अन्तराल का मौन
कवि की वाणी
कभी मौन नहीं रहती
भीतर-ही-भीतर शब्दमय
सृजन करती है
भले ही वह सुनाई न दे
लौकिक कानों में
वह अलौकिक स्वर ।
रचनाएँ उसी की छायाएँ हैं
रंग-रेखाएँ उसी की ज्योति से
निरन्तर उपजी हैं
फिर भी मनुष्य अपने को
निरीह समझता है ।
भरे-पूरे संसार में
अकारण दुःखी रहता है
खो जाता है जहाँ भी सन्तुलन
पैर डगमगाने लगते हैं
पँख होते हुए भी
उड़ नहीं पाता ।
(अपनी मृत्यु से डेढ़ महीने पहले 01 अप्रैल 2001 को रचित)
सम्वाद — लेखनी के प्रति
जगदीश गुप्त की अन्तिम कविता
लेखनी विश्राम करती रही
रोग-निरोग का क्रम तो
चलता ही रहता है
पर लेखनी क्यों थक गई ?
अब मैं मन-ही-मन
लेखनी सम्वाद करने लगा हूँ
बहुत कुछ ऐसा है
लेखनी भी नहीं कह पाती
और वह रेखाओं में उभर आता है
पर इधर रेखाएँ चुप रहीं ।
अन्तर्लीनता के क्षण
बहुत कठिनाई तुल्य हो गए
ये भी संयोग से ही मिलते हैं ।
अब इस संयोग का
सुख लूँ तो बुरा क्या होगा
अब तो लेखनी भी चुप है
उसकी ओर से अब
मुझे ही बोलना है ।
(अपनी मृत्यु से पन्द्रह दिन पहले 2 मई 2001 को रचित)
सच हम नहीं सच तुम नहीं
सच हम नहीं, सच तुम नहीं।
सच है सतत संघर्ष ही।
संघर्ष से हटकर जिए तो क्या जिए हम या कि तुम।
जो नत हुआ वह मृत हुआ ज्यों वृन्त से झरकर कुसुम।
जो पन्थ भूल रुका नहीं,
जो हार देख झुका नहीं,
जिसने मरण को भी लिया हो जीत है जीवन वही।
सच हम नहीं, सच तुम नहीं ।
ऐसा करो जिससे न प्राणों में कहीं जड़ता रहे।
जो है जहाँ चुपचाप अपने आप से लड़ता रहे।
जो भी परिस्थितियाँ मिलें,
काँटे चुभें कलियाँ खिलें,
टूटे नहीं इनसान, बस सन्देश यौवन का यही।
सच हम नहीं, सच तुम नहीं।
हमने रचा आओ हमीं अब तोड़ दें इस प्यार को।
यह क्या मिलन, मिलना वही जो मोड़ दे मँझधार को।
जो साथ फूलों के चले,
जो ढाल पाते ही ढले,
यह ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी जो सिर्फ़ पानी सी बही।
सच हम नहीं, सच तुम नहीं।
अपने हृदय का सत्य अपने आप हमको खोजना।
अपने नयन का नीर अपने आप हमको पोंछना।
आकाश सुख देगा नहीं
धरती पसीजी है कहीं !
हए एक राही को भटककर ही दिशा मिलती रही।
सच हम नहीं, सच तुम नहीं।
बेकार है मुस्कान से ढकना हृदय की खिन्नता।
आदर्श हो सकती नहीं तन और मन की भिन्नता।
जब तक बँधी है चेतना
जब तक प्रणय दुख से घना
तब तक न मानूँगा कभी इस राह को ही मैं सही।
सच हम नहीं, सच तुम नहीं।