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शकेब जलाली की रचनाएँ

आकर गिरा था कोई परिंदा लहू में तर

आकर गिरा था कोई परिंदा लहू में तर ।
तस्वीर अपनी छोड़ गया है चट्टान पर ।

मलबूस (वस्त्र) ख़ुशनुमा हैं मगर जिस्म खोखले,
छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर ।

हक़ बात आके रुक सी गई थी कभी ‘शकेब’
छाले पड़े हुए हैं अभी तक ज़बान पर ।

आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे

आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पसे-दीवार गिरे

ऐसी दहशत थी फ़िज़ाओं में खुले पानी की
आँख झपकी भी नहीं हाथ से पतवार गिरे.

मुझको गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
जिस तरह सायंए-दीवार पे दीवार गिरे

तीरगी छोड़ गई दिन में उजाले के खुतूत
ये सितारे मेरे घर टूट के बेकार गिरे.

देख कर अपने दरो-बाम लरज़ उठता हूँ
मेरे हमसाये में जब भी कोई दीवार गिरे

उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ

उतर के नाव से भी कब सफ़र तमाम हुआ,
ज़मीं पे पाँव धरा तो ज़मीन चलने लगी ।

जो दिल का ज़हर था काग़ज़ पर सब बिखेर दिया,
फिर अपने आप तबियत मिरी संभलने लगी ।

जहाँ शज़र पे लगा था तबर का ज़ख़्म ‘शकेब’
वहीँ पे देख ले कोंपल नई निकलने लगी ।

उतरीं अजीब रोशनियाँ रात ख़्वाब में 

उतरीं अजीब रोशनियाँ रात ख़्वाब में
क्या क्या न अक्स तैर रहे थे सराब में

[अक्स = प्रतिबिम्ब]

कब से हैं एक हर्फ़ पे नज़रें जमीं हुईं
वो पढ़ रहा हूँ जो नहीं लिक्खा किताब में

[हर्फ़ = अक्षर]

फिर तिरगी के ख़्वाब से चौंका है रास्ता
फिर रौशनी-सी दौड़ गई है सहाब में

[तीरगी = अंधेरा; सहाब = बादल]

पानी नहीं कि अपने ही चेहरे को देख लूँ
मन्ज़र ज़मीं के ढूँढता हूँ माहताब में

[मन्ज़र = नज़ारा; माहताब = चांद]

कब तक रहेगा रूह पे पैराहन-ए-बदन
कब तक हवा असीर रहेगी हुबाब में

[रूह =आत्मा; पैराहान-ए-बदन = कपडे जैसा बदन]
[असीर = असर ; हुबाब = बुलबुला]

जीने के साथ मौत का डर है लगा हुआ
ख़ुश्की दिखाई दी है समन्दर को ख़्वाब में

[ख़ुश्की = सुखापन]

एक याद है कि छीन रही है लबों से जाम
एक अक्स है कि काँप रहा है शराब में

खामोशी बोल उठे, हर नज़र पैगाम हो जाये

ख़मोशी बोल उठे, हर नज़र पैग़ाम हो जाये
ये सन्नाटा अगर हद से बढ़े, कोहराम हो जाये

सितारे मशालें ले कर मुझे भी ढूँडने निकलें
मैं रस्ता भूल जाऊँ, जंगलों में शाम हो जाये

मैं वो आदम-गजीदा[1] हूँ जो तन्हाई के सहरा में
ख़ुद अपनी चाप सुन कर लरज़ा-ब-अन्दाम हो जाये

मिसाल ऎसी है इस दौर-ए-ख़िरद के होशमन्दों की
न हो दामन में ज़र्रा और सहरा नाम हो जाये

शकेब अपने तआरुफ़ के लिए ये बात काफ़ी है
हम उससे बच के चलते हैं जो रास्ता आम हो जाये

गले मिला न कभी चाँद बख्त ऐसा था

गले मिला न कभी चाँद बख़्त ऐसा था
हरा भरा बदन अपना दरख़्त ऐसा था

सितारे सिसकियाँ भरते थे ओस रोती थी
फ़साना-ए-जिगर लख़्त-लख़्त ऐसा था

ज़रा न मोम हुआ प्यार की हरारत से
चटख के टूट गया, दिल का सख़्त ऐसा था

ये और बात कि वो लब थे फूल-से नाज़ुक
कोई न सह सके, लहजा करख़्त ऐसा था

कहाँ की सैर न की तौसन-ए-तख़य्युल पर
हमें तो ये भी सुलेमान* के तख़्त ऐसा था

इधर से गुज़रा था मुल्क-ए-सुख़न का शहज़ादा
कोई न जान सका साज़-ओ-रख़्त ऐसा था

जहाँ तलक भी ये सेहरा दिखाई देता है

जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
मेरी तरह से अकेला दिखाई देता है

न इतना तेज़ चले सर-फिरी हवा से कहो
शजर पे एक ही पत्ता दिखाई देता है

बुरा न मानिये लोगों की ऐब-जूई का
इन्हें तो दिन का भी साया दिखाई देता है

ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ- कहाँ बरसे
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है

वो अलविदा का मंज़र वो भीगती पलकें
पस-ए-ग़ुबार भी क्या क्या दिखाई देता है

मेरी निगाह से छुप कर कहाँ रहेगा कोई
के अब तो संग भी शीशा दिखाई देता है

सिमट के रह गये आख़िर पहाड़- से क़द भी
ज़मीं से हर कोई ऊँचा दिखाई देता है

ये किस मक़ाम पे लाई है जुस्तजू तेरी
जहाँ से अर्श भी नीचा दिखाई देता है

खिली है दिल में किसी के बदन की धूप “शकेब”
हर एक फूल सुनहरा दिखाई देता है

जाती है धूप उजले परों को समेट के

जाती है धूप उजले परों को समेट के ।
ज़ख्मों को अब गिनूँगा मैं बिस्तर पे लेट के ।

मैं हाथ की लकीरें मिटाने पे हूँ बज़िद
गो जानता हूँ हर्फ़ नहीं ये सिलेट के ।

दुनिया को कुछ ख़बर नहीं क्या हादसा हुआ
फेंका था उसने संग गुलों में लपेट के ।

फ़ौवारे की तरह न उगल दे हरेक बात
कम-कम वो बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के ।

इक नुक़रई खनक के सिवा क्या मिला शकेब
टुकड़े ये मुझसे कहते हैं टूटी पलेट के ।

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