तुम कौन थे भगत सिंह
मकड़ियों ने हर कोने को सिल दिया है
उलटे लटके चमगादड़
देख रहें हैं
कैसे सिर के बल चलता आदमी
भूल गया है अपनी ज़मीन
दीवारों पर की सीलन का
फफूंद की आबादी को
दावत पर आमंत्रण है
दरवाज़ों पर दीमक की फौज़
फहराती है आज़ादी का परचम
दाहिने-बाएँ थम…
मैडम का जन्मदिन है
जनपथों के ट्रैफिक जाम है
साहब का मरणदिन है
रेलडिब्बे के ट्वायलेट तक में लेट कर
आदमी की ख़ाल पहने सूअर
बढे आते हैं रैली को
थैली भर राशन उठायें
कि दिहाड़ी भी है, मुफ्त की गाड़ी भी है
देसी और ताड़ी भी है..
और तुम भगतसिंह?
पागल कहीं के
इस अह्सान फ़रामोश देश के लिये
“आत्म हत्या” कर ली?
अंग्रेजी जोंक जब यह देश छोड कर गयी
तो कफ़न खसोंट काबिज हो गये
अब तो कुछ मौतें सरकारी पर्व हैं
जिनके बेटों पोतों को विरासत में कुर्सियाँ मिली हैं
निपूते तुम! किसको क्या दे सके?
फाँसी पर लटक कर जिस जड़ को उखाड़ने का
दिवा-स्पप्न था तुम्हारा
वह अमरबेल हो गयी है
आज 23 मार्च है…
आज किसी बाग में फूल नहीं खिलते
कि एक सरकारी माला गुंथ सके
मीडिया को आज भी
किसी बलात्कार का
लाईव और एक्सक्लूसिव
खुलासा करना है
सारे संतरी मंत्री की ड्यूटी पर हैं
और सारे मंत्री उसी भवन में इकट्ठे
जूतमपैजार में व्यस्त हैं
जिसके भीतर बम पटक कर तुम
बहरों को सुनाना चाहते थे…
बहरे अब अंधे भी हैं
तुम इस राष्ट्र के पिता-भ्राता या सुत
कुछ भी तो नहीं
तुम इस अभागे देश के कौन थे भगतसिंह
निठारी के मासूम भूतों ने पूछा
वो चाकलेट
जब नाखून भरे हाथ बन जाती होगी
तो मासूम छौने सी, नन्ही सी, गुडिया सी
छोटी सी बिल्ली के बच्चे सी बच्ची
सहसा सहम कर, रो कर, दुबक कर
कहती तो होगी ‘बुरे वाले अंकल’
मेरे पास है और भी एसी टॉफी
मुझे दो ना माफी, जाने भी दो ना..
मुझे छोड दो, मेरी गुडिया भी लो ना
तितली भी है, मोर का पंख भी है
सभी तुमको दूंगी, कभी फिर न लूंगी
मुझे छोड दो, मुझको एसे न मारो
ये कपडे नये हैं, इन्हें मत उतारो
मैं मम्मी से, पापा से सबसे कहूँगी
मगर छोड दोगे तो चुप ही रहूंगी..
क्या आसमा तब भी पत्थर ही होगा
क्यों इस धरा के न टुकडे हुए फिर?
पिशाचों नें जब उस गिलहरी को नोचा
तो क्यों शेष का फन न काँपा?
न फूटे कहीं ज्वाल के मुख भला क्यों?
गर्दन के, हाँथों के, पैरों के टुकडे
नाले में जब वो बहा कर हटा था
तो ए नीली छतरी लगा कर खुदा बन
बैठा है तू, तेरा कुछ भी घटा था
तू मेरी दृष्टि में सबसे भिखारी
दिया क्या धरा को ये तूनें ‘निठारी’?
ये कैसी है दुनियाँ, कहाँ आ गये हम?
कहाँ बढ गये हम, कि क्या पा गये हम?
न आशा की बातें करो कामचोरों
‘लुक्क्ड’, ‘उचक्को’, ‘युवा’, तुम पे थू है
तुम्ही से तो उठती हर ओर बू है
अरे ‘कर्णधारो’ मरो,
चुल्लुओं भर पानीं में डूबो
वेलेंटाईनों के पहलू में दुबको,
तरक्की करो तुम
शरम को छुपा दो,
बहनों को अमरीकी कपडे दिला दो
बढो शान से, चाँद पर घर बनाओ
नहीं कोई तुमसे ये पूछेगा कायर
कि चेहरे में इतना सफेदा लगा कर
अपना ही चेहरा छुपा क्यों रहे हो
उठा कर के बाईक ‘पतुरिया’ घुमाओ
समाचार देखो तो चैनल बदल दो
मगर एक दिन पाँव के नीचे धरती
गर साथ छोडेगी तो क्या करोगे?
इतिहास पूछेगा तो क्या गडोगे?
तुम्हारी ही पहचान है ये पिटारी
उसी देश के हो है जिसमें निठारी…
भैया थे, पापा थे, नाना थे, चाचा थे
कुछ भी नहीं थे तो क्या कुछ नहीं थे
बदले हुए दौर में हर तरफ हम
पिसे हैं तो क्या आपको अजनबी थे?
नहीं सुन सके क्यों ‘बचाओ’ ‘बचाओ’
निठारी के मासूम भूतों नें पूछा
अरे बेशरम कर्णधारों बताओ..
टुकडे अस्तित्व के
कितनी सदियाँ बीत गयीं
बुलबुल नें अपना दिल बोया
रोयी तो सींच गये आँसू
नन्हा सा अंकुर फूट पडा
सैय्याद जाल में फांस गया
अब बुलबुल पिंजरे में गाती थी
याद उसे अब भी आती थी
नन्हा सा अंकुर फूट पडा है
दिल एक पेड बन जायेगा
फिर फूलों से लद जायेगा..
आकाश भरा था आँखों में
रोती थी चीख चीख रोती थी
सैय्याद समझता था गाती है
एसे ही बुलबुल मर जाती है
दिल अब बरगद हो आया है
उसकी छाती में छाया है
फूल मगर कैसे खिलते हैं
बुलबुल गा जाये तो जानें…
कानों में बारूद ड़ाल विस्फ़ोट करूंगा
कानों में बारूद डाल विस्फोट करूँगा
आहत हो, बेदर्द मगर मैं चोट करूँगा॥
दरिया का पानी घाटी गहरा करता है,
किंतु किनारे वहीं काटता जहाँ जमीं समतल है
गरज गरज कर मेघ मरुस्थल से कहते हैं
जंगल सदा बहार देख कर हम झरते हैं
करवट देखी, ऊँट कहाँ लेटा फिर बैठे,
भीड़ बना कर, भेड़ साथ मिल कर चरते हैं
रंगे सियारों की बस्ती में बकरी बोली,
मै हूँ जिंटलमैन नाम मैं “गोट” करूँगा ।
कानों में बारूद डाल विस्फोट करूँगा
आहत हो, बेदर्द मगर मैं चोट करूँगा॥
खरगोशों के दाँत गिनो और “भरत” कहा लो
लोहे फेंको, चने रखे हैं, वही चबा लो
बीच सड़क पर हिजड़े ताली पीट रहे हैं
सौ रुपये का नोट खरच कर खूब दुआ लो
भूखे रह कर भजन करोगे, हे गोपाला!!
व्रत रक्खो, फल खाओ, छककर मालपुआ लो
दुश्सासन जन नायक है बोला, दुस्साहस
गाँधी के तीनों बंदर की ओट करुँगा ।
कानों में बारूद डाल विस्फोट करूँगा
आहत हो, बेदर्द मगर मै चोट करूँगा॥
अगर सोच के हाथों भर भर चूड़ी डालो
हर जलसे में उसे रिसेप्शन थमा सकोगे
मछली जल की रानी है, सो पानी रखना
अगर शिराओं ही में सारा, बहा न दोगे
पैरों में पाजेब डाल कर भांड़ नाचते
जनरेशन है नयी, सबेरों कहाँ छुपोगे?
टेढ़ा आँगन, टूटी है दीवार, खुली छत
दारू की इक बोतल पर मैं वोट करूँगा
कानों में बारूद डाल विस्फोट करूँगा
आहत हो, बेदर्द मगर मैं चोट करूँगा॥
परबत के सीने से सोते फूट पड़ेंगे
तन कर बंद हुई एक मुट्ठी ही काफी है
अंगारों पर चलने वाले जादूगर हैं
खान कोयले की, केवल चिनगी काफी है
जड़ की बातें जड़ करती हैं गुलशन मेरे
नयी सोच है, अब गुल की टहनी काफी है
एक परिंदा पत्थर ले कर उड़ा जा रहा
कहता है सूराख आसमा में कर दूँगा
कानों में बारूद डाल विस्फोट करूँगा
आहत हो, बेदर्द मगर मैं चोट करूँगा॥
29.09.2007
ग़ाली नहीं है साहब
वह बच्चा
रो-रो कर
ख़ामोशी को गहराता था
टुकुर-टुकुर आँखें तकती थी
माँ की क्षत-विक्षत छाती को
जिनसे रुधिर बहा आता था
एक नदी बनता जाता था
पत्थर की छाती फटती थी,
आसमान सिर झुका खड़ा था,
और सायरन की आवाज़ें
जबरन रौंद रही क्रंदन को।
माँ उठो, माँ मुझे उठा लो,
डरा हुआ हूँ, सीने में दुबका लो
माँ भूख लगी है!!!….!!!!
पुकार पुकारों में दब-सी गई
बूटों की धप्प-धप्प,
एम्बुलेंस,
ख़ामोशी समेटती काली गाडी,
मीडिया, कैमरा…
आहिस्ता-आहिस्ता बात अख़बारों में दबती गई
बडे कलेजे का शहर है
चूडियाँ पहने निकल पड़ता है
रोज़ की तरह… अगली सुबह
कोई नहीं जानता कि वह बच्चा,
पूरी-पूरी रात नहीं सोता है
पूरे-पूरे दिन रोता है
उफ!! कि अब उसका रोना शोर है
अब उसकी पुकार, चीख़ कही जाती है
उसका अब अपना बिस्तर है,
अपना ही तकिया है
अपना वह नाथ है / अनाथ है
वह सीख ही जाएगा जीना
महीने या साल में
हो जाएगा पत्थर
वह बच्चा किसी के लिये सवाल नहीं
किसी की संवेदना का हिस्सा नहीं
किसी की दुखती रग पर रखा हाथ नहीं
वह बच्चा एक आम घटना है
बकरे को कटना है
बम को फ़टना है
ख़ैर मना कर क्या होगा?
बारूद सीने पर बाँध
निकल पडते हैं नपुन्सक, कमबख़्त!
कचरे के ढेर में / किसी बाज़ार
अस्पताल या स्कूल में
फट पडेंगे ‘हरामख़ोर’….
ग़ाली नहीं है साहब
अन्न इसी धरती का है
और धरती भी माँ है
आस्था और क्षणिकायें
आस्था -१
मुझे गहरी आस्था है तुम पर
पत्थर को सिर झुका कर
मैने ही देवत्व दिया था
फिर
तुम तो मेरा ही दिल हो..
आस्था -२
हमारे बीच बहुत कुछ टूट गया है
हमारे भीतर बहुत कुछ छूट गया है
कैसे दर्द नें तराश कर बुत बना दिया हमें
और तनहाई हमसे लिपट कर
हमारे दिलों की हथेलियाँ मिलानें को तत्पर है
पत्थर फिर बोलेंगे
ये कैसी आस्था?
आस्था -३
सपना ही तो टूटा है
मौत ही तो आई है मुझे
जी नहीं पाओगे तुम लेकिन
इतनी तो आस्था है तुम्हे
मुझपर..
आस्था -४
पागल हूं तो पत्थर मारो
दीवाना हूँ हँस लो मुझपर
मुझे तुम्हारी नादानी से
और आस्थाये गढनी हैं…
आस्था -५
तुमनें
बहते हुए पानी में
मेरा ही तो नाम लिखा था
और ठहर कर हथेलियों से भँवरें बना दीं
आस्थायें अबूझे शब्द हो गयी हैं
मिट नहीं सकती लेकिन..
आस्था -६
मेरे कलेजे को कुचल कर
तुम्हारे मासूम पैर ज़ख्मी तो नहीं हुए?
मेरे प्यार
मेरी आस्थायें सिसक उठी हैं
इतना भी यकीं न था तुम्हें
कह कर ही देखा होता कि मौत आये तुम्हें
कलेजा चीर कर
तुम्हें फूलों पर रख आता..
६.०१.१९९७
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ
मुझको बरसात में सुर मिले, री सखी!
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
एक कुएँ में दुनिया थी, दुनिया में मैं
गोल है, कितना गहरा पता था मुझे
हाय री बाल्टी, मैंने डुबकी जो ली
फिर धरातल में उझला गया था मुझे
मेरी दुनिया लुटी, ये कहाँ आ गया
छुपता फिरता हूँ कैसी सज़ा पा गया
मेघ देखा तो राहत मिली है मुझे
जी मचलता है मैं अब बहूँ तब बहूँ…
मुझको बरसात में सुर मिले, री सखी!
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ…
मेंढकी मेरी जाँ, तू वहाँ, मैं यहाँ
तेरे चारों तरफ़ ईंट का वो समाँ
मैं मरा जा रहा, ये खुला आसमाँ
तैरने का मज़ा इस फुदक में कहाँ
राह दरिया मिली, जो बहा ले गई
और सागर पटक कर परे हो गया
टरटराकर के मुख में भरे गालियाँ
सोचता हूँ, पिटूंगा नहीं तो बकूँ ?
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी!
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ…
एक ज्ञानी था जब पानी-पानी था मैं
हर मछरिया के डर की कहानी था मैं
आज सोचा कि खुल के ज़रा साँस लूँ
बाज देखा तो की याद नानी था मैं
कीचड़ों में पड़ा मन से कितना लड़ा
हाय कुएं में खुद अपना सानी था मैं
संग तेरे दिवारों की काई सनम
जी मचलता है मैं अब चखूँ तब चखूँ
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
थम गयी है हवा जम के बरसात हो
औ छिपें चील कोटर में जा जानेमन
शोर जब कुछ थमें साँप बिल में जमें
तुमको आवाज़ दूंगा मैं गा जानेमन
मेरे अंबर जो सर पर हो तब देखना
सोने दूंगा न जंगल को सब देखना
हाय मुश्किल में आवाज़ खुलती नहीं
भोर होगी तो मैं फिर से एक मौन हूँ
मुझको बरसात में सुर मिले री सखी
पेट दुखता है मैं कुछ कहूँ, कुछ कहूँ..
मुआवजा
जो भी अभियान है,
एक दुकान है
जैसे कोई अधेड़न लिपिस्टिक लपेटे
लबों पर खिलाती हो मुर्दा हँसी
तुम हँसे वो फँसी।
मैं फ़रेबों में जीते हुए थक गया
शाख़ में उलटे लटक पक गया
जिनके चेहरों में दिखते थे लब्बो-लुआब
मुझको दे कर के उल्लू कहते हैं वो
सीधा करो जनाब
ख़्वाब सारे तो हैं झुनझुने थाम लो
ले के भोंपू जरा टीम लो टाम लो
बिक सको तो ख़ुशी से कहो, दाम लो
मर सको तो सुकूँ से मरो, जाम लो
जो करो एक भरम हो जो जीता रहे
जीत अपनी ही हो, हाथ गीता रहे
रेत के हों, महल उसकी बुनियाद क्या?
पंख खोकर के तोते हैं आज़ाद क्या?
जा के नापो फ़क़ीरे सड़क दर सड़क
मैं छिपा कर के जेबों के पैबंद को
यूँ जमीं मे गड़ा, सुनता फरियाद क्या?
मैं पहाड़ी नदी से मिला था मगर
उसकी मैदान से दोस्ती हो गई
मैं किनारे की बालू में टूटा हुआ
सोचता हूँ कि जिनके लुटे होंगे मन
उनको भी मिलते होंगे मुआवज़े क्या?
योग गैर ईसाई है
मेरे जाहिल देश!!
सपेरों मदारियों के देश मेरे
आज जी भर हँस लो,
और ऐसे हँसना कि तुम्हारे ठहाके
होते रहें प्रतिध्वनित
फोड़ते रहें बहरों के कान
डकैती के कोहीनूर पर इतराने वालों पर
समय है फब्तियाँ कसने का…
पानी के छींटे मार बच्चों को सोते से जगाओ
राम दुलारे-अल्ला रक्खा
घर से निकलो, चौपाल सजाओ
मसाले के सौदागर जो राजा हो गए थे
फिर सभ्यता का शोर-शराबा, ढोल-बाजा हो गए थे
दो-सौ साल के गुलामों, व्यंग्य की मुस्कुराहट
तुम्हारे ओठों पर भली लगेगी
और “भौजी” के गालों पर गड्ढे सजेंगे
उन चौपट राजाओं की अंधेर नगरी की मोतियाबिन्द आँखों
चमक उठो, बात ही एसी है…
हँसना इसलिए जरूरी है
कि तुम्हारी सोच, समझ और ज्ञान पर कंबल डाल कर
जो ए०बी०सी०डी० तुम्हें पढ़ाई गई
और तुम जेंटलमेन बन कर इतरा रहे हो
भैय्या कालू राम!! वह ढोल फट गया है
गौर से गोरी चमड़ी के श्रेष्ठ होने की सत्यता को देखो
दीदे फाड़ देखो…
एक दुपट्टा ले कर अपनी बहन के कंधे पर धर दोगे
जिसके साथ मॉडर्न होने का दंभ भर कर
रॉक-एन-रोल करना
तुम्हारे प्यार करने का ईम्पोर्टेड तरीका है
खीसें मत निपोड़ो
गेलेलियो का ज्ञान नहीं मनोविज्ञान पढ़ो
और न समझ आए तो
सिलवर स्ट्रीट चर्च के बर्तानी पादरी
साईमन फरार की बातें सुनो
कि योग गैर-ईसाई है !!!!
राम कहूँगा तो साम्प्रदायिक हो जाएगा
पर दुहाई तो दुहाई है
फादर साईमन महोदय
आपने खोल दी आँखें हमारी
हम तो मदारियों, सपेरों के इस देश को
आपका चश्मा लगा कर जाहिल समझते थे
चश्मा उतर गया है मान्यवर
तुम्हारे चेहरे पर आँखें गड़ा कर
जी खोल कर हँसना चाहता हूँ
आओ मदारियो, सपेरो….