शब्द हो गए बहुत दुरूह
कंचनमृग के लिए अहेरी
यहां रच रहे सौ-सौ ब्यूह।
उतर पड़ा परती खेतों में
कोई मौसम अनजाना
देख भूख का गुमसुम चेहरा
मौन हुआ दाना-दाना
उगते-उगते फसल अर्थ की
शब्द हो गए बहुत दुरूह।
ये बीमार अपाहिज सुबहें
ये अन्धी-अन्धी शामें
आ न जाएं दरवाजे पर
टूटी बैशाखी थामें
अंतरिक्ष में लटके-लटके
संबोधन के थके समूह।
सुनते-सुनते खोटी-खोटी
कहते-कहते खरी-खरी
कटे हाथ में चक्र सुदर्शन
लिए-हुए रोशनी भरी
किसी संझौखे की तलाश में
दर-दर भटक रही है रूह।
धुएँ की टहनियां
अभी कल तक
जागते ये भित्तिचित्र
हो गया क्या आज जो सोये मिले।
थके हारे दीप
अब किससे करें
अनुबन्ध कौन,
बहस करके
अंधेरों से
रोशनी भी हुई मौन।
लगे हैं अब
चिर प्रतीक्षित स्वप्न के
टूटने रागों भरे सब सिलसिले।
हवाओं से
हर दिशा
संवाद करने पर तुली,
डरा मलयज
थरथराकर
गंध की खिड़की खुली।
हो गईं हरियर
धुंए की टहनियां
हमने कितने नाटक खेले
छिपा आस्था को पर्दे में
हमने कितने नाटक खेले।
राग-राागिनी को भरमाने
जुटी आज दुर्वृत्ति आसुरी
जाने कहां सप्त स्वर भटके
भौंचक्की रह गई बांसुरी
लय की नहीं कहीं गुजांईश
किस स्वर को अपने संग ले-ले।
मानव की पहिचान मापने के
लगते ओछे पैमाने
भरी भीड़ में नहीं लग रहे
हैं चेहरे जाने पहचाने
हैं अनभिज्ञ परस्पर जन-जन
लेकिन लगे हुए हैं मेले।
कहीं घांेसलों में रोती है
पंखहीन पंछी की ममता,
कहीं गले से गले लग रही
हंसकर समता और विषमता
कैसे चलें चरण चिन्हों पर,
डरे-डरे हम आज अकेले।
फूल अंगारों के हैं जिन पर खिले।
सपनों का गांव
ईगुर सी धूप और काजल सी छांव
एक प्यास लूट गई सपनों का गांव।
यद्यपि भुलावे में
लम्हें छले गए,
सांसो के पर्याय
बनने चले गए।
सूनी पगडंडी से थके-थके पांव
एक प्यास लूट गई सपनों का गांव।
पांव को फैलाए,
लम्बी चादर ताने
मसनद सवालों की
रखकर के सिरहाने
खामोशी लेट गई हर ठांव-ठांव
एक प्यास लूट गई सपनों का गांव।
हिस्से का लिए हुए
जख्मों का केवल धन,
अड़े हुए हैं अब तक
कुछ जिद्दी संबोधन
जिन्दगी की चैसर लगा करके दांव
एक प्यास लूट गई सपनों का गांव।
बूंदों से सन्दर्भ जुड़े
बादल लिखने लगे
कथाएं प्यास की।
रात-रात जलपरी घटाओं की
बाहों में सो-सो कर,
एक चम्पई भोर जोगिनी
किरण घाटियों में बोकर
आई चिट्ठी लेकर
सावन मास की ।
सोई हुई नदी को चंचल
झरनों के शिशु जगा गए,
पावस के जलते पावों में
लेप इन्द्रधनु लगा गए
चुप्पी – टूटी-
सन्यासी आकाश की।
यादों के सारस पंखों में
लेकर नए प्रसंग उड़े,
कुछ भीगे और कुछ अनभीगे
बंूदों से संन्दर्भ जुड़े,
खुली किताबें –
मौसम इतिहास की।
आईने ने सही कहा है
हर प्रतिबिम्ब हो गया वंचक
आईने ने सही कहा है।
यही चाहते थे अरसे से
सपनों का था यही इरादा
दस्तक दे-देकर पलकों पर
नयनों को भरमाएं ज्यादा।
रीत गया शोणित जब तन का
नस-नस में तेजाब बहा है।
वहम ढो रही इच्छाओं का
पूर्ण न होगा कभी कथानक,
इर्द-गिर्द मुट्ठियां तानकर
आ विश्वास बो गये अचानक।
खण्डहर-खण्डहर शेष खड़़े हैं
खुशियों का हर महल ढहा है।
जुड़े न स्नेहिल संवादों से
वह भावुकता नहीं भली है,
ठगे-ठगे से संवेदन के –
बीच जिन्दगी बहुत पली है।
नहीं जगह अब तन में सुख की
मन ने इतना दुःख सहा है।
आए दिन
पलकों में
सपने सजाने के
आए दिन
नेह में नहाने के
क्षण में याद आया कुछ
भूल गया फिर क्षण में
सुबह से शाम तक
बस केवल दर्पण में
निरख -निरख रूप
शरमाने के
आए दिन
नेह में नहाने के
कैसे कहूँ कि कौन
आकर मन में ठहरा
अधरों पर लाज का
अब तो पड़ा पहरा
जोर नहीं
सिवा छटपटाने के
आए दिन
नेह में नहाने के।