चाहत
दिवस मास बीतते रहे
रंग और गुलाल के लिए
चाहत थी
सुबह दोपहर कभी
रंगभरा ! क्षण हमें मिले
चट्टानों बीच
किसी सन्धि में
कोई मनहर सुमन खिले
पर कोमल दूब छोड़, हम
भागे शैवाल के लिए
होता है रक्त और गुलाल का
बाहर से
रंग एक सा
किन्तु
एक विषभरा भुजंग है
एक प्यार में रचा बसा
चलो, दृष्टि स्वच्छ हम करें
तीक्ष्ण अन्तराल के लिए
हम न कभी तपकर
आकाश में छाँहभरी बदली बने
खिल देख-देख
खिलखिला सकें
हम न कभी वह कली बने
और समाधान टल गए
एक और साल के लिए
याद
इस जगह आकर पुराने दिन
याद फिर से आ रहे हैं
पैठ की सहजात भीड़े
और मेले
खो गए
पूर्वाग्रही से अन्धड़ों में
खा रही है प्राण को दीमक निरन्तर
आज पीपल और तुलसी की जड़ों में
वे खुले गोबर लिपे आँगन
हर पहर बतिया रहे हैं
शोर में डूबे नगर में
उग रहे हैं
अनवरत कँक्रीट के
जंगल असीमित
बढ़ रहा है इन अन्धेरे जंगलों में
हर तरफ़ विकराल दावानल अबाधित
लौट जाने के लिए अनगिन
भाव अब बहुरा रहे हैं
इस तरह अब चल पड़ी
पछुआ हवाएँ
देह-मन दोनों
दरकते जा रहे हैं
जामुनी मुस्कान, आमों की मिठासें
सभ्यतम संकेत ढकते जा रहे हैं
सावनी धन के हज़ारों ऋण
आँख को बिरमा रहे हैं
झुलसी धरती
साधो
सूख गया गंगाजल
धरती झुलसी है
नहीं कहीं अब
श्वेतपंख की पाँते हैं
नहीं रजतवर्णी मीनों की बातें हैं
लोग गुमे आभूषण अर्पित मुद्राएँ
यहाँ पत्थरों बीच खोजने आते हैं
लोगों की श्रद्धा भी
अब ढुलमुल-सी है
घाट-घाट पर
आसन लोग जमाए हैं
किन्तु प्यास बढ़ रही होंठ पपड़ाए हैं
द्रवित न कोई हदय यहाँ हो पाता है
और न पालन होती मर्यादाएँ हैं
तीर्थभूमि भी
हुई स्वार्थसंकुल-सी है
कल की बात हो गई
संझा बाती है
निष्ठा डगमग-डगमग पाँव बढ़ाती है
सतियों वाली चौकपुरी अँगनाई भी
सम्वेदना हदय में नहीं जगाती है
भूले हम आरती
उपेक्षित तुलसी है
अवकाश नहीं
सूख रहा कण्ठ
होंठ पपड़ाए
लेकिन
अँजुरी भरने का अवकाश नहीं मिलता है
नीर-भरे कूलों को नमस्कार
भाग रहे हैं
अनगिन व्यस्त गली-कूचों में
चौराहों-मोड़ों पर
भीड़ों के बीच कई एकाकीपन
मन से अनजुड़े हुए तन
कभी सघन छाँह देख
ललक-ललक जाता हूँ
मन होता ठहरूँ
विश्राम करूँ
लेकिन
कहीं ठहरने का अवकाश नहीं मिलता है
सतरंगे दुकूलों को नमस्कार
सारे अनुकूलों को नमस्कार
एक घुटन होती है
बादल के मन-सी
कुहरे की परतों में बन्दिनी किरन-सी
गन्धों की गोद पले गीतों के सामने
चटखते दरारों वाले मन जब
दौड़े आते है कर थामने
कभी-कभी मन होता
फेंक दूँ उतारकर विवशता में पहना यह
कण्ठहार
गन्धहीन काग़ज़ का
लेकिन
मन की करने का अवकाश नहीं मिलता है
गन्धप्राण फूलों को नमस्कार
बौराई भूलों को नमस्कार
फगुनाए दिन
तुम आए
तो सुख के फिर आए दिन
बिन फागुन ही अपने फगुनाए दिन
पोर-पोर ऊर्जा से भरा देह-मन
निमिष-निमिष के
हलके हो गए चरण
उतर गई प्राणों तक
भोर की किरण
हो गए गुलाबी फिर सँवलाए दिन
हो गई बयार
इस प्रकार मनचली
झूमने लगी फुलवा बन कली-कली
भोर साँझ दुपहर
मन मोहने लगी
धूप-धूल से लिपटे भी भाए दिन
गुरु-दीक्षा
सद्गुरु गंगातट आए हैं
आओ जीवन धन्य बना लो
जिन्हें न गुरु मिल पाता
उनको कहते हैं सब लोग निगोड़े
ऊपर जाकर सहने पड़ते
उनको यमदूतों के कोड़े
गहकर गुरु की शरण
स्वयं को महादण्ड से आज बचा लो
अहोभाग्य गुरु स्वयं आ गए
करने को कल्याण तुम्हारा
किसे पता है
मिले ना मिले यह अवसर फिर तुम्हें दुबारा
गया समय फिर हाथ न आता
दीक्षा लेकर पुण्य कमा लो
देख-देख हर कर्मकाण्ड में
प्रतिदिन होती लूट यहाँ पर
कृपासिन्धु गुरु जी ने
दीक्षा में दी भारी छूट यहाँ पर
मिली छूट का
समझदार बन इसी समय शुभ लाभ उठा लो
एक नारियल,
पंचवस्त्र के संग पंचमेवाएँ लेकर
और पंच मिष्ठान्न, पंचफल,
पंचशती मुद्राएँ लेकर
सद्गुरु के श्रीचरणों पर
अर्पित कर कृपा-अनुग्रह पा लो
शरणागत पा तुम्हें
कान में मन्त्र तुम्हारे वह फूकेंगे
तीन लोक में
सात जन्म तक वह तुमको संरक्षण देंगे
सद्गुरु तथा शिष्य का नाता
अपने हित के लिए निभा लो
डरो नहीं
जीते हो जैसे जीवन वैसे ही जी लेना
शिष्यों की जीवन-शैली से
उन्हें नहीं कुछ लेना-देना
विगत-अनागत दोनों के ही
सभी कर्मफल क्षमा करा लो ।
पुण्य-पर्व
आने वाली शिवतेरस है
शिव के श्रवणकुमार जा रहे
सजी सुगढ़ काँवड़ काँधे हैं
शॉर्ट कैपरी हैं केसरिया
पाँवों में घुँघरू बाँधे हैं
मुँह में रखे भाँग के गोले
बोल रहे हैं बम-बम भोले
कभी नाचते हैं मस्ती में
चलते में लेते हिचकोले
बरस रहा नभ से
बादल बन शिव की
सरस भक्ति का रस है
भक्तिभाव से
गंगातट पर आकर वे
जल भर ले जाते
किन्तु पुरानी काँवड़, कपड़े
गंगाजी के बीच सिराते
पतितपावनी गंगा मैया
इनका भी उद्धार करेंगी
नहीं सोचते
जल में वे सब कितना
अधिक विकार भरेंगी
नासमझी से
मिलता गंगामाता को
कितना अपयश है
भक्त वहाँ कुछ ऐसे भी हैं
जो मन बहलाने को आते
जगह-जगह सत्कार देखकर
मस्ती करते, मौज़ मनाते
एक जेब में पव्वा रखते
एक जेब में पिसी भाँग है
काँवड़ या केसरिया कपड़े
केवल नाटक और स्वाँग है
तप का भाव नहीं है मन में
करनी उनकी
जस-की-तस है
यह श्रावण का पुण्य पर्व है
चाहो अगर परमपद पाना,
विल्वपत्र के संग-संग तुम
आधा कुन्तल दूध चढाऩा
रोगी बच्चा
झोंपड़पट्टी में चाहे भूखा मर जाए
या श्रम करती माँ का
बेटा एक घूँट पय को ललचाए
सबकी अपनी-अपनी क़िस्मत
नहीं नियति पर चलता बस है ।
कथावाचिका
रामकथा करने आई हैं
कथावाचिका मथुरावासी
वह उपवास-निरत रहती हैं
अन्न-त्याग का तप करती हैं
केले, सेब, अनार, आम हों
काजू, किशमिश हों, बादाम हों
दुग्ध संग में हो तो उत्तम
रहती हैं वह सदा उपासी
कथावाचिका मथुरावासी
गंगाजल से स्नान करेंगी
तदुपरान्त वह ध्यान करेंगी
जल में दूध-दही मिश्रित हो
पुष्पसार से वह सुरभित हो
ऐसा है व्यक्तित्व
कि लगती हैं पूनम की चन्द्रकला-सी
कथावाचिका मथुरावासी
एक पहर में
तीस मिनट की ही केवल वह
कथा सुनातीं
शेष समय में स्वर-लहरी से
हाव-भाव से रस बरसातीं
भीग-भीगकर जनता फिर भी
रह जाती प्यासी की प्यासी
कथावाचिका मथुरावासी
समझाती हैं — कर्म तुम्हारे
ईश्वर आठों याम निरखता
कृपा-अनुग्रह से पहले
वह भक्तों की पात्रता परखता
फिर कहती हैं —
हुई आजकल दुनिया धन साधन की दासी
कथावाचिका मथुरावासी
धन-आभूषण
उन्हें भेंट में जब कोई देता श्रद्धा से
उसे ग्रहण कर मुस्काती हैं
वह आशीर्वाद-मुद्रा से
एक पहर सेवा को
उत्सुक रहते ऊँचे भवन-निवासी
कथावाचिका मथुरावासी ।
तीर्थाटन
अबकी बार हुआ मन
हम भी तीर्थाटन करने जाएँगे
गंगाजी के तट पर
होटल कई-कई मंज़िल वाले हैं
एयरकण्डीशण्ड कक्ष में
टी० वी० हर चैनल वाले हैं
हर प्रकार की सी० डी० मिलतीं
जो कुछ चाहेंगे, देखेंगे,
घूमेंगे, दृश्यों का पूरा हम आनन्द वहाँ पर लेंगे
इस अवसर का लाभ उठाकर
हल्का मन करने जाएँगे
कमरों में
हो जाता हैं उपलब्ध वहाँ पर हर सुख-साधन
एक कॉल पर
आ जाता है सामिष तथा निरामिष भोजन
मनचाहा खाने-पीने को
हम होंगे स्वच्छन्द वहाँ पर
शब्द स्पर्श रस रूप गन्ध का
होगा हर आनन्द वहाँ पर
इस जीवन पर नए सिरे से
हम मंथन करने जाएँगे
यहाँ दृष्टि में दकियानूसी लोगों की
रहता है संशय
माँ गंगा की सुखद गोद में
बिता सकेंगे जीवन निर्भय
कुछ भी पहनेंगे-ओढ़ेंगे
वहाँ न कोई बन्धन होगा
वहाँ पहुँचने पर
हम दोनों वही करेंगे जो मन होगा
मन का भार उतार
वहाँ हम मनरंजन करने जाएँगे
गंगास्नान करेंगे
भीतर वही चेतना भी भर देंगी
वह तो पतित पावनी माँ हैं
हर अपराध क्षमा कर देंगी
जब मन्दिर जाकर
श्रद्धा से शीश नवाएँगे हम दोनों
तीर्थाटन का लाभ
सहज ही फिर पा जाएँगे हम दोनों
मनरंजन के संग
सफल हम यह जीवन करने जाएँगे ।
क्षमादान
जी, हम हैं पण्डे पुश्तैनी
दर्ज बही में अपनी
देखो परदादा का नाम तुम्हारे
संस्कार करवाने आते
पूर्वज यहीं तुम्हारे सारे
हमें ज्ञान है हर निदान का
पाप- ताप के क्षमादान का
तभी यहाँ आते रहते हैं
बौद्ध, समाजी, वैष्णव, जैनी
हमें पता हर सीधा रस्ता
हम हैं ईश्वर के अधिवक्ता
ऐसा सुगम उपाय पुण्य का
कोई तुमको बता न सकता
कई पीढ़ियों को है तारा
करना यह विश्वास हमारा
कुछ भी करो साल भर चाहे
मन में मत लाना बेचैनी
क्यों चिन्ता में डूबे रहते हो यजमान
जागते- सोते
थोड़ा जीवन शेष
बिताते क्यों उसको यूँ रोते-धोते
हम ऐसा विनियोग करेंगे
दूर दोष-भय-रोग करेंगे
वहाँ न काम करेगी
गीता, रामायण या कथा, रमैनी
पिछले-अगले कई जन्म का
ऐसा समाधान है हम पर
शान्ति उन्हें भी हम दे सकते
जिनका है उपचार न यम पर
हम ब्रह्मास्त्र चला सकते हैं
भवनिधि पार करा सकते हैं
काम न भारी बुलडोजऱ का
करती कभी हथौड़ी-छैनी
कृपा-प्राप्ति के लिए
त्याग भी कुछ करना पड़ता है साधो !
सबकुछ यहीं पड़ा रह जाना
फिर क्यों सिर पर गठरी लादो
जब चाहो गंगातट आना
श्रद्धा से कुछ भेंट चढ़ाना
पा जाओगे
पुण्य- लाभ की हम से सीधी-सुगम नसैनी ।