आपकी याद आती रही रात भर
मख़दूम[1] की याद में-1
“आपकी याद आती रही रात-भर”
चाँदनी दिल दुखाती रही रात-भर
गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई
शम-ए-ग़म झिलमिलाती रही रात-भर
कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन[2]
कोई तस्वीर गाती रही रात-भर
फिर सबा[3] सायः-ए-शाख़े-गुल[4] के तले
कोई क़िस्सा सुनाती रही रात-भर
जो न आया उसे कोई ज़ंजीरे-दर[5]
हर सदा पर बुलाती रही रात-भर
एक उमीद से दिल बहलता रहा
इक तमन्ना सताती रही रात-भर
मास्को, सितंबर, 1978
सब क़त्ल होके
सब क़त्ल होके तेरे मुक़ाबिल से आये हैं
हम लोग सुर्ख-रू हैं कि मंजिल से आये हैं
शम्मए नज़र, खयाल के अंजुम, जिगर के दाग़
जितने चिराग़ हैं तेरी महफ़िल से आये हैं
उठकर तो आ गये हैं तेरी बज़्म से मगर
कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आये हैं
हर इक क़दम अज़ल था, हर इक ग़ाम ज़िन्दगी
हम घूम-फिर के कूचा-ए-क़ातिल से आये हैं
बादे-ख़िज़ां का शुक्र करो फ़ैज़ जिसके हाथ
नामे किसी बहार-शमाइल से आये हैं
शाख़ पर ख़ूने-गुल रवाँ है वही
शाख़ पर ख़ूने-गुल रवाँ है वही
शोख़ी-ए-रंगे-गुलसिताँ है वही
सर वही है तो आस्ताँ[1] है वही
जाँ वही है तो जाने-जाँ है वही
अब जहाँ मेहरबाँ नहीं कोई
कूचः-ए-यारे-मेहरबाँ है वही
बर्क़[2] सौ बार गिरके ख़ाक हुई
रौनक़े-ख़ाके-आशियाँ है वही
आज की शब विसाल की शब है
दिल से हर रोज़ दासताँ है वही
चाँद-तारे इधर नहीं आते
वरना ज़िंदाँ में आसमाँ है वही
मांटगोमरी जेल
शफ़क़ की राख में
शफ़क़ की राख में जल-बुझ गया सितारा-ए-शाम
शबे-फ़िराक़ के गेसू फ़ज़ा में लहराये
कोई पुकारो कि इक उम्र होने आयी है
फ़लक़ को क़ाफ़िला-ए-रोज़ो-शाम ठहराये
ये ज़िद है यादे-हरीफ़ाने-बादा पैमां की
कि शब को चांद न निकले, न दिन को अब्र आये
सबा ने फिर दरे-ज़िंदां पे आ के दी दस्तक
सहर क़रीब है, दिल से कहो न घबराये