मुक्तक
धूप जैसे गन्ध में, आकर नहाये।
रूप जैसे छन्द में, आकर नहाये।
नाद लय में याद यों डूबी हुई-
पीर के आनन्द में, गाकर नहाये।
दो दिगन्तों का मिलन ही ब्याह है।
दो बसन्तों का मिलन ही ब्याह है।
दो वियोगों का मिलन परिणय मधुर-
दो अनन्तों का मिलन ही ब्याह है।
प्राण तुम फिर, एक दृष्टि निहार दो।
मौन के घट से अमिय की धार दो।
तुम लजाती प्रीति की मुस्कान से ही-
जिन्दगी की सब थकान उतार दो।
एक क्षण दे दो किसी को, मुस्कुरा दो।
इस तरह से आग का पीना सिखा दो।
ज़िंदगी मुस्कान से सूनी नहीं हो
इस तरह हमको ज़रा जीना सिखा दो।
आर्य वीरों से
1.
उषा खड़ी रक्त-अभिषेक करने के लिए,
खगों के स्वरों में सुनो जाग्रति की टेर है।
समय समीर झकझोर रही बार-बार,
दीर्घ सूत्रता में हुई येगों की अबेर है।
जब रहा तब रहा बुद्धि का ही फेर बन्धु,
झूठ बात है कि रहा काल का ही फेर है।
भाग का ही फेर बता, चादरें न तानों मित्र,
उठो-उठो, अरे अँगड़ाई की ही देर है।
2.
विश्व की निराश दृष्टि तुम को निहारती है,
नूतन प्रकाश भरो दीपक अमन्द का।
वेद का प्रकाश, चेतना की चन्द्रहास लिये,
गाते हुए गीत मीत सविता के छन्द का।
कूद पड़ो युद्ध हेतु तम की अनी को चीर,
ध्वस्त करो अनय अभाव व्यूह-द्वन्द का।
बाल बाँका कौन कर सकता है तुम्हारा बन्धु,
दायाँ हाथ शीश पर है ऋषी दयानन्द का।
पाषाण यहाँ पूजे जाते
पाषाण यहाँ पूजे जाते, पर यह भूखे भगवान नहीं।
भूखे मानव छटपटा रहे, दो-दो दाने को आज जहाँ,
मन्दिर में मौजें उड़ा रहे, पण्डे, महन्त, महाराज वहाँ,
फल, फूल, अन्न सड़ रहे, किन्तु भूखे, बेबस रो रहे इधर,
सतरंगी परियाँ नाच रहीं, हाला के प्याले पिये उधर,
प्रेयसि के गीत सुने जाते, क्रन्दन सुनने को कान नहीं।
पाषाण यहाँ पूजे जाते, पर यह भूखे भगवान नहीं।
दिन में दस-बार भोग लगते, नहलाके जिनको बार-बार,
प्रस्तर प्रतिमायें सोने के आभूषण पहने चार-चार,
जीवित जर्जर कंकालों को दो बूँद नहीं पानी मिलता,
वे ठिठुर-ठिठुर ही मर जाते, कोई न कफन दानी मिलता,
मखमल पाषाण पहनते हैं, मानव-तन को परिधान नहीं।
पाषाण यहाँ पूजे जाते, पर यह भूखे भगवान नहीं।
वर्षा, सर्दी बीता करती, सड़कांे के वृक्षों के नीचे,
कोरी रातें जाया करतीं, केवल आँखें मींचे-मींचे,
ग्रीषम की लपटें चलती हैं जिनका उर जला जलाने को,
सन् सन् झंझा के झोंके नित दौड़ा करते हैं खाने को,
पाषाणों को प्रासाद बनें, पर मानव को स्थान नहीं।
पाषाण यहाँ पूजे जाते, पर यह भूखे भगवान नहीं।
कवि बैठे बैठे देख रहे, पाखण्ड, ढोंग, ये अनाचार,
पूजा सिकी हो बतलादो, जग के मानव को एक बार,
जिससे यह पूजक पहचानें, वह पूजनीय भगवान कहाँ,
जिसकी पूजा करने में ही होगा उनका कल्याण यहाँ,
इस जग को पथ बतलादो कवि, जिसको निज पथ का ज्ञान नहीं।
पाषाण यहाँ पूजे जाते, पर यह भूखे भगवान नहीं।
वह देखो जीर्ण झोपड़ी में, भगवान आज भूखा बैठा,
है पेट पीठ से लगा हुआ, कंकाल लिये सूखा बैठा,
जिसमें श्वासें ही शेष रहीं, जठरानल जिसके है धधक रहा,
वह आज पुजापा पाने को, भगवान! तुम्हारा ललक रहा,
लो आज उसे तुम पहचानों जिसकी तुमको पहचान नहीं।
पाषाण यहाँ पूजे जाते, पर यह भूखे भगवान नहीं।
अनय और हम आमने सामने हैं
अनय और हम आमने सामने हैं।
समय और हम आमने सामने हैं।
सृजन-ध्वंस कुरुक्षेत्र में आ खड़े हैं-
प्रलय और हम आमने सामने हैं।
एक दीप बुझ गया
एक दीप बुझ गया
(निर्बाण पर्व पर)
एक दीप बुझ गया, इसी दिन अनगिन जीवन दीप जलाकर।
वह प्रकाश लेकर आया था, अन्धकार कैसे रह पाता,
ऐसा-वैसा दीप न था जो एक झकोरे में बुझ जाता,
झंझानिल भी मुग्ध रह गया, जिसकी दीपित ज्योति-शिखा पर,
एक दीप बुझ गया, इसी दिन अनगिन जीवन दीप जलाकर।
विघ्नों ने दी जिसे बधाई, शूलों ने सत्कार किया था,
दुनियाँ के दुर्व्यवहारों ने, विष का ही उपहार दिया था,
अवरोधों की अन्ध दृष्टि ने, स्वागत किया उपल बरसाकर,
एक दीप बुझ गया, इसी दिन अनगिन जीवन दीप जलाकर।
उत्पातों की आग देखकर जिसे हो गयी पानी-पानी
रोड़े भी रो पड़े भूल पर, मृत्यु प्राण लेकर पछतानी,
पत्थर भी पत्थर न रह सके, फूल बनें, सिर से टकराकर,
एक दीप बुझ गया, इसी दिन अनगिन जीवन दीप जलाकर।
तिमिर ध्वस्त कर वेद विभा से, जला दीप सा निर्भय होकर,
जिसकी इच्छा पूर्ण हो गयी, प्रभु की इच्छा में लय होकर,
नयी ज्योति भर रहा विश्व में, शत-शत दीपों में मुस्काकर,
एक दीप बुझ गया, इसी दिन अनगिन जीवन दीप जलाकर।
सुधा सब पीने को तैयार
सुधा सब पीने को तैयार, गरल का ग्राहक कौन बनें?
भोग के लिये मचा संघर्ष, त्याग से भाग रहा संसार,
घ्रणा का देकर नित प्रतिदान विश्व सब माँग रहा है प्यार,
फूल सब चुनने को तेयार, शूल का चाहक कौन बनें?
सुधा सब पीने को तैयार, गरल का ग्राहक कौन बनें?
बना कर इस धरती को नर्क, स्वर्ग के सपने रहे निहार,
जगत से जीवन बाजी हार, माँगते अमरों से उपहार,
बाँटने को स्वर्गिक सौगात, द्वेष का दाहक कौन बनें?
सुधा सब पीने को तैयार, गरल का ग्राहक कौन बनें?
मनुज का दुबक रहा देवत्व, प्रबलता पर पशुता का राज,
स्वत्व के पंजे में कर्तव्य, सिसकता भरता आहें आज,
समझकर अपना कुछ दायित्व, भार का वाहक कौन बनें?
सुधा सब पीने को तैयार, गरल का ग्राहक कौन बनें?