देखते ही गोली दागो
ध्वस्त कर दो
कविता के उन सारे ठिकानों को
शब्दों और तहरीरों से लैस
सारे उन प्रतिष्ठानों को
जहां से प्रतिरोध और बौद्धिकता
की बू आती हो…
कविता अब कोई बौद्धिक विलास नहीं
रोमियो और जुलिएट का रोमांस
या दुखों का अंतहीन विलाप नहीं
यह बौद्धिकों के हाथों में
ख़तरनाक हथियार बन रही है…
यह हमारी व्यवस्था की गुप्त नीतियों
आम आदमी की आकांक्षाओं
और स्वप्नों के खण्डहरों
मलबों-ठिकानों पर प्रेत की तरह मंडराने लगी है
सत्ता की दुखती रगों से टकराने लगी है…
समय रहते कुछ करो
वरना हमारे दु:स्वप्नों में भी यह आने लगी है…
बहुत आसान है इसकी शिनाख्त
देखने में बहुत शरीफ
कुशाग्र और भोली-भाली है
बाईं ओर थोड़ा झुक कर चलती है
और जाग रहे लोगों को अपना निशाना बनाती है
सो रहे लोगों को बस यूं ही छोड़ जाती है…
इसलिए
कवियों, बौद्धिकों और जाग रहे आम लोगों को
किसी तरह सुलाए रखने की मुहिम
तेज़ कर दो…
हो सके तो शराब की भटि्ठयों
अफीम के अनाम अड्डों और कटरों को
पूरी तरह मुक्त
और उन्हीं के नाम कर दो…
सस्ते मनोरंजनों, नग्न प्रदर्शनों
और अश्लील चलचित्रों को
बेतहाशा अपनी रफ्तार चलने दो…
संकट के इस कठिन समय में
युवाओं और नव-बौद्धिकों को
कविता के संवेदनशील ठिकानों से
बेदखल और महरूम रखो…
तबतक उन्हें इतिहास और अतीत के
तिलिस्म में भटकाओ
नरमी से पूछो उनसे…
क्या दान्ते की कविताएं
विश्वयुद्ध की भयावहता और
यातनाओं को कम कर सकीं…
क्या गेटे नाज़ियों की क्रूरताओं पर
कभी भारी पड़े…
फिर भी यकीन न हो
तो कहो पूछ लें खुद
जीन अमेरी, प्रीमो लेवी या रुथ क्लगर से…
ताद्युश बोरोवस्की, कॉरडेलिया एडवार्डसन
या नीको रॉस्ट से
कि ऑश्वित्ज़, बिरकेनाऊ, बुखेनवाल्ड
या डखाऊ के भयावह यातना-शिविरों में
कविता कितनी मददगार थी!
कवि ऑडेन से कहो… लुई मैकनीस से कहो…
वर्ड्सवर्थ और कीट्स से कहो
कि कविता के बारे में
उनकी स्थापनाएं कितनी युगांतकारी हैं…
पोएट्री मेक्स नथिंग हैपेन…
ब्यूटि इज़ ट्रुथ, ट्रुथ ब्यूटि…
पोएट्री इज़ स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पावरफुल फ़ीलिंग्स…
मीनिंग ऑफ अ पोएम इज़ द बीइंग ऑफ अ पोएम…
बावजूद इसके कि कविता के बारे में
महाकवियों की ये दिव्य स्थापनाएं
पूरी तरह निरापद और कालजयी हैं
घोर अनिश्चितता के इस समय में
हम कोई जोखिम नहीं उठा सकते…
कविता को अपना हथियार बनाने वालों
कविता से आग लगाने वालों
शब्दों से बेतुका और अनकहा कहने वालों
को अलग से पहचानो…
और देखते ही गोली दागो…
निर्मल स्मरण
तुम्हारे अंतस से नि:सृत
तुम्हारी दुनिया लौट जाती है
हर बार तुम्हारे ही भीतर
हमें पता है
तुमने ही नहीं
तुम्हारे किरदारों ने भी
तुम्हें रचा है
और अपने किरदारों की ही दुनिया में
अंतत: रचने-बसने के लिए
चुन लिया तुमने
किराए का साझा एक घर
अंतिम अरण्य तुम्हारा अपना चुनाव था
मृत्यु में जीवन और जीवन में मृत्यु को
अपनी देह से दूर छिटक कर
देखने परखने का…..
अपनी दुनिया के बीहड़ में
होने और न होने के बीच
संपूर्णता में घटित होने का….
और जहाँ तुमने
आखिर राख हो चुकी देह से
चुन लीं अपनी ही अस्थियाँ
पहाड़ और निर्जन एक नदी
जिसमें अवाक् हम देख सकें
दूर गगन से
फूल की तरह झरती
कोमल आकांक्षाओं-आस्थाओं की
तुम्हारी अंतिम सुरक्षित पोटली
हम तो हम
प्राग के पतझड़ों
दिल्ली की गर्मियों की उदास लंबी दोपहरों
को भी इंतज़ार रहेगा तुम्हारा
क्योंकि हर बार वे उतरती रहीं
तुम्हारी दुनिया में ठीक तुम्हारी ही तरह…..
पहाड़ चीड़ और चांदनी
संवेदना और स्मृतियों से धुल-छन कर आतीं
गहन उदासियाँ, एकाकीपन
और एक चिथड़ा सुख की तलाश में
काँपते-थरथराते दुख से दीप्त चेहरे
तुम्हारे भी जीवन का ठौर बताते हैं
तुम छुपते रहे अपने शब्दों में
मगर हमने खंड-खंड संपूर्ण
पा लिया तुम्हें
दो शब्दों के बीच
तुम्हारी खामोशियों में
तुम अपनी दुनिया में
जहाँ कहीं भी थे
अज्ञेय कहां थे……
लौटना है हमें
लौटना है हमें अपनी जड़ों में
जैसे लौटती है कोई चिड़िया
अपने घोंसले में
दिन भर की परवाज़ से
जैसे लौटता है अंततः
चूल्हे पर खौलता हुआ पानी
उत्तप्त उफनता हुआ सागर
अपनी नैसर्गिक प्रशांति में
जैसे लौटता है
ऊंचे पहाड़ों से झरता हुआ पानी
आकाश में उमड़ता घुमड़ता हुआ
स्याह पानीदार बादल
धरती की आगोश में
–
चिड़ियों के घोंसले
आज भी सुरक्षित हैं
अपने आदिम स्वरूप में
क्योंकि वे आज भी
पेड़ जंगल नदी पहाड़
और तिनकों के ही गीत गाती हैं
नहीं बनातीं अब
घर की गोरैया भी
हमारे घरों में अपने घोंसले
क्योंकि हम नहीं लेते
उनकी छोटी-छोटी
खुशियों में कोई हिस्सा
अपने घरों में हम
नहीं जीते उनकी फ़ितरत
नहीं गाते उनके गीत उनकी भाषा
और क्योंकि पता है उन्हें
हमारे घरों के भीतर
दीवारों के बिना भी
बसते हैं कई कई और भी घर
एक दूसरे से पूरी तरह बेखबर
–
ऐसे में…
हमें तो डरना चाहिए
फसलों की जगह
खेतों में लहलहाती इमारतों से
आकाश और समुद्र को चीरते
जहाजों के भयावह शोर से
मंदिर मस्जिद गिरिजाघरों
में सदियों से जारी
निर्वीर्य मन्नतों दुआओं से जन्मे
मुर्दनी सन्नाटों से
सड़कों पर हमारे साथ
कदमताल करते खंभों
और बिजली के तारों से
जगमग रौशनी और
फलते फूलते दुनिया के बाज़ारों से
हां, मुझे डरना चाहिए
स्वयं अपने आप से
जैसे डरती है मुझसे
अचानक सामने पड़ जाने पर
मासूम-सी कोई चिड़िया
लौटना है हमें अपनी जड़ों में
जैसे लौटती है कोई चिड़िया
अपने घोंसले में
दिन भर की परवाज़ से
जैसे लौटता है अंततः
चूल्हे पर खौलता हुआ पानी
उत्तप्त उफनता हुआ सागर
अपनी नैसर्गिक प्रशांति में
जैसे लौटता है
ऊंचे पहाड़ों से झरता हुआ पानी
आकाश में उमड़ता घुमड़ता हुआ
स्याह पानीदार बादल
धरती की आगोश में
–
चिड़ियों के घोंसले
आज भी सुरक्षित हैं
अपने आदिम स्वरूप में
क्योंकि वे आज भी
पेड़ जंगल नदी पहाड़
और तिनकों के ही गीत गाती हैं
नहीं बनातीं अब
घर की गोरैया भी
हमारे घरों में अपने घोंसले
क्योंकि हम नहीं लेते
उनकी छोटी-छोटी
खुशियों में कोई हिस्सा
अपने घरों में हम
नहीं जीते उनकी फ़ितरत
नहीं गाते उनके गीत उनकी भाषा
और क्योंकि पता है उन्हें
हमारे घरों के भीतर
दीवारों के बिना भी
बसते हैं कई कई और भी घर
एक दूसरे से पूरी तरह बेखबर
–
ऐसे में…
हमें तो डरना चाहिए
फसलों की जगह
खेतों में लहलहाती इमारतों से
आकाश और समुद्र को चीरते
जहाजों के भयावह शोर से
मंदिर मस्जिद गिरिजाघरों
में सदियों से जारी
निर्वीर्य मन्नतों दुआओं से जन्मे
मुर्दनी सन्नाटों से
सड़कों पर हमारे साथ
कदमताल करते खंभों
और बिजली के तारों से
जगमग रौशनी और
फलते फूलते दुनिया के बाज़ारों से
हां, मुझे डरना चाहिए
स्वयं अपने आप से
जैसे डरती है मुझसे
अचानक सामने पड़ जाने पर
मासूम-सी कोई चिड़िया
इस कठिन दौर में
किसी शोक सभा में अब
जाना होगा तुम्हें
पूरी तरह बेफ़िक्र और तैयार
एक और शोक के लिए…
कह देना होगा तुम्हें
मासूम अपनी पत्नी
और असमय प्रौढ हो रहे
अपने बच्चों से…
समझदार हो
बहुत देर तक न लौटूं
तो समझ लेना…
इतना ही नहीं
कि तुम किसी क्षण
मारे जा सकते हो…
श्मशान या कब्रिस्तान
की शवयात्रा में
खो सकती है
तुम्हारी लाश…
और खो सकते हैं
तुम्हारे शोक
तुम्हारे आंसू…
और तब तुम्हें
न कोई शोक हिला सकेगा
और न ही कोई सुख
तुम्हारे इस कठिन दौर में
नहीं होगा कोई
तुम्हारे संग
फिर भी तुम
निस्संग नहीं होगे
नहीं होगा अब
तुम्हारे सामने शोक
या सुख का कोई विकल्प
लेकिन तुम
निर्विकल्प भी नहीं होगे…
सुख की ये चिंदियां
कहीं भी बना लेती हैं अपनी जगह
वे कहीं भी ढूंढ़ लेती हैं हमें…
हमारी गहनतम उदासियों में
बांटती हैं
खौफ़नाक मौत के सिलसिलों के बीच भी
इस दुनिया में
ज़िंदा बचे रहने का सुख
और भी ढेर सारे नन्हे सुख
अपनी उदासियां…अपनी पीड़ाएं
बहुत अपनों को बता पाने का सुख…
बहुत अच्छे दिनों में
साथ-साथ पढ़ी गई
बहुत अच्छी-सी किसी कविता
या किसी जीवन-संगीत की तरह…
रिसते ज़ेहन पर उतरता है
अनजाना अप्रत्याशित-सा कोई पल
किसी चमत्कार की तरह…
गहन अंधकार में भी चमकती
सुख की ये नन्ही निस्संग चिंदियां
हमारी पीड़ाओं के खोंखल में
बना लेती हैं सांस लेने की जगह…
और इसीलिए
हां, इसीलिए हमारे आसपास ज़िंदा हैं
सभ्य हत्यारों की नई नस्लें
यातनाओं और सुख के अंतहीन सिलसिलों में
घालमेल होतीं इंसानियत की नई खेपें…
और ज़िंदा है
बहुत बुरे और कठिन समय में
किसी सच्चे दोस्त की तरह
जीवन से भरपूर कोई कविता…
हमारे संत्रास और दुःस्वप्नों को
सहलाता-खंगालता बहुत अपना-सा कोई स्पर्श…
खाली जगहें
ताज़ा हवा और रौशनी के लिए
जब भी खोलता हूं
बंद और खाली पड़ी
अपने कमरे की खिड़कियां
हवा और रौशनी के साथ
अंदर प्रवेश कर जाती हैं
जानी-अनजानी और भी कई-कई चीज़ें
दूर खिड़की के बाहर
आसमान से लटके सफ़ेद बादल
सड़क के किनारे कब से खड़े
उस विशाल पेड़ की शाखें व पत्तियां
और अंधेरी रातों में
टिमटिमाते तारे भी
एक साथ प्रवेश कर जाना चाहते हैं
मेरे छोटे से कमरे में
और हमें पता भी नहीं होता
बाहर की यह थोड़ी सी कालिमा
थोड़ी सी उजास थोड़ी सी हरियाली
झूमती शाखों और पत्तियों का यह संगीत
कब का बना लेते हैं मेरे लिए
थोड़ी सी जगह इस तंग कमरे में
हम तो उनके बारे में तब जान पाते हैं
जब कमरे में कई-कई रातें
कई-कई दिन रहने के बाद
अंततः वे जा रहे होते हैं
छोड़ कर अपनी जगह…
खिड़की के उस पार
मेरी आशंकाएं
मेरी उदासियां मेरी पीड़ाएं
मेरे कमरे की छतों और दीवारों से टकराकर
लौटती हैं बार-बार मेरे ही पास
रात्रि के गहन अंधकार में
खिड़की के शीशे पर उभरती हैं
हवा में डोलती शाखों-पत्तियों की कोमल छायाएं
और डराती हैं मुझे
एक दुःस्वप्न की तरह
मैं आज़ाद होना चाहता हूं
अपनी दीवारों और छतों से
खिड़की से दिखते
घास पर लेटे-अधलेटे
नंगे-अधनंगे उस आदमी की तरह…
जिसकी उदासियों को सुनने-बांटने के लिए
उसके सामने ही बहती है एक नदी
जिसकी बाजू में ही बाहें फैलाए
खड़े हैं कई पेड़
जिसके सिर के ऊपर से ही गुज़रते हैं
मुलायम पानीदार बादल के टुकड़े…
और भी बहुत कुछ
लेकिन देखता हूं दूर खिड़की के बाहर
अपनी दुनिया से बेख़बर
उसकी बड़ी-बड़ी जागती आंखों में
शीशों और दीवारों के ही ख्वाब हैं
जो मेरी खिड़की से होकर
मेरे कमरे तक आते हैं
और मेरी दुनिया में पनाह चाहते हैं
वह मेरी दुनिया में
और मैं उसकी दुनिया में…
लेकिन क्या मैं सचमुच
अपनी दुनिया उसकी दुनिया से
बदलना चाहता हूं
या कि दोनों ही दुनियाएं
एक साथ चाहता हूं…
शायद पता हो मधुमक्खियों को
अगले मौसम के इंतज़ार में
बीतता रहा हर मौसम
शाही इस बाग में
कुछ इस तरह…
शिकायत थी उन्हें
इस बार सर्दियां अधिक थीं
गर्मी भी परबान पर
और बरसात भी कुछ अधिक हो गई
वे सूखे और बाढ़ के बीच
अपना रास्ता चुनते रहे
चिलचिलाती धूप और
सर्द हवाओं के बीच
पगडंडियां बुनते रहे…
उम्मीद थी उन्हें
बिरासत में मिले अपने पेड़ों से
लेकिन इस बार
आम में मंजर भी कम लगे
अमरूद तो शरारती बच्चे चुरा ले गए
फलों के बिना पेड़ों की छांव भी
कितनी हल्की है
तेज हवाओं में उड़ जाएं जैसे
नारियल तो इस बार
और ऊंचे फले
पिछले ही वर्ष तो
टूट गई थी
चढ़ने वाले उस बाग़बान की कमर…
लेकिन इसके पहले
कमर की उसकी रस्सी टूटी थी…
शहतूत की तो पूछिए मत
लदे हैं पेड़…
पड़ोस के सारे बच्चों
और मधुमक्खियों के छत्तों से
अकसर ही बेचैनियों में
वे कमरे से बाहर निकल आते हैं
बाहर… अंदर और फिर बाहर…
वे इंसानों से नहीं मधुमक्खियों से घबराते हैं
इसलिए शहतूत तक तो
फटकते भी नहीं
मधुमक्खियां इन बच्चों को
आखिर क्यों नहीं छूतीं…
सोचते हैं वे
शायद पता हो मधुमक्खियों को
कि अछूत हैं नंग-धड़ंग ये बच्चे…
सहगामिनी परछाइयां
तमाम उम्र हम
मृत्यु को जीवन से अलगाते रहे
तमाम हंसते-दमकते चेहरों
और उत्सवी नज़ारों से
उसकी परछाइयां मिटाते रहे
जैसे हम जीवन भर
गाते-नाचते उछलते-फलांगते
अपनी ही परछाइयों को लांघने का
उत्सव मनाते रहे…
हमने तुम्हारा नाम तक नहीं आने दिया
बहुत अपनों के होठों पर
जबकि तुम
उन होठों के आस-पास ही
मंडराती रहीं
एक दुःस्वप्न की तरह…
हर आदमी
अपने घर-आंगन से बहुत दूर और अलग
तुम्हारा ठौर-ठिकाना लगाता रहा
कि हवा में उड़ती
तुम्हारी राख, गंध और धुआं भी
अपनी बनाई हमारी दुनिया को
विरंजित-विरूपित न करे
तभी तो हमारा दाहिना हाथ
जहां एक तरफ़ जीवन को गाता रहा
बायां हाथ मौत को अलगाता रहा
छोटी-मोटी खुशियों और उत्सवों से हम
इतना अभिभूत रहे
कि तुम्हें सौंप दिया हमने
नाज़ियों, लादेनों और दंगाइयों के हाथों में
छोड़ आए तुम्हें
श्मशानों और कब्रिस्तानों
सीलन भरे तलघरों
अंधेरी सुरंगों और बीहड़ बियाबानों में
जहां से गुज़रते हुए
तुम्हारे बारे में सोचना भी मना हो गया
और इसलिए ही
यह जानने में तो
कई जीवन और कई युग बीत गए
कि तुम दरअसल मृत्यु कहां थी
तुम तो आजीवन हमारे साथ चलने वाली
हमारी ही परछाइयां थीं
हत्यारे जब बुद्धिजीवी होते हैं
हत्यारे जब बुद्धिजीवी होते हैं
वे तुम्हें ऐसे नहीं मारते
बख्श देते हैं तुम्हें तुम्हारी जिंदगी
बड़ी चालाकी से
झपट लेते हैं तुमसे
तुम्हरा वह समय
तुम्हारी वह आवाज
तुम्हारा वह शब्द
जिसमें तुम रहते हो
तुम्हारे छोटे-छोटे सुखों का
ठिकाना ढूंढ लेते हैं
ढूंढ लेते हैं
तुम्हारे छोटे-छोटे
दुखों और उदासियों के कोने
बिठा देते हैं पहरे
जहां-जहा तुम सांस लेते हो
रचते हैं झूठ
और चढ़ा लेते हैं उस पर
तुम्हारे ही समय
तुम्हारी ही आवाज
तुम्हारे ही शब्दों के
रंग रस गंध
वे
तुम्हारे ही शब्दों से
कर देते हैं
तुम्हारी हत्या
हत्यारे जब मसीहा होते हैं
हत्यारे जब मसीहा होते हैं
वे तुम्हें ऐसे नहीं मारते…
बचा लेते हैं ढहने से
खंडहर होते तुम्हारे सपनों
की आखिरी ईंट को
किसी चमत्कार की तरह…
कि तुम इन हत्यारों में ही
देख सको
दैवी चमत्कार की
अलौकिक कोई शक्ति
तुम्हारी जर्जरित सांसों के
तार-तार होने तक
वे करते रहेंगे
और भी कई-कई चमत्कार
कि तुम इन्हें पूज सको
किसी प्राच्य देवता की तरह…
कि तुम्हारी अंतिम सांस के
स्खलित होने के ठीक पहले
उनके बारे में दिया गया
तुम्हारा ही बयान
अंतत: बचा ले सके उन्हें
दरिंदगी के तमाम संगीन आरोपों से…
हत्यारे जब प्रेमी होते हैं
हत्यारे जब प्रेमी होते हैं
वे तुम्हें ऐसे नहीं मारते…
वे तुम्हें, तुम्हारी मां
या तुम्हारे बच्चों में
कोई फर्क नहीं करते
वे उन सब के साथ
एक ही जगह
एक ही समय
रच सकते हैं
सामूहिक प्रेम का
नया कोई शिल्प
बुखार में तपती
तुम्हारी देह के साथ भी
वे अपने लिए
रच सकते हैं
वीभत्स मांसल आनंद का
नया कोई निर्वीर्य संस्कार
और इस तरह
वे रह सकते हैं
तुम्हारी देह से अविरत आबद्ध…
तुम्हारी अंतिम सांस के
स्खलित हो जाने तक…
पहचान
मरने के बाद भी
हमारी आदतें बरकरार हैं
कब्रिस्तान में कब्रों पर
इन आदतों के
अलग-अलग निशान हैं
किन्हीं सपाट कब्रों पर
हरे-हरे घास हैं
किन्हीं पर
संगमरमर के चबूतरे
तराशे हुए उनके नाम
और गांव हैं
और भी हैं कब्रें
जहां रुक जाता है पानी
हर बारिश में
जहां धूप नहीं आती
और जम जाती है काई
पृथ्वी पर
बच रहे आदमी
पानी धूप और हवा से
यही उनका रिश्ता है
यही उनकी आदतें
यही उनके नाम
और यही उनके गांव हैं
रोटी से निकले लहू के निशान
याद है
दृश्य अदृश्य
हर उस शख्स का चेहरा
मुझे अच्छी तरह याद है
जिसने
इस पृथ्वी पर
निरंतर
दूसरों के हिस्से की जंग
सिर्फ अपने पक्ष में जीती है
मुझे हर उस शख्स का चेहरा
अच्छी तरह याद है
जिसने सुरक्षित कर रखे है
अपने पास
हमारी जंग के आधे-अधूरे
हथियारों के सर्वाधिकार
हां
मुझे याद है
हर जंग में
हमारे हिस्से की
रोटी से निकले…
नहीं
हम अपनी जंग
उनके हथियारों से
नहीं लड़ सकते
उन हथियारों में
आज भी ताजा हैं…
हमारे हिस्से की
रोटी से निकले
लहू के निशान