आत्मदीप
काली अंधियारी रात
भयंकर झंझावात !
वर्ष घनघोर प्रलयंकर
पूछती हूँ प्रश्न मैं घबराकर
है छुपा कहाँ आशा दिनकर?
मन ही कहता
क्यूँ भटके तू इधर उधर?
खुद तुझसे ही है आस किरन
तुझ जैसे होंगे कई भयभीत कातर
कर प्रज्ज्वलित पथ
स्वयं ही दीप बन !
दौड़ कहाँ?
सारे तीरथ करके आये
मन की थाह न ली तो क्या?
इधर उधर बाहर को दौड़े
घर की बात न की तो क्या?
हर एक को खुश करने में
खुद की ख़ुशी नहीं पहचानी
दुनिया भर को वक़्त दिया
अपनों को दिया बिसार तो क्या?
धन ,पद ,यश और काम की दौड़े
मंज़िल कभी मिली है क्या?
क्या राजा क्या रंक धरा पर
अंत सभी का एक न क्या?
प्लेनेटेरियम
प्लेनेटेरियम के कमरे भर के आकाश में
थाल भर के सूरज के चारों तरफ घूमती
प्लेट के बराबर पृथ्वी!
और उसके भी चारों तरफ घूमता
कटोरी भर का चन्द्रमा
अनगिनत तारे …
ब्रह्मांड और समय के अनंत विस्तार में
अपने अस्तित्व को ढूंढती मैं…
कहाँ हूँ मैं ?
और कहाँ हैं मेरी समस्याएं?
जिनके लिए मैंने
आकाश सिर पर उठा रखा है!