोड़ा गुल था थोड़ा आब
जाने कौन-सा वायरस है जो उदासी में घुसता है उदासीन बना देता है
वे फूल जिनकी प्रजातियां लुप्त हो गईं इसलिए कि हमने उनके जैसा होने की कामना बंद कर दी थी
उभयचर-23
नहीं यह कोई परिकथा नहीं थी
उसका धड़ घोड़े का था पूंछ श्वानों-सी लिंग था विशालकाय और दूध से भरा थन भी लटका हुआ था
वह ऐसा उभयलिंगी ख़ुद ही नर था मादा भी महान काम-क्षम वह पतली कटि का सुंदरी
वह कर्म-भीम हज़ार हाथों का काम अकेले करता दौड़ता सरपट सुपर सोनिक विमानों से तेज़ उड़ता
वह अपनी प्रजाति का पहला था जिसकी व्यापक उत्पत्ति के लिए सरकार की मंज़ूरी दरकार थी
तब तक वह एक तस्वीर में हर दीवार पर टंगा हर कंप्यूटर पर स्क्रीनसेवर बन टहलता प्रतीक्षारत
वह बीटी मानव था जेनेटिकली मॉडीफाइड मानव-प्रजाति जिसमें
सैकड़ों अनुसंधानों के बाद जीन्स की सही मात्रा मिलाई गई थी बीसियों पशुओं से निकाल
नहीं यह कोई परिकथा नहीं थी फंतासी भी नहीं विज्ञान का चमत्कार था
मनुष्यता जगाने के बजाय मेरी पशुताओं को ही जगा रहा विज्ञान और-और पशुओं को मिला रहा मुझमें
ऐसा कहूं तो क्या यह मेरा पिछड़ा हुआ ज्ञान?
फिर भी कहता हूं यह पहले से था
यह हमारी फूहड़ अभिलाषाओं की दमित प्रजाति सिर उठा मंज़ूरी मांगती प्रतीक्षारत
मैं जितना नकारता वह उतना हुंकारता
उभयचर-24
मेरी कार के समांतर वह लड़का ऐसी रफ़्तार से चला रहा था साइकल जैसे कार को पछाड़ देगा : मैं ब्रेक दबा गाड़ी को धीमा और धीमा करता रहा : सरसराकर आगे निकल गया वह लड़का : रहम की मेहर से खिसियाया हुआ झुक कर सुस्ताने लगा : तभी मैंने रेज़ दे दी सर्रर्र से आगे निकल आया : उसे दुबारा सांस संभालने में एक और शीत-युद्ध बीत चुका होगा : कार के भीतर शोस्ताकोविच की सिंफनी थी : कार से बाहर बीथोफ़न का बहरापन
उभयचर-25
इतना आसान नहीं था सीता को त्यागने का निर्णय जितना लंका को जीतना था
जिस तरह दो सीताएं थीं एक अग्नि में छिपी हुई
उसी तरह दो राम हुए हों
और चूंकि राम की अग्नि परीक्षा कभी हुई ही नहीं
सो कभी लौट ही न पाया हो अग्नि में छुपा दूसरा राम
ऐसे ही मैं जो यहां बैठा हूं दरअसल मैं हूं ही नहीं एक और मैं था जो किसी समय जाकर आग में छुप गया
और अब बुलाने पर भी आ नहीं रहा
ऐसे ही यह जो युग है वह युग है ही नहीं जिसे होना था वह तो कहीं आग में जा पड़ा हुआ
सो इस राम इस मैं इस युग के जो फ़ैसले हैं उस राम उस मैं उस युग के भी होते कोई ज़रूरी तो नहीं
पर यह कैसे पता करें कि उस राम उस मैं उस युग को पीड़ा होती होगी इस इस इस के फ़ैसले सुनकर
आग की ओट से झांक कर देखते हुए राज़ खुल जाने के भय से सावधान
उभयचर-26
एक साथ न जाने कितने युग चल रहे हैं : पृष्ठ पर मुख्य युग का पाठ है : पृष्ठभूमि में कितने तो पढ़े हुए और भूल चुके भी पाठ हैं : मैं मुख्य युग को पढ़ता और दूसरी लाइन पर लगे एस्टेरिस्क को देख फुटनोट पर बसे दूसरे युग में पहुंच जाता : फुटनोट में भी एस्टेरिस्क लगे हैं : जिन्हें खोजता मैं अनुषंगिका में चला जाता : वहां से कालक्रम और समय-निर्देशिकाओं में : फिर कोई एस्टेरिस्क पहुंचा देता अनुक्रमणिका तक : वहां से लौटता यह सोचते हुए कि किस युग में था मैं : कहां से शुरू किया था युगों के पाठ का यह सफ़र : जो तय है कि ऐसे ही चलेगा : तो बताओ, ऐसा, कैसे चलेगा
उभयचर-27
हम आपातकाल की संतान हैं सन 75 से 77 के बीच जन्मे हम उभयचर जो
निरंकुशता का अमूर्तन अपने भीतर ले चलते रहे सदा अराजक घोड़ों की तरह ज़मीन के उबडख़ाबड़पन को नकारते
जितना विरोध करते समझौतों के लिए भी उतना ही ख़ुद को उपलब्ध बता देते
सफलताओं का निषेध कर हम असफलता की कामना करते
और एक दिन अपनी कला में व्यवहार में प्रश्नों में जीवन में उत्तर-जीवन में घर में परिवार में बाज़ार और व्यापार में
ख़ुद को असफल घोषित कर देते
उस क्षण कोई हमें याद न दिला पाता हमने जिसकी कामना की उसे पा लिया यह सफलता से अलग और क्या है
जब हम कहते दुख है हमें हमारे भीतर आग की कई लघुकथाएं हैं जो उपन्यास बनने से इंकार करतीं लगातार
वह कौन-सी नस बंद कर दी थी कि बच्चे तो पैदा हो रहे थे जो
बरसों बाद भी जब साथ आते मुट्ठी जैसी उपस्थिति न बना पाते
विभिन्न समयों में करते रहे लोलक की तरह दोलन आंदोलन की आवश्यकता को दुहराते बुज़ुर्गों संग
हमें कोई बता नहीं पाता कि नसबंदी के तमाम अभियानों के बावजूद
अपने परिवार में पांचवीं-छठी संतान थे हम
हमारा गर्भाधान बार-बार दुहराई एक भूल के तहत हुआ था या एक सुनियोजित उत्तेजक राजनीतिक विरोध के कारण?
नीम का पौधा
यह नीम का पौधा है
जिसे झुक कर
और झुक कर देखो
तो नीम का पेड़ लगेगा
और झुको, थोड़ा और
मिट्टी की देह बन जाओ
तुम इसकी छाँह महसूस कर सकोगे
इसे एक छोटी बच्ची ने पानी दे-देकर सींचा है
इसकी हरी पत्तियों में वह कड़ुआहट है जो
ज़ुबान को मीठे का महत्त्व समझाती है
जिन लोगों को ऊँचाई से डर लगता है
वे आएँ और इसकी लघुता से साहस पाएँ
आलाप में गिरह (कविता)
जाने कितनी बार टूटी लय
जाने कितनी बार जोड़े सुर
हर आलाप में गिरह पड़ी है
कभी दौड़ पड़े तो थकान नहीं
और कभी बैठे-बैठे ही ढह गए
मुक़ाबले में इस तरह उतरे कि अगले को दया आ गई
और उसने ख़ुद को ख़ारिज कर लिया
थोड़ी-सी हँसी चुराई
सबने कहा छोड़ो भी
और हमने छोड़ दिया
बुरी लड़कियाँ, अच्छी लड़कियाँ
[`मीट लोफ़´ के संगीत के लिए]
साँप पालने वाली लड़की साँप काटे से मरती है
गले में खिलौना आला लगा डॉक्टर बनने का स्वांग करती लड़की
ग़लत दवा की चार बूँदें ज़्यादा पीने से
चिट्ठियों में धँसी लड़की उसकी लपट से मर जाती है
और पानी में छप्-छप् करने वाली उसमें डूब कर
जो ज़ोर से उछलती है वह अपने उछलने से मर जाती है
जो गुमसुम रहती है वह गुमसुम होने से
जिसके सिर पर ताज रखा वह उसके वज़न से
जिसके माथे पर ज़हीन लिखा वह उसके ज़हर से
जो लोकल में चढ़ काम पर जाती है वह लोकल में
जो घर में बैठ भिंडी काटती है वह घर में ही
दुनिया में खुलने वाली सुरंग में घुसती है जो
वह दुनिया में पहुँचने से पहले ही मर जाती है
बुरी लड़कियाँ मर कर नर्क में जाती हैं
और अच्छी लड़कियाँ भी स्वर्ग नहीं जातीं
पोस्टमैन
[निर्वासन के दिनों में एक छोटे द्वीप पर नेरूदा के साथी के लिए]
अपने कमरे में लेटा पोस्टमैन है
जो नेरूदा को पहुँचाता था डाक
हालाँकि उन्हें गए अरसा बीत गया
जैसे आवाज़ करती है सुने जाने का इंतज़ार
और भटकती है हवा में अनंतकाल तक
जैसे दृश्य से जुड़ा होता है दृष्टि का इंतज़ार
घर से निकली बेटी का माँ करती है जैसे
वैसी ही बेचैनी
जिसे वह सर्द रात में ओढ़ लेता है
और तपते दिन में झल लेता है
क्या सोचा होगा महाकवि ने
जब पोस्टमैन ने की होगी जि़द
कि लिख दें वह उसकी प्रेमिका के लिए एक कविता
जिसे वह कहेगा अपनी
कि आपके पास इतनी महिलाओं की चिट्ठी आती है
कि मेरा भी मन करता है कवि बन जाऊँ
नेरूदा के भीतर जागा होगा पिता
साँसों से दुलारा होगा उसे
और उंगली थमा ले गए होंगे समंदर तक
उसे बताया होगा कि सपनों को सपनों की तरह ख़ारिज मत करो
जंगल से मिलो तो हरी पत्ती बनकर
पानी से बन चीनी का दाना
लकड़ी से काग़ज़ और मनुष्य से संगीत बनकर
और जीवन में प्रवेश कर गए होंगे
उसके जीवन में एक सूना डाकख़ाना छोड़
वह कर रहा है इंतज़ार जीवन के पार
हरियाली मिठास शब्द और सुर की अर्घ्य देता
वह क्या है जो इस कमरे में नहीं है
जिसके लिए ख़ाली है जगह
इस किताब में नहीं जो छोड़ दिया एक पन्ना सादा
इस कैसेट में जिसके एक ही तरफ़ आवाज़ है
इस शरीर में जिसके मध्य खाई-सी बन गई है
इस शख़्स में जो थकान के बाद भी भटकता है बिस्तर पर
भीतर कहीं टपकता है जल या आँख का नल
जिसके पास रोज़ गट्ठरों में पहुँचती हो चिट्ठी
वह क्यों नहीं देता उसकी चिट्ठी का जवाब
वह जागेगा तब तक सो चुकी होगी दुनिया
फिर वह अपनी अनिद्रा में कसमसाएगा
चाय हमेशा तभी क्यों उबलती है
जब आप किचन में नहीं होते
पंक्तियाँ तभी क्यों आती हैं
जब आपके पास क़लम नहीं होता
लोग तभी क्यों लौटकर आते हैं
जब आपका बदन नहीं होता
पोस्टमैन
तुम्हें नसीब हुआ निर्वासन के सबसे गुप्त द्वीप पर
दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत उंगलियों का साथ
तुमने सहेजकर रखी उस चिडि़या की आवाज़
रिकॉर्डर में डाला लहरों का कलरव
उस धुन को जो कँपाती थी नेरूदा के होंठ
और सबसे अंत में जो तुम्हारी आवाज़ थी
उसमें तुम्हारी उम्मीद को सुना जाना चाहिए
महाकवि जब मरे
तो उनके दिल में एक खाई बन गई थी
लोगों ने कहा
यह उनके देश में लोकतंत्र की मृत्यु के कारण बनी
उनकी सबसे प्यारी चिडि़या के पंख नुँच जाने के कारण
दरअसल
एक अन्याय से हुआ था वहाँ विस्फोट
और उतना टुकड़ा प्रायश्चित कर रहा है
पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए
जब नेरूदा को चीले से निष्कासित किया गया था और वह भूमध्य सागर के एक द्वीप में रह रहे थे, तब यह पोस्टमैन उनके साथ था। नेरूदा के नाम क्विंटल-क्विंटल डाक आती थी। डाकख़ाना परेशान था। उसने ख़ासकर नेरूदा के लिए इस पोस्टमैन को नियुक्त किया। नेरूदा से अच्छी घनिष्ठता हो जाने के बाद वह भी कविताएँ लिखने लगा। एक दिन नेरूदा उस द्वीप से चले गए। पोस्टमैन उन्हें ख़त लिखता रहा, पर कभी जवाब न आया। काफ़ी समय बाद उसे चिट्ठी मिली जो कि नेरूदा के सचिव ने लिखी थी। महाकवि उस द्वीप पर अपने घर में कुछ चीज़ें भूल आए थे और चाहते थे कि उनका दोस्त पोस्टमैन उन्हें वे चीज़ें भेज दे। पोस्टमैन उनके घर गया। उसे वहाँ एक टेपरिकॉर्डर भी मिला। उसमें उसने वे तमाम आवाजें दर्ज़ कीं, जो नेरूदा को पसंद थीं। चीज़ें भेजने से पहले ही पोस्टमैन ने नेरूदा के बारे में एक कविता लिखी। स्थानीय स्तर पर वह कविता काफ़ी पसंद की गई। उसे माद्रिद से बुलावा आया, उस कविता को पढ़ने के लिए। सभा में वह मंच पर पहुँचकर कविता पढ़ता, इससे पहले भगदड़ मच गई और वह मारा गया। उसकी मौत के कुछ दिन बाद ही नेरूदा उस द्वीप पर लौटे, जहाँ उनके लिए सिर्फ़ दुख और पछतावा बचे थे।
इलाही! है आस या तलास
[केनी जी के सैक्सोफ़ोन के लिए]
जिन्हें पकड़नी है पहली लोकल
वे घरों के भीतर खोज रहे हैं बटुआ
जुराबे और तस्मे
बाक़ी अपनी नींद के सबसे गाढ़े अम्ल में
कोई है जो बाहर
प्रेमकथाओं की तरह नाज़ुक घंटी की आवाज़ पर
बुदबुदाए जा रहा है राम जय-जय राम
जैसे सड़क पर कोई मश्क से छिड़क रहा हो पानी
जब बैठने की जगहें बदल गई हों
पियानो पर पड़ते हैं क्रूर हाथ और धुनों का शोर खदेड़ दे
बाक़ी तमाम साजिंदों को
जिन पत्थरों पर दुलार से लिखा राम ने नाम
उनसे फोड़ दूसरों के सिर
उन्मत्त हो जाएँ कपिगण
जब फूल सुंघाकर कर दिया जाए बेहोश
और प्रार्थनाएं गाई जाएँ सप्तक पर
यह कौन है जो सबसे गहराई से निकलने वाले
`सा´ पर टिका है
पौ फटने के पहले अंधकार में
जब कंठ के स्वर और चप्पलों की आवाज़ भी
पवित्रता से भर जाते हैं
मकानों के बीच गलियों में
कौन ढूंढ़ रहा है राम को
जिसकी गुमशुदगी का कोई पोस्टर नहीं दीवार पर
अख़बार में विज्ञापन नहीं
टी.वी. पर कोई सूचना नहीं
कोई बेनाम-सा
[उस लड़के के लिए जिसकी पहली गेंद पर मैं बोल्ड हो जाता था]
कुछ चेहरे होते हैं जिनके नाम नहीं होते
कुछ नामों के चेहरे नहीं होते
जैसे दो अलग-अलग लोग जन्मते हैं एक ही वक़्त
अलग-अलग दो ट्रेनें पहुँचती हैं स्टेशन
दो दुनियाओं में होता है कोई एक ही समय
एक चेहरा और एक नाम उभर आते हैं
पूछते हुए पहचाना क्या
वह शख़्स आता है कुछ वैसी ही रफ़्तार से
गुज़रता है मेरे पार ठंडे इस्पात की तरह
फुसफुसाता है अपना नाम
क्या यही था उसका नाम
जो मुझे याद आ रहा है
क्या यही था उसका चेहरा
कहीं वैसा मामला तो नहीं कि
मतदाता पहचान-पत्र पर चेहरा और का
नाम किसी और का
मैं उसके नाम लिखूँ अपना दुलार
जिसका वह नाम ही न हो
उसके चेहरे को छुऊँ
और उसका चेहरा ही न हो वह
हम किसका नाम ओढ़कर जाते हैं लोगों की स्मृतियों में
कोई हमें किसके चेहरे से पहचानता है
गाली देना चाहता है तो क्या
हमें, हमारे ही नाम से याद करता है
जिस चेहरे को धिक्कारता है
वह हमारे चेहरे तक पहुँचती है सही-सलामत
मेरी याद रिहाइश है ऐसे बेशुमार की
जिनके नाम नहीं हैं चेहरे भी नहीं
परछाइयों की क़ीमत इसी वक़्त पता पड़ती है
सभ्यता के खड़ंजे पर
[बॉब डिलन के गीतों के लिए]
और उस आदमी को तो मैं बिल्कुल नहीं जानता
जो सिर पर बड़ा-सा पग्गड़ हाथों में कड़ों की पूरी बटालियन
आठ उंगलियों में सोलह अंगूठी
गले में लोहे की बीस मालाएँ
और हथेली में फँसाए एक हथौड़ी
कभी भी कहीं भी नज़र आ जाता था
जिसे देख भय से भौंकते थे कुत्ते
लोगों के पास सुई नहीं होती थी
सिलने के लिए अपनी फटी हुई आँख
जो पागलपन के तमाम लक्षणों के बाद भी पागल नहीं था
जो मुस्करा कर बच्चों के बीच बाँटता था बिस्कुट
बूढ़ी महिलाओं के हाथ से ले लेता था सामान
और घर तक पहुँचा देता था
और इस भलमनसाहत के बावजूद उनमें एक डर छोड़ आता था
वह कितना भला था
इसके ज़्यादा किस्से नहीं मिलते
वह कितना बुरा था
इसका कोई किस्सा नहीं मिलता
जबकि वह हर सड़क पर मिल जाता था
वह कौन-सा ग्रह था
जो उसकी ओर पीठ किए लटका था अनंत में
जिसे मनाने के लिए किया उसने इतना सिंगार
वह कौन-सी दीवार में गाड़ना चाहता था कील
पृथ्वी के किस हिस्से की करनी थी मरम्मत
किन दरवाज़ों को तोड़ डालना था
जो हर वक़्त हाथ में हथौड़ी थामे चलता था
जिसके घर का किसी को नहीं था पता
परिवार नाते-रिश्तेदार का
जिसकी लाश आठ घंटे तक पड़ी रही चौक पर
रात उसी हथौड़ी से फोड़ा गया उसका सिर
जो हर वक़्त रहती थी उसके हाथ में
जो अपनी ही ख़ामोशी से उठता है हर बार
कपड़े झाड़कर फिर चल देता है
उसके तलवों में चुभता है इतिहास का काँटा
उसके ख़ून में दिखती है खो चुकी एक नदी
उसकी आंखों में आया है
अपनी मर्जी से आने वाली बारिश का पानी
उसके कंधे पर लदा है कभी न दिखने वाला बोझ
उसके लोहे में पिटे होने का आकार
उसके पग्गड़ के नीचे है सोचने वाला दिमाग़
सोच-सोचकर दुखी होने वाला
वह कब से चल रहा है
चलता ही जा रहा है
सभ्यता के इस खड़ंजे पर
उसे करना होगा कितना लंबा सफ़र
यह जताने के लिए कि वह मनुष्य ही है
बोलते जाओ
[उस आदमी के लिए जो अपनी क़ब्र मे ज़िंदा है]
तुम्हें विधायक का सम्मान करना था
जिसके लिए ज़रूरी था झुकना
तुम्हें हाथ पीछे बांध लेने थे
और बताना था
इज़्ज़तदार हँसी उतनी ही खुलती है
जितने में खुल न जाए इज़्ज़त का नाड़ा
जब रात के तीसरे पहर खटका होगा तुम्हारा दरवाज़ा
तब भी तुम्हारे मन में खटका नहीं हुआ होगा
ये चार मुश्टंडे तभी निकलते थे बंगले के बाहर
जब काम सफारी सूट वालों के हाथ से निकल जाता था
बताओ मुझे मैं सुन रहा हूं
यह तुम्हारी पीठ का दर्द था
या कमर की अकड़
जो तुम्हें झुकने में इतनी दिक़्क़त होती थी
सुन रहा हूँ तुम्हें जो तुम कह रहे हो-
क्या आपको नहीं लगता
हाथों को कुछ और लंबा होना चाहिए था
इनके छोटे होने के कारण
झुकना पड़ता है हर बार
पूँछ को ग़ायब नहीं होना था
जब उसके हिलने का वक़्त होता है
फुरफुरी-सी होने लगती है उसकी जगह पर
कितना नाराज़ हुआ था विधायक
विधायक हमेशा नाराज़ क्यों रहता है हमसे
वह तुमसे मांग रहा था ज़मीन
जबकि तुम कुछ पूछना चाहते थे
तुमने कहा-
जब मेरी लंबाई सवा फीट थी
तो साढ़े छह वर्ग फीट ज़मीन थी मेरे लिए
मैं पाँच फुट छह इंच का हूँ आज
और ज़मीन सिकुड़कर तीन फीट बची है
तुम क्यों नहीं रोए एक बार भी
जबकि तुम्हारे भीतर रो रही थी तीन फीट ज़मीन
या हो सकता है रोए होगे तुम अपने ही भीतर
जैसे रोया करती है ज़मीन
तुम क़दम-क़दम पर खीझते थे
चाहते थे कि तुम्हारे घर तक आए पानी
सूखा न रहे बाथरूम का नल
सिर्फ़ जन्मदिन पर ख़रीदनी पड़े मोमबत्ती
ढाई सौ लीटर की टंकी में आए ढाई सौ लीटर पानी
पर टंकी बनाने में खो ही जाते हैं बीस-पच्चीस लीटर
अक्सर नहीं आता पानी
गुल रहती है बिजली
वहाँ अभी तक एक पुल का काम चल रहा है
और मशीनों के अग़ल-बग़ल से
लोग निकाल लेते हैं गाडि़याँ
वहां पचासों इमारतें बन रही हैं
जिनमें लोन देने से मना कर देगी एल.आई.सी.
वहाँ कितनी सड़कों पर गड्ढे हैं
ये सब कितनी बड़ी चिंताएँ हैं
बजाए चिंतित होना कि
कोई रिसॉर्ट नहीं इस शहर में ढंग का
विधायक कितना हुआ नाराज़
वह हमेशा नाराज़ क्यों रहता है हमसे
तुम चिंता मत करो
मैं सुन रहा हूँ
वह तुम्हारी ज़मीन ख़रीदना चाहता था
तुम पर क़ब्ज़ा करना चाहता था
बोलते जाओ
मैं सुन रहा हूँ
तुम्हारी आवाज़ आ रही है उस ज़मीन के नीचे से
जहाँ तुम भटक रहे हो
और बार-बार कह रहे हो
तुम्हें अपनी ज़मीन नहीं देनी
काग़ज़
चारों तरफ़ बिखरे हैं काग़ज़
एक काग़ज़ पर है किसी ज़माने का गीत
एक पर घोड़ा, थोड़ी हरी घास
एक पर प्रेम
एक काग़ज़ पर नामकरण का न्यौता था
एक पर शोक
एक पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था क़त्ल
एक ऐसी हालत में था कि
उस पर लिखा पढ़ा नहीं जा सकता
एक पर फ़ोन नंबर लिखे थे
पर उनके नाम नहीं थे
एक ठसाठस भरा था शब्दों से
एक पर पोंकती हुई क़लम के धब्बे थे
एक पर उँगलियों की मैल
एक ने अब भी अपनी तहों में समोसे की गंध दाब रखी थी
एक काग़ज़ को तहकर किसी ने हवाई जहाज़ बनाया था
एक नाव बनने के इंतज़ार में था
एक अपने पीलेपन से मूल्यवान था
एक अपनी सफ़ेदी से
एक को हरा पत्ता कहा जाता था
एक काग़ज़ बार-बार उठकर आता
चाहते हुए कि उसके हाशिए पर कुछ लिखा जाए
एक काग़ज़ कल आएगा
और इन सबके बीच रहने लगेगा
और इनमें कभी झगड़ा नहीं होगा
सुसाइड बॉम्बर
कविता को उपयोगितावादी दृष्टिकोण से देखना मुझे नहीं पसन्द।
फिर भी मन में कई बार आता है ख़याल
कि कोई मानव-बम
बटन दबाना भूल जाए
कि उस समय वह कविता पढ़ रहा था
उसके बाद अपना बम उतार कर
ख़ुद एक मानव-कविता बन जाए
ताकि दूसरे बम उसे पढ़ सकें।
बड़े पापा की अंत्येष्टि
फूल चढ़ाने के बाद उस लाश को घेरकर हम खड़े हो गए थे।
सम्मान से सिर झुकाए. उसका चेहरा निहारते।
हममें से कई को लगा कि पल-भर को लाश के होंठ हिले थे।
हाँ, हममें से कई को लगा था वैसा, पर हम चुप थे।
एक ने उसके नथुनों के पास उँगली रखकर जाँच भी लिया था।
उसके दाह के हफ़्तों बाद तक लोगों में चर्चा थी कि
मरने के बाद भी उस लाश के होंठ पल-भर को हिले थे।
कैफ़े चलाने वाली एक बुढि़या, जो रिश्ते में उसकी कुछ नहीं लगती थी,
बिना किसी भावुकता के उसने एक रोज़ मुझसे कहा,
मुझे विश्वास था, वह आएगा, मरने के बाद भी आएगा
अपना अधूरा चुम्बन पूरा करने।
53 साल पहले जब वह 17 का था
गली के पीछे टूटे बल्ब वाले लैम्पपोस्ट के नीचे
एक लड़की का चुम्बन अधूरा छोड़कर भाग गया था।
यासुजिरो ओज़ू की फिल्मों के लिए
अगर तुम एक देश बनाते, तो वह एक मौन देश होता : तुम्हारे रचे शब्दकोश मौन होते : तुमने कभी देवताओं के आगे हाथ नहीं जोड़ा : ताउम्र तुम एक दृश्य रचते रहे : उनमें तुम मानसिक आँसुओं की तरह अदृश्य रहे
अर्थ की हर तलाश अन्तत: एक व्यर्थ है : इस धरती पर जितने बुद्ध, जितने मसीहा आए, इस व्यर्थ को कुछ नए शब्दों में अभिव्यक्त कर गए : माँ की तरफ़ से मैं पीड़ा का वंशज हूँ : पिता की तरफ़ से अकेलेपन का : जब भी मैं घर की दहलीज़ लाँघता हूँ : मैं एकान्त का इतिहास लाँघता हूँ
गुप्त प्रेमी मरकर कहाँ जाते हैं?
सड़क की तरफ़ खुलने वाली तुम्हारी खिड़की के सामने
लगे खम्भे पर बल्ब बनकर चमकते हैं
उनके मर चुकने की ख़बर भी बहुत-बहुत दिनों तक
नहीं मिल पाती
मृत्यु का स्मरण
तमाम अनैक्य का शमन करता है
मेरी आँखें मेरे घुटनों में लगी हैं
मैंने जीवन को हमेशा
विनम्रता से झुककर देखा
थके क़दमों से एक बूढ़ा सड़क पर चला जा रहा
वह विघटित है
उसके विघटन का कोई अतीत मुझे नहीं पता
मैं उसके चलने की शैली को देख
उसके अतीत के विघटन की कल्पना करता हूँ
वह अपनी सज़ा काट चुका है
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि जज साहब उसे
बाइज़्ज़त बरी कर दें
जो कहते हैं भविष्य दिखता नहीं, मैं उन पर यक़ीन नहीं करता
मैं अपने भविष्यों को सड़कों पर भटकता देखता हूँ
उसी तरह मेरे भविष्य
मुझे देख अपना
अतीत जान लेते हैं
मैं वह शहर हूँ जिसकी वर्तनी व उच्चारण
बार-बार बदल देता
एक ताक़तवर राजा
यह मेरी देह का भूगोल है :
मैं आईने के सामने जब भी निर्वस्त्र खड़ा होता हूँ,
मुझे लगता है,
मैं एक भौगोलिक असफलता हूँ
मेरी भाषा, मेरा भविष्य
शहर के बाहर पुल के नीचे कचरे के ढेर के बीचोंबीच
मेरी भाषा का सबसे बूढ़ा कवि चाय में डबलरोटी डुबोकर खाता है
उसने अफ़ज़़ाल से भी पहले शायरी ईजाद की थी
सारे देवता जूँ बनकर उसकी दाढ़ी में रहते हैं
उसके शरीर पर जितने बाल हैं, वे उसकी अनलिखी कविताएँ हैं
वह उँगलियों से हवा में शब्द उकेरता है
इस तरह, हर रात अपने अतीत को लिखता है एक चिट्ठी
जो लिफ़ाफ़ा खोजने से पहले ही खो जाती है
मरने से पहले एक बार
कम से कम एक बार
उस औरत का सही नाम और चेहरा याद करना चाहता है
जो किसी ज़माने में उसकी कविताओं की किताब
अपने तकिए के नीचे दबाकर सोती थी
सबसे प्रसिद्ध प्रश्न ‘मैं क्या हूँ’ के कुछ निजी उत्तर
रोटी बेलकर उसने तवे पर बिछाई
और जिस समय उसे पलट देना था रोटी को
ठीक उसी समय एक लड़की का फ़ोन आ गया.
वह देर तक भूले रहा रोटी पलटना.
मैं वही रोटी हूँ.
एक तरफ़ से कच्ची. दूसरी तरफ़ से जली हुई।
उस स्कूल में कोई बेंच नहीं थी, कमरा भी नहीं था विधिवत
इमारत खण्डहर थी.
बारिश का पानी फ़र्श पर बिखरा था और बीच की सूखी जगह पर
फटा हुआ टाट बिछाकर बैठे बच्चे हिन्दी में पहाड़ा रट रहे थे.
सरसराते हुए गुज़र जाता है एक डरावना गोजर
एक बच्चे की जाँघ के पास से.
अमर चिउँटियों के दस्ते में से कोई दिलजली चिउँटी
निकर के भीतर घुसकर काट जाती है.
नहीं, मैं वह स्कूल नहीं, वह बच्चा भी नहीं, गोजर भी नहीं हूँ
न अमर हूँ, न चिउँटी.
मैं वह फटा हुआ टाट हूँ।
गोल्ड स्पॉट पीने की ज़िद में घर से पैसे लेकर निकला है एक बच्चा.
उसकी क़ीमत सात रुपए है. बच्चे की जेब में पाँच रुपए।
माँ से दो रुपए और लेने के लिए घर की तरफ़ लौटता बच्चा
पाँच बार जाँचता है जेब में हाथ डाल कि
पाँच का वह नोट सलामत है.
घर पहुँचते-पहुँचते उसके होश उड़ जाते हैं कि जाने कहाँ
गिर गया पाँच रुपए का वह नोट। वह पाँच दिन तक रोता रहा।
हाँ, आपने सही समझा इस बार,
मैं वह पाँच रुपए का नोट हूँ.
उस बच्चे की आजीवन सम्पत्ति में
पाँच रुपए की कमी की तरह मैं हमेशा रहूँगा।
मैं भगोने से बाहर गिर गई उबलती हुई चाय हूँ.
सब्ज़ी काटते समय उँगली पर लगा चाक़ू का घाव हूँ.
वीरेन डंगवाल द्वारा ली गई हल्दीराम भुजिया की क़सम हूँ
अरुण कोलटकर की भीगी हुई बही हूँ.
और…
और…
चलो मियाँ, बहुत हुआ.
अगले तेरह सौ चौदह पन्नों तक लिख सकता हूँ यह सब.
‘मैं क्या हूँ’ के इतने सारे उत्तर तो मैंने ही बता दिए
बाक़ी की कल्पना आप ख़ुद कर लेना
क्योंकि मैं जि़म्मेदारी से भागते पुरुषों की
सकुचाई जल्दबाज़ी हूँ, अलसाई हड़बड़ाहट हूँ
चलते-चलते बता दूँ
ठीक इस घड़ी, इस समय
मैं दुनिया का सबसे सुन्दर मनुष्य हूँ
मेरे हाथ में मेरे प्रिय कवि का नया कविता-संग्रह है।
असंबद्ध
कितनी ही पीड़ाएँ हैं
जिनके लिए कोई ध्वनि नहीं
ऐसी भी होती है स्थिरता
जो हूबहू किसी दृश्य में बंधती नहीं
ओस से निकलती है सुबह
मन को गीला करने की जि़म्मेदारी उस पर है
शाम झाँकती है बारिश से
बचे-खुचे को भिगो जाती है
धूप धीरे-धीरे जमा होती है
क़मीज़ और पीठ के बीच की जगह में
रह-रहकर झुलसाती है
माथा चूमना
किसी की आत्मा चूमने जैसा है
कौन देख पाता है
आत्मा के गालों को सुर्ख़ होते
दुख के लिए हमेशा तर्क तलाशना
एक ख़राब किस्म की कठोरता है
जिसके पीछे पड़े कुत्ते
उसके बाल बिखरे हुए थे, दाढ़ी झूल रही थी
कपड़े गंदे थे, हाथ में थैली थी…
उसके रूप का वर्णन कई बार
कहानियों, कविताओं, लेखों, ऑफ़बीट ख़बरों में हो चुका है
जिनके आधार पर
वह दीन-हीन किस्म का पगलेट लग रहा था
और लटपट-लटपट चल रहा था
और शायद काम के बाद घर लौट रहा था
जिस सड़क पर वह चल रहा था
उस पर और भी लोग थे
रफ्तार की क्रांति करते स्कूटर, बाइक्स
और तेज संगीत बाहर फेंकती कारें थीं
सामने रोशनी से भीगा संचार क्रांति का शो-रूम था
बगल में सूचना क्रांति करता नीमअंधेरे में डूबा अखबार भवन
बावजूद उस सड़क पर कोई क्रांति नहीं थी
गड्ढे थे, कीचड़ था, गिट्टियाँ और रेत थीं
इतनी सारी चीजें थीं पर किसी का ध्यान
उस पर नहीं था सिवाय वहाँ के कुत्तों के
वे उस पर क्यों भौंके
क्यों उस पर देर तक भौंकते रहे
क्यों देर तक भौंककर उसे आगे तक खदेड़ आए
क्यों उसकी लटपट चाल की रफ्तार को बढ़ा दिया उन्होंने
क्यों चुपचाप अपने रास्ते जा रहे एक आदमी को झल्ला दिया
जिसमें संतों जैसी निर्बलता, गरीबों जैसी निरीहता
ईश्वर जैसी निस्पृहता और शराबियों जैसी लोच थी
किसी का नुकसान करने की क्षमता रखने वालों का
एकादश बनाया जाए तो जिसे
सब्स्टीट्यूट जैसा भी न रखना चाहे कोई
ऐसे उस बेकार के आदमी पर क्यों भौंके कुत्ते
कुत्तों का भौंकना बहुत साधारण घटना है
वे कभी और किसी भी समय भौंक सकते हैं
जो घरों में बंधे होते हैं दो वक़्त का खाना पाते हैं
और जिन्हें शाम को बाकायदा पॉटी कराने के लिए
सड़क या पार्क में घुमाया जाता है
भौंककर वफादारी जताने की उनकी बेशुमार गाथाएँ हैं
लेकिन जिनका कोई मालिक नहीं होता
उनका वफादारी से क्या रिश्ता
जो पलते ही हैं सड़क पर
वे कुत्ते आखिर क्या जाहिर करने के लिए भौंकते हैं
ये उनकी मौज है या
अपनी धुन में जा रहे किसी की धुन से उन्हें रश्क है
वे कोई पुराना बदला चुकाना चाहते हैं या
टपोरियों की तरह सिर्फ बोंबाबोंब करते हैं
ये माना मैंने कि
एक आदमी अच्छे कपड़े नहीं पहन सकता
वह अपने बदन को सजाकर नहीं रख सकता
कि उसका हवास उससे बारहा दगा करता है
लेकिन यह ऐसा तो कोई दोष नहीं
प्यारे कुत्तो
कि तुम उनके पीछे पड़ जाओ
और भौंकते-भौंकते अंतरिक्ष तक खदेड़ आओ
आखिर कौन देता है तुम्हें यह इल्म
कि किस पर भौंका जाए और
किससे राजा बेटा की तरह शेक हैंड किया जाए
जो अपने हुलिए से इस दुनिया की सुंदरता को नहीं बढ़ा पाते
ऐसों से किस जन्म का बैर है भाई
यह भौंकने की भूख है या तिरस्कार की प्यास
या यह खौफ कि सड़क का कोई आदमी
तुम्हारी सड़क से अपना हिस्सा न लूट ले जाए
जिसके पीछे पड़े कुत्ते
उसे तो कौम ने पहले ही बाहर का रास्ता दिखा दिया था
उसे दो फलांग और छोड़ आना किसकी सुरक्षा है
उसके हाथ में थैली थी
जिसमें घरवालों के लिए लिया होगा सामान
वह सोच रहा होगा अगले दिन की मज़दूरी के बारे में
किसी खामख़्याली में उससे पड़ गया होगा एक क़दम गलत
और तुम सब टूट पड़े उस पर बेतहाशा
जिस पर व्यस्त सड़क का कोई आदमी ध्यान नहीं देता
फिर भी हमारे वक्त के नियंताओं के निशाने पर
रहता है जो हर वक़्त
कुत्तो, तुम भी उस पर ध्यान देते हो इतना
कि वह उसे निपट शर्मिंदगी से भिड़ा दे
और यह अहसास ही अपने आप में कर देता है कितना निराश
कि जिसके पीछे पड़ते हैं कुत्ते
वह उसी लायक होता है
डेटलाइन पानीपत
वाटरलू पर लिखी गई हैं कई कविताएँ
पानीपत पर भी लिखी गई होंगी
कार्ल सैंडबर्ग ने तो एक कविता में
घास से ढाँप दिया था युद्ध का मैदान
यहाँ घास नहीं है, यक़ीनन कार्ल सैंडबर्ग भी नहीं
किसी न किसी को तो दुख होगा इस बात पर
कुछ युद्ध याद रखे जाते हैं लंबे समय तक
कई उत्सव भुला दिए जाते हैं अगली सुबह
मुझे पता नहीं
पुरातत्ववेत्ताओं को इसमें कोई रुचि होगी
कि खोदा जाए यहाँ का कोई टीला
किसी कंकाल को ढूंढ़ा जाए और पूछा जाए जबरन
तुम्हारे जमाने में घी कितने पैसे किलो था
कितने में मिल जाती थी एक तेज़धार तलवार
कुछ लड़ाइयाँ दिखती नहीं
कुछ लोग होते हैं आसपास पर दिखते नहीं
कुछ हथियारों में होती ही नहीं धार
कुछ लोग शक्ल से ही बेहद दब्बू नजर आते हैं
जो लोग मार रहे थे उन्हें नहीं दिखते थे मरने वाले
हुकुम की पट्टियाँ थीं चारों ओर निगल जाती हैं रोशनी को
युद्ध के लिए अब जरूरी नहीं रहे मैदान
गली, नुक्कड़ और मुहल्लों का विस्तार हो गया है
कोई अचरज नहीं
बिल्डिंग के नीचे लोग घूम रहे हों लेकर हथियार
कोई अचरज नहीं
दरवाजा तोड़कर घर में घुस आएँ लोग
कुछ लोग हैं जो जिए जाते हैं
उन्हें नहीं पता होता जिए जाने का मतलब
कुछ लोग हैं जो बिल्कुल नहीं जानते
एक इंसान के लिए मौत का मतलब
घास नहीं ढाँप सकती इस मैदान को
घास भी जानती है
हरियाली पानी से आती है, ख़ून से नहीं
युद्ध का मैदान अब पर्यटनस्थल है
कुछ लोग घर से बनाकर लाते हैं खाना
यहाँ अखबारों पर रख खाते हैं
एक-दूसरे के पीछे दौड़ते हैं बॉल को ठोकर मारते
अंताक्षरी गाते-गाते हँसने लगते हैं
कोई चीख किसी को सुनाई नहीं देती
बच्चे यहाँ झूला झूल रहे हैं
वे देख लेंगे ज़मीन के नीचे झुककर एक बार
यकीनन बीमार पड़ जाएंगे
इतना तो नही
मैं इतना तो नहीं चला कि
मेरे जूते फट जाएँ
मैं चला सिद्धार्थ के शहर से हर्ष के गाँव तक
मैं चंद्रगुप्त अशोक खुसरो और रजिया से ही मिल पाया
मेरे जूतों के निशान
डि´गामा के गोवा और हेमू के पानीपत में हैं
अभी कितनी जगह जाना था मुझे
अभी कितनों से मिलना था
इतना तो नहीं चला कि
मेरे जूते फट जाएँ
मैंने जो नोट दिए थे, वे करकराते कड़क थे
जो जूते तुमने दिए, उनने मुँह खोल दिया इतनी जल्दी
दुकानदार!
यह कैसी दग़ाबाजी है
मैं इस सड़क पर पैदल हूँ और
खुद को अकेला पाता हूँ
अभी तल्लों से अलग हो जाएगा जूते का धड़
और जो मिलेंगे मुझसे
उनसे क्या कहूंगा
कि मैं ऐसी सदी में हूँ
जहाँ दाम चुकाकर भी असल नहीं मिलता
जहाँ तुम्हारे युगों से आसान है व्यापार
जहाँ यूनान का पसीना टपकता है मगध में
और पलक झपकते सोना बन जाता है
जहाँ गालों पर ढोकर लाते हैं हम वेनिस का पानी
उस सदी में ऐसा जूता नहीं
जो इक्कीस दिन भी टिक सके पैरों में साबुत
कि अब साफ़ दिखाने वाले चश्मे बनते हैं
फिर भी कितना मुश्किल है
किसी की आँखों का जल देखना
और छल देखना
कि दिल में छिपा है क्या-क्या यह बता दे
ऐसा कोई उपकरण अब तक नहीं बन पाया
इस सदी में कम से कम मिल गए जूते
अगली सदी में ऐसा होगा कि
दुकानदार दाम भी ले ले
और जूते भी न दे?
फट गए जूतों के साथ एक आदमी
बीच सड़क पैदल
कितनी जल्दी बदल जाता है एक बुत में
कोई मुझसे न पूछे
मैं चलते-चलते ठिठक क्यों गया हूँ
इस लंबी सड़क पर
क़दम-क़दम पर छलका है ख़ून
जिसमें गीलापन नहीं
जो गल्ले पर बैठे सेठ और केबिन में बैठे मैनेजर
के दिल की तरह काला है
जिसे किसी जड़ में नहीं डाला जा सकता
जिससे खाद भी नहीं बना सकते केंचुए
यहाँ कहाँ मिलेगा कोई मोची
जो चार कीलें ही मार दे
कपड़े जो मैंने पहने हैं
ये मेरे भीतर को नहीं ढँक सकते
चमक जो मेरी आँखों में है
उस रोशनी से है जो मेरे भीतर नहीं पहुँचती
पसीना जो बाहर निकलता है
भीतर वह ख़ून है
जूते जो पहने हैं मैंने
असल में वह व्यापार है
अभी अकबर से मिलना था मुझे
और कहना था
कोई रोग हो तो अपने ही ज़माने के हकीम को दिखाना
इस सदी में मत आना
यहाँ खड़िए का चूरन खिला देते हैं चमकती पुर्जी में लपेट
मुझे सैकड़ों साल पुराने एक सम्राट से मिलने जाना है
जिसके बारे में बच्चे पढ़ेंगे स्कूलों में
मैं अपनी सदी का राजदूत
कैसे बैठूंगा उसके दरबार में
कैसे बताऊंगा ठगी की इस सदी के बारे में
जहाँ वह भेस बदलकर आएगा फिर पछताएगा
मैं कैसे कहूंगा रास्ते में मिलने वाले इतिहास से
कि संभलकर जाना
आगे बहुत बड़े ठग खड़े हैं
तुम्हें उल्टा लटका देंगे तुम्हारे ही रोपे किसी पेड़ पर
मैं मसीहा नहीं जो नंगे पैर चल लूँ
इन पथरीली सड़कों पर
मैं एक मामूली, बहुत मामूली इंसान हूँ
इंसानियत के हक़ में खामोश
मैं एक सज़ायाफ़्ता कवि हूँ
अबोध होने का दोषी
चौबीसों घंटे फाँसी के तख़्त पर खड़ा
एक वस्तु हूँ
एक खोई हुई चीख़
मजमे में बदल गया एक रुदन हूँ
मेरे फटे जूतों पर न हँसा जाए
मैं दोनों हाथ ऊपर उठाता हूँ
इसे प्रार्थना भले समझ लें
बिल्कुल
समर्पण का संकेत नहीं
सुब्हान अल्लाह
रात में हम ढेर सारे सपने देखते हैं
सुबह उठकर हाथ-मुँह धोने से पहले ही भूल जाते हैं
हमारे सपनों का क्या हुआ यह बात हमें ज्यादा परेशान नहीं करती
हम कहने लगे हैं कि हमें अब सपने नहीं आते
हमारी गफ़लत की अब उम्र होती जा रही है
हम धीमी गति से सड़क पार करते बूढ़े को देखते हैं
हम जितनी बार दुख प्रकट करते हैं
हमारे भीतर का बुद्ध दग़ाबाज होता जाता है
मद्धिम तरीके से सुनते हैं नवब्याही महिला सहकर्मी से ठिठोली
जब पता चलता है
शादी के बाद वह रिश्वत लेने लगी है
हमारे भीतर एक मूर्ति के चटखने की दास्तान चलती है
वे कौन-सी चीज़ें हैं, जिनने हमें नज़रबंद कर लिया है
हम झुटपुटे में रहते हैं और अचरज करते हैं
अंधेरे और रोशनी में कैसा गठजोड़ है
हमारे खंडहरों की मेहराबों पर आ-आ बैठती है भुखमरी
हमारे तहखानों से बाहर नहीं निकल पाती छटपटाहट
पानी से भरी बोतल में जड़ें फैलाता मनीप्लांट है हमारी उम्मीद
हम सबके पैदा होने का तरीका एक ही है
हम सब अद्वितीय तरीकों से मारे जाएंगे, तय नहीं
कौन-सी इंटीग्रेटेड चिप है जो छिटक गई है दिमाग से
क्या हमारे जोड़ों को ग्रीस की जरूरत है?
अपनी उदासी मिटाने के लिए हममें से कई के शहरों में
होता है कोई पुराना बेनूर मंदिर, नदी का तट
समुद्र का फेनिल किनारा या पार्क की निस्तब्ध बेंच
या घर में ही उदासी से डूबा कोई कमरा होता है अलग-थलग
जिसकी बत्तियाँ बुझा हम धीरे-धीरे जुदा होते हैं जिस्म से
हम पलक झपकते ही दुनिया के किसी भी
हिस्से में साध सकते हैं संपर्क
तुर्रा यह कि कहा जाता है इससे विकराल असंवाद पहले नहीं रहा
कुछ लोगों को शौक है
बार-बार इतिहास में जाने का
दूध और दही की नदियों में तैरने का
उन्हें नहीं पता दूध के भाव अब क्या हो रहे हैं
वे हमारी पशुता पर खीझते हैं
उन्हें बता दूँ ये बेबसी
हमारे लिए सिर्फ गोलियाँ बनी हैं
बंदूक की
और दवाओं की
फिर भी वह कौन-सी ख़ुशी है जो हमारे भीतर है अभी भी
कि हर शाम हम मुस्कराते हैं
अपने बच्चों को खिलाते हैं और दरवाज़ा बंद कर सो जाते हैं
कुछ आड़ी-तिरछी लकीरों और मुर्दुस रंगों वाले
मॉडर्न आर्ट सरीखे अबूझ चेहरों पर नाचता है मसान का दुख
चिता
फीलगुड
कोशिश करता हूँ किसी भी अभिव्यक्ति से
किसी को भी ठेस न पहुंचे
जिस पेशे में हूँ मैं
वहां किसी गुनाह की तरह
कठिन शब्दों को छाँट देता हूँ
कठिन वाक्यों को बना देता हूँ सरल
जबकि हालात दिन-ब-दिन और कठिन होते जाते
मैं समय का संपादन नहीं कर पाता
कितना खुशकिस्मत हूँ
एक जीवन में कितनी स्त्रियों का प्रेम मिला
कितने मित्रों कितने बच्चों का
प्रेम के हर पल में जन्म लेता हूँ
पल-बढ़कर प्रेम की ही किसी आदिम गुफा में
छिप जाता हूँ धीरे-धीरे मृत होता
कंधे झिड़क कहता हूँ ख़ुद से
एक जीवन और चाहिए पाया हुआ प्रेम लौटने को
घृणा की वर्तनी में कोई ग़लती नहीं होती मुझसे
नफ़रत में नुक्ता लगाना कभी नहीं भूलता
काया
तुम इतनी देर तक घूरते रहे अंधेरे को
कि तुम्हारी पुतलियों का रंग काला हो गया
किताबों को ओढा इस तरह
कि शरीर कागज़ हो गया
कहते रहे मौत आए तो इस तरह
जैसे पानी को आती है
वह बदल जाता है भाप में
आती है पेड़ को
वह दरवाज़ा बन जाता है
जैसे आती है आग को
वह राख बन जाती है
तुम गाय का थान बन जाना
दूध बनकर बरसना
भाप बनकर चलाना बड़े-बड़े इंजन
भात पकाना
जिस रास्ते को हमेशा बंद रहने का शाप मिला
उस पर दरवाज़ा बनकर खुलना
राख से मांजना बीमार माँ की पलंग के नीचे रखे बासन
तुम एक तीली जलाना
उसे देर तक घूरना
बच्ची की कहानी
उसकी कहानी में कोई भी आ सकता है
पर उसका जाना वह ख़ुद तय करती है
गुड़ियों से खेलती है क्ले से फूल बनाती है
ज़्यादातर समय आप उसे कंप्यूटर पर या काग़ज़ पर
चित्र बनाते या रंग भरते देख सकते हैं
उसकी साँस से फूलती है उसकी कहानी।
प्रश्न अमूर्त
शकरपारे की लम्बी डली को छाँपे चिपकी चीटियाँ हैं
या सन 47 में बँट गई ज़मीन के उस पार से आती ठसाठस कोई ट्रेन
सबसे बड़ा छल इतिहास के साथ हुआ
इतिहास के नाम पर इतिहास के खिलाफ़
याददाश्त बढ़ाने की दवा बहुत बन गईं
कोई ऐसी दवा बनाओ जिससे भूल जाया जाए सब
उस प्रोटॉन की मज़बूरी समझो
जो चाहे जितनी बगावत कर ले
रहना उसे इलेक्ट्रॉन के दायरे में ही है
निरन्तर भटकन की अभिशप्त गति से
अपने ही पानी में डूब गया
कोई बदबख़्त समुद्र
एक दिन जब मर चुकी होगी मेरी भाषा
किस भाषा में पढ़ोगे तुम मेरी भाषा का मर्सिया
इसकी तस्वीर पर टँगे फूल को कहोगे
किस भाषा में कौन-सा फूल?
मुंबई नगरिया में मेरा ख़ानदान
पिता पचपन के हैं पैंसठ से ज़्यादा लगते हैं
पच्चीस का भाई पैंतीस से कम का
क्या इक्कीस का मैं तीस-बत्तीस का दिखता हूं
माँ-भाभी भी बुढ़ौती की देहरी पर खड़े
बिल्कुल छोटी भतीजी है ढाई साल की
लोग पूछते हैं पाँच की हो गई होगी
पता नहीं क्या है परिवार की आनुवांशिकता
जीन्स डब्ल्यूबीसी हीमोग्लोबीन हार्मोन्स ऊतक फूतक सूतक
क्या कम है क्या ज़्यादा
धूप में रखते हैं बदन का पसीना
या पहले-चौथे ग्रह में बैठे वृद्ध ग्रह का कमाल
चिकने चेहरों से भरी इस मुंबई नगरिया में
मेरा ख़ानदान कितना संघर्षशील है सो असुंदर है
अभी कल ही तो भुजंग मेश्राम पूछकर गया था
उम्र से अधिक दिखना औक़ात से अधिक दिखना होता है क्या?
अभी कल ही तो पूछ कर गया था भुजंग मेश्राम
माईला… ये पचास साल का लोकतंत्र
उन लोगों को कायको पांच हज़ार का है लगता?
(१९९८)
मालिक को ख़ुश करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने वाला मानवीय दिमाग़ और अपनी नस्ल का शुरुआती जूता
राजकुमारी महल के बाग़ में विचर रही थीं कि एक काँटे ने उनके पैरों के साथ गुस्ताख़ी की और बजाय उसे दंडित करने के राजकुमारी बहुत रोईं और बहुत छटपटाईं और बड़े जतन से उन्हें पालने वाले राजा पिता तड़पकर रह गए और महल के गलियारों और बार्जों में खड़े हो धीरे-धीरे बड़ी हो रही राजकुमारी के पैरों से किसी तरह काँटा निकलवाया और हुक्मनामा जारी करवाया कि राज्य में काँटों की गुस्ताख़ी हद से ज़्यादा हो गई है और उन्हें समाप्त करने की मुहिम शुरू कर दी जाए पर योजनाओं के असफल रहने और मुहिमों के बाँझ रह जाने की शुरुआत के रूप में ढाक बचा और ढाक के तीन पात बचे तो राजा ने आदेश दिया कि सारे राज्य की सड़कों और महल के पूरे हिस्से की ज़मीन पर फूलों की चादर बिछा दी जाए पर चूँकि फूल बहुत जल्दी मुरझा जाते हैं सो यह संभव न हुआ तो राजा ने अपने एक भरोसेमंद मंत्री को इसका इलाज निकालने की ज़िम्मेवारी दी तो उस मंत्री ने बजाय सारी ज़मीन पर फूल बिछाने के राजकुमारी के पैरों पर ध्यान जमाया और नर्म कपड़े की कई तहों को चिपकाकर मोटी-सी कोई चीज़ बनाई और राजकुमारी को पहना दी जिसके पार काँटा क्या काँटे का बाप भी नहीं पहुंच सकता था और इस तरह एक आदिम जूते का निर्माण हुआ हालाँकि जूतेनुमा एक चीज़ बनाने वाले उसे मंत्री क़िस्म के मानव ने राजकुमारी क़िस्म की किसी महिला के पैरों को काँटों से बचाने के लिए इलाज ढूंढ़ने से पहले ख़ुद भी कई बार काँटों को भुगता था और दूसरे तमाम लोगों के भी काँटा चुभते देखा था पर नौकर की जमात का वह व्यक्ति मात्र स्वामीभक्ति के पारितोषिक के लिए ही जूता बना पाया।
तस्वीर में आमिर ख़ान के साथ मेरा एक रिश्तेदार
बहुत ख़ुश लगा पड़ा था और यहाँ-वहाँ देखते थोड़ा गर्व भी
अग़ल-बग़ल बैठे थे जो थोड़ा-थोड़ा कनखियों से झाँक लेते तो
सामने वाला पूरा का पूरा झुक पड़ा था और वह भी छिपाने का छद्मप्रयास कर रहा था
जभी मैंने पूछा उस आदमी ने एक बार भी ना नहीं किया
तुम बता रहे हो जितनी आसानी से वह आ गया था तुम्हारे पास
वह पूरा मुँह खोलकर बोला हाँ
और जितनी बातें वह बता चुका था फिर-फिर बताने लगा
कैसा लगा तुम्हें उस वक़्त
क्या तुम्हारे लिए घड़ी बंद हो गई थी
उसने बताया मैंने उसे बहुत नज़दीक से देखा
और अनमनी नींद के सपने की तरह छुआ
उसकी हथेलियों से पसीना रिसता है
हमेशा मुस्कुराता है और ऑटोग्राफ़ बुक्स का सम्मान करता है
मेरे रिश्तेदार के कंधे पर हाथ रखे आमिर ख़ान शांत था
मेरे रिश्तेदार की ख़ुशी चार बाई छह के फोटो से छलक रही थी
वहाँ एक फ़ोटोग्राफ़र था जो तुरंत फ़ोटो निकालकर दे रहा था
मुझसे पहले कइयों ने खिंचवाया था
मुझसे मिलते समय वह बिल्कुल घर का लगा
वह ईसा नहीं था पर उसके भीतर एक ईसा था
सही है जब भी जाऊँगा उसके पास वह नहीं पहचानेगा मुझे
कुत्ते उसके दरवाज़े पर हुल्लड़ करेंगे
यह तस्वीर दिखाने के बावजूद मुझे घर में नहीं घुसने देंगे
पर यही क्या कम है कि उसने तस्वीर खिंचवाई मेरे साथ
मेरा वह रिश्तेदार अपना स्टेशन आने के बाद लोकल से उतर गया
तो जाते-जाते अपनी प्रसन्नता फिर बाँच गया वह
तस्वीर के साथ क़ीमती ख़ुशियाँ लाया है
जिनकी छाँह में चांदी की पट्टी पर नाचेगा
लोकल के धक्कों में लय ढूंढेगा
कुछ दिनों तक सिर्फ़ एक पल में जिएगा
(१९९८)
एक इंच
कोई एक नाम ज़रूर होगा
इस पेड़ का
मेरे लिए पेड़ सिर्फ़ एक पेड़ है
फूल सिर्फ़ एक फूल
रास्ते ने ओढ़ रखी है
पेड़ से झरते फूलों की चादर
मैं इस रस्ते पर चलता हूँ
कहाँ रखूँ अपने क़दम
काश! मैं ज़मीन से एक इंच भी ऊपर चल सकता
इन अनाम फूलों को बचा लेता
बोलने से पहले
बुद्धिमान लोगों की तरह बोलो
नहीं तो ऐसा बोलो
जिससे आभास हो कि तुम बुद्धिमान हो
बोलने से पहले
उन तलवारों के बारे में सोचो
जो जीभों को लहर-लहर चिढ़ाती हैं
यह भी सोचो
कि कर्णप्रिय सन्नाटे में तुम्हारी ख़राश
किसी को बेचैन कर सकती है
कई संसारों में सिर्फ़ एक बात से आ जाता है भूडोल
खुलो मत
लेकिन खुलकर बोलो
अपने बोलों को इस तरह खोलो
कि वह उसमें समा जाए
वह तुममें समाएगा तो तुम बच जाओगे
बोलने से पहले ख़ूब सोचो
फिर भी बोल दिया तो भिड़ जाओ बिंदास
तलवारें टूट जाएँगी
गैंग
अलग-अलग जगहों से आए कुछ लोगों का एक गैंग है
इसमें पान टपरी पर खड़े शोहदे हैं,
मंदिरों-मस्जिदों पर पेट पालते कुछ धर्मगुरु हैं,
कुछ लेखक हैं, थोड़े अजीब-से लगने वाले रंगों का
प्रयोग करने वाले कुछ चित्रकार और
हर ख़बर पर दाँत चियार देने वाले कुछ पत्रकार
नाक पर चश्मा चढ़ाए बैठे मैनेजर हैं जो
हर बात में ढूंढ ही लेते हैं बाज़ार
कुछ बहुत रचनात्मक क़िस्म के लोग हैं
जो बताते हैं ठंडे की बोतल का एक घूँट सारे रिश्ते-नातों से ऊपर है
कुछ बड़े ही दीन-हीन क़िस्म के हैं
चौबीस घंटे जिनकी चिंता का मरकज़ अरोड़ा साहब की सेलरी है
कुछ लोग सातों दिन बड़े प्रसन्न रहते हैं
और समझ में नहीं आता कि दुनिया में दुख क्यों है
और कुछ की ख़ुशी केवल वीकेंड में आती है
चिकने गालों और मजबूत भुजाओं वाले कुछ नट हैं
एक ख़ास ढब वाली स्त्रियाँ हैं जिनके घरों में रोते हुए शिशु नहीं होते
जो टारगेट पर दागी गई मिसाइल की तरह सीधे आ गिरते हैं
कइयों के पास दुनिया को व्यवस्थित करने के हज़ारों फंडे हैं
कुछ लोगों के होठों पर शिवानंद स्वामी के काव्य बराबर रहते हैं
और कुछ लोगों के गले में कुमार शानू के गीत
यह गैंग अपने समय की बड़ी प्रतिभाओं का प्लेटफॉर्म नंबर वन है
यह गैंग किसी भी हँसते-खेलते देश के सीने पर सवार हो जाता है
और किसी भी अंगड़ाती नदी पर डंडा मार उसे छितरा सकता है
यह गैंग मुझे जितनी बार बुलाता है
मेरा दिल धक् से रह जाता है
जीसस की कीलें
तुम्हारी तीसरी आंख की बरौनी टूटकर तुम्हारी तीसरी आंख के पानी में तैर रही है
स्याही से दीर्घजीवी होते हैं उकेरकर लिखे गए शब्द
आत्मा की भुजा पर बना गोदना तुम्हारा आकार है
पेड़ पर उगे पत्ते चिडिय़ा के गीत हैं
इन दिनों कोई चिडिय़ा तुम्हारे पेड़ पर नहीं बैठती
और मैंने भी तुम्हें ख़त लिखना बंद कर दिया है
तुमसे दूरी तुमसे मोह है
मोहित मैं प्रागैतिहास में रहता हूं
अकेला लेटा संकरी एक गुफा में उंगलियों से खुरचकर भित्तिचित्र बनाता हूं
पुरातत्व की शौक़ीन तुम अपनी लाइब्रेरी में जिस खुरच को सराहती हो
उसमें मेरे घिसे हुए नाख़ूनों का बुरादा भी है
लोकल ट्रेन की चौथी सीट की तरह अंड़सा हुआ हूं तुम्हारी स्मृति में
जो बीत गया वह भूत है मेरे सपनों में भूतों का डेरा है
कुछ देर के लिए किसी पुराण में चला जाऊं ले आऊं वह क्षुरप्र बाण जो
सौ चंद्रों वाली क्रूरता की ढाल और तुम्हारी उपेक्षा की तलवार
सबको एक वार में चीरकर रख दे
मैं भय का आराधक हूं
शक्ति भी भय देती है जो जितना शक्तिशाली वह उतना भयभीत है
मुझे चूमो नख से चूमो शिख तक चूमो आदि से चूमो अंत तक चूमो
मैं सादि हूं सांत हूं सो अनंत तक नहीं करनी होगी तुम्हें कोशिश
इसी देह में कहीं मेरे खुलने की कुंजी है
हर अंग चूमो हर कोई चूमो
एक सच्चा चुंबन पर्याप्त है मुझे खोल देने के लिए
पर ऐन सही जगह पर सच्चा चुंबन अत्यंत दुर्लभ घटना है
जीसस को चुभी कीलें टीस के पौधों के रूप में उगती हैं
रक्त की धार हरी लताओं की तरह
मुझ पर लिपटती ऊपर चढ़ती हैं
(पर) लोक-कथा
एक समय की बात है । एक बीज था । उसके पास एक धरती थी । दोनों प्रेम करते थे । बीज, धरती की गोद में लोट-पोट होता,हमेशा वहीं बने रहना चाहता । धरती उसे बांहों में बांधकर रखती थी और बार-बार उससे उग जाने को कहती । बीज अनमना था । धरती आवेग में थी । एक दिन बरसात हो गई और बीज अपने उगने को स्थगित नहीं कर पाया । अनमना उगा और एक दिन उगने में रम गया । अन्यमनस्कता भी रमणीय होती है । ख़ूब उगा और बहुत ऊँचा पहुँच गया। धरती उगती नहीं, फैलती है । पेड़ कितना भी फैल जाए, उसकी उगन उसकी पहचान होती है ।
दोनों बहुत दूर हो गए । कहने को तो जड़ें धरती में रहीं, लेकिन जड़ को किसने पेड़ माना है आज तक? पेड़ तो वह है जो धरती से दूर हुआ । उससे चिपका रहता, तो घास होता ।
पेड़ वापस एक बीज बनना चाहता है । धरती अपना आशीष वापस लेना चाहती है। पेड़ को दुख है कि अब वह वापस कभी वही एक बीज नहीं बन पाएगा । हाँ,हज़ारों बीजों में बदल जाएगा। धरती ठीक उसी बीज का स्पर्श कभी नहीं पा सकेगी। पेड़ उसके लिए महज़ एक परछाईं होगा ।
जीवन में हर चीज़ का विलोम नहीं होता । रात एक अँधेरा दिन नहीं होती, और दिन एक उजली रात नहीं होता । चाँद एक ठँडा सूरज नहीं, और सूरज एक गरम चाँद नहीं है । धरती और आसमान कहीं नहीं मिलते, कहीं भी नहीं ।
मैं पेड़ के बहुत क़रीब जाता हूँ और उससे कहता हूँ, सुनो, तुम अब भी एक बीज हो । वही वाला बीज । क़द के मद में मत आना। तुम अभी भी उगे नहीं हो तुम सिर्फ़ धरती की कल्पना हो
सारे पेड़ कल्पना में उगते हैं । स्मृति में वे हमेशा बीज होते हैं
पंचतत्व
मेरी देह से मिट्टी निकाल लो और बंजरों में छिड़क दो
मेरी देह से जल निकाल लो और रेगिस्तान में नहरें बहाओ
मेरी देह से निकाल लो आसमान और बेघरों की छत बनाओ
मेरी देह से निकाल लो हवा और यहूदी कैम्पों की वायु शुद्धकराओ
मेरी देह से आग निकाल लो, तुम्हारा दिल बहुत ठंडा है
निविद
हमने साथ चलना शुरू किया था
हमने साथ रहना शुरू किया था
धीरे-धीरे मैं अलग होता चला गया
एक कमरा मैंने ऐसा बना लिया है
जहाँ अब किसी का भी प्रवेश निषिद्ध है
जो भी इसे पढ़े, कृपया इसे आरोप नमाने
यह महज़ एक आत्म-स्वीकृति है
उससे दूर रहो जिसमें हीनभावना होती है
तुम उसकी हीनता को दूर नहीं कर पाओगे
ख़ुद को श्रेष्ठ बताने के चक्कर में वह रोज़ तुम्हारी हत्याकरेगा
मैं समंदर के भीतर से जन्मा हूँ
लेकिन मुझे सी-फूड वाले शो-केस में मत रखना
बुरादे में बदले दूध की तरह रहूंगा तुम्हारी आलमारी में
जब जी चाहे घोलकर पी जाना
द्रव में बदला हुआ प्रकाश हूँ
तुम्हारी नाभि मेरे होने के द्रव से भरी है
मैं सूखकर कस्तूरी बन गया
सांस की धुन पर गाती है मेरी आत्मा
मेरा हृदय घड़ी है स्पंदन तुम्हारे प्रेम की टिक-टॉक
तुम्हारे बालों की सबसे उलझी लट हूँ
जितना खिंचूंगा उतना दुखूँगा
इस देश के भीतर वह देश हूं मैं जो हज़ारों साल पहले खो गया
इस देह के भीतर वह देह हूं मैं जो हर अस्थि-कास्थि को खा गया
तुम जागती हो निविद जागता है
तुम दोनों के साथ सारे देव जागते हैं
रात-भर चूमता रहता तुम्हारी पलकों को नींद के होंठों से
रात-भर तुम्हारी हथेली पर रेखता रहा
सिलवटों से भरा है तुम्हारी आंख का पानी
फेंके हुए सारे कंकड़ अब वापस लेता हूँ
परिभाषा
पेड़ एक निर्वाक प्रतीक्षालय है
मौन एक नाद है जिसके पीछे अनहद नदी बहती है
तुम्हारे कंठ का स्वर गांडीव से निकला वत्सदंत है
जो मृत्यु नहीं देता, जीवन के पार भी भटकन ही देता है
गोया जीवन कम है मेरे लिए जीवन की भटकन भी कम है
बाल दोमुँहे थे बातें भी दोमुँही
क्या देव क्या दानव मेरे इतिहास में एक मुँह से किसी का काम ही न चल पाया
सारे देव प्रेम करते थे प्रेम का एक भी देव नहीं
वासना का देव था जो अपनी देह ही न सँभाल पाया
अगर मैं हवा से तुम्हारी देह बनाकर तुम्हें चूमता हूँ बेतहाशा
तो यह मेरी परम्परा का सर्वश्रेष्ठ पालन है
मिथिहास एक अन्यमनस्क परिहास है
हर परिभाषा फिर भी एक नई आशा है
अल्प-विराम, अर्ध-विराम और तमाम विराम चिह्न जोड़ लिए
सुंदर वाक्य शब्दों से बनता है संकेतों से नहीं
मेरी गठरी में बहुत सितारे हैं
लेकिन आसमान की मिल्कियत परिंदों को कभी मिली नहीं
मुझे मत दोषो शब्द बनकर तुम्हें ही आना था
मेरी गठरी को खोल आसमान बन तन जाना था
मन पर कौमार्य की कोई झिल्ली नहीं होती
मन भी देव है एक से ज़्यादा मुँह वाला
हद है प्रेम हमेशा मुसीबत की तरह आया
कोई मुसीबत कभी प्रेम की तरह नहीं आई
किसी ने कहा यह गूँगे का गुड़ है
दरअसल यह मुहावरा ही अभिव्यक्ति के खि़लाफ़ सबसे गहरी साजि़श है
हाथ की रेखाओं पर कभी रेल चला दी
तो तय है सब आपस में टकराकर नष्ट हो जाएंगी
ऐसा सर्वनाश जंक्शन किसी नक़्शे में भी नहीं मिलेगा
अंत के अनेक विकल्प हैं
सारे सिकंदर घर लौटने से पहले ही मर जाते हैं
सारे सिकंदर घर लौटने से पहले ही मर जाते हैं
दुनिया का एक हिस्सा हमेशा अनजीता छूट जाता है
चाहे कितने भी होश में हों, मन का एक हिस्सा अनचित्ता रहता है
कितना भी प्रेम कर लें, एक शंका उसके समांतर चलती रहती है
जाते हुए का रिटर्न-टिकट देख लेने के बाद भी मन में हूक मचती है कम से कम एक बार तो ज़रूर ही
कि जाने के बाद लौट के आने का पल आएगा भी या नहीं
मैंने ट्रेनों से कभी नहीं पूछा कि तुम अपने सारे मुसाफि़रों को जानती हो क्या
पेड़ों से यह नहीं जाना कि वे सारी पत्तियों को उनके फ़र्स्ट-नेम से पुकारते हैं क्या
मैं जीवन में आए हर एक को ज्ञानना चाहता था
मैं हवा में पंछियों के परचिह्न खोजता
अपने पदचिह्नों को अपने से आगे चलता देखता
तुममें डूबूँगा तो पानी से गीला होऊंगा ना डूबूंगा तो बारिश से गीला होऊँगा
तुम एक गीले बहाने से अधिक कुछ नहीं
मैं आसमान जितना प्रेम करता था तुमसे तुम चुटकी-भर
तुम्हारी चुटकी में पूरा आसमान समा जाता
दुनिया दो थी तुम्हारे वक्षों जैसी दुनिया तीन भी थी तुम्हारीआंखों जैसी दुनिया अनगिनत थी तुम्हारे ख़्यालों जैसी
मैं अकेला था तुम्हारे आँसू के स्वाद जैसा मैं अकेला थातुम्हारे माथे पर तिल जैसा मैं अकेला ही था
दुनिया भले अनगिनत थी जिसमें जिया मैं
हर वह चीज़ नदी थी मेरे लिए जिसमें तुम्हारे होने का नाद थाफिर भी स्वप्न की घोड़ी मुझसे कभी सधी नहीं
तुम जो सुख देती हो, उनसे जिंदा रहता हूँ
तुम जो दुख देती हो, उनसेकविता करता हूँ
इतना जिया जीवन, कविता कितनी कमकर पाया
मंथरता से थकान
मेरी त्वचा की पार्थिव दरारें तुम्हारी अनुपस्थिति का रेखांकन हैं
प्रेम तुम्हारी नीति थी मुझ पर राज करना तुम्हारी इच्छा
मैं तुम्हारी राजनीति से मारा गया
मेरे हृदय में हर पल मृत्यु का स्पंदन है
बाँह के पास एक नस उसी लय पर फड़कती है जिस पर दिल धड़कता है
इतने बरसों में इतने शहरों में इतने मकानों में इतनी तरहों सेरहता आया मैं
कि कई बार सुबह उठने पर यह अंदाज़ा नहीं होता कि
बाईं ओर को बाथरूम पड़ता है या बाल्कनी
इस महासागर में जितनी भी बूँदें हैं वे मेरे जिए हुए पल हैं
जितनी बूंदें छिपी हैं अनंत के मेघ और अमेघ में
दिखने पर वे भी ठीक ऐसी ही दिखती हैं
मैं बलता रहा दीप की बाती की तरह
जिसमें डूबा था वह तैल मुझे छलता रहा
भरी दोपहर बीच सड़क जलाया तुमने मुझे
मुझे कमतर जताने की तुम्हारी इस विनम्रता को चूमता हूं मैं
तुम आओ और मेरे पैरों में पहिया बन जाओ
इस मंथरता से थक चुका हूँ मैं
थकने के लिए अब मुझे गति चाहिए
समाधि
मेरे भीतर समाधिस्थ हैं
सत्रह के नारे
सैंतालिस की त्रासदी
पचहत्तर की चुप्पियां
और नब्बे के उदार प्रहार
घूंघट काढ़े कुछ औरतें आती हैं
और मेरे आगे दिया बाल जाती हैं
गहरी नींद में डूबा एक समाज
जागने का स्वप्न देखते हुए
कुनमुनाता है
गरमी की दुपहरी बिजली कट गई है
एक विचारधारा पैताने बैठ
उसे पंखा झलती है
न नींद टूटती है न भरम टूटते हैं
दूध के दाँत
देह का कपड़ा
देह की गरमी से
देह पर ही सूखता है
– कृष्णनाथ
मैंने जिन-जिन जगहों पे गाड़े थे अपने दूध के दांत
वहां अब बड़े-खड़े पेड़ लहलहाते हैं
दूध का सफ़ेद
तनों के कत्थई और पत्तों के हरे में
लौटता है
जैसे लौटकर आता है कर्मा
जैसे लौटकर आता है प्रेम
जैसे विस्मृति में भी लौटकर आती है
कहीं सुनी गई कोई धुन
बचपन की मासूमियत बुढ़ापे के
सन्निपात में लौटकर आती है
भीतर किसी खोह में छुपी रहती है
तमाम मौन के बाद भी
लौट आने को तत्पर रहती है हिंसा
लोगों का मन खोलकर देखने की सुविधा मिले
तो हर कोई विश्वासघाती निकले
सच तो यह है
कि अनुवाद में वफ़ादारी कहीं आसान है
किसी गूढ़ार्थ के अनुवाद में बेवफ़ाई हो जाए
तो नकचढ़ी कविता नाता नहीं तोड़ लेती
मेरे भीतर पुरखों जैसी शांति है
समकालीनों जैसा भय
लताओं की तरह चढ़ता है अफ़सोस मेरे बदन पर
अधपके अमरूद पेड़ से झरते हैं
मैं जो लिखता हूँ
वह एक बच्चे की अंजुलियों से रिसता हुआ पानी है