क्या सरोकार अब किसी से मुझे
क्या सरोकार अब किसी से मुझे
वास्ता था तो था तुझी से मुझे
बे-हिसी का भी अब नहीं एहसास
क्या हुआ तेरी बे-रूख़ी से मुझे
मौत की आरज़ू भी कर देखो
क्या उम्मीदें थीं जिंदगी से मुझे
फिर किसी पर न ए‘तिबार आए
यूँ उतारो न अपने जी से मुझे
तेरा ग़म भी न हो तो क्या जीना
कुछ तसल्ली है दर्द ही से मुझे
कितना पुरकार हो गया हूँ कि था
वास्ता तेरी सादगी से मुझे
कर गए किस क़दर तबाह ‘ज़िया’
दुश्मन अंदाज़-ए-दोस्ती से मुझे
जब उन्ही को न सुना पाए ग़म-ए-जाँ अपना
जब उन्ही को न सुना पाए ग़म-ए-जाँ अपना
चुप लगी ऐसी कि ख़ुद हो गए ज़िंदाँ अपना
ना-रसाई का बयाबाँ है कि इरफ़ाँ अपना
इस जगह अहरमन अपना है न यज़्दाँ अपना
दम की मोहलत में है तस्ख़ीर-ए-मह-ओ-मेहर की धुन
साँस इक सिलसिला-ए-ख़्वाब-ए-दरख़्शाँ अपना
तलब उस की है जो सरहद-ए-इम्काँ में नहीं
मेरी हर राह में हाइल है बयाबाँ अपना
कैसी दूरी उसी शोले की है ज़ौ मेरा जमाल
जिस से ताबिदा रहा दीदा-ए-गिर्यां अपना
अर्मुंगाँ हैं तिरी चाहत के शगुफ़्ता लम्हे
बे-ख़ुदी अपनी शब अपनी मह-ए-ताबाँ अपना
इस तरह अक्स पड़ा तेरे शफ़क़ होंटों का
सुब्ह-ए-गुलज़ार हुआ सीना-ए-वीराँ अपना
ऐसी घड़ियाँ कई मुझ ऐसों पे आई होंगी
वक़्त ने जिन से सजा रक्खा है ऐवाँ अपना