आम कुतरते हुए सुए से
आम कुतरते हुए सुए से
मैना कहे मुण्डेर की ।
अबकी होली में ले आना
भुजिया बीकानेर की ।
गोकुल, वृन्दावन की हो
या होली हो बरसाने की,
परदेसी की वही पुरानी
आदत है तरसाने की,
उसकी आँखों को भाती है
कठपुतली आमेर की ।
इस होली में हरे पेड़ की
शाख न कोई टूटे,
मिलें गले से गले, पकड़कर
हाथ न कोई छूटे,
हर घर-आँगन महके ख़ुशबू
गुड़हल और कनेर की ।
चौपालों पर ढोल-मजीरे
सुर गूँजे करताल के,
रूमालों से छूट न पाएँ
रंग गुलाबी गाल के,
फगुआ गाएँ या फिर बाँचेंगे
कविता शमशेर की ।
तारीख़ें बदलेंगी सन भी बदलेगा
तारीख़ें
बदलेंगी
सन् भी बदलेगा ।
सूरज
जैसा है
वैसा ही निकलेगा ।
नये रंग
चित्रों में
भरने वाले होंगे,
नई कहानी
कविता
नये रिसाले होंगे,
बदलेगा
यह मौसम
कुछ तो बदलेगा ।
वही
प्रथाएँ
वही पुरानी रस्में होंगी,
प्यार
मोहब्बत —
सच्ची, झूठी क़समें होंगी,
जो इसमें
उलझेगा
वह तो फिसलेगा ।
राजतिलक
सिंहासन की
तैयारी होगी,
जोड़- तोड़
भाषणबाजी
मक्कारी होगी,
जो जीतेगा
आसमान
तक उछलेगा ।
धनकुबेर
सब पेरिस
गोवा जाएँगे,
दीन -हीन
बस
रघुपति राघव गाएँगे,
बच्चा
गिर-गिर कर
ज़मीन पर सम्हलेगा ।
बहुत दिनों से इस मौसम को
बहुत दिनों से
इस मौसम को
बदल रहे हैं लोग ।
अलग-अलग
खेमों में बँटकर
निकल रहे हैं लोग ।
हम दुनिया को
बदल रहे पर
ख़ुद को नहीं बदलते,
अन्धे की
लाठी लेकर के
चौरस्तों पर चलते,
बिना आग के
अदहन जैसे
उबल रहे हैं लोग ।
धूप, कुहासा,
ओले, पत्थर
सब जैसे के तैसे,
दुनिया पहुँची
अन्तरिक्ष में
हम आदिम युग जैसे,
नासमझी में
जुगनू लेकर
उछल रहे हैं लोग ।
गाँव सभा की
दूध, मलाई
परधानों के हिस्से,
भोले भूखे
बच्चे सोते
सुन परियों के क़िस्से,
ईर्ष्याओं की
नम काई पर
फिसल रहे हैं लोग ।
हिंसा, दंगे
राहजनी में
उलझी है आबादी,
कितनी क़समें
कितने वादे
सुधर न पाई खादी,
नागफ़नी वाली
सड़कों पर
टहल रहे हैं लोग ।
तब साथी मंगल पर जाओ
धरती की
उलझन सुलझाओ ।
तब साथी
मंगल पर जाओ ।
दमघोंटू
शहरों से ऊबे,
गाँव अँधेरे में
सब डूबे,
सारंगी लेकर
जोगी-सा
रोशनियों के
गीत सुनाओ ।
जाति-धरम
रिश्तों के झगड़े,
पत्थर रोज़
बिवाई रगड़े,
बाजों के
नाख़ून काटकर
चिड़ियों को
आकाश दिखाओ ।
नीली, लाल
बत्तियाँ छोड़ो,
सिंहासन से
जन को जोड़ो,
गागर में
सागर भरने में
मत अपना
ईमान गिराओ ।
मंगल पर
मत करो अमंगल,
वहाँ नहीं
यमुना, गंगाजल,
विश्व विजय
करने से पहले
ख़ुद को
तुम इन्सान बनाओ ।