थी अन्धेरी रात, और सुनसान था
थी अन्धेरी रात और सुन्सान था,
और फैला दूर तक मैदान था;
जंगल भी वहाँ था,
जनवर का गुमाँ था,
बादल था गरजता,
बिजली थी चमकती,
वो बिजली की चमक से रौशनी होती भयंकर सी।
ईश्वर के जमाल का नमूना वाँ था,
ईश्वर के कमाल का ख़ज़ाना वाँ था।
दरख़तों पर जो बिजली की चमक पड़ती अन्धेरे मे,
डालों के तले,
पत्तों में हो कर,
तो यह मालूम होता जैसे हो वह सख़्त घेरे में।
थी अन्धेरी रात, और सुनसान था
थी अन्धेरी रात और सुन्सान था,
और फैला दूर तक मैदान था;
जंगल भी वहाँ था,
जनवर का गुमाँ था,
बादल था गरजता,
बिजली थी चमकती,
वो बिजली की चमक से रौशनी होती भयंकर सी।
ईश्वर के जमाल का नमूना वाँ था,
ईश्वर के कमाल का ख़ज़ाना वाँ था।
दरख़तों पर जो बिजली की चमक पड़ती अन्धेरे मे,
डालों के तले,
पत्तों में हो कर,
तो यह मालूम होता जैसे हो वह सख़्त घेरे में।
पहाड़ी ऊँची एक दक्षिण दिशा में
पहाड़ी ऊँची एक दक्षिण दिशा में
खड़ी थी सर उटःआए आस्माँ में;
बलाग़त से, हिमाक़त में खड़ी थी,
दरख़्तों के गले में एक लड़ी थी।
करुणामय परमेश्वर की वह पहाड़ी भी ज्योति प्रकाशक थी,
अजीब, अनेत, अभाष्य अगर थी तो भी लख गुण गायक थी।
नहीं वक़्त का डर, नहीं ख़ौफ़ अजल, वह पहाड़ी खड़ी की खड़ी ही रहेगी,
हज़ारों मरे हैं, हज़ारों मरेंगे, पहाड़ी अड़ी की अड़ी ही रहेगी।
इस लिए मौत का नहीं कोई डर,
बैठ जाता है उन मनुष्यों पर
जाके पर्वत सो हर वी पहाड़ ही धाई बने हैं।
और एक झरना बहुत शफ़्फ़ाफ़ था
और एक झरना बहुत शफ़्फ़ाक था,
बर्फ़ के मानिन्द पानी साफ़ था,-
आरम्भ कहाँ है कैसे था वह मालूम नहीं हो:
पर उस की बहार,
हीरे की हो धारा,
मोती का हो गर खेत,
कुन्दन की हो वर्षा,
और विद्युत की छटा तिर्छी पड़े उन पै गर आकर,
तो भी वह विचित्र चित्र सा माकूल न हो।
ठनके की ठनक से
ठनके की ठनक से,
बिजली की चमक से,
वायु की लपक से,
फूलों की महक से,
वह वन में दीख पड़ता था अजाएब सा भयानक हुस्न।
झरने की बड़ बड़ाहट,
पत्तों की शनशनाहट,
कड़के की कड़कड़ाहट,
करती थीं हड़हड़ाहट,
लड़ती थी आपुस में ईश्वर की कीर्तियाँ सब।
थी उजाला ज़री न उस वन में,
थी अन्धेरी चमक वह कानन में,
थी ज़मीं मस्त काले जौबन में,
घोर रुपि निशा थी गुलशन में,
नहीं सूर्य देव उस धूप को कभी चमका सक्ते चमका सक्ते,
दामिनी दमके, चपला चमके नहीं इन्द्र उसे चमका सक्ते,
महिमा ईश्वर की प्रगट इससे
कहाँ पायेंगे हम, कहाँ पायेंगे हम।