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‘रासिख़’ अज़ीमाबादी की रचनाएँ

दिल ज़ुल्फ़-ए-बुताँ में है गिरफ़्तार हमारा

दिल ज़ुल्फ़-ए-बुताँ में है गिरफ़्तार हमारा
इस दाम से है छूटना दुश्वार हमारा

बाज़ार-ए-जहाँ में है अजब जिंस-ए-ज़बूँ हम
कोई नहीं ऐ वाए ख़रीदार हमारा

थी दावर-ए-महशर से तवक़्को सो तुझे देख
वो भी न हुआ हाए तरफ़-दार हमारा

क्यूँकर न दम-ए-सर्द भरें हम कि हर इक से
मिलता है बहुत गर्म कुछ अब यार हमारा

तुझ बिन उसे ये समझें कि है शोला-ए-दोज़ख़
गर हो गुल-ए-जन्नत गु

गफ़लत में कटी उम्र न हुश्यार हुए हम

गफ़लत में कटी उम्र न हुश्यार हुए हम
सोते ही रहे आह न बेदार हुए हम

ये बे-ख़बरी देख कि जब हम-सफ़र अपने
कोसों गए तक आह ख़बरदार हुए हम

सय्याद ही से पूछो कि हम को नहीं मालूम
क्या जानिए किस तरह गिरफ़्तार हुए हम

थी चश्म कि तू रहम करेगा कभू सो हाए
ग़ुस्से के भी तेरे न सज़ा-वार हुए हम

आता ही न उस कूचे से ताबूत हमारा
दफ़्न आख़िर उसी के पस-ए-दीवार हुए हम

ज़ख़्म-ए-कुहन अपना हुआ नासूर पे ‘रासिख़’
मरहम के किसू से न तलबगार हुए हम

ल-ए-दस्तार हमारा

‘रासिख़’ ये पस-ए-मर्ग भी हमराह रहेगा
है यार का ग़म यार-ए-वफ़ादार हमारा

ममनूँ ही रहा उस बुत-ए-काफ़िर की जफ़ा का

ममनूँ ही रहा उस बुत-ए-काफ़िर की जफ़ा का
शिकवा न किया दिल ने कभू शुक्र ख़ुदा का

आज़ा के तनासुब का न वारफ़्ता हो इतना
आँखें हैं तो रह हैरती अंदाज़ आ अदा का

हर दम है हदफ़़ नावक-ए-बेदाद का तेरी
पत्थर का कलेजा है मगर अहल-ए-वफ़ा का

ताबूत ही देखा न मिरा आँख उठा कर
क्या शर्म है कुश्ता हूँ मैं उस शर्म हो हया का

पास उस के बना दीजो मिरी आँख भी नक़्क़ाश
गर खींचे है तू नक़्श-ए-रूख़ उस हूर-लक़ा का

किस तरह मैं अब सर पे भला ख़ाक न डालूँ
देखूँ हूँ निशाँ दर पे तिरी सद कफ़-ए-पा का

किस बे-कसी की मर्ग है ‘रासिख़’ का भी मरना
नाश उस की पे कोई न हुआ महव अज़ा का

शेख ए हरम उस बुत का परस्तार हुआ है

शेख ए हरम उस बुत का परस्तार हुआ है
बुत-ख़ाना-नशीं बाँध के ज़ुन्नार हुआ है

हर हर्फ़ पे दो आँसू टपक पड़ते हैं ऐ वाए
ख़त यार को लिखना हमें दुश्वार हुआ है

कोतह न समझ आह-ए-ज़ईफ़ान को ये तीर
सौ बार दिल-ए-अर्श से भी पार हुआ है

ऐ सैद-फ़गन ग़म से तिरे दूरी के मेरा
हर ज़ख़्म-ए-दिल एक दीद-ए-ख़ूँ-बार हुआ है

हस्ती तिरी पर्दा है उठा उे उसे ग़ाफिल
क्यूँ ऐसा हिजाब-ए-रूख़-ए-दिलदार हुआ है

आगे तिरे थी गर्म-ए-सुख़न होने की हसरत
सो भरना दम-ए-सर्द भी दुश्वार हुआ है

कर क़द्र तू ‘रासिख़’ की कि इस तरह का आज़ाद
यूँ दाम में आ तेरे गिरफ़्ता

तुम्हें ऐसा बे-रहम जाना न था

तुम्हें ऐसा बे-रहम जाना न था
ग़रज़ क्या कहें दिल लगाना न था

अगर उस गली से निकलते तो फिर
दो आलम में अपना ठिकाना न था

लिया इम्तिहान-ए-वफ़ा ही में जी
हमें याँ तलक आज़माना न था

वो था कौन सा तेरा तीर-ए-सीतम
कि मैं आह उस का निशाना न था

किया किस की आँखों ने ‘रासिख़’ पे सेहर
वो आगे तो ऐसा दिवाना न था

र हुआ है

 

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