आँख खुली तो मुझ को ये इदराक हुआ
आँख खुली तो मुझ को ये इदराक हुआ
ख़्वाब-नगर का हर मंज़र सफ़्फ़ाक हुआ
जिस्म ओ जान का सारा क़िस्सा पाक हुआ
ख़ाकी था मैं ख़ाक में मिल कर ख़ाक हुआ
मुझ पर शक करने से पहले देख तो ले
मेरा दामन किस जानिब से चाक हुआ
एक ही पल में जा पहुँचा दुनिया से पार
डूबने वाला सब से बड़ा तैराक हुआ
टुकड़ों टुकड़ों बाँट रहा है चेहरे को
टूट के शीशा और भी कुछ बे-बाक हुआ
रात को मैं ने दिन करने की ठानी है
मेरी ज़िद पर सूरज भी नम-नाक हुआ
कैसी मोहब्बत कैसा तअल्लुक ढोंग है सब
माँ के अलावा हर रिश्ता ना-पाक हुआ
दिन में निकलना छोड़ दिया उस ने भी
आज का जुगनू बच्चों से चालाक हुआ
बजा के ख़ातिर-ए-अहबाब का ख़याल रहे
बजा के ख़ातिर-ए-अहबाब का ख़याल रहे
रक़ाबतों में भी आदाब का ख़याल रहे
बिखरते टूटते आसाब का ख़याल रहे
तिलिस्म-ए-ख़्वाब मेरे ख़्वाब का ख़याल रहे
हर एक ज़ेर ओ ज़बर है बदन का मानी-ख़ेज़
पढ़ों कहीं से भी एराब का ख़याल रहे
हुमकता रहता है पहलू में ना-समझ बच्चा
नफ़स नफ़स दिल-ए-बे-ताब का ख़याल रहे
शब-ए-सियाह की क़िस्मत सँवारने वालो
निगार-ए-काकुल-ए-शब-ताब का ख़याल रहे
बिना सबब तो सफ़-ए-दुश्मनाँ ख़मोश नहीं
हुदूद-ए-जंग में अहबाब का ख़याल रहे
शुऊर शर्त है कार-ए-जुनूँ में ऐ ‘राशिद’
मुसाफ़िरत में भी असबाब का ख़याल रहे
जो शख़्स दूसरों को बड़ा दर्द मंद था
जो शख़्स दूसरों को बड़ा दर्द मंद था
देखा तो मस्लहत के हिसारों में बंद था
हर इर्तिकाब-ए-जुर्म पे महसूस ये हुआ
मेरा ज़मीर मेरे लिए फ़िक्र-मंद था
जिस को बड़ा गुरूर था ऊँची उड़ान पर
इक ओर इŸिाफ़ाक़ से ज़ेर-ए-कमंद था
शहर-ए-फ़साद से वो निकलता भी किस तरह
पीछे अजल थी सामने रस्ता भी बंद था
जो दार को बुलंदी-ए-किरदार कह गया
वो शख़्स सोचता हूँ मैं कितना बुलंद था
हालात थे जो भीड़ में फिरते रहे लिए
वरना हर एक आदमी ख़ल्वत-पसंद था
‘राशिद’ की हर ग़ज़ल में थीं मानी की वुसअतें
दरिया तसव्वुरात का कूज़े में बंद था
कोई साया न शजर याद आया
कोई साया न शजर याद आया
थक गए पाँव तो घर याद आया
खिल उठे फूल से सहराओं में
फिर वो फ़िरदौस-ए-नज़र याद आया
फिर मेरे पाँव में ज़ंजीर पड़ी
फिर तेरा हुक्म-ए-सफ़र याद आया
लौट जाने को बहुत दिल मचला
क्या पस-ए-गर्द-ए-सफ़र याद आया
सारी उम्मीदों ने दम तोड़ दिया
नख़्ल-ए-बे-बर्ग-ओ-समर याद आया
लाख चाहा था के वो चश्म-ग़ज़ाल
फिर न याद आए मगर याद आया
ख़्वाब और आलम-ए-बे-दारी में
रेत पर रेत का घर याद आया
मर्सिया दिन का लिखा था ‘राशिद’
शब को उनवा
शफ़क़ की गुल की याक़ूत-ए-यमन की आज़माइश है
शफ़क़ की गुल की याक़ूत-ए-यमन की आज़माइश है
हरीफ़ान-ए-लब-ए-ग़ुंचा-दहन की आज़माइश है
बिसात-ए-फ़िक्र पर शेर ओ सुख़न की आज़माइश है
ग़ज़ल के मिश्रा-ए-सानी में फ़न की आज़माइश है
नवाह-ए-क़रिया-ए-जाँ में न जुगनू हैं न तारे हैं
मेरे दिल अब तेरे दाग़-ए-कोहन की आज़माइश है
नई तहज़ीब ने उर्यानियत को दे दिया जामा
बदन के पेच-ओ-ख़म में पैरहन की आज़माइश है
मवाद-ए-शब निगल जाने को है महताब की सूरत
सहर तक अब चराग़-ए-अंजुमन की आज़माइश है
शहीदान-ए-वतन तो इम्तिहाँ से सुर्ख़-रू गुज़रे
मगर अब रह-नुमायन-ए-वतन की आज़माइश है
ये दीनार ओ दिरम किस ने सजाए हैं
यहाँ फिर क्या ज़मीर-ए-हर्फ़ जान की आज़माइश है
क़यामत इस्तिआरा है तेरी अंगड़ाई का जानाँ
दम-ए-महशर तेरे महशर-बदन की आज़माइश है
न-ए-सहर याद आया
सूरत-ए-हाल हुई जाती है पेचीदा सी
सूरत-ए-हाल हुई जाती है पेचीदा सी
उस की आँखें भी नज़र आती हैं ख़्वाबीदा सी
जब भी आता है मुझे उस से बिछड़ने का ख़याल
मुझ में डर आती है इक शाम ख़िज़ाँ-दीदा सी
सिर्फ़ तक़रीरों से हालात नहीं बदलेंगे
आओ मिल कर करें कोशिश कोई संजीदा सी
ग़म का इज़हार सलीक़े से क्या जाता है
अपनी सूरत ही बना ले ज़रा रंजीदा सी
किस का पैग़ाम मेरे नाम सबा लाई है
मौज-ए-हर-ख़ूँ दिल-ए-नादाँ की है शोरीदा सी
जब भी बढ़ते हैं क़दम मेरे गुनाहों की तरफ़
रोकती है कोई क़ुव्वत मुझे ना- दीदा सी
रात की सारी सियाही मले रूख़्सारों पर
क्यूँ मेरे दर पे सहर आती है नम-दीदा सी
ये मेरा सर है के दुश्मन की हज़ीमत ‘राशिद’
मेरे शानों पे जो इक शय है तराशीदा सी
उस से बिछड़ के जी का ज़ियाँ कम नहीं हुआ
उस से बिछड़ के जी का ज़ियाँ कम नहीं हुआ
कुछ बढ़ गया है दर्द-ए-निहाँ कम नहीं हुआ
मेहवर बड़ी का कौन है ये जानते हैं सब
लेकिन तिलिस्म-ए-फ़ित्ना-गिराँ नहीं हुआ
तर्क-ए-तअल्लुक़ात को अरसा हुआ मगर
जश्न-ए-शिकस्त-ए-क़रिया-ए-जाँ कम नहीं हुआ
आगे अमानतों का कड़ा एहतिसाब है
मर कर भी सर से बार-ए-गिराँ कम नहीं हुआ
महताब यूँ तो लाख उगाए यक़ीन ने
मेरी नज़र में हुस्न-ए-बुताँ कम नहीं हुआ
अपनी बिसात-ए-रूह मैं कैसे समेट लूँ
‘राशिद’ अभी तो कार-ए-जहाँ कम नहीं हुआ
ये वहम है मेरा के हक़ीक़त में मिला है
ये वहम है मेरा के हक़ीक़त में मिला है
ख़ुर्शीद मुझे वादी-ए-ज़ुल्मत में मिला है
शामिल मेरी तहज़ीब में है हक़ की हिमायत
अंदाज़ बग़ावत का विरासत में मिला है
ता-उम्र रिफ़ाक़त की क़सम खाई थी जिस ने
बिछड़ा है तो फिर मुझ को क़यामत में मिला है
रूकते ही क़दम पाँव पकड़ लें न मसाएल
हर शख़्स इसी ख़ौफ़ से उज्लत में मिला है
कुछ और ठहर जाओ सर-ए-कू-ए-तमन्ना
ये हुक्म मुझे लम्हा-ए-हिजरत में मिला है
आदाब किया जाए किसे कितने अदब से
ये फ़न मुझे बरसों की रियाज़त में मिला है
सय्याद ने लगता है के फ़ितरत ही बदल दी
हर फूल मुझे ख़ार की सूरत में मिला है