गर्वोक्ति
न ऊधो का लिया
न माधो का दिया
न किसी का भला
न बुरा ही किया
चलती रही
साँस जब तक
जिया
इसी तरह
देव-दुर्लभ मनुष्य पर
उसने विभूषित किया।
ताश का खेल-1
दहले को
दहला देता है ग़ुलाम
ग़ुलाम की सिट्टी-पिट्टी
ग़ुम कर देती है बेगम
नज़रें झुका लेती है बेगम
बादशाह के सामने
हद तो तब हो जाती है
जब सब पर भारी हो जाता है एक्का
लेकिन वह भी हो जाता है बेरंग
रंग की दुग्गी के सामने
सदियों से हम
खेल रहे हैं यही खेल।
ताश का खेल-2
एक दिन जोकर ने तोड़ी
सदियों की अपनी चुप्पी
सारे पत्ते हो गए स्तब्ध, अवाक
सुनकर उसकी मांग–
‘मुझे भी मुख्य धारा में शामिल करो,
कब तक मुझे रखोगे अलग-थलग
तुम जो कर सकते हो
क्या वह मैं नहीं कर सकता
हर जगह बख़ूबी
मैं अपनी भूमिका निभाने लगा हूँ
सभ्यों की महफ़िल में आने-जाने लगा हूँ
ग़ौर से देखो मान-सम्मान पाने लगा हूँ’
बेगम ने सहमति में सिर हिलाया
बादशाह को भी यह ख़्याल
बहुत पसन्द आया
ग़ुलाम हुक्मतामिला के लिए
मानो पहले से तैयार बैठा था
जोकर ख़ुश हो गया
आजकल वही करता है
हार-जीत का फ़ैसला।