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ऐ बे-ख़बरी जी का ये क्या हाल है काल से

ऐ बे-ख़बरी जी का ये क्या हाल है काल से
रोने में मज़ा है न बहलाता है ग़ज़ल से

इस शहर की दीवारों में है क़ैद मिरा ग़म
ये दश्त की पहनाई में हैं यादों के जलसे

बातों से सिवा होती है कुछ वहशत-ए-दिल और
अहबाब परेशाँ है मिरे तर्ज़-ए-अमल से

तन्हाई की ये शाम उदासी में ढली है
उठता है धुआँ फिर मिरे ख़्वाबों के महल से

रातों की है तक़दीर तिरा चाँद सा चेहरा
नज़रों में है तस्वीर तिने नैन कँवल से

जिस का बदन है खुश्बू जैसा जिस की चाल सबा सी है

जिस का बदन है खुश्बू जैसा जिस की चाल सबा सी है
उस को ध्यान में लाऊँ कैसे वो सपनों का बासी है

फूलों के गजरे तोड़ गई आकाश पे शाम सलोनी शाम
वो राजा ख़ुद कैसे होंगे जिन की ये चंचल दासी है

काली बदरिया सीप सीप तो बूँद बूँद से भर जाएगा
देख ये भूरी मिट्टी तो बस मेरे ख़ून की प्यासी है

जंगल मेले और शहरों में धरा ही क्या है मेरे लिए
जग जग जिस ने साथ दिया है वो तो मेरी उदासी है

लौट के उस ने फिर नहीं देखा जिस के लिए हम जीते हैं
दिल का बुझाना इक अंधेर है यूँ तो बात ज़रा सी है

चाँद-नगर से आने वाली मिट्टी कंकर रोल के लाए
धरती-माँ चुप है जैसे कुछ सोच रही हो ख़फ़ा सी है

हर रात उस की बातें सुन कर तुझ को नींद आती है ‘ज़फ़र’
हर रात उसी की बातें छेड़ें ये तो अजब बिपता सी है

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